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सुकुल की बीवी

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2421
आईएसबीएन :9788126705559

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चार चुनी हुई कहानियों का संग्रह...

Sukul Ki Bivi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

प्रस्तुत संग्रह में निराला की चार कहानियाँ संग्रहित हैं और चारों का रंग अलग-अलग है। ‘क्या देखा’ में अगर हीरा नामक महिला की व्यथा-कथा है, तो ‘कला की रूप रेखा’ में एक सत्य घटना के माध्यम से यह प्रतिपादित किया गया है कि कला जीवन से निरपेक्ष नहीं हो सकती, पहचानने वाली आँख हो तो जीवन में ही कला का अस्तित्व दिखाई देगा। ‘सुकुल की बीवी’ निराला के विद्रोही तेवर की कहानी है। एक मुसलमान पिता और एक हिन्दू माँ की सन्तान पुखराज का विवाह सुकुल जी से कराने में निराला सहायक बनते हैं। उस समय के समाज में यह अकल्पनीय था। चौथी कहानी ‘श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी’ में व्यंग्य का स्वर है। श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी छायावाद के विरोध में उपदेशात्मक लेख लिखकर लोकप्रियता अर्जित करती हैं। उनकी सफलता अवसरवाद की सफलता है। कुल मिलाकर यह छोटा-सा संग्रह कहानी के क्षेत्र में निराला की विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है, और आशा है कि नये रूप-रंग में प्रकाशित यह संस्करण पाठकों को प्रीतिकर लगेगा।

 

निवेदन

 

 

 ‘सुकुल की बीवी’ मेरी कहानियों का तीसरा संग्रह है। इसमें तीन कहानियाँ इधर की और अन्तिम ‘क्या देखा’ मेरी पहली कहानी है जैसी इसकी पादटीका में सूचित है। यह अन्तिम कहानी ‘मतवाला’ में 1923 ई. में निकली थी। कुछ परिवर्तन मैंने कर दिया है, पर हृदयगत भाव वही हैं। लोगों को एक निर्णय और निश्चय की सुविधा होगी। यह कहानी पहले उत्तम पुरुष से चली है, बाद को तृतीय पुरुष में बदल गई है; यह जितना दोष है, उतना ही गुण। मेरा विचार है, कहानियों से पाठक-पाठिकाओं का मनोरंजन होगा। कथा, साहित्य और कला की प्यास बुझेगी। इति ।

 

लखनऊ
10-2-41

 

निराला

 

सुकुल की बीवी

 

 

बहुत दिनों की बात है। तब मैं लगातार साहित्य-समुद्रमंथन कर रहा था। पर निकल रहा था केवल गरल। पान करने वाले अकेले महादेव बाबू (‘मतवाला’ संपादक)। - शीघ्र रत्न और रंभा के निकलने की आश से अविराम मुझे मथते जाने की सलाह दे रहे थे। यद्यपि विष की ज्वाला महादेव बाबू की अपेक्षा मुझे ही अधिक जला रही थी, फिर भी मुझे एक आश्वासन था कि महादेव बाबू को मेरी शक्ति पर मुझसे भी अधिक विश्वास है। इसी पर वेदांत-विषयक नीरस एक सांप्रदायिक पत्र का सम्पादन-भार छोड़ कर मनसा-वाचा-कर्मणा सरस कविता-कुमारी की उपासना में लगा। इस चिरन्तन का कुछ ही महीने में फल प्रत्यक्ष हुआ; साहित्य-सम्राट् गोस्वामी तुलसीदास जी को मदन-दहन-समयवाली दर्शन-सत्य उक्ति हेच मालूम दी, क्योंकि गोस्वामीजी ने, उस समय, दो ही दण्ड के लिए, कहा है- ‘अबला बिलोकहिं परुषमय अरु पुरुष सब अबलामयम्।’ पर मैं घोर सुषुप्ति के समय को छोड़ कर, बाकी स्वप्न और जाग्रत के समस्त दंड, ब्रह्मांड को अबालमय देखता था।

इसी समय दरबान से मेरा नाम लेकर किसी ने पूछा-
‘‘है’’?
मैने जैसे वीणा-झंकार सुनी। सारी देह पुलकित हो गई, जैसे प्रसन्न हो कर पीयूषवर्षी कंठ से साक्षात् कविता-कुमारी ने पुकारा हो, बड़े अपनाव से मेरा नाम ले कर। एक साथ कालिदास , शेक्सपियर, बंकिमचन्द्र और रवीन्द्रनाथ की नायिकाएँ दृष्टि के सामने उतर आईं। आप ही एक निश्चय बँध गया- यह वही हैं, जिन्हें कल कार्नवालिस एस्क्वायर पर देखा था- टहल रही थीं। मुझे देख कर पलकें झुका ली थीं। कैसी आँखें वे !- उनमें कितनी बातें !- मेरे दिल के साफ आइने में सच्ची तस्वीर उतर आई थी, और मैं वायु-वेग से उनकी बगल से निकलता हुआ, उन्हें समझा आया था कि मैं एक अत्यन्त सुशील, सभ्य, शिक्षित और सच्चरित्र युवक हूँ। बाहर आ कर गेट पर एक मोटर गाड़ी देखी थी। जरूर वह उन्हीं की मोटर थी। उन्होंने ड्राइवर से मेरा पीछा करने के लिए कहा होगा। उससे पता मालूम कर, नाम जान कर, मिलने आई हैं। अवश्य यह बेथून-कालेज की छात्रा हैं। उसी के समान मिली थीं। कविता से प्रेम होगा। मेरे छन्द की स्वच्छंता कुछ आई होगी इनकी समझ में, तभी बाकी समझने के लिए आई है।

उठ कर जाना अपमानजनक जान पड़ा। वहीं से दरबान को ले जाने की आज्ञा दी।
अपना नंगा बदन याद आया। ढकता, कोई कपड़ा न था। कल्पना में सजने के तरह-तरह के सूट याद आये, पर, वास्तव में, दो मैंले कुर्त्ते थे। बड़ा गुस्सा लगा, प्रकाशकों पर। कहा, नीच हैं, लेखकों की कद्र नहीं करते। उठकर मुंशी जी के कमरे में गया, उनकी रेशमी चादर उठा लाया। कायदे से गले में डाल कर देखा, फबती है या नहीं। जीने से आहट नहीं मिल रही थी, देर तक कान लगाये बैठा रहा। बालों कि याद आई-उकस न गये हों। जल्द-जल्द आईना उठाया। एक बार मुँह देखा, कई बार आँखें सामने रेल-रेल कर। फिर शीशा बिस्तरे के नीचे दबा दिया। शॉ की ‘गेटिंग मैरेड़’ सामने करके रख दी। डिक्शनरी की सहायता से अन्दर छिपा दी। फिर तन कर गम्भीर मुद्रा से बैठा।
आगंतुकों को दूसरी मंजिल पर आना था। जीना गेट से दूर था।

फिर भी देर हो रही थी। उठकर कुछ कदम बढ़ा कर देखा, बचपन के मित्र मिस्टर सुकुल आ रहे थे।
बड़ा बुरा लगा, यद्यपि कई साल बाद की मुलाकात थी कृत्रिम हँसी से होंठ रंग कर उनका हाथ पकड़ा, और  ला कर उन्हें बिस्तरे पर बैठाला।
बैठने के साथ ही सुकुल ने कहा- ‘‘श्रीमतीजी आई हुई हैं।’’
मेरी रूखी जमीन पर आषाढ़ का पहला दौगरा गिरा। प्रसन्न हो कर कहा-‘‘अकेली हैं, रास्ता नहीं जाना हुआ, तुम भी छोड़ कर चले आये, बैठो तब तक, मैं लिवा लाऊँ-तुम लोग देवियों की इज्जत करना नहीं जानते।’’
सुकुल मुस्कराये, कहा-‘‘रास्ता न मालूम होने पर निकाल लेंगी-गैज्युएट है, आफिस में ‘मतवाला’ की प्रतियाँ खरीद रही हैं। तुम्हारी कुछ रचनाएँ पढ़ कर- खुश हो कर।’’

मैं चल न सका। गर्व को दबा कर बैठ गया। मन में सोचा, कवि की कल्पना झूठ नहीं होती। कहा भी है, ‘जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि।’
कुछ देर चुपचाप गंभीर बैठा रहा। फिर पूछा, ‘‘हिन्दी काफी अच्छी होगी इनकी ?’’
‘‘हाँ,’’ सुकुल ने विश्वास के स्वर से कहा- ‘‘ग्रैज्युएट हैं।’’
बड़ी श्रद्धा हुई। ऐसी ग्रेज्युएट देवियों से देश का उद्वार हो सकता है, सोचा। निश्चय किया, अच्छी चीज का पुरस्कार समय देता है। ऐसी देवी के दर्शनों की उतावली बढ़ चली, पर सभ्यता के विचार से बैठा रहा, ध्यान में उनकी अदृष्ट मूर्ति को भिन्न प्रकार से देखता हुआ।
एक बार होश में आया, सुकुल को धन्यवाद दिया।

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