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स्त्री-पुरुष संबंध >> नर नारी

नर नारी

कृष्ण बलदेव वैद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1410
आईएसबीएन :9788170285069

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प्रस्तुत है नर नारी....

Nar-Nari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक लेखकों में अग्रणी कृष्ण बलदेव वैद्य का यह नया उपन्यास एक बार फिर आश्चर्यजनक ढंग से उनके लेखन-कौशल को प्रमाणित करता है। उसका बचपन, विमल उर्फ..., दर्द लादवा, गुजरा हुआ जमाना, काला कोलाज आदि उपन्यासों के लेखक इस उपन्यास में भी अपने समाज, परिवेश और देश काल के अत्यन्त कठिन और बहुपर्ती प्रश्नों से जूझते हैं-अपनी विशिष्ट शैली में, अपने विडम्बना-सम्पन्न अंदाज़ में, अपनी अनुपम आवाज़ में, पूरी कलात्मक सजगता के साथ...
इसमें नर-नारी संबंध और टकराव, नारी मुक्ति, बेटी-बेटे का अन्तर, परिवार प्रथा की टूटन, वगैरह आज की सभी समस्याओं का प्रभावी चित्रण किया गया है।

बांझ मांजी


आ जाती हैं हमदर्दी जतलाने। झूठी। मेरा सिर खाने। हर दूसरे तीसरे दिन। तम्बा उठा कर। अपने घर चैन नहीं। चुग़ली की आदत। गप्पों की। इसकी उस से उसकी इस से। लेनेदेने और दुनियादारी। मुझ से क्या मतलब। अपने घर बैठें। झूठी हमदर्दी मुझे नहीं...
‘‘मांजी दर्द दूर हुआ छाती का। दवा शवा ली। दिखलाया अपने उस बंगाली को। वह बूढ़ा, मांजी डाक्टर बदलो उससे क्या होगा अब उसकी आंखें काम नहीं करतीं हाथ कांपते हैं कानों से बहरा। टूटी तो पकड़ी नहीं जाती। अब किसी और का इलाज। मांजी को उसपर विश्वास। वह इनका भाई मुंहबोला मुद्दत से। क्यों है ना मांजी...

...लगता है सोयी हैं शायद अभी अभी। क्या काठी है। देखो तो। इनके मुकाबले में हम तो सब मोम की बच्चे कांच की। यह हम से बूढ़ी हम से बाद हम सबको मार कर। धीरे बोलो। सोयी सोयी भी सुनती रहती हैं। इतनी महंगाई हम कैसे खाएं इतनी खुराक। इन्हें क्या अकेली जान बस इनकी ऐश बुढ़ापे में भी कपड़े तो देखो घर बैठी बनी ठनी बिस्तर में भी मुंह मुखड़ा दुलहिन बुढ़िया। इन्हें क्या चिन्ता। जितना चाहें खाएं जो कुछ जब भी। धीरे बोलो जाग उठीं तो। न बाल न बच्चा। हम तो यूं ही आ जाती हैं इनको किसी की क्या परवाह यह अपने में मस्त। सारी उमर इसी तरह काट दी। अपने में मस्त। हम अपना फर्ज निभाती हैं इसीलिए आ जाती हैं। मांजी क्या हाल है। आज इनकी वह मुंहलगी बाला। वह जमादारिन मुश्टन्डी। कोई हाल है। उसके साथ यह खुश सारा दिन खीं-खीं हमें देखते ही आंखें बन्द। क्यों मांजी कैसी हो।

दर्द दूर हुआ ! किसी का कोई दर्द कभी दूर हुआ है जो मेरा होगा ! दुनिया दर्द का दूसरा नाम। हो न हो इन्हें क्या आ जाती हैं जासूसी करने। झूठी हमदर्दी। बाला बेचारी से जलती हैं। छुआछूत की मारी सब। घर बैठें। क्यों दौड़ी आती हैं। क्या देखने। सिरहाने बैठ कर मेरा सिर खाती हैं मेरी निन्दा मेरी बाला की वह इन से अच्छी। समझती हैं मैं सोयी हुई। इनकी काएं काएं सुन तो मुर्दा भी जाग उठे। मैं आखें बन्द कर सब सुनती रहती हूं। कल की मरती आज मरूं इनको क्या। आ जाती हैं। किसी दिन उठ कर इन सबकी ऐसी-तैसी जाओ घर अपने ठीक ठाक तुम सब से अच्छी। दर्द दूर हुआ मांजी ! अरी तुम्हें क्या चिन्ता। मैं नहीं मांजी शांजी किसी की। इनकी तो बिलकुल नहीं। ये सब मेरी जान की दुश्मन। इन्हें क्या मालूम दर्द होता क्या है। घर घर घूमने सूंघने की आदत। बीमारी। दुनियादारी बेकार की। मुझे नहीं चाहिए इनकी चापलूसी। खोखली हमदर्दी। जासूसी करने। इनकी आंखों में खोट। इनसे तो बाला अच्छी....

किसी दिन इनको खरी खरी। मत आओ मेरा सिर खाने मैं ठीक ठाक। कोई दर्द वर्द नहीं। मैं तुम सबको मार कर ही। यह मेरा घर अपने घर बैठो क्या करने आती हो भागो। बहुत सुन लिया। बहुत सह लिया। वैसे हंसी भी आती है। मज़ा भी। किसी दिन डण्डा लेकर इनके पीछे। बाला वह झाडू ले आ मार इन सबको। ख़बरदार ! मेरी छाती में दर्द नहीं वैसे ही छलनी। हर बात के दो मतलब कम से कम। शायद हर भाषा में। कितनी भाषाएं। रसीला से पूछूंगी। उसके आने से मन को चैन। अच्छा है उसकी मां नहीं आती। वह दिल की खोटी। रसीला न जाने क्यों...किसी दिन पूछूंगी...किसी दिन उसको अपना सब कुछ भी वह हैरान मांजी आप तो छिपी रुस्तम...

देखो तो सोयी सोयी भी मस्त मस्कड़ियां। धीरो बोलो क्या मालूम मश्ट मार कर सब सुनती हों। अपना गुज़रा ज़माना याद कर रही होंगी। अपने कारनामे। जो पापड़ बेले। घर बैठी बनी ठनी बिस्तर में भी क्या शान्त। इनको शर्म नहीं। इस उमर में भी इनके नखरे। नाक में लोंग हाथों में कंगन इतने मोटे। धीरे बोलो। आज इनकी वह जमादारिन बदमाश। क्या पता अन्दर ही हो। हम से वह इनको अच्छी...

इनके मन मैले दिल काले क्यों आती हैं। अपने घर बैठें। हां मैं हूं मस्त कर लो जो करना है। मैं तुम से अच्छी। अपने घर बैठी हूं। मैं अपना जीवन। मैं बोझ नहीं। क्यों जलती हो। अब जाओ अपने घर। किसी दिन साफ़ साफ़ सब। क्या करने आती हो ! पता नहीं क्या पी कर पड़ी रहती हैं ! बकती रहें मुझे क्या। किसी दिन बाहर दरवाज़े पर तख्ती : फफेकुट्टनों का दाखिला मना है ! एक कुत्ता पाल लेना चाहिए। काला। नाम भालू। काटे कलमुहियों को। जो अन्दर आए उसकी सलवार को लीरां लीरां। बाला और भालू। बाला के हाथों में एक बड़ा-सा झाड़ू। कांटेदार। आ जाती हैं देखने मांजी मरी या नहीं। मैं किसी की मांजी शांजी नहीं। मैं अपनी मौत मरूंगी इनको क्या चिन्ता। सोई-सोई स्वर्ग के सपने। स्वर्ग नर्क यहीं। मैंने सब देख लिया। परलोक किसने देखा है मैं यहीं मस्त तुम जलो, मैं अपना जीवन अपने ढंग से मैं तुम से अच्छी...

...मश्ट मार सब सुनती रहती हैं। काइयां घाघ हर घाट का पानी। कोई फ़ायदा नहीं। हम इतनी इतनी दूर से। बसों में धक्के। हम अपना फर्ज़ निभाने  आती हैं। पानी तक नहीं पूछतीं। ऊपर से वह अकड़ी हुई जमादारिन मुश्टण्डी हमें आंखें दिखलाए। मांजी तो सोयी हैं मैं पानी लाऊं। हम उस चूढ़ी के हाथ का पानी कभी नहीं हम खुद पी लेंगी। मांजी ने मना कर रखा है। लो सुन लो इसकी बात ! यह घर की मालिकन हम चोर। हम ही बेवकूफ। ये अपने में मस्त। हमें देखते ही आंखें बन्द। वह काली पहरेदारिन हम पराए हम चोर हम क्यों आती हैं। मत आओ घर बैठो। अपने वह काली तुम से ज़्यादा साफ़ तुम चोर तुम्हारा मन मैला तुम मुझ से जलती हो घर बैठ कर जलो मेरे घर मत आओ मैं बांझ...

...बिस्तर में भी यह बनी ठनी देखो पोशाकें इनका हारसिंघार सुर्खी सुर्मा पाउडर बिन्दी जैसे दुलहिन लानत है बेशर्मी की हद। धीरे बोलो। बहन वह बाला कालो जासूस सब मिर्च मसाले के साथ इनके कान बड़े पतले सब सुनती हैं लेटी लेटी। मस्तोरी मांजी काहे की बांझ बेहया। बहन मैं तो चली। हे भगवान बाकियों को भी भेजो उनके घर सिर खाएं अपने घर वालों का मेरा क्यों....

...खा फ्रूट कितना भी क्यों न लें सज-धज कितनी भी हैं हम से बूढ़ी दिमाग़ हिल गया होगा वर्ना बाला के हाथों का खातीं ! वह चूढ़ी इनको चूरी। अपनी उमर नहीं बतातीं। पूछो तो पीछे पड़ जाती हैं कहती हैं दो सौ की हूं। अस्सी नब्बे की तो होंगी ही। लगती हैं पैंसठ की। हम इनसे छोटी इनसे बूढ़ी। बांझों में यही बुरी बात। बूढ़ी नहीं होतीं। आखिर तक सदाबहार। आंखों में भूख। कपड़ों का शौक़। सजने धजने का। हड्डी भी सख्त। बांझों से बीमारी भी डरती है। हम भी। बांझों का साया भी बुरा ज़रा देखो तो इनका सूट। गुरगाबी सब लस्टम पस्टम। इनके किस्से सुनने हों तो डॉली की नानी से सुनो। वह इनकी ईंची बीची जानती है। कहती है यह शुरू से ही ऐसी। आंखों में शर्म नहीं। अब देखो मुस्कड़ियां इनके होंठों पर। फ़िल्मी गानों का शौक। दिमाग़ हिल गया होगा। इसीलिए तो बिस्तर में दुलहन सी...

बाला बदमाश ! मांजी यह जोड़ा शादी का ! मांजी आप तो अब भी उन फफेकुट्टन रिश्तेदारों से अच्छीं। बढ़िया क्या बात है मांजी ! सब फब जाता है। किस से कब सीख लिए ये गाने शाने। सब इश्किया। मांजी सच बोलो। और इतनी सारी लोरियां। सब प्यारी प्यारी। सुनते ही नींद। मैं सब याद कर लूंगी। रट लूंगी। अपने बच्चों को हर रात कहूंगी मांजी से सीखीं। ब्याह अभी हुआ नहीं बच्चों की गिनती। बाला बदमाश। मैं बीस से कम नहीं जनूंगी। ब्याह के बग़ैर भी तो बच्चे हो सकते हैं। ब्याह के लिए दहेज कहां। बाला उन से अच्छी। उनकी हर बात में हेर फेर। आंखों में लालच। मन में चोर। बस चले तो सारे सन्दूक खाली। उन सबकी आंख मेरे मकान पर। उन्हें तो मेरा खाना पहनना भी खलता है। आते ही गिनती....

...सुबह सवेरे तीन परांठे उस जमादारिन के हाथों से पता नहीं खाती कैसे हैं। बो नहीं आती इनको। दिमाग़ खराब। दो ग्लास, दूध सात बादाम एक केला। यह इनका नाश्ता। पेट में कीड़े होंगे। इनके मन मुंह में कीड़े जी करता है उठकर जूते मारूं। बहन किसी ने ठीक ही कहा है बांझों की भूख भेड़ियों जैसी। हाज़मा हाथी जैसा। पेट इण्डिया गेट। सर्दियों में ब्रांडी गर्मियों में आमरस। चटपटे अचार सब बाला डालती है। आंख दांत आंत सब सही सलामत। इस उमर में गन्ने चूसने का शौक। शर्म नहीं आती। बहन किसी ने ठीक ही कहा है जो पेट फलता फूलता नहीं वह पत्थर लक्कड़ सब हजम कर लेता है। सौ बातों की एक बात बांझ बांट कर नहीं खाती। सब कुछ सीधा अन्दर। आंखें भरती हैं न पेट। इसीलिए तो उनसे डर लगता है। उनकी बद्दुआ भी बुरा साया भी...

और मैं यह सब सुन कर भी सीने पर पत्थर रख कर चुप मार पड़ी रहती हूं। तरस भी आता है गुस्सा भी। मन करता है किसी दिन सब भान्डे फ़ोड़ दूं चिल्लाऊं मैं बांझ नहीं सब पर्दे फाड़ के रख दूं। लेकिन अब क्या फायदा बकती रहें बकवास मुझको क्या मैं अपनी यादों में। दिन में सिर्फ़ दो बार बाथ रूम। हम हर घण्टे बाद। किडनी हो तो ऐसी। मरो तुम मूत करते करते मुझ से क्यों जलती हो। इस उमर में इतने बड़े मकान में अकेली। इन्हें डर भी नहीं लगता। हम तो मर जाएं। मरो मुझ से क्यों जलती हो। इन्हें गिरने का डर न ग़श का। बहन किसी ने ठीक ही कहा है बांझों से चोर डाकू क़ातिल भी डरते हैं। इनका बस चले तो मुझे आज मरवा दें। देख भाल के लिए रख रखी है वह कालो बाला मर्दों सी बुरछा...
...बहन इन्हें कोई दर्द वर्द नहीं छाती में। बांझों की छाती में दर्द नहीं होता। बहाने बस उस बंगाली बदमाश डाक्टर के पास जाने के वह घर ही आ जाता होगा। इनके किस्से इनकी भरजाई से। राजू की मां से। उससे नहीं बनती इनकी। वह इनके सारे भेद जो जानती है।

हां मुझे कोई दर्द वर्द नहीं। किसी दिन उठ कर साफ़-साफ़। अब फूटो फिर मत आना। ख़बरदार ! मैं डायन हूं, तुम सबको खा जाऊंगी। लेकिन फिर सोच के चुप मेरा क्या लेती हैं। मुफ्त का मन बहलावा। जब ये चली जाती हैं मैं और बाला लोट पोट।

 वैसे यह अच्छा है छाती का दर्द दिखायी नहीं लेकिन कोई भी दर्द दिखायी नहीं कोई भी असली दर्दं मुझे बस वही मीठा मीठा। इस उमर में भी कर लो जो करना है मैं अब भी मस्त। मैं अपने असली दर्द की बात भगवान से वह मेरा भाई मुझ से बड़ा। उसी की किरपा से मुझको सबके मन की मैल साफ़ साफ़। अपने मन की भी कभी कभी डर लगता है जो इनके मन में होता वह मेरे सामने साफ़ साफ़। पहले नहीं होता था बुढ़ापे की बरकत या भगवान की कभी कभी सोयी सोयी मैं चौंक उठती हूं। पता नहीं भगवान मेरे बारे में क्या सोचता होगा। भगवान सोचता नहीं। उसके मन का वह जाने। उसका मन नहीं होता। वह निराकार निर्विकार। मन नर नारी का बंधन तन की ही तरह। भगवान अमन। रसीला को बतलाऊंगी। वह हैरान। मांजी आप सबको मात। पढ़े लिखों को भी। मुझको भी। रसीला जब आती है जी खुश डॉली भी।

दोनों मेरी चेलियां। रसीला की मां रजनी से मेरी कभी नहीं वह भी फफेकुट्टन ही। इन सब की तरह। राजू की मलहार रसीला से रूखी। वह नहीं आती। न आए न ही आए तो अच्छा। मैं अकेली ही खुशकिस्मत हूं मेरे तन ने मुझे कोई ख़ास तकलीफ़ नहीं दी। अभी तक मन में तनाव तभी तो ये सब देखने आ जाती हैं अभी भी है उसी तरह। जलती हैं जलें। मांजी हम आपको देखने आयी हैं लो देख लो दीदे फाड़ फाड़ कर। मांजी कैसी हो। बस छाती में दर्द। ये सुनकर खुश शायद निमोनिया हो। मुझे कुछ और जो इन्हें हो ही नहीं सकता। अगर कह दूं मज़े में हूं तो कहेंगी बुढ़िया को इस उमर में भी मज़े हमें हजार मुसीबतें। अगर किसी दिन कह दूं मुझे नहीं चाहिए झूठी हमदर्दी तो कहेंगी बुढ़िया बदजुबान। लेकिन क्या फायदा गोली मारूं मैं झूठ का जवाब झूठ से ही मेरे भगवान को भले ही बुरा लगता हो मेरी बहन भी झूठ बोलने से बाज न आयी। झूठ तो भगवान भी बोलता ही होगा। कभी-कभी। अपने बगुले भक्तों से। आजकल वह मेरी हर सोच पर सवार दिन रात नहीं और भी कई। वह सब से ऊपर। अब है चलने की तय्यारी। शायद जाना इसी तरह आसान। बहुत जी लिया अब और क्या जीना। सब उसी की माया सब उसका खेल। मैं उसका लाख शुक्र मैं लाखों से अच्छीं इस उमर में भी मुझे कोई रोग न सोग। बहुत भोग लिया। लेकिन जी भरा नहीं जानता होगा वह जानीजाना सोचता होगा जी ले कुछ और किसी का क्या लेती है मेरी बहन बुढ़ापे की बहार लूट ले मुझे क्या..

मेरी बस एक ही मांग उससे मुझे बीमारी मत दे, ले जाए सोयी सोयी को। आंखें अगले जहान में ही खुलें लेकिन वह किसने देखा है। वहां आंखों का क्या काम वहां तो मन की आंखें। मान लो उसने न मानी मेरी बात तो मैं अपने आप उठकर उड़ जाऊंगी एड़ियां नहीं रगडूंगी। हाय हाय न होगी मुझ से मैं चलते फिरते ही जाऊंगी। बहुत हुआ तो ज़हर की गोली अपने बंगाली से। बंगाली व नाम का ही असली पंजाबी फ़र फ़र वह मेरा मुंहबोला भाई नहीं वह मेरा मीत। वह मेरा आख़िरी। कहता है ज़हर मैं तुमको कभी नहीं तुम मुझको दे सकती हो।

तो फिर फन्दा पंखे से। न बाबा न। मिट्टी का तेल न जाने कैसे। न बाबा न। इस देह को दाह मैं जीते जी कभी नहीं। जल मरने वाली नारियां बेवकूफ लेकिन बेचारी तंग आ जाती होंगी पास ससुर घरवाले से बीमारी से लाचारी से नालायक बेटे से। यही सब सुनकर डॉली कहती है मांजी आप इतनी माडरन। इतनी अंग्रेजी तो आजकल उल्लू भी। वह कहती है आप से बातें करने में फ़न अंग्रेज़ी उर्दू पंजाबी तीनों आती हैं। सुन सुन कर ही सब सीख लिया। मैं सातवीं से आगे नहीं। मेरी नानी तो इतनी दकियानूस पुरानी मैं इस से तंग यह करो वह न करो ऐसे बैठो वैसे नहीं यह न पहनों वह न खायो आंख उठा कर देखो मत मैं बोर हो जाती हूं मांजी। डॉली तेरी नानी और मैं साथ साथ सातवीं तक। सच मांजी ? बाई गॉड डॉली हाथ मिलाओ। डॉली की बाछें। डॉली की नानी का असली नाम ना-ना मांजी मेरी नानी हर बात में ना-ना उसको तो मेरी कोई भी बात अच्छी नहीं लगती। मेरी भी डॉली। वह मांजी कहती है तू उससे मिलने आती है या मुझसे। हज़ारों का ख़र्च विलायत से क्या उसके वास्ते। आयी है तो मेरे पास बैठ मेरी सेवा कर मैं तेरी नानी। डॉली भोली मन की साफ़। यहां की लड़कियां चालाक। हेराफेरी में माहिर। छलकपट हम सब को घुट्टी। मैं भी नहीं बची। मन मेरा भी मैला लेकिन कम। तन सुन्दर साफ़ सब अब तक जलती हैं। डॉली की नानी भी। इस उमर में भी आपका चेहरा मुरझाया नहीं मांजी। मैं मरते दम तक इसी तरह...

...किसी को अपनी असली उमर नहीं बतलातीं जब पूछो गोलमोल। इस सदी के शुरू में पैदा हुई अगली सदी में चल दूंगी। पीछे पड़ जाओ तो नाराज़ हो जाती है। कहती हैं नहीं बताती। अस्सी से कम क्या होंगी। देखने में पैंसठ की। टीम टाम तो ऐसी मानो मुझ से कम और मैं पचपन की। धीरे बोलो वह बम का गोला फट गया तो आफ़त। मैं हंसती रहती हूं। अन्दर ही अन्दर। जब देखो तब सजी धजी। अपने घर बिस्तर में भी। मोटी महारानी। और एक हम हैं अपनी होश नहीं। घर बाहर का सारा काम। शादी, शमशान, मुन्डन। सैकड़ों धन्धे बच्चों का खाना कपड़े लपड़े पैसे की चिन्ता। लेकिन यह मस्त अपने ही लटके। बहन किसी ने ठीक ही कहा है बांकी बांझ वेश्या की बहन मन करता है मन मन की गाली दूं। फिर सोचती हूं मेरा क्या लेती हैं मुंह अपना गन्दा। ये सब गली सड़ीं तन से भी मन से भी।

मैं इनसे अच्छी ये दुनियादारी के कीचड़ में। मैं उस से बाहर। बहन यह विधवा भी और बांझ भी। सोने पे सुहागा। इनका मन करता होगा ये भी विधवा हो जाएं। मौज मनाएं पर ये बेहिम्मत। मर्दों की ख़ादिम। बेटों की भूखी। मुझे तरस आता है इन पर। इतनी खश्बू कमरे में बाग बिन्दा तो देखा। नाखुन भी रंगे हुए। पैरों में मेहन्दी। कहती हैं ठन्डक मिलती है। आंखों में डोरे। पर भट्टे काले। सब पापड़ बेले हैं। किसी दिन उठकर खरी खरी फट जाऊंगी। ख़बरदार। बेशर्मों मेरे ही घर बैठ तुम मेरी निन्दा। क्या करने आती हो। कमीनियों खबरदार ! जाओ घर जा कर चाटो जूते अपने मर्दों नामर्दो के। खस्मों को खाओ या अपनी बहुओं को। बेटों को सिखलाओ फुसलाओ दफ़ा हो जाओ। चपर चपर चपर चपर। ख़बरदार....

बस एक ही चिन्ता। बीमार न हो। इनकी मोहताजी कभी नहीं। हे भगवान ! हे बड़े भाई ! मोहताज मत होने देना। मोहताजी अपने मर्द की भी बुरी। बहू बेटियों की भी। मैं अलिफ़ अकेली अब। ये मेरी दुश्मन। बस सोयी सोयी को अपने ही कन्धों पर तू मेरा भाई ! फ़टा फ़ट ख़तम। बिजली की तरह गुल कर देना शीशे की तरह तोड़ देना या धागे की तरह। जैसे एक दम घड़ी रुक जाती है। या तारा टूट जाता है। या फिर नींद। या जैसे नल का पानी बन्द हो जाता है। या जैसे हिलता हुआ दांत झड़ जाता है। या पीला पत्ता। बस हार्ट फेल कर देना किसी रात जब खा पी कर सोऊं तो उठूं नहीं। घोल घोल कर मत मारना भगवान अपनी इस बूढ़ी बहन को नहीं तो मैं समझूंगी तुम सचमुच झूठे...

पूजा वूजा ये सब करती हैं। मैं नहीं। जैसे मैले मन से मेरे घर वैसे ही मन्दिर। मेरा मन मन्दिर। जब जी करता है मैं उसमें बैठ उस से दो बातें। खरी खरी। ये मन्दिर में बैठी बैठी भी अपने ही मैले में। मोह माया के मल में। धन दौलत की भूखों। मैं नहीं। जो मिलना था मिल गया। न मिलता तो भी मैं खुश। ये होतीं मर जाती मेरी हालत में। वैसे ये मरी हुई। मैं नहीं। इनकी आरती पूजा सब झूठी। इनके उपवास दान सब अपने मतलब के वास्ते। इनका मोह माया से ही। मेरा काया से। क्यों जलती है। मैं क्यों न अपनी काया को चमकाऊं ! आख़िर तक कहते हैं जैसा तन वैसा ही मन। मैं क्यों न अपने तन को साफ़ करूं ताकि मन साफ़ रहे। ये उसके सामने भी सौ झूठ। मैं नहीं। जो किया सब उसके सामने खुद साफ़ साफ़। मैं बुरी भली सो तेरी। बस सौ बातों की एक बात। जब इनसे कहती हूं भगवान मेरा भाई यह समझता हैं मैं मज़ाक कर रही हूं। मैं इनसे मज़ाक क्यों ये मेरी दुश्मन। मेरा मज़ाक भगवान से या बाला से या रसीला से या डॉली से इन से क्यों...

डॉली कहती है अगली बार वह सारी किट से आएगी। किट मतलब डॉली ? मांजी किट मतलब डिब्बा जिसमें सब कुछ गोली भी टीका भी खाने लगाने का तरीक़ा भी मांजी वहां तो मरना भी आसान मारना भी। डॉली यह सच ! बाई गॉड मांजी हाथ मिलाओ ! डॉली की बातें ! लेकिन मांजी आपको किटविट की क्या ज़रूरत। आप की सेहत ए वन आप सौ साल कम से कम। वैसे वह किट ले ही आना। अगर भगवान ने बात न मानी तो किट से ही काम मैं घुलघुल कर नहीं मरूंगी। कभी नहीं। यह पक्की बात। किट अपने बटुए में। यहां तो मरने के लिए भी जलो यो कुएं में कूदों या पंखे से लटको। मुझ से नहीं होगा मैं ऐसा कभी नहीं। वैसे भी मैं इस सब के खिलाफ़। जीवन जीने के लिए। तन भोगने के लिए फिर भी बीमारी से डरती हूं। डॉली बस अपने हाथों अपनी जान मैं एक ही हालत में-मोहताजी कभी नहीं। मांजी आप माडरन !

 डॉली इस लफ़्ज को बार बार दोहराती है। मुझ से तो ठीक से बोला नहीं जाता। मेरी नानी तो ऐसी बात सोच भी नहीं सकतीं। तेरी नानी तो डॉली यमदूत को भी कच्चा खा जाए। यमदूत क्या मांजी ? कैसे समझाऊं यम के दूत मतलब मौत के देवता के दूत मतलब बस भूत समझ लो। लेकिन मैं डॉली की किट के आने से पहले लाचार हो गयी तो अपना गला खुद घोंट दूंगी। मुझ से नहीं होगा हाथों  में इतनी ताकत कैसे। तो खाना पीना बन्द। गांधी जी की तरह। वह भी आसान नहीं। मुझको यह वहम क्यों ? जो होगा जब होगा देखा जाएगा। लेकिन सोचना तो चाहिए ही हर बूढ़ी-बूढ़े को कम से कम। सुन रहे हो बड़े भाई अब अड़ मत जाना। कुछ पता नहीं उसका उल्टा पड़ जाए तो और मुसीबत। जो हो उस से बात चीत में मज़ा। मज़ाक में वक्त कट जाता है। और कुछ न हुआ तो शायद बाला का वह मुश्टण्डा ही काम आ जाए। गला दबा दे दम बाहर। चिट्ठी पहले ही लिख कर बाला को। मैं अपने हाथों आप मेरी...

धौंस देखी तो बाला की। उसकी खरी खरी मुझे नहीं अखरती। उसके मज़ाक अच्छे लगते हैं। कहती है खैर मनाओ मैं हूं जब हाथ पैर ठप्प हो जाएंगो तो गू-मूत मैं ही करवाऊंगी मैं ही साफ़ करूंगी अपने हाथों से मुझ जैसी कहीं नहीं कोई मैं हट्टी कट्टी अपने हाथों से सब दलिया चूरी मालिश वो दिन अब दूर नहीं मांजी मुझ से बना कर रखो प्यार से बोलो बाला बेटी आपकी रिश्तेदारनें तो तब आपको देखने भी नहीं आएंगी और नर्सों के नख़रे तो आप जानती ही हैं मांजी बस अब आपको मेरा ही आसरा या मेरे मुश्टन्डे का। बाला की बातें ! बिलकुल दबंग। उसमें मुझे अपनी जवान मस्तानी ! क्या आंख मारती है हर आते जाते को। सब इस पर मोहित। बूढ़ों से बढ़ बढ़ कर बातें। कहती है मांजी बेचारे खुश हो जाते हैं मेरा क्या जाता है। वैसे हरामखोर मुंहफट कामचोर बातूनी बदमाश सब कुछ लेकिन दिल की साफ़। मेरी तरह।

जो मन में आया वही मुंह में। काम कम गप्पों का शौक। इधर की उधर उधर की इधर। सब मज़ा लेने के लिए मज़ा ले ले कर। किसने किस काम करने वाली को कुहनी मारी। कौन सी पड़ोसिन की लड़की किसके साथ किसका घर वाला कितना पीता है। कौन किसको कब पीटता है। किसके घर क्या पकता है। सब इसको मालूम। सजने धजने का शौक। कहती है मैं आपसे कम नहीं मांजी मैं भी फैशनदार कपड़े सब इसको फिट कहती हैं मैं आपकी बेटी लगती हूं रंग काला बेशक चमकदार। साथ अक्सर अपना सांवला यार। रिश्ते में भाई कजन मांजी बेफिकर रहो सब ठीक। आज आंटी आयी है इसलिए ले आयी साथ मुझ से आज झुका नहीं जाता हर दूसरे हफ्ते इसकी आंटी। बहानेबाज़ बाला। मुझे क्या। मेरे घर में रौनक दोनों जवान। मेरा क्या जाता है। आएं जाएं मुझे तो बुरी लगती उनकी छेड़ छाड़।

बाला की आंख। मुश्टण्टे का मुसकराना गाना। पान बस थूकना मत नहीं तो मारूंगी। मांजी इसकी क्या मज़ाल जो थूके जीभ खींच लूंगी मेरा नाम बाला मैं मांजी की बेटी बेशक मैं काली जमादारिन वह गोरी मेम। मेरा दिल खुश मेरे घर में रौनक इनसे ही। या अपनी यादों से। बाथ रूम अन्दर से बन्द। बाला की किलकारियां। माजी इस मुए को मना करो यह मुझको गुदगुदी यह गन्दा लड़का मुश्टन्डा बदमाश मांजी इसने मेरी चूड़ियां भी तोड़ दीं। मैं इसको अब कभी नहीं लाऊंगी अपने साथ इसके हाथ हर जगह। इतनी देर से बाथ रूम में निकलो बाहर। मैं झूठ मूठ का गुस्सा। निकलो बाहर दरवाज़ा क्यों बन्द ! बातूनी बाला मुझको अच्छी लगती है। मांजी यह झाड़ू बेकार फ़ीनाइल भी फुस्स पानी भी कम मैं बाथरूम को कैसे साफ़ ऊपर से यह साला मुझको तंग। और उसको कोई आवाज़ ही नहीं वह चुप्पा अपना काम चुपचाप अन्दर से आवाज़ें पुच पुच मुझे क्या मेरा क्या जाता है मैं खुश अगर यह बेहया सचमुच मेरी बेटी होती तो सोचना बेकार जो नहीं हुआ उसका क्या गम। यह न सोचो क्या न पाया यह कहो क्या मिल गया कितने ही गाने मुझको याद...

नहीं थी किस्मत में औलाद न सही अब रोना क्या उसका। आख़िरी उमर में मैं जगत माता। मैं बांझ नहीं कैसे समझाऊं। किस किस को। बस गुस्सा आता है। अपनी ही गलती। यह भेद अब मेरे साथ। वैसे तो ठीक ही क्या फायदा किसी को क्या पड़ी वह मेरी यह पीड़ा आख़िर क्यों। जब सोचती हूं तब सुलगन बांझ एक गाली क्यों। इसमें औरत का क्या दोष अगर मर्द नामर्द तो उसका क्या कसूर। दिल करता है किसी दिन बाला को सब। रसीला को भी। उसकी मां को कभी नहीं। वह भाभी बस नाम की। मुझे क्या लेना देना उस से मैं अपने घर अच्छी। रसीला घर अपना छोड़ बरसाती में क्यों किसी दिन उस से पूछूंगी। शायद वह खुद ही अपने आप किसी दिन सब कुछ कह डालेगी। मुझ से। मैं बाला से। जमादारनें क्यों अक्सर इतनी जाबर। कसी हुई पोशाक अकड़ी हुई चाल। सीना तान के चलती है। आंखों में नशा बालों में फूल होठों पर लाली।

 नाक में लोंग। पैरों में झांझरें। इसीलिए मर्द उनपे लट्टू। आवाज़ सुरीली। नमकीन मुस्कान। इसीलिए मन्दिरों के पुजारी अकसर उनके पीछे बदनाम औरों को क्या कहूं पिता की आंख उस पारो पर। उन पर मां का पहरा फिर भी। पारो को सब ने काली परी का नाम दे रखा था। मां ने काली डायन का। उसके नखरों की क्या बात। उसकी आखों से अंगारे। आंखों से ही क्यों उसका तो अंग अंग अंगारा। फटेफटे कपड़े वह जान बूझ कर। मां कहती इसको शर्म नहीं। पारो कहती मांस ही मांस है काला। पिता की आंख उसके पीछे-पीछे, मां कहती तेरा घरवाला भी तुझको मना नहीं करता क्यों वह कहती मैं क्या करती हूं और वह भोंदू मुझको क्या बांध के रखेगा कमाएगा उसका बाप।

मां कहती तौबा तौबा ! इतनी लाली पोत कर मत आया कर मेरे घर पारो। वह कहती बीजी मुझ गरीब की लाली मत छुड़वाओ मैं मर जाऊंगी मझे एक ही शौक सच कहती हूं मेरा घर वाला बेकार ऐसा तो ईश्वर दुश्मन को भी न दे मैं एक लात मार दूं तो वह लंगड़ा नामर्द मां तौबा तौबा करती कहती इसकी जुबान इतनी लम्बी। पिता की आंख उस पारो पर। मां कहती पारो तू घर कमाने आती है या नाच नाचने। पारो कूल्हे मटकाती थी। झाड़ू ऐसे देती जैसे आंगन को दुलार रही हो। पिता खड़े-खड़े खिलियाते रहते। मैं सब समझती थी तब भी अब और साफ़ उन दोनों का आँख मटक्का देखने में मुझको मज़ा मां नाराज। मैं मां को छेड़ती मां तू उसको ऐसे धमकाती है जैसे वह तेरी बेटी। तू चुप रह। जैसा बाप वैसी बेटी। बाल पक गये आंखों का ऐब नहीं गया शर्म भी नहीं आती इतनी बड़ी बेटी।

मुझे सब याद। सब तो नहीं खैर काफी कुछ। मैं कहती मां देखने दो देखने से क्या होता है। वह कहती तेरा सिर तू चुप रह पैदा होते ही चपर चपर बन गई हमायतिन उसकी मैं उसको जानती हूं तू अनजान सब कुछ देखने से ही शुरू होता है। बाला को देख पारो की याद। दोनों का रंग काला आंख करारी बदन में बांकपन अंग अंग से अंगारे। और इशारे। राह जाते की जान निकाल लेने वाली आंखें। दोनों का नखरा टखरा देखने लायक। पारो बाला से बड़ी। जवानी में मैं भी बाला जैसी लेकिन मेरा रंग गोरा। काले रंग की अपनी रौनक। जमादारनों की अपनी शान...


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