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वैदिक अंकगणित

वीरेंद्र कुमार, शैलेन्द्र भूषण

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2557
आईएसबीएन :81-85826-50-1

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अंकगणित के क्षेत्र में वैदिक गणित की उपयोगिता...

Vedic ank ganit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंकगणित गणित का आदि स्वरूप है। अंकगणित का मूल आधार संख्याएँ तथा उनका योग, व्यवकलन, गुणन, विभाजन आदि प्रमुख संक्रियाएँ हैं। इसके अतिरिक्त संख्याओं के गुणनखंड, मूल तथा घात निकालने की भी आवश्यकता पड़ती है। दो संख्याओं का मध्यानुपाती ज्ञात करने, ज्ञात क्षेत्रफल के वर्गाकार क्षेत्र की भुजा ज्ञात करने, दिए क्षेत्रफल के वृत्त की त्रिज्या ज्ञात करने, मानक विचलन निकलाने, दो बिंदुओं के बीच की दूरी ज्ञात करने, दिए पृष्ठ के गोले की त्रिज्या ज्ञात करने एवं अन्य प्रकार के प्रश्नों में वर्गमूल निकालने की आवश्यकता होती है। दिए आयतन के घन की भुजा ज्ञात करने, दिए आयतन के गोले की त्रिज्या ज्ञात करने एवं अन्य प्रकार के कुछ प्रश्नों के हल करने में घनमूल निकालने की आवश्यकता होती है। क्षेत्रफल और आयतन के प्रश्नों में, बोधायन-पाइथागोरस प्रमेय के अनुप्रयोग में, दो बिंदुओं के बीच की दूरी की गणना करने में चक्रबृद्धि ब्याज के प्रश्न हल करने में एवं कुछ अन्य प्रकार के प्रश्नों को हल करने में संख्याओं के वर्गफल अथवा घनफल निकालने की आश्यकता होती है।

कभी-कभी परिमेय संख्याओं को दशमलव संख्याओं के रूप में निरूपित करने की भी आवश्यकता पड़ जाती है और कभी-कभी आवर्त दाशमिक संख्याओं को भिन्न के रूप में निरूपित करने की आवश्यकता पड़ती है। इन सब क्रियाओं के करने के लिए समय-समय पर गणितज्ञों ने अनेक विधियाँ खोजीं। ‘गणित सार संग्रह’ में ‘महावीर’ ने गुणन की पाँच लंबी विधियों के बारे में जानकारी दी है। परंपरागत प्रचलित सभी विधियाँ लंबी तथा श्रम-साध्य हैं। हमारे देश के विद्वानों ने ऐसी अनेक विधियाँ खोजी हैं, जो गणनाओं को अति अल्प समय में करने में सहायक होती हैं तथा मौखिक रूप से गणनाएँ सरलता से की जा सकती हैं। जगद्गुरु स्वामी श्री भारतीकृष्णतीर्थजी महाराज ने अपनी आठ वर्ष की कठिन तपस्या के उपरान्त इन विधियों की पुनः खोज की। स्वामी की मृत्यु के उपरांत यह खोज कार्य ‘वैदिक गणित’ के नाम से ग्रंथ-रूप में प्रकाशित हुआ। वास्तव में यह ग्रंथ वैदिक गणित की भूमिका मात्र है। स्वामीजी की खोज का मूल विवरण तो उनके जीवनकाल में ही नष्ट हो चुका था तथा उसे पुनः लिपिबद्ध करने से पूर्व ही स्वामीजी परलोकवासी हो गए।

स्वामीजी के कार्य पर विभिन्न देशों में शोधकार्य चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में ‘वैदिक गणित’ को हाई स्कूल गणित के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था; परंतु सरकार के पतन के बाद नई सरकार द्वारा इस ओर ध्यान न देने के कारण यह अमूल्य विद्या विद्यार्थियों तक नहीं पहुँच पाई। विद्यार्थी इसके महत्त्व से अपरिचित ही रह गए। इस पुस्तक का उद्देश्य ‘वैदिक गणित’ के ज्ञान को व्यवहारिक बनाना है, जिससे जन-जन के बीच इसकी पैठ हो सके। अंकगणित के अतिरिक्त गणित के अन्य क्षेत्रों में ‘वैदिक गणित’ की उपयोगिता को इस पुस्तक में स्पर्श नहीं किया गया है। इस पुस्तक में मात्र अंकगणित के क्षेत्र में ‘वैदिक गणित’ की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। वैदिक विधियाँ अत्यंत सरल हैं, जो गणनाओं के करने में छात्रों के समय तथा श्रम की बचत करती हैं, साथ ही छात्रों में राष्ट्रीय स्वाभिमान और गौरव की भावना उत्पन्न करती हैं। इस पुस्तक में इन विधियों का वर्णन किया गया है, जिसका लाभ प्राथमिक से लेकर उच्च कक्षाओं तक के सभी छात्र उठा सकते हैं। व्यावहारिक जीवन में तो ये विधियाँ अति उपयोगी हैं ही, साथ ही ये शोध के नए आयाम भी खोलती हैं।

-लेखकद्वय

अध्याय 1
सूत्राध्याय


‘वैदिक गणित तथा वेदों के सोलह सरल गणितीय सूत्र’ नामक ग्रंथ की रचना गोवर्धन मठ, पुरी के जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य श्री भारतीकृष्णतीर्थजी महाराज ने की है। वेद ज्ञान के अपरिमित भंडार है तथा देश और काल की सीमा के बंधन से परे हैं। वैदिक ज्ञान की अनेक गुत्थियों को समझ पाने के कारण लोग वेदों का उपहास उड़ाते रहे हैं। आठ वर्षों की गहन एकांत साधना, चिंतन एवं मनन के पश्चात् स्वामीजी ने दीर्घकाल से लुप्त ज्ञान की कुंजी को खोज निकाला, जिसके द्वारा वैदिक गुत्थियों को सुलझाया जा सकता है। स्वामीजी के शब्दों में—‘हम लोगों को स्वयं भी यह खोजकर कि गणित के अत्यंत कठिन प्रश्नों को अथर्ववेद के परिशिष्ट में निहित अति सरल वैदिक सूत्रों द्वारा सरलतापूर्वक तथा सहज ही कुछ सरल पैड़ियों में मात्र मौखिक विधि द्वारा हल कर सकते हैं, आश्चर्य हुआ तथा विपुल हर्ष भी।’ स्वामीजी के कथन के अनुसार वे सूत्र, जिन पर ‘वैदिक गणित’ नामक उनकी कृति आधारित है, अथर्ववेद के परिशिष्ट में आते हैं, परंतु विद्वानों का कथन है कि ये सूत्र अभी तक के ज्ञात अथर्व वेद के किसी परिशिष्ट में नहीं मिलते। हो सकता है कि स्वामीजी ने ये सूत्र जिस परिशिष्ट में देखे हों वह दुर्लभ हो तथा केवल स्वामीजी के ही सज्ञान में हो। वस्तुतः आज की स्थिति में स्वामीजी की ‘वैदिक गणित’ नामक कृति स्वयं में एक नवीन वैदिक परिशिष्ट बन गई है।

स्वामी भारतीकृष्णतीर्थजी आप्त पुरुषों की श्रेणी के महापुरुष थे। महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार—‘‘जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष जैसा अपने आत्मा में जानता हो जिससे सुख पाया हो उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो अर्थात् जितने पृथ्वी से लेकर परमेश्वरपर्यंत पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है। जो ऐसे पुरुष और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश वेद हैं, उन्हीं को शब्द प्रमाण जानो।’’
स्वामी भारतीकृष्णतीर्थ ने अपनी आत्मा में जैसा जाना, लोकोपकार की दृष्टि से वैसा उपदेश किया।

ज्योतिष और गणित विषय वेद के विरुद्ध नहीं हैं। अथर्ववेद, जो शिल्प विद्या के भंडार के रूप में विख्यात है, उसमें पदार्थ गुण विज्ञान कौशल, नानाविध पदार्थों का निर्माण, पृथ्वी से लेकर आकाशपर्यंत की विद्याओं का वर्णन है। महर्षि दयानंद को उसके अध्ययन करने के बाद दो वर्ष तक ज्योतिष शास्त्र, सूर्य सिद्धांत आदि जिनमें कि बीजगणित, अंक, भूगोल, खगोल और भूगर्भ विद्या है, को सीखने का अनुदेश देते हैं। यदि गणितीय ज्ञान वेदसम्मत न होता तो महर्षि दयानंद ऐसा आदेश भला क्यों करते ? स्वामी भारतीकृष्णतीर्थ द्वारा रचित ‘वैदिक गणित’ पूर्णतः वैदिक सूत्रों के प्रकाश में रचित ग्रंथ है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का यह कथन कि ‘वैदिक गणितीय सूत्र अथर्व वेद में नहीं हैं’’ उचित नहीं कहा जा सकता। स्वामीजी जैसे महापुरुष असत्य भाषण नहीं कर सकते। ‘वैदिक गणित’ के कुछ सूत्र जैसे ‘व्यष्टि समष्टिः’, ‘शिष्यते शेष संज्ञः’ आदि को दिखाने हेतु तो वेदों की जिल्द पलटने की भी आवश्यकता नहीं। ‘वेदांतसार’ के सृष्टि प्रकरण में ‘व्यष्टि समष्टिः’ सूत्र के दर्शन हो जाते हैं, ‘समष्टि व्यष्टि रूपाज्ञान भेद द्वयी’। ‘शिष्यते शेष संज्ञः’ के दर्शन महर्षि दयानंद सरस्वती के ‘सत्यार्थप्रकाश’ में ही हो जाते हैं। (शिष्लृ विशेषणे) इस धातु से ‘शेष’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः शिष्यते स शेषः’ अर्थात् ‘शिष्यते शेष संज्ञः’, जो उत्पत्ति तथा प्रलय से शेष अर्थात् बच रहता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम शेष है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामीजी के शब्दों पर अविश्वास करना प्रमादपूर्ण है। ‘वैदिक गणित’ में वर्णित सभी सूत्र वेदों के प्रकाश से ही प्रकाशित हैं।

वैदिक गणितीय सूत्रों की विशेषताएँ—

(1) ये सूत्र सहज ही में समझ में आ जाते हैं। उनका अनुप्रयोग सरल है तथा सहज ही याद हो जाते हैं। सारी प्रक्रिया मौखिक हो जाती है।
(2) ये सूत्र गणित की सभी शाखाओं के सभी अध्यायों में सभी विभागों पर लागू होते हैं। शुद्ध अथवा प्रयुक्त गणित में ऐसा कोई भाग नहीं जिसमें उनका प्रयोग न हो। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित समतल तथा गोलीय त्रिकाणमितीय, समतल तथा घन ज्यामिति (वैश्लेषिक), ज्योतिर्विज्ञान, समाकल तथा अवकल कलन आदि सभी क्षेत्रों में वैदिक सूत्रों का अनुप्रयोग समान रूप से किया जा सकता है। वास्तव में स्वामीजी ने इन विषयों पर सोलह कृतियों की एक श्रृंखला का सृजन किया था, जिनमें वैदिक सूत्रों की विस्तृत व्याख्या थी। दुर्भाग्य से सोलह कृतियाँ प्रकाशित होने से पूर्व ही काल-कवलित हो गईं तथा स्वामीजी भी ब्रह्मलीन हो गए।
(3) कई पैड़ियों की प्रक्रियावाले जटिल गणितीय प्रश्नों को हल करने में प्रचलित विधियों की तुलना में वैदिक गणित विधियाँ काफी कम समय लेती हैं।
(4) छोटी उम्र के बच्चे भी सूत्रों की सहायता से प्रश्नों को मौखिक हल कर उत्तर बता सकते हैं।
(5) वैदिक गणित का संपूर्ण पाठ्यक्रम प्रचलित गणितीय पाठ्यक्रम की तुलना में काफी कम समय में पूर्ण किया जा सकता है।
वास्तव में ‘वैदिक गणित’ समझ में न आने तक एक जादू के समान प्रतीत होता है। स्वामीजी के एकमात्र उपलब्ध गणितीय ग्रंथ ‘वैदिक गणित या वेदों के सोलह सरल गणितीय सूत्र’ के बिखरे हुए संदर्भों से छाँटकर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने सूत्रों तथा उपसूत्रों की सूची ग्रंथ के आरंभ में इस प्रकार दी है—

सूत्र :

1. एकाधिकेन पूर्वेण
2. निखिलं नवतश्चरमं दशतः
3. ऊर्ध्वतिर्यग्भ्याम्
4. परावर्त्य योजयेत्
5. शून्यं साम्यसमुच्चये
6. (आनुरूप्ये) शून्यमन्यत्
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम्
8. पूरणापूरणाभ्याम्
9. चलनकलनाभ्याम्
10. यावदूनम्
11. व्यष्टिसमष्टिः
12. शेषाण्यङ्केन चरमेण
13. सोपान्त्यद्वयमन्त्च्यम्
14. एकन्यूनेन पूर्वेण
15. गुणितसमुच्चयः
16. गुणकसमुच्चयः


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