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नाच्यौ बहुत गोपाल

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :328
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1414
आईएसबीएन :9788170280057

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‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर का, उनके अब तक के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा मौलिक उपन्यास है

Nachyo Bahut Gopal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर का, उनके अब तक के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा मौलिक उपन्यास है। इसमें ‘मेहतर’ कहे जानेवाले अछूतों में भी अछूत, अभागे अंत्यजों के चारों ओर कथा का ताना-बाना बुना गया है और उनके अंतरंग जीवन की करुणामयी, रसार्द्र और हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की गई है। ‘मेहतर’ जाति किन सामाजिक परिस्थितियों में अस्तित्व में आई, उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं क्या हैं, आदि प्रश्नों के उत्तर तो दिए ही गए हैं, साथ ही वर्तमान शताब्दी के पूर्वार्द्ध की राष्ट्रीय और सामाजिक हलचलों का दिग्दर्शन भी जीवंतता के साथ कराया गया है। वस्तुतः ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ की कथा का सुंगुम्फन एक बहुत व्यापक कैनवास पर किया गया है।

 ढाई-तीन वर्षों के अथक परिश्रम से, विभिन्न मेहतर-बस्तियों के सर्वेक्षण व वहां के निवासियों के ‘इंटरव्यू’ के आधार पर लिखी गई इस बृहद् औपन्यासिक कृति में नागरजी के सहृदय कथाकार और सजग समाजशास्त्री का अद्भुत समन्वय हुआ है।

सितम्बर सन् ’14 की सरस्वती में अपने वर्ग की विपदा बखानने वाले  प्रथम कवि पटना के श्री हीरा डोम और सरस्वती सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रति श्रद्धांजलियों सहित यह पुस्तक अपने श्रद्धेय पाठक लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण के कर कमलों में उनके अमृत वर्ष पर अमृत भेंट !

 

निवेदन

 

यह उपन्यास पूरा हुआ। ऐसा लगता है कि जैसे एक सपना देखा और आंख खुल गई। ढाई-तीन वर्ष जिस समस्या और उसके निमित्त चरित्रों की तलाश में भटका, जगह-जगह इंटरव्यू लेते हुए जिन मनोधाराओं में बहा, जिस चिंतन-प्रक्रिया के सहारे मुझे समवयस्क और समानधर्मा लेखक-पत्रकार श्री अंशुधर शर्मा और विशेष रूप में श्रीमती निर्गुनियां मिलीं-वह सारी मनोलीला उपन्यास के अन्तिम वाक्य के साथ ही सिमट गई। इस समय मन एक जगह हल्का और एक जगह भारी भी लग रहा है।

इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा मुझे एक घटना से मिली, जिसकी चर्चा में सन् ’75 की विजयादशमी के अवसर पर प्रकाशित ‘धर्मयुग’ में कर चुका हूं। मैंने सुना कि एक धनी वृद्ध ब्राह्मण व्यापारी की तरुणी भार्या एक मेहतर युवक से साथ भागी थी। अपने साथ वह काफी गहने और रुपये भी चूंकि ले गई थी, इसीलिए दो दिनों के बाद ही अपने प्रेमी सहित पकड़ी गई। वास्तविक जीवन की इस पात्री ने पकड़े जाने के बाद अपने भविष्य को किस रूप में भोगा यह जानने का साधन तो मेरे पास न था, पर कल्पना में समस्या ने एक और ही रूप धारण कर लिया। विभिन्न मेहतर बस्तियों में स्त्री-पुरुषों से भेंट करके उनके रीति-रिवाज, किंवदंतियों के रूप में प्रचलित उनके इतिहास की परम्पराएं और उनके सुख-दुख के हाल-चाल जानने में मुझे कुछ कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा।

 लोग प्रायः संकोचवश अपना सत्य पूरी तरह से मेरे सामने उद्घाटित नहीं करते थे। मैंने पत्रकारों की तरह धीरे-धीरे करके कुछ जानकारियां तो अवश्य बटोर लीं किन्तु मात्र उन्हीं से मेरे उपन्यासकार को सन्तोष न मिला। ऐसे कुछ परिचितों के मकान भी खोजे जहां बैठकर मैं उनके पिछवाड़े की भंगी बस्तियों में होनेवाले क्रिया-कलाप और उनकी मुक्त बातें किसी हद तक देख-सुन सकता था। और भी कुछ जोड़-जुगाड़ करके उनके अन्तरंग जीवन की थाह पाने का प्रयत्न किया। काम करते हुए क्रमशः मुझे यह अनुभव होने लगा कि भंगी कोई जाति नहीं है। और यदि है भी तो केवल गुलामों की जाति ! जिन सनातन श्वपच चांडालों से आज हम साधारणतया भंगी वर्ग से जो़ड़ लेते हैं, वह मुझे भ्रामक लगा।

महामहोपाध्याय डा. पांडुरंग वामन काणे द्वारा लिखित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में अस्पृश्यता के सम्बन्ध में दी हुई जानकारी से यह अंदाज मिला कि : ‘‘स्मृतियों में वर्णित अन्त्यजों के नाम आरम्भिक वैदिक साहित्य में भी आए हैं। ऋग्वेद (8/5/38) में चर्मन्न (खाल या चाम शोधने वाले) एवं वाजसनेई संहिता में चांडाल एवं पौल्कस नाम आए हैं। बप या बप्ता (नाई) शब्द ऋग्वेद में आ चुका है। इसी प्रकार वाजसनेई संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में बिदलकार या बिडलकार (स्मृतियों में वर्णित बरुड) शब्द आया है। वाजसनेयी संहिता का वासस्पल्पूली (धोबिन) स्मृतियों के रजक शब्द का ही द्योतक है। केवल इतना-भर ही कहा जा सकता है कि पौल्कस का सम्बन्ध बीभत्सा (वाजनेयी संहिता 30/17) से एवं चांडाल का वायु (पुरुषमेध) से था और पौल्कस इस ढंग से रहते थे कि उनसे घृणा उत्पन्न होती थी तथा चांडाल वायु (सम्भवतः श्मशान के खुले मैदान) में रहते थे।

 छान्दोग्योपनिषद (5/10/7) में चांडाल की चर्चा है और वह तीन उच्च वर्णों की अपेक्षा सामाजिक स्थिति में अति निम्न था, ऐसा भान होता है। सम्भवतः चांडाल छांदोग्य के काल में शूद्र जाति की निम्नतम शाखाओं में परिगणित था। वह कुत्ते और सुअर के सदृश कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण (12/4/1/4) में यज्ञ के सम्बन्ध में तीन पशु अर्थात् कुत्ते सुअर एवं भेड़ अपवित्र माने गए हैं। यहां पर उसी सुअर की ओर संकेत है, जो गांव का मल आदि खाता है, क्योंकि मनु (3/270) एवं याज्ञवल्क्य (1/259) की स्मृतियों में हमें इस बात का पता चलता है कि श्राद्ध में सुअर का मांस पितर लोग बड़े चाव से खाते हैं। अतः उपनिषद वाले चांडाल को हम अस्पृयश्य नहीं मान सकते। कुछ कट्टर हिन्दू वैदिक काल में भी चांडाल को अस्पृश्य ठहराते हैं और बृहदारण्यकोपनिषद् (1/3) की कथा का हवाला देते हैं। किन्तु इस गाथा से यह नहीं स्पष्ट किया जा सकता कि चांडाल अस्पृश्य थे। म्लेच्छों की भांति वे ‘‘दिशाम् अन्त:’’ नहीं थे, अर्थात् आर्य जाति की भूमि से बाहर नहीं थे।’’

डा. आम्बेडकर का मत है कि आमतौर से ब्राह्मण संस्कृति के पोषक हिन्दू विद्वानों ने अपवित्रों और अछूतों को एक ही वर्ग में सम्मिलित करके बखाना है जो उनके दृष्टिकोण से गलत है। वे अपवित्रों और अछूतों में भेद करते हैं। उनका कहना है कि अपवित्रों का वर्ग धर्मसूत्रों की रचना करते समय विचारणीय माना गया था। प्रतिलोम सम्बन्धों से उत्पन्न संतानें अपवित्र थीं, अस्पृश्य नहीं। अछूतों की समस्या डाक्टर साहब के विचार से चार सौ ईसवी के बाद आरम्भ हुई। बड़े-बड़े कबीलों के छोटे-छोटे टुकड़े अक्सर कटकर बिखर जाते थे, उन्हें अछूत ठहराया जाता था। जिस प्रकार अछूतों का कोई जातिगतभेद नहीं है उस प्रकार उनका कोई व्यवसायगत भेद भी नहीं है।

आदिम मनुष्य की सभ्यता में कुछ बातों का ध्यान छूने-न-छूने की दृष्टि से विकसित हुआ था। माना जाता है कि जन्म के समय, लड़कियों के मासिक धर्म आरम्भ होने के समय तथा मैथुन और मृत्यु के मौकों पर आदिम मनुष्य अस्पृश्यता का अनुभव करते थे। जच्चाघर में जच्चा और बच्चा दोनों ही अपवित्र माने जाते थे। स्त्रियों के मासिक धर्म आरम्भ होने पर उन्हें लोगों की नज़रों से दूर एकांत और एक वस्त्र में ही रखा जाता था। उन्हें चीजों अथवा मनुष्यों को स्पर्श करने की मनाही होती थी। भोजन भी एक विशेष प्रकार का करना पड़ता था। करीब-करीब सारी दुनिया की आदिम सभ्यता में किसी न किसी हद तक अवश्य ही प्रतिबन्ध रहे थे। किन्तु डाक्टर अम्बेडकर के अनुसार अन्य देशों में तो केवल व्यक्ति ही कारणवश अछूत माने गए, लेकिन हिन्दुओं ने पूरी की पूरी जातियों को ही अछूत बना डाला और वह भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनन्तकाल के लिए !

स्टेनले राइस ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजन्स’ में यह भी लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्रायः वे जातियां भी हैं, जो विजेताओं से हारीं और अपमानित हुईं तथा जिनसे विजेताओं ने अपने मनमाने काम करवाए थे। संयोगवश लखनऊ के उत्साही समाजसेवी श्री अच्छेलाल वाल्मीकि तथा हरिजन सेवक संघ, दिल्ली के पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि एम.ए. की बातों से भी मुझे स्टेनले राइस के कथन का सत्याभास मिला। पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि (राउत मेहतर) ने मुझे एक पुस्तक ‘पतित प्रभाकर’ अर्थात् मेहतर जाति का इतिहास पढ़ने को दी। यह पुस्तक गाजीपुर के श्री देवदत्त शर्मा चतुर्वेदी ने सन् 1925 में लिखी थी और इसे चिन्तामणि जी के पितामह श्रीमान् वंशीराम राउत (मेहतर) मिलमिल तालाब, गाजीपुर, ने 1931 में अपने खर्च से प्रकाशित करवाया था। इस छोटी-सी पुस्तक में ‘भंगी’, ‘मेहतर’, ‘हलालखोर’, ‘चूहड़’ आदि नामों से जाने गए लोगों की किस्में दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं

नाम-जाति-भंगी—वैस, वैसवार, बीर गूजर, (बग्गूजर) भदौरिया, बिसेन, सोब, बुन्देलिया, चन्देल, चौहान, नादों, यदुबंशी, कछवाहा, किनवार, ठाकुर, बैस, भोजपुरी राउत, गाजीपुरी राउत, गेहलौता (ट्राइब एण्ट कास्ट आफ बनारस)
मेहतर-भंगी-हलाल-खरिया-चूहड़—गाजीपुरी राउत, दिनापुरी राउत, टांक (तक्षक) गेहलोत, चन्देल, टिपणी। इन जातियों के जो यह सब भेद हैं वह सबके सब क्षत्री जाति के ही भेद या किस्म हैं। (देखिए ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस, छापा सन् 1872)
राजपूत—(8) गेहलोत (7) कछवाहा (14) चौहान (16) भदौरिया (26) किनवार (27) चन्देल (29) सकरवार (31) वैस (39) विसेन (53) यदुवंशी (99) बुन्देला (48) बड़गूजर पन्ना (222) पन्ना (235) दजोहा या जदुवंशी गूजर पन्ना (248) राउत।

जब भंगी या मेहतर जाति का भेद राजपूतों के जाति-भेद या किस्म से बिल्कुल मिलता है तो अब इनके क्षत्रिय होने में क्या सन्देह है ! (लेखक महादेव सिंह चन्देल, बनारस।)

नारदीय संहिता में बखाने गए दासों के पन्द्रह कर्मों में एक मल-मूत्र उठाने वाले दास भी बतलाए गए हैं। मेरा अनुमान है कि यह दास आमतौर से ‘वी.आई.पी.’ लोगों के यहां ही रहते होंगे। शहरों में संडासों का चलन बहुत पुराना है। इन संडासों में साल-छै महीने के बाद नमक डाल दिया जाता था। गांवों में आवश्यकता ही न थी ‘झाड़ा’, ‘पोखरा’, ‘बहरी अलँग’ आदि प्रचलित शब्द हमारी प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति की जगहों का इशारा करते हैं। एक ‘बम्पुलिस’ शब्द ने मेरे लिए तनिक समस्या खड़ी की। यह शब्द जहां तक मेरी जानकारी है, हिन्दीभाषी क्षेत्र में सार्वजनिक शौचालय के अर्थ में प्रयुक्त होता है, किन्तु यह शब्द क्योंकर ? आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बम्पुलिस’ शब्द का शुद्ध रूप ‘ब्रह्म पुरीष’ बतलाया। उनका कहना था कि बनारस में यज्ञकर्ता ब्राह्मणों के लिए ऐसे सार्वजनिक शौचालय बनाए जाते थे। मन में यह शंका उपजी कि हमारे यहां ब्रह्म शब्द बिगड़कर ‘बम’ नहीं बनता बल्कि ‘बरम’ बनता है-जैसे ‘बरमराकस’ ‘बरमहत्या’ इत्यादि।

तब क्या पुरीष की गन्ध से बरम का रकार भाग गया ? हरिजन-सवर्ण संघर्ष की लपेट में आकर मेरठ के आस-पास का एक स्थान ‘बमनोली’ भी अखबारों में चमका। मैंने मेरठ विश्वविद्याय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा. रामेश्वरदयालु जी को परेशान किया। गांव का नाम ‘बामनोली’ है किन्तु डा. अग्रवाल का कहना था कि बम्पुलिस शब्द बहुत पुराना नहीं लगता। हमने बन्धुवर डा. रामविलास जी शर्मा से भी इस शक की जासूसी जांच करवाई। शर्माजी ने बम्पुलिस शब्द का निकास अंग्रेज़ी के शब्द ‘बैम्बू’ पोल्स से बतलाया। बांस, के ढांते पर टट्टियां मढ़वाकर अंग्रेज़ों ने कुम्भ के मेले में पहली बार ‘बैम्बू पोल्स’ बनवाए थे। टट्टियों की आड़ देकर ऐसे शौचालय शायद पहले भी मेलों के मौकों पर बनते होंगे, इसीलिए ‘टट्टी’ शब्द शौचालय के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

प्रियवर रामबिलास, जी ने सितम्बर सन् 1914 ई. की ‘सरस्वती’ से पटना के श्रीयुत हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत के प्रति मेरा ध्यान आकर्षित किया। श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी ने बलिया के कवि एडवोकेट श्री रामसिंहासन सहाय मधुर की सन् 1926-28 में लिखी हुई दो कविताएं ‘डोम और डोमिन’ पढ़ने के लिए दीं। महात्मा गान्धी जब हरिजन आन्दोलन के लिए देशव्यापी दौरा करते हुए बक्सर पधारे थे तब धर्मान्ध लोगों की भीड़ ने उनके ऊपर ढेलों से प्रहार किया था। मधुर जी ने ये कविताएं उसी समय लिखी थीं। सन् 1927-28 ई. के मासिक ‘चांद’ की फाइल और लगभग उसी काल की ‘माधुरी’ तथा ‘त्यागभूमि’ की फाइलों से भी मैंने बड़ी सहायता पाई। इन सबके प्रति हृदय से आभारी हूं। मेहतर वर्ग के स्त्री-पुरुषों से इण्टरव्यू लेने के काम में श्री अच्छेलाल वाल्मीक, पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि, आयुष्मान् अब्दुल खालिक, श्री कल्लू और श्री सुन्दरलाल ने मेरी सहायता की। उनके प्रति भी कृतज्ञ हूं। बन्धुवर श्री ज्ञानचन्द्र जी जैन ने टंकित पांडुलिपि में आवश्यक सुधार करने और मेरे लिए पुस्तकालयों से इच्छित साहित्य लाने में बड़ी सहायता की है। उन्हें धन्यवाद देना मेरे लिए कठिन है। इस पुस्तक की पांडुलिपि चि. अशोक ऋषिराज और चि. राजेन्द्रप्रसाद वर्मा को बोलकर लिखाई है। इन दोनों युवकों को भी अपने आशीर्वाद देता हूं।
अमृतलाल नागर

 

1

 

ऊंचे टीले पर बने मन्दिर के चबूतरे से देखा तो सारी बस्ती मुझे अपनी वर्णमाला के ‘द’ अक्षर जैसी ही लगी। शिरोरेखा की तरह सामने वाली गली के दाहिनी ओर से मैंने प्रवेश किया था। ‘द’ की कंठरेखा वाली गली सुलेख में लिखे अक्षर की तरह ठीक शिरोरेखा के बीच में न होकर उसके बांये सिरे पर है। वहां से करीब-करीब ‘द’ के घुमावदार पेट की तरह ही नगर महापालिका की ओर से बनवाई हुई कालोनी है, सामने मैदान है। और यह टीला जिस पर मैं इस समय खड़ा हूं वह यों समझिये कि ‘द’ अक्षर की घुण्डी जैसा ही है। इसके बाद शाक-सब्जियों की एक खासी लम्बी पट्टी उस सारी भंगी बस्ती को ‘द’ की शक्ल दे देती है। ‘द’ माने दमन। प्रकृति ने मानो इस बस्ती के कपाल पर ही दमन शब्द लिख दिया है।

अपने घर के पिछवाड़े बसी हुई भंगी बस्ती को यों तो मैं बचपन से ही देखता चला आ रहा हूं, परन्तु सच पूछा जाय तो अभी कुछ ही महीनों पहले मैंने एक विचार के रूप में उसके दर्शन किए थे। अपने अध्ययन कक्ष की खिड़की चित और व्यावहारिक रूप से सुसम्बन्धित होते हुए भी मैं अपने इन पड़ोसियों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता। बस दो चार छह लोगों के नाम भर ही जानता हूं। कभी-कभार उनकी बातें या लड़ाई-झगड़ों के दृश्य देखे हैं, जवानी में दो एक नई ब्याहुली भंगिनों के सलोने चेहरे भी जब-जब दिखलाई पड़ जाने पर मेरे मन में रस का स्पर्श दे जाते थे। उनमें एक चेहरा जो जवानी में जैन रामायण की चन्द्रनखा जैसा सलोना लगता था अब बुढ़ापे में वाल्मीकि-तुलसी रामायण की सूपनखा सा बदसूरत हो गया है। खैर, तो इसी बस्ती के बहाने मैंने शहर की भंगी बस्तियों में इण्टरव्यू करने का प्रोग्राम बनाया। अब तक जिस वर्ग को मैंने केवल अपनी बौद्धिक सहानुभूति-भर ही दी थी उसे पहली बार निकट से पहचानने की उत्कट इच्छा जागी। इण्टरव्यू का काम आरम्भ करने के प्रायः एक सप्ताह के भीतर ही मुझे अनुभव हुआ कि संस्कृति को केवल आभिजात्य दृष्टि से देखना खाड़ी में समुद्र को देखने के समान ही है। खाड़ी में जन-संस्कृति के महासागर का अगाध असीम सौंदर्य भला क्यों कर दिखलाई दे सकता है !

मैं दो दिनों से इस भंगी टोले में आ रहा हूं। यों तो बड़े-बूढ़ों, जवानों से इण्टरव्यू लेने के काम मैं कल ही पूरे कर चुका था, मगर आज एक लालच और एक बहाना लेकर फिर आया हूं। बहाना है बस्ती के फोटो खींचना और लालच है उन निर्गुनियां दादी-चाची से मिलना जिन्होंने कल मुझसे मिलने से इन्कार कर दिया था।

श्रीमती निर्गुनियां के सम्बन्ध में मैंने बस्तियों में सुना था। यह तो आमतौर से सुना कि शहर के मेहतर समाज में शिक्षा प्रसार करने का काम सबसे पहले उन्होंने ही किया था। उनका पति मोहना डाकू लगभग चालीस वर्ष पहले बहुत मशहूर होकर पुलिस के हाथों गोली का शिकार हुआ था। श्रीमती निर्गुनियां ने उसके बाद संकटों के बड़े-बड़े आंधी तूफान झेलकर अपने बेटे-बेटी को पढ़ाया। शहर के मेहतरों में शिक्षा की लगन जगाई, धन्धों और बाजे बजाने का काम अधिकाधिक फैलाने और उन्हें स्वावलम्बी बनाने के लिए उन्होंने कुछ वर्षों तक खूब ही लगन से काम किया था। अब कुछ बरसों से इन सब कामों से वे अलग हैं। कुछ साग सब्जी उगाती बेचती हैं, कुछ ब्याज-बट्टा भी फैला हुआ है। बेटी और बेटा दोनों ही ऊंचे ओहदे पर हैं, अच्छे वेतन पाते हैं। मां को बहुत मानते हैं, उनकी सुख-सुविधाओं के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। लोग कहते हैं कि रामजी की दया से जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें। टीले की ढलान पर बना हुआ छोटा-सा मकान उन्हीं का है। सब्जी वाली पट्टी भी उन्हीं की मिल्कियत में शामिल है। शाम को भीतर से घर बन्द करके पीती हैं और अकेले में कुछ बड़बड़ाया करती हैं। पीती हैं तब उस समय कोई उन्हें पुकारे तो भद्दी भद्दी गालियां बकती हैं।

मैंने उन्हें कल गालियां बकते हुए एक झलक देखा भी था सिर पर ओढ़नी नहीं थी, हाथ बढ़ा-बढ़ाकर किसी को गलियां दे रही थीं। मुझे देखते ही अन्दर चली गईं।
इससे पहले हरिजन मांटेसरी स्कूल के सर्वेसर्वा अध्यापक श्यामलाल, जिनके घर पर बैठकर मैंने सबके इण्टरव्यू लिए थे, मेरे आग्रह पर श्रीमती निर्गुनियां से स्वयं यह कहने गए थे कि अगर वे नहीं आ सकतीं तो मैं ही उनके यहां आ जाऊंगा। लेकिन निर्गनियां जी ने इससे भी इन्कार कर दिया। मुझे बुरा तो लगा था, मगर सच पूछा जाय तो इसी इन्कार ने मेरे इसरार को बढ़ा दिया। मैंने सोचा कि दलित वर्ग की इस प्रतिष्ठित महिला को ‘वी.आई.पी.’-व्यवहार से प्रसन्न करूंगा। इसीलिए आज फोटोग्राफर ही नहीं थैले, में एक व्हिस्की की बोतल और कुछ फल मिठाई भी उनके वास्ते छिपाकर लाया था। डाकू की पत्नी, आन्दोलनकारिणी और संघर्षयुक्त जीवन बितानेवाली दो शिक्षित सन्तानों की मां के अनुभव प्राप्त करने के लिए मैं विशेष रूप से अधिक लालायित था।

टीले से बस्ती के बिहंगम दृश्य की छवि खिंचवाकर मैंने फोटोग्राफर को तो विदा किया और अध्यापक श्यामलाल से कहा : ‘‘आज मैं श्रीमती निर्गुनियां से मिलकर ही जाऊंगा, यह मैंने तय कर लिया है।’’
श्यामलाल दबसट में पड़ गए, मैंने कहा :‘‘आप केवल यह पता लगा लें कि वह घर पर हैं या नहीं-’’
‘‘होंगी तो वह घर ही में। इस समय कहीं नहीं जातीं।’’
‘‘तब आप अपनी इस दर्शक सेना को लेकर जाइए। मैं वहीं जाता हूं।’’

‘‘मैं आपके साथ चलूंगा, सर। कहीं उन्होंने आपका अपमान कर दिया तो मुझे बुरा लगेगा। वैसे चाची ऐसी हैं तो नहीं।’’
‘‘छोड़िए इन बातों को। मैं बहुतों से मिल चुका हूं, कड़वे-मीठे अनुभव तो होते ही रहते हैं। मुझे अभ्यास है।’’
झोला लिए टीले की ढाल की तरफ चल पड़ा। श्रीमती निर्गुनियां का मकान छोटा मगर पुख्ता था। बरामदे में पहुंचकर मैंने दरवाज़े की कुण्डी खट-खटाई।
‘‘कौन है ?’’
मैं सोचने लगा कि जवाब दूं या न दूं ! शायद मेरी आवाज़ सुनकर ही सन्नाटा खींच जायं। मगर मैंने फिर कुण्डी खटखटाई।
‘‘अरे कौन है हरामजादा, पूछती हूं तो बतलाता भी नहीं !’’
‘‘मैं आपसे मिलने आया हूं निर्गुनियां जी ! दरवाज़ा खोलिए।’’
मौन ! मैं कठोर से कठोर बात सुनने के लिए तैयार था। इन्कार करेगी तो चला जाऊंगा। लेकिन कुण्डी खुल गई। एक भरे-चिकने बदन से अधिक आकर्षक, तेजस्विनी बुढ़िया ओढ़नी-लहंगे के लिबास में मेरे सामने खड़ी थी। चेहरे पर जमाने की कड़ी मार से बनी कुछ रेखाएं अवश्य थीं, पर झुर्रियां अभी तक नहीं पड़ी थीं। आंखों में चुम्बक था जिसने मुझे भी खींचा। आवाज़ भी शिष्ट और मधुर थी

‘‘आइये ! बाबूजी ! बड़े भाग जो इस अभागिन के घर आपकी चरनधूल पड़ी।’’
मैं कमरे में आगे बढ़ गया। उन्होंने दरवाज़ा बन्द करके कुण्डी चढ़ाई। कमरे में अंधेरा हो गया, मगर दूसरे ही क्षण रॉड की रोशनी आंखें मिचमिचाती-सी जाग उठी। कमरा सुरुचि पूर्ण ढंग से सजा था। लकड़ी के सस्ते-भद्दे सोफासेट मैंने इस बस्ती के और भी पांच-छह घरों में देखे हैं। कई भंगी बस्तियों में देखे हैं। टेबिल फैन, सीलिंग फैन, ट्रांजिस्टर रेडियो भी कुछ जगहों पर देखे हैं, परन्तु यहां अपेक्षाकृत कुछ अधिक कीमती फर्नीचर था। सोफों पर फोम की गद्दियां थीं। शीशेदार अलमारी में चाय के प्यालों के दो सेट, कुछ गुड्डे गुड़िया और दो चार खिलौने सजे थे। दीवार पर केवल एक ही बड़ा-सा फोटोग्राफ था। किसी मृत युवक का चेहरा। अनुमान किया, यही कुख्यात मोहना डाकू होगा। पूछ लिया, श्रीमती निर्गुनियां ने सकार भी लिया। मैं सोफे पर बैठा फिर झोले से फल-मिठाई और ब्लैकनाइट व्हिस्की की बोतल निकालकर मेज़ पर रखी।
‘‘यह सब किसलिए ?’’
‘‘आपके लिए तुच्छ उपहार।’’

‘‘क्यों ?’’
‘‘मैंने कल सब बच्चों को टॉफियां बांटी थीं।’’
‘‘तो क्या मैं बच्ची हूं, बाबूजी ?’’
‘‘आपने मिलने से इन्कार किया तो मैंने सोचा कि इस जिद्दी बूढ़ी-बच्ची को मनाना पड़ेगा।’’
बात मुंह से निकल ही गई, वरना कहना नहीं चाहता था। कहकर भय भी लगा कि वह बुरा न मान जायं। मगर वह मुस्कराईं, कहा : ‘‘तो मेरी बदनामी हुजूर तक पहुंच चुकी है ! खैर, इसे रखिए। आप अगर शौक करते हों तो लाऊं भीतर से !’’
‘‘मैं कभी-कभी पीता जरूर हूं लेकिन काम के समय कभी नहीं।’’

‘‘मेहतरों से बातें पूछना आपका काम है ?’’
‘‘जी हां, इस समय तो यही है।’’
‘‘क्या सरकारी काम है ?’’
‘‘नहीं अपना। सामाजिक।’’
‘‘इससे क्या होगा ?’’
‘‘यह काम मैं अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए कर रहा हूं।’
‘‘हां ! एक बात बतलाइएगा बाबूजी, आप मन से कितने मेहतर बन चुके हैं अब तक ?’’
प्रश्न का मर्म पहचान कर भी मैं उसे टाल गया और अभिनय-भरी हंसी हंसकर चतुराई से कहा : ‘‘किसी का मल-मूत्र साफ कर सकता हूं। टोकरा उठाकर चल नहीं सकता।’’

श्रीमती निर्गुनियां सामने सोफे पर टांग पर टांग चढ़ाये बैठी बिल्कुल मास्टराना अन्दाज में सवाल पर सवाल कर रही थीं। बात कहते हुए मेरी दृष्टि उनकी नजरों पर सधी थी। ठहरी-सी नीली पुतलियां जिनमें हिप्नोटाइज करने की ताकत है, मेरी दृष्टि का निशाना थीं। नीले, भूरे या सुनहरे रंग की पुतलियाँ हिन्दुस्तान में कम ही लोगों की होती हैं। ये नीली आंखें खींचती और दुरदुराती एक साथ हैं। यही इनका आकर्षण है। खैर, मेरे अनुमान से इनकी आयु अब पैंसठ सत्तर की लपेट में होगी। जवानी में बहुतों को अपनी तरफ खींचा होगा। श्रीमती निर्गुनियां भी लगातार मेरी ओर ही देख रही थीं। हम दोनों ही शायद एक दूसरे को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। सहसा मुझसे पूछा: ‘‘मेरे हाथ का बनाया खाना खा लेंगे ?’’
‘‘आसान सवाल है।’’

‘‘मेरे साथ एक थाली में खा लेंगे ?’’
‘‘अगर आवश्यकता पड़ी तो निःसंकोच।’’
‘‘जैसे समाज की लेडियों के साथ कभी पार्टियों में पीते होंगे वैसे मेरे साथ भी पी सकेंगे ?’’
‘‘क्यों नहीं !’’
‘‘एक गिलास में ?’’
‘‘वह उम्र अब बीत गई।’’
श्रीमती निर्गुनियां कुइन विक्टोरिया की तरह हल्के से हंसी, फिर कहा, ‘‘मैंने सोचा, शायद हुजूर ने मेहतरानियों से इश्क लड़ाने के लिए ही इस काम का लबादा ओढ़ा हो।’’


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