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सुख और सफलता का मूल मंत्र

सत्यकाम विद्यालंकार

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1933
आईएसबीएन :9788170286431

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मनुष्य के जीवन में सुख और सफलता को कैसे प्राप्त किया जाय उसके विषय में रोचक वर्णन.....

Sukh Aur Safalta Ka Mool Mantra Swasthya Man

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ भी सोचने के लिए कुछ भी करने के लिए स्वस्थ मन पहली शर्त है। सुखी जीवन भी तभी सम्भव है, जब मन स्वस्थ हो, कहते भी हैं: ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’ मन को स्वस्थ रखने के भी उपाय हैं विद्वान लेखक सत्यकाम विद्यालंकार ने इस पुस्तक में इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है एक बहुप्रशंसित पुस्तक जिसकी हज़ारों प्रतियाँ बिक चुकी हैं।

 

1
मानव मन

मन व्यक्ति का अन्तरंग है जिससे वह सोचता है, समझता है, तर्क करता है, इच्छा करता है, संकल्प करता है, विविध बातों का, वस्तुओं का अनुभव प्राप्त करता है। इन बौद्धिक अनुभवों के अतिरिक्त वह मन से प्रेम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि संवेगों का अनुभव भी करता है।
मन के अनेक स्तर हैं। इसका सबसे ऊपर वाला स्तर चेतना का स्तर है। इस स्तर में जो मानसिक क्रियाएँ होती हैं, व्यक्ति को उसकी चेतना रहती है, उसके प्रति वह जागरूक रहता है। इस स्तर पर कार्य करने वाले मन को चेतन मन कहते हैं।
नीचे के गूढ़ स्तरों में जो मानसिक क्रियाएँ होती हैं उनके प्रति वह बेखबर रहता है। इन स्तरों पर कार्य करने वाले मन को अचेतन या अवचेतन मन कहते हैं।

 

मन की जन्मजात प्रवृत्तियाँ

 

मनोविज्ञान के अनुभवी अध्ययनशील अनुसंधानकर्ताओं ने पता लगाया है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ भावनात्मक प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है।
ये प्रवृत्तियाँ प्रत्येक मनुष्य में जन्मजात होती हैं। इनमें से कुछ हैं : भय, क्रोध, आत्मरक्षा, भूख, प्यास, कौतूहल, यौनसुख, हर्ष, विषाद, सामाजिकता, संग्रहशीलता, दया, करुणा, स्वाभिमान, दैन्य, महत्त्वाकांक्षा। बीज रूप में ये प्रवृत्तियाँ मनुष्य के स्वभाव में सदा रहती हैं। इनसे पूरी तरह छुटकारा मिलना सर्वथा असम्भव नहीं हो अत्यन्त कठिन अवश्य है।
मनुष्य मन में सदा निवास करने वाली इन प्रवृत्तियों के सम्यक् सन्तुलन से ही मानसिक स्वास्थ्य बनता है और असन्तुलन से अस्वस्थ्ता आती है। यही मानसिक स्वास्थ्य लाभ करने की भूमिका है। आदर्श सन्तुलन कर लें कि हमारा विकास बिना अवरोध के होता रहे; हमारी कार्यशक्ति कम न हो, अपितु ये भावनाएँ हमें विकास के शिखर पर ले जाने में सहायक बनती रहें। मन की ये स्वाभाविक भावनात्मक प्रवृत्तियाँ जब हमारे विकास में सहायक बनती हैं तो हमारा मन स्वस्थ रहता है। संयत्र मात्रा में इनका उपयोग हमें नया जीवन, जीवन में वेग, उत्साह, आशा और प्रकाश का स्रोत्र बन जाती है। किन्तु इन भावनाओं में से किसी का भी अतिशय अभाव हमारी मानसिक अस्वस्थता, मन्दता का कारण बन जाता है।

 

2
स्वस्थ-मन मनुष्य

जीवन का सबसे सन्तोषप्रद सत्य यह है कि जीवन और मरण एक ही अनुभूति के दो पहलू हैं।
जगत् का आधारभूत सिद्धान्त मृत्यु नहीं, जीवन ही है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जिनसे उसका विश्वास दृढ़ होता है कि जीवन मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होता।
आखिर मृत्यु क्या है ?
चाँद-सूरज की किरणों के साथ मिल जाना, हवा और बादलों में समा जाना, चारों की दुनिया में चले जाना। दूर से सुन्दर दिखलाई देने वाली यह दुनिया पास से ही सुन्दर होगी ही। उससे डरना उसी तरह अकारण है जिस तरह बच्चे का सुन्दर खिलौने से डरना।

मृत्यु से डरने का एक कारण यह भी है कि हम जीवन से विदाई लेने के समय को बड़ा कष्टप्रद मानते हैं। हमारा विश्वास है कि जीवन के अन्तिम श्वास बड़े कष्टप्रद होते हैं और मृत्यु के क्षणों का कष्ट बड़ा असह्य होता है।
सच्चाई यह है कि मृत्यु के क्षण कष्टप्रद नहीं होते।
किन्तु यह भी सच है कि लोगों के मन से यह बात दूर करना कि मृत्यु में कोई कष्ट नहीं होता, कठिन है।
इस संबंध में अनेक डाक्टरों ने अपनी सम्मतियाँ प्रकट की हैं : एक डाक्टर का कथन है कि मृत्यु से पूर्व मरने की इच्छा मन में अवश्य रहती है। उसका कहना है कि-‘‘मैंने कभी ऐसा नहीं देखा कि मरने वाले को बिना पूर्वाभ्यास के और अपनी इच्छा के मृत्यु की गोद में जाना पड़ा हो।’’

‘‘मनुष्य को मृत्यु के अन्तिम क्षण तक कोई कष्ट नहीं होता। मृत्यु-काल से बहुत-पूर्व रुग्णावस्था में व्यक्ति को कितना ही कष्ट उठाना पड़ा हो, मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व उसे परम शान्ति का अनुभव होता है।’’
जिसे हम मृत्यु पीड़ा कहते हैं, वह केवल काल्पनिक वस्तु है। म्रियमाण व्यक्ति की चेष्टाएँ अवश्य बड़ी भयावह दिखाई देती हैं, किन्तु यह केवल स्नायुओं की प्रतिक्रियाएँ होती हैं, उसकी आत्मा उस समय इन वाह्य चिह्नों से अलग चरम शान्ति का अनुभव किया करती है।

अठारहवीं सदी के एक चिकित्सक ने मृत्यु से पूर्व के क्षणों में कहा था- ‘‘यदि मेरे हाथ में कलम पकड़ने की शक्ति होती तो मैं लिखकर बताता कि मृत्यु कितनी आसान और सुखद है।’’ फ्रांसीसी कवि पाल स्केरन ने भी मृत्यु के अन्तिम क्षणों में कहा था- ‘‘मुझे ज्ञात न था कि मरना इतना आसान है। मैं मृत्यु पर हँस सकता हूँ।’’
मृत्यु के समीप पहुँचकर, हृदय से रक्त का प्रवाह धीरे-धीरे कम हो जाता है जीवन की ज्योति धीरे-धीरे धीमी हो जाती है। मस्तिष्क की बोध शक्ति क्षीण हो जाने से कष्ट की चेतना भी मन्द हो जाती है। मरने वाले व्यक्ति को विचित्र स्वर सुनाई देते हैं और विचित्र प्रकाश दिखाई देता है। क्रमश: वह उस प्रकाश के गर्भ में समा जाता है।
मृत्यु एक दीर्घ शयन के समान है। वृद्ध व्यक्ति प्राय: ऐसी ही निद्रा में डूब जाते हैं। वे सो जाते हैं और और फिर कभी नहीं उठते। बच्चों का भी यही होता है।

 

वृद्धावस्था में भी उत्साह

 

मृत्यु भय को मन से दूर कर ही मनुष्य सफल जीवन यापन कर सकता है। मानसिक बल के आधार पर ही मनुष्य जवान भी रह सकता है। मन ही मनुष्य को युवक और वृद्ध बनाता है।
हमारे जीवन की सारी गतिविधि का मौलिक सूत्रधार वास्तव में हमारा मन ही है, जो हमारे जीवन को निर्णायक रूप से प्रभावित करता है। हमें चाहिए कि हम अपनी अभिरुचियों को कुंठित न होने दें, नवीन रस ग्रहण करने दें, पुरानी रुचियाँ सँजोकर रखें, पर नई भी जोड़ते जाएँ।

नई आयु के लोगों के जीवन में एक आनन्द रहता है। प्राय: हम समझते हैं कि जैसे-जैसे आयु बीतती जाएगी, वह आनन्द नहीं रहेगा, और हम बूढ़े होने के लिए मजबूर हैं।
यह ठीक नहीं है। जीवन में वर्षों की गणना का कोई महत्त्व नहीं। हमारा मन और शरीर युवा है तो हम भी युवा हैं। सच तो यह है कि आयु विचार-शक्ति और अनुभूति की तीव्रता से जाँची जानी चाहिए। यदि हम युवावस्था में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य-संबंधी नियमों का नियमित रूप से पालन करें तो युवावस्था के बाद का हमारा जीवन भी उतना ही आनन्दपूर्ण और उपयोगी होगा।

वृद्धावस्था कष्टप्रद नहीं है, यदि नया उत्साह बना रहे और मनुष्य अपनी सामाजिक एवं पारिवारिक उपयोगिता बनाए रखें। नई-नई चीजें सीखने से जीवन का उत्साह अजीवन ठण्डा नहीं होता। आयु बढ़ने पर भी जीवन को उपयोगी और सुन्दर बनाने का उपाय है, आयु के साथ-साथ बदलती हुई शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुभूति-संबंधी समस्याओं को अच्छी तरह समझते रहना।

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