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देवता आदमी

शरणकुमार लिंबाले

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1599
आईएसबीएन :81-85827-22-2

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दलितों पर आधारित कथाओं का संग्रह...

Devta Aadmi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘हजार बरसों से हम लाचार थे, गुलाम थे। किसी ने हम पर दया दिखाई ? गधे को गंगा पिला दी, लेकिन हमें अंजुली-भर पानी से महरूम रखा। गोमूत्र को पवित्र माना, लेकिन हमारे स्पर्श को अपवित्र कहा। चींटियों को शक्कर खिलाई, लेकिन हमें भीख तक नहीं दी। इनके मंदिरों में कुत्ते और बिल्लियाँ जा सकती हैं, लेकिन हमें सीढ़ी के पास भी पहुँचने नहीं दिया। इनके पानी भरने के स्थान पर जानवर पानी पी सकते हैं, लेकिन समान अधिकार से पानी पीने के लिये हमें अपनी जान गँवानी पड़ती है। यह है इस संस्कृति का बड़प्पन ! हमें गाँव की सीमा के बाहर रखकर सारे विश्व-भर को अपना घर कहना इनकी कुटिल नीति है।
अब हम अपने अधिकारों की बात करने लगे हैं तो इन्हें मिर्च लगती है। बुनियादी तौर पर वे हमारे अधिकार मानते ही नहीं। आरक्षण और योजनाओं के टुकड़े डाले जाते हैं। इससे समस्या सुलझ नहीं सकती।....
‘‘हमें इस देश की दौलत, सियासत और इज्जत में बराबरी का हकदार होना है...हमें चाहिए संपूर्ण क्रांति।’’

इसी संग्रह से

अनुवादकीय आमुख

दलित

हिंदी साहित्य में दलित-लेखन-परंपरा को भक्तिकाल तथा उससे भी पूर्व सिद्ध-नाथ-साहित्य तक खोजा जा सकता है, किंतु यह परंपरा साधना तक सीमित है। भक्ति आंदोलन ने ‘जाति-पाँति पूछे नहीं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई’ कहकर एक क्षेत्र में तो समानता निर्मित की; किन्तु अंतत: यह आंदोलन विभिन्न मतों और संप्रदायों में बिखर गया। अठारहवीं शती से फिर धार्मिक-सामाजिक क्षेत्रों में कट्टरता बढ़ने लगी और परंपरा खंडित हो गई।

भक्ति आंदोलन दक्षिण से आया था। अब फिर एक बार ऐसा ही एक आंदोलन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मराठी से हिंदी में आया है। हिंदी में दलित-लेखन की कलम लगाई जा रही है। अभी तक हिंदी में सामाजिक अन्याय के विरोध में जो दलित संवेदना का लेखन मिलता है वह प्राय: उदारमतवादी, प्रतिबद्ध, मानवीय तथा प्रगतिशील संवेदना का सवर्ण-लेखन है। दलितों का लिखा हुआ भुक्तभोगी मौलिक साहित्य नहीं के बराबर है। कबीर, प्रेमचंद, नागार्जुन, धूमिल आदि की परंपरा के बावजूद बकौल डॉ. नामवर सिंह ‘‘हिन्दी में दलित आंदोलन नहीं चला।।’’ उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि ‘‘दलित-लेखन दलित व्यक्ति से ही संभव है। जब कोई दलित साहित्यकार साहित्य में प्रवेश करता है तो उसके साथ ही उसकी दुनिया आती है। उसका परिवेश आता है। यह सब कुछ सामान्य साहित्यकार से भिन्न होता है-उसे भिन्न होना ही चाहिए-प्रेमचंद का साहित्य दलित साहित्य के समकक्ष रखकर देखें तो यह अंतर स्पष्ट होता है।’’

हिंदी की साहित्यिक संस्कृति में दलित संवेदना के लेखन का अभाव है। कोई आंदोलन नहीं उभरा है। दलित लेखकों का कोई हस्तक्षेप दिखाई नहीं देता। इस अभाव के कई ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक कारण होंगे। इनका विश्लेषण करना अपने आपमें एक स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण विषय है। लेकिन दलित-लेखन के लिए अब हिंदी में जमीन तैयार हो रही है। और उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं मराठी दलित साहित्य के अनुवाद। इसमें कोई संदेह नहीं। इस दिशा में ‘संचेतना’ का दलित साहित्य विशेषांक, चंद्रकांत पाटील के ‘सूरज के वंशधर’ नाम से प्रकाशित काव्यानुवाद तथा दलित आत्मकथाओं और कहानियों के कई अनुवादों की ओर संकेत किया जा सकता है।

उन्नीस सौ साठ के पहले मराठी में भी दलित साहित्य की कोई सशक्त परंपरा नहीं थी। डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर ने अपने भाषण, लेखन और कार्य से दलित जातियों को जगाना शुरू कर दिया था। उनके तथा महात्मा फुले के प्रबोधन से ही आधुनिक दलित साहित्य की पृष्ठभूमि मजबूत हो चली थी। बहिष्कृत दलित समाज को अपनी अस्मिता की पहचान होने लगी। हजारों वर्षों तक एक मानव समाज गुलामी की बदतर जिंदगी धर्म और पाप-पुण्य के नाम पर जी रहा था। पशु से भी हीन दशा में चुपचाप अन्याय, अत्याचार सह रहा था। उसके श्रम पर सवर्ण समाज की व्यवस्था प्रस्थापित थी। वह मानवीय सभ्यता और संस्कृति की सभी ऊँची उपलब्धियों से वंचित था। वह अछूत था। उसकी परछाईं से भी परहेज किया जाता था। इसमें किसी सवर्ण को कोई अस्वाभाविकता प्रतीत नहीं होती थी। रूढ़ियों ने इस अमानुषता को सहज स्वीकार्य बना दिया था। यह जहर भारतीय समाज की संस्कृति में घुल-मिल गया था। दलित जातियाँ भी इसकी आदी हो गई थीं, इनके खिलाफ विद्रोह करना पाप समझती थीं। हजार रूपों में शोषित इस समाज को बाबासाहब आंबेडकर ने जगाया, चेताया, शिक्षा का महत्त्व समझाया।

दुनिया को बदलने के लिए, उसकी प्रस्थापित विषम व्यवस्था को तोड़ने का आह्वान किया। इस क्रांतिकारी आंदोलन के उग्र सामाजिक संघर्ष का एक हथियार था दलित साहित्य। वह इस आंदोलन का फल भी था। साठ के पहले के तीन दशकों में उसका वह पूर्वरूप दिखाई देता है जो प्रचारवादी है, मध्यवर्गीय साहित्यिक रुचियों से सीमित है। किंतु साठोत्तर कालखंड में जैसे चिनगारी को हवा मिल जाती है और राख की ढेरी के नीचे दबे स्फुल्लिंग भड़क उठते हैं। डॉ. आंबेडकर के महानिर्वाण के पश्चात् उनकी सूर्य-संतति को जैसे अपनी शक्ति का साक्षात्कार हो जाता है। आरंभ में लघु पत्रिकाओं के, युवा तथा वाम आंदोलनों से जुड़कर और बाद में उनसे समानांतर दलित युवा रचनाकारों को अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का अनुकूल वातावरण मिल जाता है। दलित साहित्य के आंदोलन के रूप में मराठी की साहित्यिक संस्कृति में एक तूफान-सा आ जाता है और वह सारे मध्यवर्गीय साहित्यिक प्रतिमानों, मापदंडों, मूल्यों तथा आस्वाद के रूपवादी धरातलों को तोड़-मोड़कर उन पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य करता है।

आत्मकथाओं का दौर


महाराष्ट्र में दलित साहित्य आंदोलन ने अब दूसरे दौर में प्रवेश किया है। उसका क्षेत्र व्यापक हो रहा है, उसमें अन्यान्य जनजातियों का भी लेखन आने लगा है। संघर्ष के साथ आत्मसंघर्ष और विद्रोह के साथ, आत्मनुसंधान की भी प्रतीति होने लगी है। पहले दौर में विद्रोह, संघर्ष, आवेश, निषेध की प्रवृत्तियाँ प्रबल थीं। नारेबाजी और अपशब्द का जहर भी था। साहित्यिक आंदोलन मूलत: दलित पैंथर के सामाजिक आंदोलन का अनुगामी था। दलित कवि ‘मैं’ की शैली में नहीं, ‘हम’ की शैली में बात करता था। वह वास्तविक अर्थ में ‘प्रतिनिधि’ कवि था। सामूहिक मानस को अभिव्यक्त करता था। कहानियों में भी सामाजिक अन्याय और अत्याचार के चित्र विषमता के विरोध में खड़े हो जाने की प्रेरणा देते थे। कविता और कथा के पश्चात् आत्मकथाओं का दौर आया-उसमें ‘मैं’ शैली के बावजूद अपने बचपन के सामाजिक-आर्थिक विषमता के अनुभव दलितों के प्रतिनिधि के अनुभव ही होते थे।

शरणकुमार लिबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ इन आत्मकथाओं में अपना अलग ही स्थान रखती हैं; क्योंकि वह कबीर की तरह न इस जाति का था, न उस जाति का। असामाजिक, अनैतिक संबंधों से उत्पन्न अवैध संतति की, सवर्ण पिता और अछूत माता की संतति की इस व्यथा-कथा का सशक्त अनुवाद डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने किया है। उनका कहना है-‘‘इस छोटी सी उम्र में इस युवक ने जो कुछ भोगा है, झेला है, वह मात्र उसका नहीं, अपितु अस्तित्व की तलाश में भटकने वाले उसके जैसे लाखों-करोड़ों का है।..श्री शरण के प्रश्न एक व्यक्ति के नहीं हैं, अपितु हमारी संपूर्ण परंपरा, धर्म, जाति, नैतिक मानदंड अर्थात् व्यवस्था की क्रूरता से जुड़े हुए हैं।’’ इन दलित आत्मकथाओं में जीवन का यथार्थ पहली बार इतने उग्र रूप में सामने आया। जैसा कि डॉ. भालचंद्र नेभाड़े ने कहा है, ‘‘दबाए गए मानव-समूहों को समाज के केंद्रस्थान में लाने का महत्कार्य ऐसे लेखकों के द्वारा संपन्न होता है, अत: इनका स्वागत करना चाहिए।’’ दलित साहित्य का मूल आदिस्वर है अस्मिता की पहचान, अस्मिता की खोज। कई दलित आत्मकथाओं के हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुए हैं, लेकिन गौर करने की बात है कि कई बार इन्हें ‘उपन्यास’ के नाम से प्रकाशित किया गया है।

आत्मकथा एक बार ही लिखी जा सकती है शायद। हजारों वर्षों के अन्याय, अत्याचार, विषमता की कहानियाँ कब तक दोहराई जा सकती हैं ? नया दलित लेखक अब इस पूँजी के चुकने का अनुभव करने लगा है। नवशिक्षित दलित युवक अनजाने में या स्वाभाविक रूप से मध्यवर्ग में शामिल हो रहा है। समकालीन जिंदगी की बिलकुल ही नई स्थितियों से गुजरते हुए उसे जीवन के नए साक्षात्कार और नए अर्थ प्रतीत हो रहे हैं। इन स्थितियों का चित्र इधर की नई दलित कथाओं में उभर रहा है। सामाजिक अभिसरण की प्रक्रिया में फिर अस्मिता के प्रश्न नया रूप धारण करने लगे हैं।

दलित-कथा की पूर्व परंपरा


साठोत्तर कालखंड के पचीस-तीस वर्ष पहले भी दलित चेतना की कहानियाँ प्रकाशित होती रहीं। अस्पृश्य लेखक तो लिखने ही लगे थे, लेकिन अदलित लेखकों में श्रीपाद महादेव भाटे ने मानवीय करुणा और सहानुभूति से युक्त उपेक्षितों के अंतरंग को पहचानने का जो प्रयास अपनी कहानियों में किया था, उसका स्थान मराठी कथा साहित्य के विकास में अनन्य है। भाटे सक्रिय लेखक थे फिर भी दलित तो नहीं ही थे। आरंभ के दलित कथाकारों की प्रतिभा क्षीण थी। डॉ. आंबेडकर का संघर्ष और मुक्ति का, शिक्षा और संगठन का संदेश आम दलित तक पहुँचाने का माध्यम कथा बन गई। बाबासाहब ने जो पत्र-पत्रिकाएँ अपने आंदोलन के दौरान चलाईं, उनमें यह साहित्य प्रकाशित होता था। तब उसे ‘दलित साहित्य’ का नामाभिधान प्राप्त नहीं हुआ था। तीस-पैंतीस के आसपास इस कहानी का आरंभ होता है, जिसका स्वरूप प्रचारात्मक, जागरणात्मक था। इन कहानियों के विषय प्राय: हिंदू धर्म की बुरी रूढ़ियों का विरोध था। दरिद्रता, अज्ञान, छुआछूत प्रथा, कर्ज, आदि विषयों की इन कहानियों का परिवेश प्राय: ग्रामीण ही था। फिर भी कथित ग्रामीण कथा से उसने अपनी अलग पहचान बनाना शुरू कर दिया था।

दलित-जीवन का सशक्त चित्रण करनेवाले पहले बड़े लेखक थे श्री अण्णाभाऊ साठे। साठेजी ने विविध कहानियाँ लिखीं। उनमें रंजकता के बावजूद समाज के निम्न स्तर के शोषितों, पीड़ितों के जीवन का संसार दिखाई देता है। यह विषय मध्यवर्गीय साहित्यधारा से भिन्न था। उन्होने जो जीवन जिया, उसी का चित्रण किया, उसमें कल्पना का अंश नहीं था। उनके पात्रों को रोटी-कपड़ा-मकान की मूलभूत जरूरतों के लिए खून-पसीना एक करना पड़ता था और सामाजिक अवमानना को भी झेलना पड़ता था। इसी परिवेश में विद्रोह के बीज बोए जाते हैं। आनेवाले परिवर्तन की आहट इन कथाओं में सुनी जा सकती है। साठेजी प्रतिबद्ध रचनाकार थे और आंबेडकर के आंदोलन से भी प्रभावित थे। वे शोषण के और धर्म-पाखंड के विरोधी थे। उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुईं, क्योंकि उन्होंने दलितों के उन्मुक्त जीवन का चित्रण किया। उन पर आदर्शवाद का भी प्रभाव था। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीय समाज को जानने के लिए वर्ग-विश्लेषण पर्याप्त नहीं है।

इस कालखंड के एक और महत्त्वपूर्ण लेखक हैं बंधुमाधव। उनके आरंभिक कथा-लेखन पर समकालीन रोमांटिक चेतना का प्रभाव था। उन्होंने शुरू में प्रणय और श्रृंगार की कहानियाँ लिखीं लेकिन डॉ. आंबेडकर के आंदोलन ने उन्हें चेताया और उनकी कथा सार्थक होने लगी। उन्होंने अपनी कथाओं में अनिवार्य परिवर्तन का संकेत दिया। इसके लिए आवश्यक संघर्ष को अनुभव किया। अपनी अस्मिता के लिए, अपने मनुष्य होने की पहचान के लिए उनकी कथाओं में बलिदान, विद्रोह और संघर्ष के स्वर उग्र होने लगे। उनकी लिखी ‘वतनी कथाओं’ का इस पूर्व परंपरा में विशेष महत्त्व है। नए मानव की प्रतिष्ठा के लिए व्यवस्था को बदलने का संकेत उनकी मुक्त भावधारा की कहानियों में मिलता है।

डॉ. शंकरराव खरात उसी बुजुर्ग पीढ़ी के लेखक हैं जिनकी आत्मकथा ‘तराल अंतराल’ का हिंदी अनुवाद डॉ. केशव प्रथमवीर ने किया है। मराठी कथा की मुख्य धारा इस समय रोमांटिक और आदर्शवादी थी। इस प्रभाव से यथासंभव बचते हुए खरातजी ने अपने परिवेश का यथार्थ चित्रण किया। साठोत्तर कालखंड में भी इनकी रचनाएँ मिलती हैं। उन्होंने खानाबदोश जनजातियों के चित्रण से कथा का परिक्षेत्र विस्तृत किया और दलित चेतना को व्यापक बनाया। इनके कथालेखन की प्रेरणा डॉ. आंबेडकर के विचारों में ही थी। सामाजिक संबंधों का जितना ब्योरेवार चित्रण खरातजी ने किया है, उतना शायद अन्य किसी लेखक ने नहीं किया होगा। उनकी रचनाएँ समाजेतिहास के दस्तावेज हैं। उनकी कथाओं में यथार्थ की उग्रता है, किंतु विद्रोह का स्वर संयत है।

साठोत्तर परिवर्तन


साठ से पूर्व दलित साहित्य लिखा जाता था, किंतु उसे ‘दलित साहित्य’ के रूप में अलग से पहचाना नहीं जाता था। इस कालखंड की कथाओं में संघर्ष और विद्रोह के स्थान पर करुणा और सहानुभूति की मात्रा अधिक थी; फिर भी मध्यवर्गीय कथा-संसार की सीमाओं को तोड़कर आत्मस्थिति की यथार्थ संवेदना को जगाने का काम इस कथा-साहित्य ने अवश्य किया।
साठोत्तर कालखंड में दलित साहित्य अपने तेवर उग्र रूप में प्रकट करने लगा।

विद्रोह, संघर्ष, निषेध और क्रांति की आवाज बुलंद करने लगा। नामदेव ढसाल के ‘गोलपीठा’ काव्य-संग्रह ने साहित्यिक संस्कृति में विस्फोट कर दिया। कथा के क्षेत्र में यही कार्य श्री बाबूराव बागल ने किया। बाबूराव जी की कहानियाँ विद्रोह के स्वर से विक्षुब्ध हैं। भीषण सामाजिक यथार्थ को उन्होंने उत्तेजनापूर्ण भाषा में प्रस्तुत किया। कविता को अपर्याप्त अनुभव करके बागुल कथा की ओर आए। आंबेडकरजी के विचारों के साथ ही महात्मा फुले, मार्क्स और बुद्ध के विचारों से उन्होंने अपना चिंतन विकसित किया। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीय जीवन में क्रांति लाने के लिए मार्क्स के साथ आंबेडकर को भी जोड़ना आवश्यक है। जाति के विरुद्ध संघर्ष ही भारतीय क्रांति की सही लड़ाई हो सकती है। इस जीवनदृष्टि को लेकर उन्होंने ‘जब मैंने जाति छिपाई’ और ‘मौत सस्ती हो रही है’ जैसी बेचैन कर देनेवाले यथार्थ की, सोचने को विवश कर देनेवाली, विद्रोही नायकों की, समग्र मुक्ति की विंदास कहानियाँ लिखीं तब मानो दलित कथा का सही जन्म हो गया। उन्होंने दलित चेतना को पहचानकर दलित-कथा के विस्तार और विकास के लिए दरवाजे खोल दिए।

श्री बागुल से प्रेरणा लेकर दलित कथाकारों की नई पीढ़ी सामने आई, जिसमें पुरानी पीढ़ी के बंधुमाधव भी फिर से सक्रिय हो उठे। सातवें-आठवें दशक में यह कथा विकसित हुई, जिसमें योगीराज वाघमारे, वामन होवाल, सुखराम हिरवाले, केशव मेश्राम, अर्जुन डांगले आदि हस्ताक्षर महत्त्वपूर्ण हैं।
दलित आंदोलन और बदलते यथार्थ के साथ-साथ इस कहानी के विषय और कथ्य भी बदलते गए। पीड़ितों के दु:ख-दर्द की करुण कहानियों के स्थान पर अब विद्रोह और संघर्ष के स्वर तीव्र होते दिखाई देते हैं। हिंदी साहित्य में जैसे और जितने कथा-आंदोलन हुए उतने मराठी साहित्य में नहीं हुए। नई कहानी का आंदोलन ही प्रधान रहा और वही कथा-साहित्य की मध्यवर्ती धारा बन गया। उसमें दलित चेतना को स्थान नहीं था। आगे भी इस कथा का विकास, व्यक्तिप्रधान, मनोविश्लेषणात्मक, अस्तित्ववादी, मध्यवर्गीय मानसिकता की या रहस्यवादी फंतासी की प्रतीकवादी कहानियों में होता रहा। आधुनिक जीवन की यातनाओं का चित्रण उसमें मिलता है, लेकिन उसमें सामाजिकता, प्रतिबंद्धता और क्रांति की चेतना का अभाव है। दलित-कथा ने इस दृष्टि से मराठी कथा को विस्तृत और सार्थक बना दिया।
पढ़े-लिखे दलित युवकों की नई पीढ़ी आंबेडकरजी के संदेश को साक्षात् करती हुई संघर्ष को बुलंद करने लगी। साठोत्तर साहित्यिक वातावरण ने इस ज्वाला को भड़का दिया। जब लघु पत्रिकाओं का निराशावादी, नपुंसक आंदोलन चल रहा था, तब मुक्त नवलेखन से प्रेरणा लेकर लेकिन उसके निराश-नपुंसक स्वर को नकारकर दलित चेतना जाग्रत हो उठी और समाज को झिंझोड़ने लगी। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद दलितों का भी मोहभंग हो गया था, बल्कि अब उनपर होनेवाले अत्याचारों ने नए रूप धारण कर लिये थे। इस विषम परिस्थिति में दलित रचनाकार और भी उग्र हो उठा। इसी पृष्ठभूमि पर दलित कथाकारों ने अपनी हजारों वर्षों की पीड़ा को ऊर्जा में रूपांतरित कर दिया। वह जनतंत्र, समाजवाद, क्रांति, नवजागरण, अस्मिता आदि शब्दों की परिभाषा पहचानने लगा था। अब आँसू नहीं, संतप्त आँसू भी नहीं, अब विद्रोह, निषेध, गुस्सा, अनार्की के तेवर प्रस्थापित व्यवस्था के विरोध में उभरने लगे। आर्थिक और सामाजिक अन्याय के साथ अब उसे अपने सांस्कृतिक अन्याय और शोषण की भी पहचान हो गई। इन्हीं भावों के चित्र दलित-कथा में मिलते हैं।

नवें दशक की कथा


अस्सी के आसपास नवें दशक में दलित कहानी समकालीन जीवन के समानांतर जाने लगी। ग्रामीण जीवन में जिस समाज को बहिष्कृत, अछूत बनाकर मनुष्यता से वंचित रखा गया था वह विषय अब भी समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन अब वह नया नहीं रह गया है। शहर की झोपड़पट्टी में यह समाज जो नरक-यातना भोग रहा है, उसके चित्रण का दौर भी पूरी तरह से समाप्त हो गया है, ऐसा नहीं है। लेकिन इन विषयों के साथ ही अब पढ़े-लिखे नौकरीपेशा मध्यवर्गीय दलिक युवक को समाज के मुख्य प्रवाह में सम्मिलित होते हुए कुछ नए जीवनानुभव प्राप्त हो रहे हैं। पहली पीढ़ी की निम्नवर्गीय जिंदगी और नई पीढ़ी की मध्यवर्गीय जिंदगी के तनाव वह झेल रहा है।

पुनरुत्थानवाद के आंदोलनों ने संघर्ष के नए क्षेत्र निर्मित किए हैं। नए जीवन के नए प्रलोभन भी सामने हैं। नई समस्याओं का मुकाबला करना है। अपने जीवन के अंतर्विरोधों का भी उसे साहस से सामना करना है। शरणकुमार लिंबाले, भास्कर चंदनशिव, योगेंद्र मेश्राम, भीमसेन देठे, सुमित्रा पवार, प्रकाश खरात आदि नई पीढ़ी के कथाकारों के सामने अब जटिल तथा मिश्र और तनावपूर्ण समकालीन जीवन की चुनौतियाँ हैं। अपने समाज के पाखंडी नेता, उनकी गुटबाजियाँ, दलितों में ही एक जाति से दूसरी की दुश्मनी, इस परिस्थिति के साथ ही आधुनिक जीवन के अंतर्द्वंद्व और आत्मसंघर्ष के बारे में भी सोचना है। दलित नारी की दोहरी वेदना को भी अभी शब्द मिलना बाकी है।

शरणकुमार लिंबाले की कथासृष्टि


बाबा नागार्जुन ने एक बार स्त्री-जन्म लेकर अवैध संतान उत्पन्न करने की कामना की थी। कवि उस दर्द को अनुभव करना चाहता था। अवैध संतान का, वह भी निम्न अछूत जाति की माँ के गर्भ से उत्पन्न होने का दर्द क्या है, इसे शरणकुमार ने अपने ही जीवन में अनुभव किया और कठोर संघर्ष के बाद अपनी रचनाशीलता की बदौलत समाज में सम्मान प्राप्त किया। अपनी यातना-यात्रा को ‘अक्करमाशी’ में बताने के बाद उन्होंने समकालीन अनुभवों के लिए कहानी का माध्यम स्वीकार किया। आश्चर्य नहीं कि उनकी अधिकांश कहानियाँ आत्मकथात्मक शैली में लिखी हुई हैं।

शरणकुमार की इन कहानियों में बदलते हुए यथार्थ रूप अंकित हुए हैं। ‘हरिजन मास्टर’ या और एकाध कहानी में बचपन के ग्रामजीवन के दलित संवेदना के अनुभव अब भी ताजा होते हैं। हरिजन मास्टर की कहानी विद्रोह नहीं, करुणा ही उपजाती हैं, किंतु सोचने के लिए भी विवश करती है। नया दलित कथाकार दलित पाठकों के लिए ही नहीं लिखता; वह सारे पाठकों के लिए लिखता है और कथाओं से दिल को नहीं, दिमाग को परेशान करता है। ‘त्रिमुख’ के निराधार बालक की तरह उसका भी दृढ़ आधार आंबेडकर की विचारधारा ही है, जिससे उसे लगता है कि वह ‘सूरज की पनहियाँ’ पहनकर चल रहा है। ‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में बदले हुए ग्रामीण यथार्थ का चित्र समकालीन न्याय-व्यवस्था का भी पर्दाफाश कर देता है, तो ‘समाधि’ में आज भी देहातों में धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड की पोल खोल दी जाती है। लेकिन शरणकुमार की कहानियों का यथार्थ शीघ्र ही नगरबोध में विकसित होता हुआ दिखाई देता है।

‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में दूर देहातों से लाए गए बच्चों का होटल मालिक किस प्रकार शोषण करते हैं, मजदूरों के संगठन कैसे चलते हैं, इसका बड़ा ही सच्चा चित्रण मिलता है। इन कहानियों में अपने व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ ही निस्संग रूप में व्यक्त होता है। ‘भोगा हुआ यथार्थ’ एक घिसा-पिटा वाक्यांश हो गया है हिंदी कथा-आलोचना के क्षेत्र में। लेकिन उसका सार्थक प्रयोग दलित-कथा के संदर्भ में ही हो सकता है। कई कहानियों में लेखक स्वयं अपने यथार्थ रूप में ही पात्र बना हुआ है।

इनका नायक स्वयं दलित कार्यकर्ता और लेखक है। नौकरीपेशा, मध्यवर्गीय मानसिकता से आक्रांत पढ़ा-लिखा युवक है। ‘साहित्य संबोध’ से दलित साहित्य को फैशन के तौर पर और अपने आपको प्रगतिशील दिखाने के लिए सहलानेवाले सफेदपोश अध्यापक-समीक्षक की असलियत का पता चलता है, जहाँ उसकी तथाकथित गंदी पुस्तक को घृणा से देखा जाता है। साहित्यिक संस्कृति के दंभों को शरणकुमार बेबाक खोल देते हैं।

‘भीतर-बाहर बलात्कार’ आत्मानुसंधान और आत्मस्वीकृति की कहानी है। दलित युवती पर हुए बलात्कार का संगठन कैसा लाभ उठाते हैं, इस अनुभव के साथ ही नायक को अपनी नौकरानी पर किए बलात्कार की याद आ जाती है। वह अपने को माफ नहीं कर सकता। इस निर्ममता के बावजूद उसकी खामोशी बहुत-कुछ मध्यवर्गीय बनी रह जाती है। इसी मध्यवर्गीय मानसिकता में जीते हुए वह ‘रोटी का जहर’ में भिखारी को लात तो मारता है, लेकिन फिर भी उसे अपनी रोटी में जहर भरा प्रतीत होता है। समकालीन जीवन के सारे अनुभव तनावों से भरे हैं।

आरक्षण की नीति के फलस्वरूप दलित युवक अब कार्यालयों में नौकरियाँ पा रहे हैं, पदोन्नति भी मिल रही है, कुछ काले साहब बने हुए हैं, कुछ ने इसी बल पर सवर्ण औरतों से विवाह कर लिये हैं; लेकिन कुछ हैं तो इस मध्यवर्गीय समझौते से भरी मानसिकता में जीते हुए भी विद्रोह की चिनगारी को जीवित रखना चाहते हैं। वातावरण उन्हें निगलना चाहता है। कार्यालय में भिन्न जातिवाले से मित्रता होती है, लगता है कि ‘नशे में छुआछूत’ नहीं रहेगी, लेकिन अपने दलित मित्र को अपवाद बनाकर छुआछूत बरकरार रहती है। ऐसे दलित को भी अपने गँवार बाप पर शर्म आती है। ‘हम नहीं जाएँगे’ कहानी का नायक अन्य दलितों की तरह आंबेडकरजी की तसवीर नहीं लगाता, क्योंकि उसे वह दलितों के जनेऊ की तरह लगती है। पश्चात्ताप की अवस्था में दलित ‘साहब’ फिर झोपड़पट्टी में रहने के लिए जाना चाहते हैं तो वाल्मीकि की तरह उसके बच्चे भी उसके निर्णय में शामिल नहीं होते। मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण इन कहानियों का नायक उग्र आंदोलनों से दूर हटता जाता है। वह इस अंतर्द्धंद्व से भी पीड़ित है। उसे लगता है कि सवर्णों की भावनाएँ दुखाकर दलितों की समस्याएँ सुलझने की अपेक्षा और भी उलझ जाएँगी। सामंजस्य बहुत जरूरी है। विद्रोह के स्थान पर सौम्य भाषा का प्रयोग होने लगता है-लेकिन समझदारी के कारण नहीं, सुविधाभोग के लालच और आत्मसुरक्षा के कारण।






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