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रहस्य-रोमांच >> बीरेन्द्रबीर अथवा कटोरा भर खून

बीरेन्द्रबीर अथवा कटोरा भर खून

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : लहरी बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 1988
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15388
आईएसबीएन :0

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बाबू देवकीनन्दन का रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास

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वावू देवकी नन्दन खत्री का नवीन उपन्यास

।। श्री सरस्वत्यै नमः।।

बीरेन्द्रबीर

पहिला बयान

"लोग कहते हैं कि नेकी का बदला नेक और बदी का बदला बद मिलता है' मगर नहीं, देखो आज मैं किसी नेक और पतिव्रता स्त्री के साथ बदी किया चाहता हूँ। अगर मैं अपना काम पूरा कर सका तो कल ही राजा का दीवान हो जाऊँगा। फिर कौन कह सकेगा कि बदी करने वाला सुख नहीं भोग सकता या अच्छे आदमियों को दुःख नहीं मिलता? बस मुझे अपना कलेजा मजबूत कर रखना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि उसकी खूबसूरती और मीठी-मीठी बातें मेरी हिम्मत ...... (रुक कर) देखो कोई आता है !"
रात आधी से ज्यादे जा चुकी है। एक तो अंधेरी रात, दूसरे चारों तरफ से घिर आने वाली काली-काली घटा ने मानो पृथ्वी पर स्याह रङ्ग की चादर बिछा दी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। तेज हवा के झपेटों से कांपते हुए पत्तों की खड़खड़ाहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज कानों में नहीं पड़ती।
एक बाग के अन्दर अंगूर की टट्टियों में अपने को छिपाये हुए एक आदमी ऊपर लिखी बातें धीरे धीरे बुदबुदा रहा है। इस आदमी का रंग रूप कैसा है इसका कहना इस समय बहुत ही कठिन है क्योंकि एक तो उसे अंधेरी रात ने अच्छी तरह छिपा रक्खा है, दूसरे उसने अपने को काले कपड़ों से ढंक लिया है, तीसरे अंगूर की घनी पत्तियों ने उसके साथ उसके ऐबों पर भी इस समय पर्दा डाल रक्खा है। जो हो, आगे चल कर तो इसकी अवस्था किसी तरह छिपी न रहेगी, मगर इस समय तो यह बाग के बीचोबीच वाले एक सब्ज बंगले की तरफ देख देख कर दांत पीस रहा यह मुख्तसर सा बंगला सुन्दर लताओं से ढका हुआ है और इसके बीचोबीच में जलने वाले एक शमादान की रोशनी साफ दिखला रही है कि यहाँ एक मर्द और एक औरत आपस में कुछ बातें और इशारे कर रहे हैं। यह बंगला बहुत छोटा था, दस बारह आदमियों से ज्यादे इसमें नहीं बैठ सकते थे। इसकी बनावट अठपहली थी, बैठने के लिए कुर्सीनुमा आठ चबूतरे बने हुए थे, ऊपर बाँस की छावनी जिस पर घनी लता चढ़ी हुई थी। बंगले के बीचोबीच में एक मोढ़े पर मोमी शमादान जल रहा था। एक तरफ चबूतरे पर ऊदी चिनियांपोत की बनारसी साड़ी पहिरे एक हसीन औरत बैठी हुई थी जिसकी अवस्था अट्ठारह वर्ष से ज्यादे की न होगी। उसकी खूबसूरती और नजाकत की जहाँ तक तारीफ की जाय थोड़ी है। मगर इस समय उसकी बड़ी बड़ी रसीली आँखों से गिरे हुए मोती सरीखे आँसू की बूंदें उसके गुलाबी गालों को तर कर रही थीं। उसकी दोनों नाजुक कलाइयों में स्याह चूड़ियाँ छन्द और जड़ाऊ कड़े पड़े हुए थे, बाएँ हाथ से कमरबन्द और दाहिने हाथ से उस हसीन नौजवान की कलाई पकड़े सिसक-सिसक कर रो रही है जो उसके सामने खड़ा हसरत भरी निगाहों से उसके चेहरे की तरफ देख रहा था और जिसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह कहीं जाया चाहता है मगर लाचार है, किसी तरह उन नाजुक हाथों से अपना पल्ला छुड़ा कर भाग नहीं सकता। उस नौजवान की अवस्था पचीस वर्ष से ज्यादे की न होगी, खूबसूरती के अतिरिक्त उसके चेहरे से बहादुरी और दिलावरी भी जाहिर हो रही थी। उसके मजबूत और गठीले बदन पर चुस्त बेशकीमती पौशाक बहुत ही भली मालूम होती थी।
औरत०। नहीं, मैं जाने न दूँगी।
मर्द०। प्यारी ! देखो तुम मुझे मत रोको, नहीं तो लोग ताना मारेंगे और कहेंगे कि बीरसिंह डर गया और एक जालिम डाकू की गिरफ्तारी के लिए जाने से जी चुरा गया। महाराज की आँखों से भी मैं गिर जाऊँगा और मेरी नेकनामी में धब्बा लग जायगा।
औरत०। वह तो ठीक है मगर क्या लोग यह न कहेंगे कि तारा ने अपने पति को जान बूझ कर मौत के हवाले कर दिया?
बीर०। अफसोस ! तुम वीर-पत्नी होकर ऐसा कहती हौ?
तारा०। नहीं नहीं, मैं यह नहीं चाहती कि आपके वीरत्व में धब्बा लगे, बल्कि आपकी बहादुरी की तरीफ लोगों के मुँह से सुन कर मैं प्रसन्न हुआ चाहती हूँ, मगर अफसोस आप उन बातों को फिर भी भूले जाते हैं जिनका जिक्र मैं कई दफे कर चुकी हूँ और जिनके सबब से मैं डरती हूँ और चाहती हूँ कि आप अपने साथ मुझे भी ले चल कर इस अन्याई राजा के हाथ से मेरा धर्म बचावें। इसमें कोई शक नहीं कि उस दुष्ट की नीयतखराब हो रही है और यही सबब है कि वह आपको एक ऐसे डाकू के मुकाबले में भेज रहा है जो कभी सामने होकर नहीं लड़ता बल्कि छिप कर लोगों की जान लिया करता है।।
बीर०। (कुछ देर तक सोच कर) जहाँ तक मैं समझता हूँ जब तक तुम्हारे पिता सुजनसिंह मौजूद हैं तुम पर किसी तरह का जुल्म नहीं हो सकता।
तारा०। आपका कहना ठीक है, और मुझे अपने पिता पर बहुत कुछ भरोसा है, मगर जब उस ‘कटोरा भर खून' की तरफ ध्यान देती हूँ जिसे मैंने अपने पिता के हाथ में देखा था तब उनकी तरफ से भी नाउम्मीद हो
जाती हूँ और सिवाय इसके कोई दूसरी बात नहीं सूझती कि जहाँ आप रहें मैं भी आपके साथ रहूँ और जो कुछ आप पर बीते उसमें आधे की हिस्सेदार बनूँ।
बीर०। तुम्हारी बातें मेरे दिल में खुपी जाती हैं और मैं भी यही....

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