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पौराणिक >> श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते

श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते

दिनकर जोशी

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1568
आईएसबीएन :81-85828-59-8

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प्रस्तुत है श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित उपन्यास..

Shyam Phir ek bar tum mil jate

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दौड़कर उसने कृष्ण के पाँव से तीर खींचने के लिए हाथ बढ़ाया। कृष्ण उसकी व्यग्रता को निमिष-भर ताकते रहे, फिर निषेध में दाहिना हाथ उठाया।
जरा ठिठक गया- ‘‘क्यों, नाथ, क्यों ?’’
‘‘रहने दो, भाई ! माता गांधारी के वचन में व्यवधान बनने का व्यर्थ प्रयत्न मत करो !’’ बड़ी धीरता से वे बोले।
‘‘मैंने महापातक किया है ! मुझे क्षमा करो, नाथ ! मैंने....-मैंने आपको जंगली प्राणी समझकर आप पर तीर चलाया। यह मैंने क्या किया, नाथ !’’ जरा भूमि पर लोटकर करुण क्रंदन करने लगा।
‘‘उठा वत्स !’’ करुणार्द्र स्वर में कृष्ण बोले, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’’
‘‘मेरा नाम ?...जरा !’’
‘‘जरा !.....ठीक !’’ कृष्ण का मधुर हास्य छलका। तलवे से बहकर रक्तधारा भूमि पर काफी दूर चली गई थी। ‘‘जरा, तुम्हारा नाम सार्थक है तात ! ‘जरा’ कभी किसी को नहीं छोड़ती ! अमरत्व के अभिशाप ने जिसे घेरा हो, उसे भी महाकाल जरा समेट ही लेता है न ! जरा, तू तो निमित्त मात्र है, वत्स !’’

इसी उपन्यास से

कोई भी भारतीय भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें श्रीकृष्ण को केन्द्र में रखकर काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक संदर्भ-ग्रन्थ आदि साहित्य का सर्जन न किया गया हो। ‘श्याम, फिर एक बार तुम मिल जाते’ (मूल गुजराती में लिखा) उपन्यास इन सबसे अनूठा इसलिए है कि यह सिर्फ उपन्यास नहीं है-यह तो उपनिषद् है ! यथार्थ कहा जाए तो यह उपनिषदीय है।
तत्कालीन आर्यावर्त्त में श्रीकृष्ण एक विराट् व्यक्तित्व था। जब यह व्यक्तित्व अनंत में विलीन हो गया तो जो सन्नाटा छा गया, उस सन्नाटे के चीत्कार का यह आलेखन है। जब श्रीकृष्ण सम्मुख थे तब बात और थी। जब वे विलीन हो गये तब वसुदेव-देवकी से लेकर अर्जुन, द्रौपदी, अश्वत्थामा अक्रूर, उद्धव और राधा पर्यंत पात्रों की संभ्रमित मनोदशा को एक अनूठी उँचाईं के ऊपर ले जाता है यह उपन्यास।
श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते !

एक



ॐ मध्याकाश में जलते सूर्य ने पश्चिम की ओर मुँह घुमाया। उसकी रुपहली किरणें द्वारका के महलों की सुनहरी अटारियों और दुर्ग की मीनारों पर उदासी का लेप लगा गईं। दक्षिण में ऊँचा सिर किए रैवतक पर्वत खड़ा था; पर उसकी तिरछी परछाईं जमीन पर ऐसी पड़ रही थी मानों रैवतक का माथा झुक आया हो। कहीं दूर से आती समुद्र की लहरों की आवाज़ अंतिम साँस लेती किसी घायल के कराहने-जैसी लग रही थी। दाहिनी ओर हरे-भरे गोचर में बैठी गायों ने रथ के पहिए और अश्वों की टोपों की आवाज सुनकर जरा-सी आँखें खोलीं, कान फड़फड़ाए, पूँछ फटकारी- कुछ मक्खियाँ उड़ गईं, बस। उसकी जुगाली तो कब से बंद थी ! आँखों के किनारे पर काँच की बूँद-सी पानी की बूँदे जम गई थीं। बाईं तरफ का मार्ग रैवतक की परछाई को छूता हुआ दक्षिणी क्षितिज की ओर जा रहा था। रथ से उड़ती धूल में रथ की लीकें, अश्व-खुर के निशान और पैदल पथिकों के पदचिह्न अब खो-से गए थे।

दौड़ते अश्वों की लगाम दाहिने हाथ से थामे दारुक ने रैवतक की ओर नजर उठाई। हाँफते अश्वों के मुख से सफेद फेन निकल आया। रथ की गति कुछ धीमी हुई।
‘‘पार्थ !’’ दारुक ने पीछे रथ में लगभग समाधिस्थ बैठे अर्जुन का ध्यान खींचा, ‘‘हम रैवतक की दृष्टि मर्यादा में आ पहुँचे हैं !’’
मानों दारुक की बात सुनी ही नहीं अर्जुन ने। वह अपलक रैवतक की ओर देखता रहा। कंधे पर रखे गांडीव पर बँधी मुट्ठी अचानक पसीने से तर-ब-तर हो गई। इसी रैवतक के ऊधर की ढलान से उसने सुभद्रा का अपहरण किया था न ! स्वयं कृष्ण ने ही तो उससे कहा था, ‘‘अर्जुन ! यह मेरी छोटी बहन सुभद्रा है। तुम्हें इससे ब्याह करना हो तो इसका अपहरण कर लो। विवाह के लिए कन्या का अपहरण क्षत्रियों में निषिद्ध नहीं है।’’
कृष्ण की वह आवाज मानों हवा में आज भी गूँज रही हो, इस तरह अर्जुन के कान लगे थे। क्या धर्मसम्मत है और क्या धर्मविरुद्ध-कृष्ण उसे लगातार यह सब समझाते रहे। आज....

पूरा शरीर पसीने से नहा उठा। फिर भी त्वचा में कितनी जलन थी ! छत्तीस वर्ष पहले कुरुक्षेत्र के मैदान में उसके अंग जिस तरह शिथिल हो गए थे, गला सूख गया था; कुछ वैसा ही आज भी उसे लीलता जा रहा था।
‘‘कौंतेय !’’ दारुक ने फिर अर्जुन की समाधि भंग की, ‘‘दुर्ग की पूर्वी खाई में पानी भरना शुरु हो गया है। हम पश्चिम द्वार से ही भीतर जा सकेंगे।’’
अर्जुन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। क्या फर्क पड़ता है कि रथ पूर्वी द्वार से द्वारका प्रविष्ट हुआ या पश्चिमी द्वार से ! कृष्णविहीन द्वारका में कैसा प्रवेश ? ऐसी तो कल्पना भी अर्जुन ने कभी नहीं की थी। पल दो पल में जिस द्वारका में वह पाँव रखने वाला था, वहाँ अब कृष्ण नहीं थे। बलराम नहीं थे। सात्यकि नहीं था। प्रद्युम्न या अनिरुद्ध भी नहीं थे। अरे, उद्धव और अक्रूर भी नहीं थे !
ये सब नहीं हैं तो फिर यह सुनसान नगरी द्वारका कैसे है ? बारह योजन फैला हुआ यह भूमिखंड तो कुशस्थली था-द्वारका नहीं। उस कुशस्थली को कृष्ण ने ही तो द्वारका बनाया। ऐसा लगता था मानो रैवतक पर्वत की उँगली थामे खड़ा हो यह भूखंड !

रैवतक की दिशा में अर्जुन की आँख फिर स्थिर हो गई। इस बार उसे सुभद्रा याद न आई। ब्रह्मलोक से किसी संगीत की लय मानो हवा में घुलती उतर रही हो। यह संगीत.....?
सतयुग में राजा रैवत तथा उनकी पुत्री ने ब्रह्मा की संगीत-सभा में जो सुर सुने थे, वे ही हैं ये सुर। त्रेता तो कब का पूरा हो गया, अब द्वापर भी पूरा होने आया। कृष्ण का देहोत्सर्ग यानी एक परिपूर्ण युग का अंत ! अभी क्या द्वापर के अंत काल में ही ब्रह्मलोक का यह संगीत रैवतक के शिखरों पर गूँज रहा था ?
या फिर उसने जो सुना, वह कृष्ण की बाँसुरी थी ?
अचानक ही अर्जुन को लगा-कैसा अभागा हूँ मैं ! इतने वर्षों के साथ के बाद भी मैंने कृष्ण के होंठों से लगी बाँसुरी की आवाज नहीं सुनी। व्रजभूमि में किसी कदंब वृक्ष की डाल पर से या कालिंदी के बहते जल के पास खड़े होकर कृष्ण ने जब बाँसुरी होंठों पर रखी होगी, तब स्वयं तो शायद...

इंद्रप्रस्थ के कृष्ण, हस्तिनापुर के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण-अर्जुन ने इन सब कृष्णों का साहचर्य जिया था; किन्तु व्रजभूमि के कृष्ण के विश्व स्वरूप दर्शन किए थे-इस दर्शन में समग्र ब्रह्मांडों का समावेश था, यह सच है; किन्तु उसमें भी उस बाँसुरी की धुन तो नहीं सुनाई दी थी न !
कैसे सुनाई देती ?-अर्जुन ने सोचा, शंख ध्वनि और रणभेरियों की आवाजों के बीच यदि बाँसुरी सुनी जा सकती तो यह महा विनाश हुआ ही क्यों होता ? और यदि इस महाविनाश को रोका जा सका होता तो.......तो छत्तीस वर्ष बाद यह यादवी कलह भी न हुआ होता। माता गांधारी ने वृष्णिवंश के विनाश का जो शाप दिया था, उसी का तो यह परिणाम है !
‘‘धनंजय !’’ दारुक ने तीसरी बार अर्जुन का ध्यान खींचा, ‘‘ये अश्व भी मानों अब द्वारका के पाँव धरने को तैयार नहीं हैं। देखिए...देखिए......’’

दारुक की बात सही थी। दारुक के आज्ञाकारी अश्व जाने आज क्यों दारूक की अवज्ञा कर रहे थे। तेजी से हिनहिनाते दोनों अश्वों ने अगले चारों पाँव हवा में उछाले रथ जरा पीछे को झुक गया तो अर्जुन ने रथ का सहारा लेकर स्वयं को सँभाला।
‘‘दारुक ! कृष्णविहीन द्वारका में मैं भी पग कैसे धरूँ ? मैं उस भगवान की ओर देखूँ कैसे, जहाँ कृष्ण रहते थे ? दारुक, तुम रथ लौटा ले चलो, भाई !’’ अर्जुन ने आसुओं से भीगे ये शब्द कहे तो सही, पर वे बाहर फूटे नहीं, क्योंकि आज उसके रथ की लगाम कृष्ण के हाथ में नहीं थी। वहाँ तो आज दारुक बैठा था।
‘ये पितामह, ये आचार्य, ये भाई, ये पुत्र-पौत्र, दामाद, स्वजन-इन सबसे मैं नहीं लडूँगा। मुझसे इन सब पर प्रहार नहीं हो सकेगा........’ ऐसा कहकर, अठारह अक्षौहिणी सेना के ठीक मध्य में गांडीव को एक ओर धरकर पस्त हो जाना बहुत आसान था-क्योंकि तब रथ की लगाम कृष्ण के हाथों में थी। कृष्ण थे उसे सँभालने के लिए। तब अर्जुन को कहाँ कोई फिक्र थी !

किन्तु आज ? सब कुछ कितना बदल गया था ! तब अर्जुन के सारथि थे कृष्ण; आज कृष्ण का सारथि अर्जुन का रथ हाँक रहा है। कृष्ण को जिसने कई बार यहाँ-वहाँ पहुँचाया होगा, वही दारूक अब अर्जुन को कहीं नहीं पहुँचा सकता। अपने भीतर उमड़ते प्रचंड विषाद-सागर को अर्जुन ने भीतर ही दबा लिया। विषाद का प्राकट्य अब किसी बड़े दर्शन का योग नहीं बन सकता, क्योंकि अब कृष्ण कहाँ हैं उसे एक नई ऊँचाई देने के लिए, नया अर्थ भरने के लिए ? अब तो यह विषाद, जिसे कृष्ण ने ‘कलैव्यं’ कहकर फटकारा था, कापुरुष-वृत्ति का सर्जक ही बन जाता। उसी कापुरुष-वृत्ति ने अर्जुन को फिर घेर लिया है, इसका अंदाज भी यदि कृष्ण को हो जाए तो........
अर्जुन अचानक सावधान हो गया। चेहरे पर विषाद की गहरी लकीर के बीच लज्जा की रेखाएँ उभर आईं। वीरत्वविहान अर्जुन के रथ की लगाम कृष्ण तो कभी नहीं थामेंगे। कापुरुष अर्जुन कृष्ण को नहीं सुहाएगा।
‘‘दारुक !’’ अर्जुन पहली बार बोला, ‘‘अश्वों के पास शब्द नहीं हैं, भाई, किन्तु उनमें भाव भी नहीं होंगे, ऐसा तो नहीं है न ! रथ तो तनिक रोको, दारुक, और अश्वों की पीठ सहलाकर उन्हें सांत्वना दो।’’
दारुक ने रथ रोक दिया। दोनों अश्व फिर जरा हिनहिनाए। दारुक के नीचे उतरकर दोनों की पीठ पर हाथ रखे। उनकी नर्म त्वचा एकबारगी थरथराई। दारुक ने धीरे-धीरे उनकी पीठ थपथपाई। उनके गले में बाँहें डालकर उनके बदन से अपना सिर टिका दिया। दारुक की ऐसी दशा देखकर मानो शर्मिंदगी से अश्वों की आँखें भीग गईं। अर्जुन अनिमिष नयनों से यह देखता रहा।

‘तात !’ दारुक मानों अश्वों के कान में यह कह रहा था, ‘कृष्ण स्वयं महाकाल के निर्णय को पलट नहीं सके इसलिए महाकाल के अधीन हुए। अब वही महाकाल हमसे कुछ शेष कर्म करवाना चाहता है। उनका निमित्त बनने से हम पीठ तो नहीं दिखा सकते, वत्स। चलो, महाकाल की उँगली का अनुसरण करें.......’
अश्व जैसे समझ गए हों, इस तरह हिनहिनाए। कुछ दूर बैठी गायें पूँछ मरोड़ती खड़ी हो गईं और उनकी आखों में जमे, चमकते बिन्दु तरल बनकर गोचर की हरी दूब पर टपक पड़े।
दारुक ने फिर से लगाम सँभाली। रथ जरा पश्चिम की ओर मुड़ा। दुर्ग का पश्चिमी द्वार खुला ही था। रथ अब परकोटे पर तैनात संतरियों की नजर में उनकी गूँज से वातावरण भर-सा गया। नीचे खड़े संतरियों ने भी सावधान होकर नज़र दौड़ाई। दारुक के तेज चिह्न से शोभित ध्वज की फड़फड़ाहट, रथ की घर्घर से भी अधिक तेज लग रही थी। रथ नजदीक आया। नीचे झुक संतरियों ने दारुक और अर्जुन को पहचाना। हथियार नीचे झुकाकर उन्होंने रथ और रथी दोनों का मूक स्वागत किया। अश्व हिनहिनाए। दारुक ने गरदन मोड़कर अर्जुन को देखा। अर्जुन शून्य नैनों से पतझड़ के वृक्ष जैसी द्वारका को आँखों में भर रहा था।

यही तो द्वारका नगरी थी, जिसके भवनों के गवाक्षों और अटारियों पर अशोक आम्रपर्णों का ताजा बंदनवार हमेशा सजे रहते थे। कोई भी आँगन ऐसा नहीं होता था, जिसे अगली सुबह रंगोली से सजाया न गया हो। उद्यानों में पुष्प, पर्ण और लताओं को सींचने के कारण गीली हुई धरती, अपनी मादक सोंधी सुंगध से महमहाती रहती थी। आज तो वे सब जैसे सुदूर अतीत की धूमिल यादों-से लग रहे थे। कई दिनों पूर्व बँधे तोरण पीले होकर कहीं-कहीं लटक रहे थे, कहीं पत्ते झड़ गए थे और मरे साँप-सी रस्सियाँ ही लटकती नजर आती थीं।

प्रांगण की यज्ञवेदियों में राख के ढेर पड़े थे। कहीं-कहीं किसी वयोवृद्ध द्वारकावासी द्वारा डाली आहुति का धुँआ उठ रहा था। रंगोलीविहीन आँगनों में कभी की चमकती रंगोली के धुँधले चिह्न दीख रहे थे। कृष्ण, बलराम, सात्यकि और वसुदेव के निवास के सुवर्ण गुंबज ढलती साँझ के प्रकाश को वापस ठेलने की नाकाम-सी कोशिश कर रहे थे। कभी जिन राजमार्गों पर जीवन छलकता था, आज उनके दोनों तरफ खड़े स्त्री-पुरुषों की भीड़ बस असहाय नजरों से अर्जुन की ओर देखती और इस तरह गर्दन झुका लेती, मानों उसकी सारी चेतना चुक गई हो। उतरे हुए चेहरे, धँसी आँखें और कुल छवि ऐसी मानों महीनों से स्नान न किया हो, न वस्त्र बदले हों।

 
      

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