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कसौटी पर मीडिया

मुकेश कुमार

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13966
आईएसबीएन :9788126726097

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इन लेखों में एक चिंता साफ़ दिखाई देती है कि खबर जो भी हो मीडिया अक्सर असल मुद्दे से हटकर, उसे भावुकता की चाशनी में डुबाकर उन्माद पैदा करने की कोशिश करता है।

पूँजी के भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारवाद के आगमन के साथ शुरू हुए विस्मयकारी विस्तार ने मीडिया को यदि शक्तिशाली बनाया है तो उसका चरित्र भी बदल डाला है। वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार पिछले आठ वर्षों से हंस के माध्यम से हम सबको बताते रहे हैं कि मीडिया में आए इस परिवर्तन की वजहें क्या हैं, कौन से दबाव और प्रभाव इसके पीछे काम कर रहे हैं और इनके उद्देश्य क्या हैं? ये एक बहुत ही जरूरी काम था जो हिंदी में बहुत देर से शुरू हुआ और बहुत कम हुआ। हंस और मुकेश कुमार को इसका श्रेय जाता है कि उन्होंने इस जिम्मेदारी को पूरी गंभीरता के साथ निभाया। मुकेश कुमार पिछले लगभग तीस साल से पत्रकरिता से जुड़े हुए हैं। हंस में प्रकाशित उनके लेखों से जाहिर हो जाता है कि इस दौरान पत्रकारिता के सामने आने वाली चुनौतियों को वे देखते समझते रहे हैं। साथ ही उन्होंने इन समस्याओं के भीतर झांककर उनके कारणों को भी जानने की कोशिश की है। मीडिया के सामने कड़ी चुनोतियों का सामना करने के रास्तों पर भी उनकी नजर रही है। उन्होंने मीडिया उद्योग के हर आयाम को करीब से देखा-समझा है, इसलिए वे मीडिया में आए परिवर्तनों को ज्यादा विश्वसनीय तरीके से लिख सके। ऐसा करते हुए उन्होंने अतिरिक्त साहस का परिचय भी दिया, क्योंकि अपने ही पेशे की खामियों को बेबाकी से लिखना सबके लिए आसान नहीं। मुझे लगता है की मुकेश कुमार ने इस पुरे दौर में पैदा हुई मीडिया की हर आहात, उसकी हर करवट और हर दिन बदलते उसके पितरों को अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने दिया है। फिर चाहे वह स्टिंग ऑपरेशन की सच्चाई हो, साम्राज्यवाद और बाजारवाद का दबदबा हो, फ़िल्मी चकाचोंध हो या क्रिकेट का कारवां हो, दंगा-फसाद हो या चमत्कारियों का संसार हो। हर चीज को उन्होंने ईमानदारी से परखा है और अपनी साफ़ राय दी है। मीडिया के बदलते रंग-ढंग की परीक्षा करते हुए उनका नजरिया बहुत ही स्पष्ट रहता है और वे ये काम पूरी जनपक्षधरता के साथ करते हैं। टीआरपी की होड़ से पैदा हुई दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ सख्त रूख अपनाने से वे कभी पीछे नहीं हटे। उनकी कलम ने मीडिया के उन्मादी स्वरुप की जमकर चीर-फाड़ की और उसके जातीय तथा सांप्रदायिक चरित्र को बेनकाब करने में अगुआ रहे। इन लेखों में एक चिंता साफ़ दिखाई देती है कि खबर जो भी हो मीडिया अक्सर असल मुद्दे से हटकर, उसे भावुकता की चाशनी में डुबाकर उन्माद पैदा करने की कोशिश करता है। मुकेश कुमार ने इस बात को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित किया है कि रामजन्मभूमि विवाद के जमाने में भी हालत ऐसे ही थे और अब चाहे गुजरात के दंगे को लेकर विवाद हो या भारत पाक के बीच संकट की स्थिति, मीडिया में उन्माद के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता।

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