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प्रवासी लेखक >> परिक्रमा

परिक्रमा

बलदेव सिंह ग्रेवाल

प्रकाशक : नटराज प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6402
आईएसबीएन :81-85979-33-2

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पंजाबी उपन्यास ‘परिकरमा’ का डॉ सुधा ओम ढींगरा द्वारा अनुवादित रूप- ‘परिक्रमा’

Parikrama a hindi book by Baldev Singh Grewal -परिक्रमा - बलदेव सिंह ग्रेवाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनुवादिका - डॉ सुधा ओम ढींगरा

बलदेव ग्रेवाल का उपन्यास ‘परिक्रमा’ बहुत रुचिकर एवं गल्प-विधा से प्रभावित चैतन्य उपन्यास है। इसकी विधि पारंपरिक उपन्यासों जैसी नहीं है, न ही इसमें व्यर्थ का विस्तार है। सम्पूर्ण उपन्यास एक संयम में बँधा हुआ है, पर उसके अन्दर का विस्तार फैला हुआ है।
इस उपन्यास के कथानक की एक ‘परिक्रमा’ होती है। इस परिक्रमा की कई तहें, कई परतें हैं। मुख्य पात्र तीस वर्ष बाद विदेश से अपने गाँव लौटता है। एक परिक्रमा यह भी है। एक परिक्रमा उसके बाहर से अन्दर की है, जिससे इस उपन्यास की मनोवैज्ञानिक परतें बनती हैं। ये परतें ही इसको रुचिकर भी बनाती हैं और एक अलग तरह की गल्प-विधि भी प्रदान करती हैं।
यह उपन्यास अपनी गल्प-दृष्टि से प्रभावित करता है और मुझे उम्मीद है कि उपन्यास के पाठक इसी चेतना के साथ इस उपन्यास का स्वागत करेंगे।

सतिन्द्र सिंह नूर

‘परिक्रमा’ बलदेव सिंह ग्रेवाल की गहरी मानवीय संवेदना में भीग कर सृजन की गई ऐसी यादगारी रसिक रचना है, जिसमें टूटते-जुड़ते रिश्तों का प्रमाणिक संसार है। मानव मन के बहु रंग हैं, स्वप्न और यथार्थ के मध्य टूटते मनुष्य की दुःखान्त विडम्बना है। यह एक ऐसा सहज, सरल, संजीदा और रुचिकर वृत्तांत है जिसमें भाषा का सूर्य और काव्य-तरलता वाला वेगवत बहाव, सचेत एवं सहृदय पाठकों को एकदम अपने साथ जोड़ कर चला लेता है और फिर पता ही नहीं चलता कि पाठक कब इस रचना में स्वयं को घुलमिल जाता है कि वह स्वयं अपने आपको इस रचना-संसार का जीवन्त अंग समझने लग पड़ता है।

वरियाम सिंह संधू

समर्पण

पंजाब की सभ्यता, पंजाब की संस्कृति एवं पंजाब की मिट्टी के नाम.... जिसकी महक विदेश में भी मेरे तन-मन में समायी है।
सुधा ओम ढींगरा

भूमिका


मैंने अभी मैनहेट्टन (न्यूयार्क) स्थिति 10, वाटर साइड प्लाजा की इक्कीसवीं मंजिल की खिड़की के पास बैठे हुए कुछ घंटों में बलदेव सिंह ग्रेवाल के उपन्यास ‘परिक्रमा’ को पढ़कर समाप्त किया है। डॉ. सुधा ओम ढींगरा ने इसे पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद किया है और उन्होंने ही कृपा करके इसकी हिन्दी पाण्डुलिपि मेरे पास भेजी है। मैं उनका कृतज्ञ हूँ उन्होंने मुझे अमेरिका में रहने वाले एक प्रवासी भारतीय की गहन त्रासदी से साक्षात्कार करने का अवसर प्रदान किया। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मैं इसमें इतना खो गया कि अपनी खिड़की से नजर आने वाला मैनहेट्टन का भव्य विस्तार कथानक के गांव के रूप में दिखायी देने लगा और ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मैं उसके जीवन के हर प्रसंग को घटित होते देख रहा हूँ और उनका साक्षी हूँ। किसी भी उपन्यास की पहली कसौटी यही है कि वह पाठक को अपने में समा लें और पाठक अपने अस्तित्व को विस्मृत करके रचनामय हो जाये। यही भारतीय काव्य-शास्त्र की साधारणीकरण है जो पाठक को रचनामय तथा रचना को पाठकमय बना देता है।
इस उपन्यास का नामकरण इस दृष्टि से सार्थक है कि इसका कथानक पंजाब के एक गाँव से चलकर अमेरिका आता है और फिर वह गाँव लौटकर अपनी स्मृतियों के द्वारा अपने जीवन की दर्द-भरी कहानी कहता है। यह एक प्रकार से भारत से अमेरिका तथा अमेरिका से भारत की यात्रा ही परिक्रमा है, परन्तु इसमें उस जीवन की भी परिक्रमा है। वह अपने जीवन के लगभग साठ वर्षों के जीवन को एक-एक करके पुनः जीता है, और इस प्रकार वह अपने जीवन की परिक्रमा ही करता है। इस परिक्रमा का रंगमंच उसका गाँव है, उसकी माँ है, बाप है, कमल है, जीजो है, ओंकार है और इस जीवन की वे स्मृतियाँ हैं जो उसे पल-पल व्यथित करती हैं। उपन्यासकार ने इस कथा में आम के वृक्ष को भी जोड़कर अपने शिल्प-कौशल के साथ सम्वेदनाओं को अभिव्यक्त करने का एक सहारा ढूँढ़ा है जो कथानायक की सम्वेदनाओं को और भी धनीभूत करता है। असल में यह एक असफल प्रेम-कहानी है जो अपनी असफलता के बावजूद उपन्यास के अन्त में व्यथा की चादर को कुछ हल्का कर देती है।। कमल एक सती-साध्वी स्त्री कहलाती है और अपने प्रेमी से बिछड़कर भी उसमें लेखक ने किसी दर्द की अभिव्यक्ति नहीं की है। वह अपने बेटे को, जो कथानक से उत्पन्न था, योग्य बनाती है और कहीं यह ज़ाहिर नहीं होने देती कि वह उसके पति की सन्तान नहीं है। कथानक भी अन्त में अपनी प्रेमिका कमल की इस उपलब्धि से आश्चर्यचकित है, पर अन्दर उसके प्रसन्नता भी है। लेखक ने उपन्यास का अन्त उसे दुविधा में दिखाकर किया है कि वह कमलसे मिले या न मिले। पाठक इससे मान लेता है कि कथानक अवश्य ही कमल से नहीं मिला होगा, क्योंकि वह कमल के सुखी जीवन में कोई तूफान नहीं चाहेगा।

मेरे विचार में ‘परिक्रमा’ एक मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी उपन्यास है। इस उपन्यास में पंजाब के गाँवों का लोक-जीवन साकार हो उठा है और इसके लेखक का रचना-कौशल यह है कि उसने बड़ी सरल भाषा में इस लोक-जीवन का वास्तविक स्वरूप अंकित कर दिया है। उपन्यास की कथा-रचना, घटनाओं की सृष्टि तथा पात्रों के रूप–स्वभाव तथा चरित्र की उद्भावना एकदम याथार्थपूर्ण है। डॉ. सुधा ओम ढींगरा ने इसका अनुवाद बहुत ही कुशलता से किया है तथा पंजाब के भाषा-सौंदर्य को बनाये रखा है। मेरे विचार में अनुवाद मूल सृजन से भी कठिन कार्य है। अनुवाद में अनुवादक को मूल सृजन की अनुभूतियों से तो गुज़रना पड़ता ही है, साथ ही उसे दूसरी भाषा में मूल सृजन का आस्वाद भी देना पड़ता है। डॉ. ढींगरा चूँकि स्वयं पंजाबी भाषी हैं तथा हिन्दी की विदुषी हैं, इस कारण वे अनुवाद में भी मूल रचना की अनुभूति कराने में सफल हुई हैं। मुझे विश्वास है कि डॉ. सुधा ओम ढींगरा ‘परिक्रमा’ उपन्यास के समान बलदेव सिंह ग्रेवाल तथा अन्य श्रेष्ठ पंजाबी लेखकों की कृतियों को हिन्दी में अनूदित करके इस जीवन्त साहित्य से हिन्दी का भण्डार भरती रहेंगी।

कमलकिशोर गोयनका

अपनी बात


बलदेव सिंह ग्रेवाल जी ने अपना पंजाबी उपन्यास ‘परिक्रमा’ मुझे पढ़ने के लिए भेजा। ग्रेवाल जी को मैं उस ज़माने से जानती हूँ जब वे ‘अतीत दैनिक पत्र’ के सम्पादकीय-मंडल में थे और मैंने कुछ समय के लिए उनके साथ काम किया था। शादी के बाद मैं अमेरिका आ गई और बाद में बलदेव ग्रेवाल जी भी अमेरिका आ गए। औपचारिक बातचीत का सिलसिला चलता रहा।
बलदेव जी ने सम्पादक बनकर ‘शेर-ए-पंजाब’ साप्ताहिक पत्र का कार्य-भार सँभाला और ‘संदली बूआ’ स्तम्भ के लिए मुझे कुछ लिखने को कहा तो बौद्धिक एवं साहित्यिक तालमेल फिर से शुरू हुआ।
उपन्यास जब मुझे मिला, बलदेव जी की लेखनी से तो मैं परिचित थी ही—यथार्थ, तीखा, पैना लिखने वाला लेखक। उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो एक ही बैठक में सारा उपन्यास पढ़ लिया।
पंजाबी भाषा में एक अनूठी रचना पढ़ने को मिली-एक रोचक उपन्यास, जिसमें बात को छुपाना और निश्चित समय पर बात को प्रगट करने की लेखक की कलात्मक शैली पाठक को जिज्ञासु एवं उत्तेजित कर आगे-आगे बढ़ाती रहती है।
उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते चरित्रों के साथ ही घूमने लगी और उन्हीं के साथ ही कभी रोई, कभी बिलखी, कभी तड़पी, कभी भावनाओं के समन्दर में डूबी और कभी संवेगों से भीगी।
पंजाब की बेटी हूँ, वहीं जन्मी-पली और बड़ी हुई हूँ। उपन्यास के चरित्र मेरे बचपन के मेरे आस-पास के चरित्र लगे। ऐसा लगा उन्हीं के साथ मैंने बचपन से जवानी तक की ‘परिक्रमा’ पूरी कर ली।
‘परिक्रमा’ के बारे में वरियाम सिंह संधू लिखते हैं, ‘‘सामाजिक-मानवीय रिश्तों की इस पेशकारी में लेखक कहीं भी उल्लासित एवं भावुक नहीं हुआ है। उसके सहज और संतुलित दृष्टिकोण से ही उसके पात्र यथार्थ की ठोस ज़मीन पर विचरते नज़र आते हैं। वे हक़ीक़त को समझते हैं। सामर्थ्य अनुसार लड़ते भी हैं, पर बेबसी जानकर उसे स्वीकार भी करते हैं। स्वीकार कर लेना हालात की मज़बूरी है, पर सह सकना इतना सहज नहीं। यह रिश्तों को भी और आदमी को भी तोड़ देता है। स्वीकार कर लेना पर सह न सकना और अन्दर-अन्दर से टूट कर तिड़क जाने की दुखान्त विडम्बना ही है यह लिखित।’’
औरत का दृढ़निश्चय, संघर्ष, उसकी शक्ति, पुरुष के सहारे के बिना बच्चे का लालन-पालन करना, आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान जैसी कई बातें मन को छू गईं.....।
माँ और प्रेमिका कमल के चरित्रों ने औरत जात के संयम की नई बुलन्दियाँ छुई हैं।
उपन्यास पढ़ते हुए मुझे यह भी महसूस हुआ कि इस उपन्यास को सिर्फ पंजाबी भाषी पाठकों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए और भाषाओं में भी इसका अनुवाद होना चाहिए। हिन्दी में अनुवाद का भार मैंने सँभाला।
अनुवाद करते समय मैंने इसकी रूह को मरने नहीं दिया। इसके लिए कुछ पंजाबी शब्दों को भी वैसा-का-वैसा रखा जैसे उपन्यास में है, ताकि इसकी आत्मा की गहराई तक पाठक पहुँच सकें और इसके चरित्रों के साथ विचरण कर सकें। परिवेश को भी उसी तरह चित्रित करने की भरपूर कोशिश की गई है।
मैं बलदेव सिंह ग्रेवाल जी की अन्तःस्थल से अथाह आभारी हूँ जिन्होंने मुझे इसके अनुवाद की अनुमति दी और पूरा सहयोग दिया।
मैं चित्रकार सुखवंत सिंह जी की आभारी हूँ जिन्होंने ‘कॅवर पेज’ को चार चाँद लगा दिए। उपन्यास का चेहरा, मोहरा और नक्शा सँवार दिया।
डॉ. नीलाक्षी फुकन की भी धन्यवादी हूँ जिन्होंने अनुवाद का एक-एक पृष्ट मेरे साथ पढ़ा। श्री रमेश शौनिक जी की बेहद धन्यवादी हूँ जिन्होंने अपना कीमती समय देकर घण्टों मेरे साथ इस उपन्यास पर बातचीत की।
प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित लेखक डॉ. कमलकिशोर गोयनका जी का हृदय की गहराईयों से आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होंने अपने व्यस्त लेखन-क्रम से समय निकालकर इसकी भूमिका लिखी और हम भारतवंशियों की साहित्यिक गतिविधियों में सहयोग देकर हमें गर्वान्वित किया है।
पति डॉ. ओम ढींगरा की बहुत आभारी हूँ जो मेरे हर काम में मेरे साथ खड़े रहते हैं। अपने व्यस्त जीवन से समय निकाल कर इस उपन्यास का प्रथम चरण उन्होंने पढ़ा और सुधारा। उनके सहयोग के बिना यह काम पूरा नहीं हो सकता था।
प्रवासी लेखक की पंजाबी में लिखी एक अनूठी रचना हिंदी के सुधि पाठकों तक पहुँचाना चाहती थी।
अपने प्रयास में मैं कहाँ तक सफल रही हूँ यह तो आप ही बता सकते हैं। पंजाबी उपन्यास ‘परिकरमा’ का अनुवादित रूप’ ‘परिक्रमा’ अब आपके हाथ में है।
- डॉ सुधा ओम ढींगरा

परिक्रमा


वह अपने माथे पर अपने हाथ की ओट बना लगातार मेरी तरफ़ देख रही है। मैं चलता-चलता उसके और करीब पहुँच जाता हूँ। वह मेरी तरफ़ देखती जा रही है। शायद मुझे पहचानने की कोशिश कर रही है। मैं उसके बहुत नज़दीक पहुँचता हूँ। वह माथे से अपना हाथ हटा कर, खूंटे से बंधी भैंस को खोलने लगती है। मुझे लगा, वह मुझे पहचान नहीं सकी।
पर मैंने उसे पहचान लिया है। यह तो जीजो है। मेरी माँ की पक्की सहेली। कितनी बूढ़ी हो गई है। मैं उसकी तरफ़ बढ़ता हूँ। वह फिर हैरानी से, मुझे पहचानने की कोशिश करती है। मैं पास जाकर उसके चरण-स्पर्श करता हूँ।
बचपन में उसके बच्चे और हम सभी उसको जीजो कह कर ही बुलाते थे।
वह मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद भी दे देती है। मैं सीधा उसके सामने खड़ा हो जाता हूँ, पर फिर भी वह मुझे पहचान नहीं पाती। वह कह ही देती है—पहचान नहीं पाई।
मेरे लिए यह क्षण बहुत भारी हो गया है। क्या बताऊँ—मैं कौन हूँ ? यह मेरा गाँव है। मैं यहाँ ही जन्मा-पला हूँ और मैं आज इसी गाँव में अनजाना, बेपहचाना खड़ा हूँ।
यह जीजो है। मेरे हम उम्र, मेरे दोस्त ओंकार की माँ। पहली से लेकर दसवीं श्रेणी तक हम इकट्ठे पढ़े, इकट्ठे खेले, इकट्ठे जवान हुए। हमारा कितना कुछ साँझा था। उस समय एक-दूसरे को मिले बग़ैर एक घण्टा भी निकालना मुश्किल था। अब मैं उसी ओंकार की माँ के सामने खड़ा हूँ और वह मुझे पहचान ही नहीं रही।
कितनी बार जीजो की रसोई में ओंकार के साथ बैठ कर रोटी खाई थी। वह हँस-हँस कर रोटी पकाती और हमें खिला-खिलाकर खुश हुआ करती थी। घी में चम्मच दाल में ज़बरदस्ती डाल दिया करती थी। हम दोनों दोस्त दाल की एक ही कटोरी से कौर पर दाल लगा कर खाया करते थे। जीजो ने मेरे और ओंकार में कभी अन्तर नहीं किया था। हम दोनों परिवारों के घर भी पास-पास थे और दिल भी। पर आज जीजो मुझे पहचान ही नहीं रही।
इसमें जीजो का कोई कसूर नहीं। कसूर मेरी किस्मत का ही है जो तीस वर्ष बाद अपने गाँव लौटा हूँ।
तीस वर्ष पहले यह मेरा गाँव मेरे लिए पराया हो गया था। मेरे ही बाप का नादिरशाही फरमान था कि मैं कभी भी वापिस लौट कर इस गाँव की ज़मीन पर पैर न धरूँ। सपनों में मैं इस गाँव को देखता रहा, इस गाँव के लिए तड़पता रहता था। कभी अपने गाँव का कोई इंसान शहर में नज़र आ जाता था तो उसको मिलने के लिए रूह तड़प जाती थी, पर अन्दर से एक शर्म-सी मार जाती थी।


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