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ठेले पर हिमालय

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1346
आईएसबीएन :81-263-0092-2

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ठेले पर हिमालय में अपने समय और परिवेश को देखने की एक सजग कोशिश है-और शायद इसीलिए इसका ऐतिहासिक महत्व भी है इसमें संग्रहीत रचनाओं में भारती जी का अन्तरंग तो मुखर है ही उनका समकालीन बहिरंग भी पूरी गम्भीरता और आत्मीयता के साथ उजागर है।

Thele par Himalaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘ठेले पर हिमालय’-खासा दिलचस्प शीर्षक है न ! और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्म-स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे खोए-खोए-से ही बोले, ‘यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।’ और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ‘‘ठेले पर हिमालय’। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नये कवि हों तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो-तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें-शीर्षक मौजूँ हैं, और अगर नयी कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो गुंजाइश है, इस बर्फ को डाटे, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो ? ओ नये कवियों ! ठेले पर लदो। पान की दूकानों पर बिको।

ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आयीं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बतायीं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं मेरे मन को खरोंच गयी है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीले आकाश में हिमालय की शिखर रेखा को चाँद-तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुँधले हल्के नीले जाल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है, उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ, क्योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।

सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गये थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी। कोसी से एक सड़क अल्मोड़े चली जाती है, दूसरी कौसानी। कितना, कष्टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरूप है वह रास्ता ! पानी का कहीं नाम-निशान नहीं, सूखे-भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर बनाए हुए टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर अल्मोड़े का एक नौसिखिया और लापरवाह ड्राइवर जिसने बस के तमाम मुसाफिरों की ऐसी हालत कर दी कि जब हम कौसी पहुँचे तो सभी के चेहरे पीले पड़ चुके थे। कौसानी जाने वाले सिर्फ हम दो थे, वहाँ उतर गये। बस अल्मोड़े चली गयी। सामने के एक टीन के शेड में काठ की बेंच पर बैठकर हम वक्त काटते रहे। तबीयत सुस्त थी और मौसम में उमस थी। दो घण्टे बाद दूसरी लारी आकर रुकी और जब उसमें से प्रसन्न-बदन शुक्ल जी को उतरते देखा तो हम लोगों की जान में जान आयी। शुक्ल जी जैसा सफर का साथी पिछले जन्म के पुण्यो से मिलता है। उन्होंने हमें कौसानी आने का उत्साह दिलाया था और खुद तो कभी उनके चेहरे पर थकान या सुस्ती दिखी ही नहीं, पर उन्हें देखते ही हमारी भी सारी थकान काफूर हो जाया करती थी।

पर शुक्ल जी के साथ यह नयी मूर्ति कौन है ? लम्बा-दुबला शरीर, पतला-साँवला चेहरा, एमिल जोला-सी दाढ़ी, ढीला-ढाला पतलून, कन्धे पर पड़ी हुई ऊनी जर्किन, बगल में लटकता हुआ जाने थर्मस या कैमरा या बाइनाकुलर। और खासी अटपटी चाल थी बाबूसाहब की। यह पतला-दुबला मुझ-जैसा ही सींकिया शरीर और उस पर आपका झूमते हुए आना ! मेरे चेहरे पर निरन्तर घनी होती हुई उत्सुकता को ताड़कर शुक्ल जी ने कहा-‘हमारे शहर के मशहूर चित्रकार हैं सेन, अकादमी से इनकी कृतियों पर पुरस्कार मिला है। उसी रुपये से घूमकर छुट्टियाँ बिता रहे हैं।’’ थोड़ी ही देर में हम लोगों के साथ सेन घुल-मिल गया, कितना मीठा था हृदय से वह ! वैसे उसके करतब आगे चलकर देखने में आये।
कोसी से बस चली तो रास्ते का सारा दृश्य बदल गया। सुडौल पत्थरों पर कलकल करती हुई कोसी, किनारे के छोटे-छोटे सुन्दर गाँव और हरे मखमली खेत। कितनी सुन्दर है सोमेश्वर की घाटी ! हरी-भरी। एक के बाद एक स्टेशन पड़ते थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने, चाय की दुकानें और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी-नालों पर बने हुए पुल। कहीं-कहीं सड़क निर्जन चीड़ के जंगलों से गुजरती थी। टेढ़ी-मेढ़ी, ऊपर-नीचे रेंगती हुई कंकरीली पीठ वाले अजगर-सी सड़क पर धीरे-धीरे बस चली जा रही थी। रास्ता सुहावना था और उस थकावट के बाद उसका सुहावना पन हमें और भी तन्द्रालस बना रहा था। पर ज्यों-ज्यों बस आगे बढ़ रही थी, हमारे मन में एक अजीब सी निराशा छाती जा रही थी-अब तो हम लोग कौसानी के नजदीक हैं, कोसी से 18 मील चले आये, कौसानी सिर्फ छह मील है, पर कहाँ गया वह अतुलित सौन्दर्य, वह जादू जो कौसानी के बारे में सुना जाता था। आते समय मेरे एक सहयोगी ने कहा था कि कश्मीर के मुकाबले में उन्हें कौसानी ने अधिक मोहा है, गाँधी जी ने यहाँ अनासक्ति योग लिखा था और कहा था कि स्विट्जरलैण्ड का आभास कौसानी में ही होता है। ये नदी, घाटी, खेत, गाँव सुन्दर हैं किन्तु इतनी प्रशंसा के योग्य तो नहीं ही हैं। हम कभी-कभी अपना संशय शुक्ल जी से व्यक्त भी करने लगे और ज्यों-ज्यों कौसानी नजदीक आता गया त्यों-त्यों अधैर्य, फिर असन्तोष और अन्त में क्षोभ हमारे चेहरे पर, झलक आया। शुक्ल जी की क्या प्रतिक्रिया थी हमारी इन भावनाओं पर, यह स्पष्ट नहीं हो पाया क्योंकि वे बिलकुल चुप थे। सहसा बस ने एक बहुत लम्बा मोड़ लिया और ढाल पर चढ़ने लगी।

सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में जो ऊँची पर्वतमाला है, उस पर, बिलकुल शिखर पर, कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा बिलकुल उजड़ा-सा गाँव और बर्फ का तो कहीं नामो-निशान नहीं। बिलकुल ठगे गये हम लोग। कितना खिन्न था मैं ! अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौन्दर्य बिखरा था सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है, इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों-जैसे खेत, सुन्दर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझा जाने वाली बेले की लड़ियाँ-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ, आँखों से लगा लूँ। अकस्मात् हम एक-दूसरे लोक में चले आये थे। इतना सुकुमार, इतना सुन्दर, इतना सजा हुआ और इतना निष्कलंक...कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे मेरी निगाहों ने इस घाटी को पार किया और जहाँ ये हरे खेत और नदियाँ और वन, क्षितिज के धुँधलेपन में, नीले कोहरे में घुल जाते थे, वहाँ पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास अनुभव किया, उसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं। कुछ देर उन बादलों में निगाह भटकती रही कि अकस्मात् फिर एक हलका-सा विस्मय का धक्का मन को लगा। इन धीरे-धीरे खिसकते हुए बादलों में यह कौन चीज है जो अटल है। यह छोटा-सा बादल के चुकड़े-सा-और कैसा अजब रंग है इसका, न सफेद, न रुपहला, न हलका नीला...पर तीनों का आभास देता हुआ। यह है क्या ? बर्फ तो नहीं है। हाँ जी ! बर्फ नहीं है तो क्या है ? और अकस्मात् बिजली-सा यह विचार मन में कौंधा कि इसी घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वतसम्राट हिमालय है, इन बादलों ने उसे ढाँक रखा है, वैसे वह क्या सामने है, उसका एक कोई छोटा-सा बाल-स्वभाव वाला शिखर बादलों की खिड़की से झाँक रहा है। मैं हर्षातिरेक से चीख उठा, ‘‘बरफ ! वह देखो !’’ शुक्ल जी, सेन , सभी ने देखा, पर अकस्मात् वह फिर लुप्त हो गया। लगा, उसे बाल-शिखर जान किसी ने अन्दर खींच लिया। खिड़की से झाँक रहा है, कहीं गिर न पड़े !

पर उस एक क्षण के हिम-दर्शन ने हममें जाने क्या भर दिया था। सारी खिन्नता, निराशा, थकावट-सब छू-मन्तर हो गयी। हम सब आकुल हो उठे। अभी ये बादल छँट जाएँगे और फिर हिमालय हमारे सामने खड़ा होगा-निरावृत..असीम सौन्दर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना घूँघट धीरे से खिसका देगी और..और तब ? और तब ? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। शुक्ल जी शान्त थे, केवल मेरी ओर देखकर कभी-कभी मुस्करा देते थे, जिसका अभिप्राय था, ‘इतने अधीर थे, कौसानी आया भी नहीं और मुँह लटका लिया। अब समझे यहाँ का जादू ?’ डाक बँगले के खानसामे ने बताया कि, ‘‘आप लोग बड़े खुशकिस्मत हैं साहब ! 14 टूरिस्ट आकर हफ्ते भर पड़े रहे, बर्फ नहीं दीखी। आज तो आपके आते ही आसार खुलने के हो रहे हैं।’’

सामान रख दिया गया। पर, सभी बिना चाय पिये सामने के बरामदे में बैठे रहे और एक-टक सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नये-नये शिखरों की हिम-रेखाएँ अनावृत हो रही थीं। और फिर सब खुल गया। बायीं ओर से शुरू होकर दायीं ओर गहरे शून्य में धँसती जाती हुई हिमशिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमांचक श्रृंखला। हमारे मन में उस समय क्या भावनाएँ उठ रहीं थीं अगर यह बता पाता तो यह खरोंच, यह पीर ही क्यों रह गयी होती। सिर्फ एक धुँधला–सा संवेदन इसका अवश्य था कि जैसे बर्फ की सिल के सामने खड़े होने पर मुँह पर ठण्डी-ठण्डी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है और सारे संघर्ष, सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप कहा था और उसे शमित करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे यह पहली बार मेरे समझ में आ रहा था। और अकस्मात् एक दूसरा तथ्य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी-कितनी पुरानी है यह हिमराशि ! जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ है। कुछ विदेशियों ने इसलिए हिमालय की इस बर्फ को कहा है-चिरन्तन (एटर्नल स्नो)। सूरज ढल रहा था और सुदूर शिखरों पर दर्रे, ग्लेशियर, ढाल, घाटियों का क्षीण आभास मिलने लगा था। आतंकित मन से मैंने यह सोचा था कि पता नहीं इन पर कभी मनुष्य का चरण पड़ा भी है या नहीं या अनन्त काल से इन सूने बर्फ-ढँके दर्रों में सिर्फ बर्फ के अन्धड़ हू-हू करते हुए बहते रहे हैं।

सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी। बर्फ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी, घाटियाँ गहरी पीली हो गयीं। अँधेरा होने लगा तो हम उठे और हाथ-मुँह धोने और चाय पीने में लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम, जैसे सबका कुछ छिन गया हो, या शायद सबको कुछ मिल गया हो जिसे अन्दर-ही-अन्दर सहेजने में सब आत्मलीन हों या अपने में डूब गये हों।
थोड़ी देर में चाँद निकला और हम फिर बाहर निकले..इस बार सब शान्त था। जैसे हिम सो रहा हो। मैं थोड़ा अलग आरामकुर्सी खींच कर बैठ गया। यह मेरा मन इतना कल्पनाहीन क्यों हो गया है ? इसी हिमालय को देखकर किसने-किसने क्या-क्या नहीं लिखा और यह मेरा मन है कि कविता तो दूर, एक पंक्ति, एक शब्द भी तो नहीं जागता। पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा लग रहा है इस हिमसम्राट के समक्ष पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अन्दर भी बादल थे जो छँट रहे हैं। कुछ ऐसा उभर रहा है जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है जो इसी ऊँचाई पर उठने की चेष्ठा कर रहा है ताकि इनसे इन्हीं स्तर पर मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़ गया है, और मुझे-छोटे भाई को-नीचे खड़ा हुआ, कुण्ठित और लज्जित देखकर थोड़ा उत्साहित भी कर रहा है, स्नेह-भरी चुनौती भी दे रहा है-‘‘हिम्मत है ? ऊँचे उठोगे ?’’

और सहसा सन्नाटा तोड़कर सेन रवीन्द्र की कोई पंक्ति गा उठा और जैसे तन्द्रा टूट गयी। और हम सक्रिय हो उठे-अदम्य शक्ति, उल्लास, आनन्द जैसे हम में छलक पड़ रहा था। सबसे अधिक खुश था सेन, बच्चों की तरह चंचल, चिड़ियों की तरह चहकता हुआ बोला, ‘‘भाई साहब, हम तो बण्डरस्ट्रक् हैं कि यह भगवान का क्या-क्या करतूत इस हिमालय में होता है।’’ इस पर हमारी हँसी मुश्किल से ठण्डी हो पायी थी कि अकस्मात् वह शीर्षासन करने लगा। पूछा गया तो बोला, ‘‘हम नये पर्सपेक्टिव से हिमालय देखेगा।’’ बाद में मालूम हुआ कि वह बम्बई की अत्याधुनिक चित्रशैली से थोड़ा नाराज है और कहने लगा, ‘‘ओ सब जीनियस लोग शीर का बल खड़ा होकर दुनिया को देखता है। इसी से हम भी शीर का बल हिमालय देखता है।’’
दूसरे दिन घाटी में उतरकर 12 मील चलकर हम बैजनाथ पहुँचे जहाँ गोमती बहती है। गोमती की उज्ज्वल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। पता नहीं, उन शिखरों पर कब पहुँचूँ, पर उस जल में तैरते हुए हिमालय से जी भर कर भेंटा, उसमें डूबा रहा।

आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर वे मेरे मित्र उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गये उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात कहकर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। वे बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे ही क्षण में, ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिर कर ही तो तुलसी ने नहीं कहा था‘‘...कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो...मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर ?’’ और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी के हाथ सन्देशा भेज दूँ...‘‘नहीं बन्धु..आऊँगा। मैं फिर लौट-लौट कर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है...मैं करूँ तो क्या करूँ ?’’

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