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विष्णु प्रभाकर लघु जीवनियाँ

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :599
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1743
आईएसबीएन :00000

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बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न, आधुनिक हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्यकार द्वारा प्रस्तुत लघु जीवनी संग्रह

Vishnu Prabhakar Laghu Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जीवनी लिखना जितना कठिन है उसके पात्र का चयन करना भी प्रायः उतना ही जटिल। गुण-दोषमय व्यक्ति के केवल गुणों का बखान करना ही जीवनी का वैशिष्ट्य नहीं है। जीवनी में व्यक्ति के चरित्र की मूल संवेदना ग्राह्य है।
बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न, आधुनिक हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्यकार ने प्रस्तुत लघु जीवनी संग्रह में उचित पात्रों का चयन ही नहीं किया, बल्कि उनके चरित्रों की मूल संवेदनाओं और वास्तविकताओं को भी सहज स्वाभाविक रूप में उद्घाटित किया है। उन्होंने उपलब्ध तथ्यों को जिस रोचक एवं सरस भाषा-शैली में प्रस्तुत किया है, वह उपन्यास का-सा आभास और रस देने में सक्षम है।

विष्णु जी के जीवन और साहित्य के समान इन लघु जीवनियों का संघर्ष, परिश्रम, विश्वास और साहस बाद के किसी भी लेखक के लिए आदर्श प्रेरणा-स्रोत हो सकता है। मूल्यगत दृष्टिकोण से इनमें नये व पुराने जीवन मूल्यों के मध्य समन्वय तथा सामन्जस्य परिलक्ष्य है।

ये जीवनियाँ विस्तृत जीवन परिचय न होकर लघु और संक्षिप्त है। इनमें पात्रों के मनोवैज्ञानिक तथा वादपरक अध्ययन को महत्व नहीं दिया गया है। ये पात्रों की प्रमुख विशेषताओं को रेखांकित करती हैं। इनमें व्यक्ति को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का लेखकीय उद्देश्य कहीं भी आँखों से ओझल नहीं हो पाया है। सभी वर्गों के पाठकों के लिए ये जीवनियाँ निश्चित ही प्रेरणादायक तथा उपयोगी सिद्ध होंगी।


दो शब्द


जीवनी लिखना निस्सन्देह बहुत कठिन काम है। इसी कारण साहित्य की एक महत्त्पूर्ण विधा होने पर भी हिन्दी में बहुत कम उल्लेखनीय जीवनियाँ उपलब्ध हैं। उसके कई कारण हैं। प्रथम तो पात्र का चुनाव। जिसकी हम जीवनी लिखना चाहते हैं वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसने किसी न किसी क्षेत्र में युगान्तरकारी कार्य किया हो। जिसके चरित्र में किसी न किसी रूप में किसी प्रकार की असाधारणता हो अर्थात् जो साधारण से अलग हो।

दूसरी बात कि जिस व्यक्ति की जीवनी हम लिखना चाहते हैं उसके बारे में जो सामग्री हमें प्राप्त है उसका उपयोग व्यक्ति के चरित्र की वास्तविकता को समझने में किया जाए न कि केवल उसके गुण गाने या फिर मात्र उसके दोष ढूँढ़ने में। हर व्यक्ति गुण-दोषमय होता है। आवश्यकता है गुण-दोष दोनों के प्रभाव से निर्मित व्यक्ति के वास्तविक चरित्र को खोज लेना जो  उसे साधारण से अलग बनाता है। कमजोरियों से कटकर कोई महान् नहीं होता।

एक कठिनाई और भी है। कुछ समीक्षक जीवनी को साहित्य की सृजनात्मक विधा मानने से इंकार करते हैं। शायद इसलिए इस विधा में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है। सब कुछ हमारे सामने उपलब्ध है। उस उपलब्ध सामग्री का उपयोग हमें करना है लेकिन नहीं जैसे कि इतिहासकार करता है या उपन्यासकार।  जीवनी न इतिहास है न उपन्यास। दोनों का मिश्रण है। तथ्यों को इस प्रकार रोचक भाषा शैली में प्रस्तुत किया जाता है कि वे उपन्यास होने का आभास और रस दें।

प्रस्तुत संग्रह में बड़ी जीवनियाँ नहीं हैं बल्कि इनमें तीन तो किशोरों के लिए लिखी गयी हैं। उनमें हैं सरदार वल्लभभाई पटेल, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय। स्वामी दयानन्द सरस्वती और काका साहब कालेलकर के द्वारा किए गये हिन्दी साहित्य और भाषा के लिए उनके योगदान को रेखांकित करना है। इनमें सरदार पटेल वर्तमान भारत के निर्माताओं में प्रमुख हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती सुप्रसिद्ध समाज-सुधारक हैं। उनकी मातृभाषा गुजरती है परन्तु अपने विचारों का प्रचार करने के लिए उन्होंने हिन्दी को अपनाया। काका साहब राजनेता होने के साथ-साथ सुप्रसिद्ध पर्यटक और साहित्यकार भी थे। उनकी मातृभाषा मराठी थी पर गुजराती भाषा के वे प्रमुख साहित्यकार ही नहीं नयी शैली के निर्माता भी माने जाते हैं। हिन्दी भाषा का उन्होंने प्रचार ही नहीं किया बल्कि सबसे अधिक लिखा भी इसी भाषा में। वे चिर प्रवासी थे। उनके यात्रा-वृत्तान्त साहित्य की निधि हैं।

बंकिमचंद्र और शरतन्द्र तो बंगला भाषा के सर्वमान्य मूर्धन्य सर्जक हैं। मात्र सर्जक ही नहीं, नये समाज के निर्माता भी हैं।
इन पाँच लघु जीवनियों के अतिरिक्त प्रस्तुत संग्रह में कुछ संक्षिप्त जीवनियाँ भी हैं और ये सब प्रौढ़ों को शिक्षित करने की दृष्टि से सरल और सहज भाषा तथा शैली में लिखी गयी हैं। इनमें चरित्र-चित्रण और मनोवैज्ञानिक अध्याय की विशिष्टता को रेखांकित करना था।

इस तरह इस संग्रह में संकलित रचनाओं की अपनी-अपनी सीमा है परन्तु व्यक्ति को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का लेखकीय उद्देश्य आँखों से ओझल नहीं हुआ है।
इनमें से दो जीवनियां सरदार पटेल और आदि शंकराचार्य का भारत की सभी स्वीकृति भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। दो संक्षित्त जीवनियाँ शंकराचार्य तथा बाजीप्रभु देशपाण्डे भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत भी हो चुकी हैं।

-विष्णु प्रभाकर


स्वामी दयानन्द सरस्वती
भूमिका


भारतीय साहित्य के निर्माताओं में आर्यसमाज के संस्थापक और नवजागरण के पुरोधा स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम देखकर अनेक मित्रों को आश्चर्य हो सकता है। होने के कारण भी है। साहित्य, विशेषकर रचनात्मक साहित्य की संज्ञा दी जा सके ऐसा कुछ भी तो नहीं लिखा उन्होंने। न कविता, न कहानी, न उपन्यास, न नाटक—नाटक के तो वे इतने विरोधी थे कि किसी आर्य पत्रिका में उसका छपना भी पसन्द नहीं करते थे। उनकी यह धारणा सम्भवतः उस काल के पारसी थियेटर के विकृत रूप को देखने से बनी थी। एक पवित्रतावादी सुधारक पर यही प्रतिक्रिया हो सकती थी।

वे जीवन-भर घूमते रहे पर कोई यात्रा-वृत्तान्त नहीं लिखा। न रेखाचित्र, न संस्मरण और न जीवन-चरित्र। हाँ, आत्मकथा1 अवश्य लिखी, पर वह इतनी संक्षिप्त, इतनी अधूरी है और भाषा भी इतनी अटपटी है कि साहित्य का इतिहासकार उसे देखकर भी अनदेखा कर  सकता है। लेकिन उसमें यात्रा-वृत्तान्त की कुछ झलक अवश्य मिलती  है।
बहुत-से समीक्षकों की दृष्टि में यह इतिहास हो सकता है, साहित्य नहीं। इसलिए वे कह सकते हैं कि प्रचलित अर्थों में स्वामीजी सर्जक नहीं थे। और हिन्दी भाषा का प्रचार करना भी प्रमुख उद्देश्य कभी नहीं रहा। हिन्दी उनकी मातृभाषा भी नहीं थी। वह गुजराती थी और उन्होंने अध्ययन किया था संस्कृत का वह वास्तव में समाज-सुधारक थे पर मात्र समाज-सुधारक ही नहीं, सत्य के
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1. देखे खण्ड-3 रचनाएँ

अन्वेषक भी थे। देश में फैले अविद्या के अन्धकार को दूर करने के लिए पाखण्ड दम्भ और मिथ्या आडम्बर पर प्रहार करने के लिए वे घूम-घूमकर व्याख्यान देते और शास्त्रार्थ करते थे। प्रारम्भ में वे सरल संस्कृत बोलते थे। इसका कारण उन्हीं के शब्दों में यह था, ‘‘भारत में द्रविड़ प्रभृति अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं, तब मैं किस भाषा में बोलूँ। संस्कृत सारे हिन्दुओं की भाषा है और समस्त भाषाओं का मूल है अतः संस्कृत बोलना ही उचित है।’’

लेकिन इसी कारण उनका कार्य-क्षेत्र विद्वानों और पण्डितों की पंचायत तक ही सीमित होकर रह गया था।
देश के प्रति उनके मन में अगाध ममता थी। सत्य की तलाश में नगर, वन, पर्वत कहीं घूमते-घूमते उन्होंने जनता की दुर्दशा और जड़ता को देखा था। लेकिन उससे उनका आत्मिक साक्षात्कार नहीं हो पाया था। भाषा का व्यवधान था। संकेतों की भाषा में भूख-प्यास मिटाई जा सकती है, नेत्रों की भाषा में किसी एक से प्यार तो किया जा सकता है, पर जनता के रक्त-मांस-मज्जा में बस गयी जड़ता को दूर नहीं किया जा सकता। उसके लिए एक ऐसी स्थूल भाषा की भी आवश्यकता होती है जो घन की चोट कर सके।

स्वामी दयानन्द को उसी भाषा की तलाश थी। तलाश की इसी प्रक्रिया में सन् 1872 के अन्त में उन्होंने ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय की नगरी कलकत्ता में प्रवेश किया। उन दिनों कलकत्ता में एक से बढ़कर एक विद्वान्, साधक और महात्मा रहते थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, रामकृष्ण परमहंस, ब्रह्मानन्द केशवचन्द्र सेन, राजनारायण वसु, द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, पण्डित महेशवर चन्द्र तर्करत्न, पण्डित तारानाथ तर्कवाचस्पति अनेकों में ये कुछ नाम हैं।

इन महानुभावों से स्वामीजी आवागमन, अद्वैतवाद, होम, मूर्तिपूजा आदि विषयों पर विचार करते थे। उनकी वाणी और शास्त्रों की व्याख्या सुनकर श्रोता मुग्ध हो उठते थे। वे यह विश्वास नहीं कर पाते थे कि एक कोपीन-कमण्डलधारी संन्यासी जो अंग्रेजी से एकदम अनभिज्ञ है, समाजशास्त्र और धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार के परिमार्जित, उच्च और उदार विचारों का पोषण कर सकता है।

वहाँ के मनीषियों ने स्वामी दयानन्द के विचार पुस्तकाकार छपवाकर सारे देश में वितरित करने का प्रस्ताव भी किया। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द के बाद बंगाल के महापुरुषों ने ही स्वामी दयानन्द की शक्ति और क्षमता का सही आंकलन किया। पं० ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और ब्रह्मानन्द केशवचन्द्र सेन सरीखे सुधारकों के मन में बार-बार यह विचार कौंध रहा था कि स्वामी जी को जनता से सीधे साक्षात्कार करना चाहिए। सदियों से नानारूपों रूढ़ियों, कुरूतियों और अन्धविश्वासों में ग्रस्त जाति का अगर कोई उद्धार कर सकता है तो वह स्वामी जी हैं।

और एक दिन सचमुच ही बातों ही बातों में उन्होंने स्वामी जी से कहा, ‘‘यदि आप जनता के बीच में जाकर प्रचलित देशी भाषा में अपने विचार उसके सामने रखें तो निश्चय ही देश का बड़ा उपकार होगा। आपकी इच्छा की पूर्ति भी होगी।’’ उन्होंने यह भी कहा था कि प्रायः अनुवादक अनुवाद करते समय आपके मंतव्यों को विकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं। इससे आपके प्रति अन्याय होता है। इसलिए आपको बिना मध्यस्थ के जनता से सीधे बात करनी चाहिए। और यह प्रचलित देशी भाषा में हो सकता है।

उन्होंने एक और सुझाव दिया था कि चूँकि स्वामीजी नारी-मुक्ति के प्रबल समर्थक हैं इसलिए नारियाँ उनके पास आएँगी। तब उन्हें वस्त्र भी धारण करने चाहिए।
सत्य के अन्वेषक उस कोपीनधारी संन्यासी ने तुरंत ये दोनों प्रस्ताव स्वीकार कर लिए थे। यह प्रचलित देशी भाषा थी—‘हिन्दी’। उन्हें जनसंपर्क के लिए जिस भाषा की तलाश थी वह उन्हें मिल गयी थी। वह न ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और केशवचन्द्र सेन की भाषा थी, न स्वामी दयानन्द की। वह इस देश की बहुसंख्यक जनता की भाषा थी।

स्वामी दयानन्द बहुत शीघ्र हिन्दी में व्याख्यान देने लगे। उनका पहला भाषण हिन्दी में मई, 1874 में काशी में हुआ। श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने लिखा है, ‘‘व्याख्यान भाषा में ही हुआ। परन्तु संस्कृत बोलने के अभ्यास के कारण वाक्य के वाक्य संस्कृत में बोल गए। भाषा में व्याख्यान देने का यह परिणाम तो अवश्य हुआ कि सर्वसाधारण अधिक संख्या में भाषण सुनने आने लगे परन्तु पण्डितों की उपस्थिति कम हो गई।’’1




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