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वैदिक बीजगणित

वीरेंद्र कुमार, शैलेन्द्र भूषण

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2558
आईएसबीएन :81-85826-51-x

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बीजगणित के प्रारम्भिक प्रकरणों-बहुपदों के योग, व्यवकलन, गुणन, विभाजन, समीकरण, युगपत् समीकरण, आंशिक भिन्न आदि का आसान वैदिक रीति से हल...

Vedic beejganit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति की महानता का मूल ज्ञान गणित ही है, जिसका आदि स्त्रोत वैदिक वाङ्मय है। आठ वर्ष सतत साधना के उपरांत जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री भारतीकृष्णतीर्थजी ने इस मान्यता को और बल दिया। स्वामी जी द्वारा वेदों से प्राप्त गणतीय सूत्रों को आधार बनाकर सरल-सुबोध भाषा में प्रस्तुत पुस्तक की रचना की गई है, जिसका उद्देश्य वैदिक गणित के प्रचार एवं प्रसार के साथ-साथ राष्ट्रीय गौरव की अभिवृद्धि करना है। वैदिक गणित द्वारा न केवल अंकगणित, वरन् बीजगणित की सभी शाखाओं के प्रश्न शीघ्रता से हल किये जा सकते हैं।


वैदिक बीजगणित में बीजगणित के प्रारम्भिक प्रकरणों-बहुपदों के योग, व्यवकलन, गुणन, विभाजन, समीकरण, युगपत् समीकरण, आंशिक भिन्न आदि से सम्बन्धित प्रश्नों को आसान वैदिक रीति से हल करने के तरीके समझाए गये हैं। वैदिक विधियों के अनुप्रयोग को समझने के बाद छात्र अपनी बुद्धि और कौशल द्वारा उच्च बीजगणतीय प्रश्नों को हल करने की क्षमता व दक्षता प्राप्त कर सकेंगे। इस पुस्तक में कुछ नवीन सूत्रों का समावेश हुआ है, जो शोध के क्षेत्र में नए आयाम खोलेगें।
प्रस्तुत पुस्तक की वैदिक विधियाँ इतनी सरल, सुग्राह्य एवं सुस्पष्ट हैं कि न केवल गणित के विद्यार्थी, अपितु जनसामान्य भी सहज रूप से इन विधियों को आत्मसात् कर अपनी अनेक समस्याओं का निराकरण कर सकता है।

प्रस्तावना

महान गणितज्ञ भास्कर द्वितीय ने कहा है—‘पूर्व प्रोक्तं व्यक्तमव्यक्तं वीजं प्रायः प्रश्नानोविनऽव्यक्त युक्तया। ज्ञातुं शक्या मन्धीमिर्नितान्तः यस्मान्तस्यद्विच्मि वीज क्रियां च।।’’ अर्थात् मंदबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है।
बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें अंकों को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परंतु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे—

क्ष= लxच

बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारंभ हुआ है; परंतु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे। आज बीजगणित में केवल समीकरणों का ही समावेश नहीं होता, इसमें बहुपद, श्रेणियों, सतत भिन्न, अनंत गुणनफल, संख्या अनुक्रम, रूप, सारणिक, श्रेणिक आदि अनेक प्रकरणों का अध्ययन किया जाता है।

बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्णीत समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। हिंदू गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में ‘गुट्टक गणित’ रखा। बीजगणित का सबसे प्राचीन नाम यही है। सन् 860 ई. में पृथूदक स्वामी ने इसका नाम ‘बीजगणित’ रखा। ‘बीज’ का अर्थ है ‘तत्त्व’। अतः ‘बीजगणित’ के नाम से तात्पर्य है ‘वह विज्ञान, जिसमें तत्त्वों द्वारा परिगणन किया जाता है’।

अंकगणित में समस्त संकेतों का मान विदित रहता है। बीजगणित में व्यापक संकेतों से काम लिया जाता है, जिसका मान आरंभ में निश्चित रता है। इसलिए इन दोनों विज्ञानों के अन्य प्राचीन नाम ‘व्यक्ति गणित’ और ‘अव्यक्त गणित’ भी हैं। अंग्रेजों में बीजगणित को अलजब्रा (Algebra) कहते हैं। यह नाम अरब देश से आया है। सन् 825 ई. में अरब के गणितज्ञ ‘अस ख्वारिज्मी’ ने एक गणित की पुस्तक की रचना की, जिसका नाम था ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’। अरबी में ‘अल-जब्र’ और फारसी में ‘मुकाबला’ समीकरण को ही कहते हैं। अतः संभवतः लेखक ने अरबी तथा फारसी भाषाओं के ‘समीकरण’ के पर्यावाची नामों को लेकर पुस्तक का नाम ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’ रखा। यूनानी गणित के स्वर्णिम युग में अलजब्रा का आधुनिक अर्थ में नामोनिशान तक नहीं था।

यूनानी लोग बीजगणित के अनेक कठिन प्रश्नों को हल करने की योग्यता तो रखते थे, परंतु उनके सभी हल ज्यामितीय होते थे। वहाँ बीजगणित हल सर्वप्रथम डायफ्रैंटस (लगभग 275 ई.) के ग्रंथों में देखने को मिलते हैं; जबकि इस काल में भारतीय लोग बीजगणित के क्षेत्र में अन्य राष्ट्रों से बहुत आगे थे। ईसा से 500 वर्ष पूर्व गणित के विकास में जैनाचार्यों का श्लाघनीय योगदान रहा है। इस काल की प्रमुख कृतियाँ ‘सूर्य प्रज्ञप्ति’ तथा ‘चंद्र प्रज्ञप्ति’ जैन धर्म के प्रसिद्ध धर्मग्रंथ हैं। इन ग्रंथों की संख्या लेखक पद्धति भिन्नराशिक व्यवहार तथा मिश्रानुपात, बीजगणित समीकरण एवं इनके अनुप्रयोग, विविध श्रेणियाँ, क्रमचय-संचय, घातांक, लघुगणक के नियम, समुच्चय सिद्धांत आदि अनेक विषयों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। जॉन नेपियर (1550-1617 ई.) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था, जो सार्वभौम सत्य है।

पूर्व-मध्यकाल (500 ई. पू. से 400 ई. तक) में भक्षाली गणित, हिंदू गणित की एकमात्र लिखित पुस्तक है, जिसका काल ईसा की प्रारंभिक शताब्दी माना गया है; में इष्टकर्म में अव्यक्त राशि कल्पित की गई है। गणितज्ञों की मान्यता है कि इष्टकर्म ही बीजगणित के विस्तार का आदि स्रोत है। 628 ई. काल में ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुट सिद्धांत 25 अध्यायों में से 2 अध्यायों में गणितीय सिद्धांतों एवं विधियों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों पर प्रकाश डाला है। बीजगणित में समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्णीत द्विघात समीकरण का समाधान भी बताया, जिसे आयलर ने 1764 ई. में और लांग्रेज ने 1768 ई. में प्रतिपादित किया। मध्ययुग के अंतम तथा अद्वितीय गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक शिरोमणि (लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय, ग्रहगणितम्) एवं करण कुतूहल में गणित की विभिन्न शाखाओं तथा अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति आदि को एक प्रकार से अंतिम रूप दिया है।

वेदों में जो सिद्धांत सूत्र रूप में थे, उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति भास्कराचार्य की रचना में हुई है। अतः इन्हीं पुस्तकों को आधार मानकर वेदों में प्रयुक्त सूत्रों का प्रयोग वैदिक गणित की आधुनिक कृतियों में किया जा रहा है। इनमें ब्रह्मगुप्त द्वारा बताई गई 20 प्रक्रियाओं और 8 व्यवहारों का अलग-अलग विवरण और उनमें प्रयोग में लाई जानेवाली विधियों का प्रतिपादन सुव्यवस्थित और सुसाध्य रूप से किया गया है। लीलावती में संख्या पद्धति का जो आधारभूत एवं सृजनात्मक प्रतिपादन किया गया है, वह आधुनिक अंकगणित तथा बीजगणित की रीढ़ है।
महान् गणितज्ञ एवं दार्शनिक जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ आधुनिक युग के वैदिक गणित के प्रधान भाष्कार हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘वैदिक गणित’ में वैदिक सूत्रों का पुनः प्रतिपादन कर उनमें निहित सिद्धांतों और विधियों को इतनी सरल, सुग्राह्य एवं सुस्पष्ट भाषा में प्रस्तुत किया है कि गणित का एक साधारण विद्यार्थी भी उसे आत्मसात् करके गणित के जटिल प्रश्नों को अत्यल्प समय में हल कर सकता है।

इनकी पुस्तक वैदिक गणित पर एक प्रामाणिक पुस्तक है। उपर्युक्त पुस्तक के बीजगणित संबंधी प्रकरणों को हम इस पुस्तक में स्पर्श करेंगे; जिससे उन्हें गणित के छात्रों तक आसानी से पहुँचाया जा सके। इस पुस्तक में पाठकों को कुछ नवीनताएँ भी दिखाई देंगी। निश्चय ही ये नवीनताएँ शोध के क्षेत्र में प्रेरक होंगी तथा स्वर्गीय स्वामीजी के प्रयास को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होंगी। स्वामीजी द्वारा गणित के क्षेत्र में जलाई ज्योति का प्रकाश घर-घर तक पहुँचा पाने के दृष्टिकोण से लिखी पुस्तक अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो, ऐसी प्रभु से कामना है। पुस्तक लिखने में डॉक्टर भगवान स्वरूप गुप्त, भूतपूर्व डीन, शिक्षा संकाय, आगरा विश्वविद्यालय, आगरा एवं डॉक्टर चक्खन लाल वार्ष्णेय, रीडर, गणित विभाग, श्री वार्षेणेय महाविद्यालय, अलीगड़ द्वारा मिला सहयोग स्तुति योग्य है तथा लेखकगण इनके विशेष आभारी हैं।

-लेखकद्वय

वैदिक गणित के सोलह सूत्र तथा उनके उपप्रमेय


डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल—मुख्य संपादक, ‘वैदिक गणित अथवा वेदों से प्राप्त सोलह सरल गणितीय सूत्र’—द्वारा ग्रंथ के बिखरे संदर्भों में से तैयार किए गए वैदिक सूत्र/उपसूत्र की सूची—

सूत्र उपसूत्र/उपप्रमेय


1. एकाधिकेन पूर्वेण आनुरूप्येण
2. निखिलं नवतश्चरमं दशतः शिष्यते शेषसंज्ञः
3. ऊर्ध्वतिर्यभ्याम्म् आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन
4. परावर्त्य योजयेत् केवलैः सप्तंक गुण्यात्
5. शून्य साम्यसम्च्चये वेष्टनम्
6. (आनुरूप्ये) शून्यन्यत् यावदूनं तावदूनम्
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम् यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्गं च योजयेत्
8. पूरणापूरणाभ्याम् अन्त्ययोर्दशकेऽपि
9. चलनकलनाभ्याम् अन्त्ययोरेव
10. यावदूनम् समुच्चयगुणितः
11. व्यष्टिसमष्टिः लोपनस्थापनाभ्याम्
12. शेषाणि अंकेनचरमेण विलोकनम्
13. सोपानत्यद्वयमन्तच्यम् गुणितसमुच्चयः समुच्चगुणितः
14. एकन्यनेन पूर्वेण
15. गुणितसमुच्चयः
16. गुणकसमुच्चयः

इनके अतिरिक्त ग्रंथ में कुछ अन्य सूत्र एवं उपसूत्रों के दर्शन होते हैं,
जिनका उल्लेख डॉ. अग्रवाल ने अपर्युक्त सूची में नहीं किया है; यथा—आध्यमाद्येन, पृष्ठ 200; अन्त्यमन्त्येन, पृष्ठ 200; चलित कलित वर्गो विवेचकः; पृष्ठ 143; कलौ क्षुद्रससैः, पृष्ठ 195; कंसे क्षामदाह खलैर्मलः, पृष्ठ 195; ध्वजांक, पृष्ठ 217 डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जो सोलह सूत्रों की सूची तैयार की है तथा ग्रंथ का नाम भी इन सूत्रों के आधार पर ही रखा है, परंतु ग्रंथ में कहीं-कहीं इन सूत्रों का उपसूत्रों के रूप में उल्लेख किया गया है। परिस्थिति अज्ञात हैं तथा शोधकर्ताओं को आमंत्रण देती हैं।

सूत्र संख्या 7 ‘संकलनव्यवकलनाभ्याम्’ को पृष्ठ संख्या 130 पर उपसूत्र कहा गया है। सूत्र संख्या 8 ‘पूरणापूरणाभ्याम्’ को पृष्ठ संख्या 156 पर उपसूत्र कहा गया है। सूत्र संख्या 14 ‘एक न्यनेन पूर्वेण’ को पृष्ठ संख्या 26 पर उपसूत्र तथा पृष्ठ संख्या 195 पर उपप्रमेय कहा गया है।

इसके अतिरिक्त उपसूत्र आनुरूप्येण, आद्यामाद्येनान्त्यमन्त्येन लोपास्थारानाभ्याम् एवं अन्त्ययोरेव को कहीं-कहीं सूत्र कहा गया है। सूत्र संख्या 10 ‘यावदूनम्’ तथा उपसूत्र ‘यावदून् तावदूनं’ और ‘यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्गं च योजयेत्’ सभी एक ही चीज हैं। ‘निखिलम्’ सूत्र का सहज परिणाम ‘यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्ग च योजयेत्’ है (पृष्ठ संख्या 22)। अतः इसे ‘निम्नलिखित’ सूत्र का उपप्रमेय (पृष्ठ संख्या 22) बताया गया है। ‘यावदूनं तावदूनम्’ पृष्ठ संख्या (xxiii) तथा ‘यावदूनम्’ पृष्ठ सं. 269, 271 इससे प्रथक् नहीं है।

उपसूत्र ‘गुणितसमुच्चयः समुच्चयगुणितः’ पृष्ठ संख्या 75 तथा सूत्र ‘गुणितसमुच्चयः’ पृष्ठ संख्या 81, 83 एवं उपसूत्र ‘समुच्चयगुणितः’ पृष्ठ संख्या 84 पृथक् चीन नहीं हैं। इस सबसे सिद्ध होता है कि सोलह सूत्र जो संपादक द्वारा गिनाए गए हैं, उनकी संख्या संदिग्ध है।
वर्तमान स्थिति में हमारे पास जो भी सूत्र, उपसूत्र/उपप्रमेय हैं उनके अर्थ जान लेना भी आवश्यक है।





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