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प्रेरक लघुकथाएँ

मनीष खत्री

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2562
आईएसबीएन :81-88267-43-0

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ये कथाएँ देश की युवा पीढ़ी को सदाचार व नैतिकतापूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देती है....

Prerak Laghukathayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लघुकथा गागर में सागर भर देने का कौशल है। ये लघुकथाएँ मानवीय सरोकारों व संवेदनाओं के साथ अपने लघु स्वरूप में पाठकों के ह्रदय तक पहुँचने का सामर्थ्य रखती हैं तथा ‘देखन में छोटे लगैं, घाव करें गम्भीर’ की उक्ति को चरितार्थ करती हैं। ये कथाएँ पाठकों को न केवल पढ़ने का सुख देंगी बल्कि कुछ सोचने को भी विवश करेंगी। देश की युवा पीढ़ी को सदाचार व नैतिकतापूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली ये लघुकथाएँ सांस्कृतिक आतंकवाद के अंधकारमय वर्तमान सामाजिक वातावरण में नई रोशनी का काम करती हैं।
एक पठनीय एवं संग्रहणीय लघुकथा-संग्रह, जो निश्चय ही पाठकों को रोचक व मनोरंजक लगेगा।

1
सिद्धि का लक्ष्य


साधना और साध्य का अंतर समझने के लिए गौतम बुद्ध एक अख्यान का सहारा लिया करते थे। वे अपने शिष्यों को अनेक बार कहानी सुनाते थे-‘एक गाँव के कुछ लोग नदीं पार जाने के लिए नाव पर चढ़े। वे कुल आठ लोग थे। धार्मिक प्रकृति के थे। कुछ देर के बाद वे दूसरे किनारे पर पहुँच गए। नाव से उतरकर उन्होंने तय किया कि जिस नाव ने हमें नदी पार कराई है, ऐसा करके उसने हम पर एक प्रकार से उपकार किया है। अतः उसे हम कैसे छोड़ सकते हैं। इसलिए उन्होंने कृतज्ञता-ज्ञापन का एक अद्भुत तरीका खोज निकाला। उन्होंने कहा कि उचित यही होगा कि जिस नाव पर हम सवार थे, अब वह हम पर सवार हो जाए। सो उन आठों ने नाव को अपने सिर पर उठा लिया और चल दिए। वे बाजारों, सड़कों तथा गलियों से गुजरे। देखनेवाले कहते कि ‘हमने नाव पर सवार तो कई लोगों को देखा है, लेकिन नाव को लोगों पर सवार कभी नहीं देखा। ये लोग कैसे सिरफिरे हैं, जो नाव को सिर पर ढो रहे है !’

किंतु वे आठों तो स्वयं को अक्लमंद समझते थे। उन्होंने जवाब दिया, ‘तुम सब तो कृतघ्न हो। तुम्हें कृतज्ञता का क्या पता ? हम जानते हैं अनुग्रह का भाव। हम कृतज्ञ हैं, हम आभार-प्रदर्शन करना जानते हैं। इस नाव ने हमें नदी पार करवाई है। अब हम इस नाव को स्वयं अपने सिर पर ढोकर संसार पार करवाकर रहेंगे। हम इस पर सवार थे, अब यह हम पर सवार रहेगी।’

अंत में गौतम बुद्ध ने शिष्यों को समझाया कि ‘‘नाव तो वास्तव में नदी पार करवाने के लिए होती है, सिर पर ढोने के लिए नहीं। बहुत लोग साधन या साधना को इस तरह पकड़ लेते हैं कि वही साध्य हो जाती है। इस प्रकार हम सिद्धि का लक्ष्य भूल जाते हैं।’’

2

संगत का असर


एक अजनबी मुसाफिर किसी गाँव में पहुँचा। गाँव में दाखिल होते ही उसे कुछ लोग मिल गए। एक बुजुर्ग को संबोधित करते हुए उसने पूछा, ‘‘इस गाँव के लोग कैसे हैं ? क्या वे अच्छे और मददगार हैं ?’’ बुजुर्ग ने अजनवी के सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया, उलटे एक सवाल कर दिया, ‘‘मेरे भाई ! तुम जहाँ से आए हो वहाँ के लोग कैसे हैं ? क्या वे अच्छे और मददगार हैं ? वह अजनबी अत्यंत रुष्ट और दुःखी होकर बोला, ‘‘मैं क्या बताऊँ ? मुझें तो बताते हुए भी दुःख होता है कि मेरे गाँव के लोग अत्यंत दुष्ट हैं। इसलिए मैं वह गाँव छोड़कर आया हूँ। लेकिन आप यह सब पूछकर मेरा मन क्यों दुखा रहे हैं ?’’ बुजुर्ग बोला, ‘‘मैं भी बहुत दुःखी हूँ। इस गाँव के लोग भी वैसे ही हैं। तुम उन्हें उनसे भी बुरा पाओगे।’’ तभी एक राहगीर आ गया। उसने भी उस बुजुर्ग से यही सवाल किया, ‘‘इस गाँव के लोग कैसे हैं ?’’

बुजुर्ग ने भी पूर्ववत् उलटा सवाल दाग दिया, ‘‘पहले तुम बताओ जहाँ से तुम आये हो, वहाँ के लोग कैसे हैं ? राहगीर यह सुनकर मुस्करा दिया। उसके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। उसने कहा कि मेरे गाँव के लोग इतने अच्छे हैं कि उनकी समृति मात्र से सुख की अनुभूति होती है। वह गाँव छोड़ते हुए मुझें दुःख है, लेकिन रोजगार की तलाश यहाँ तक मुझे ले आई है। इसलिए पूछ रहा हूँ कि यह गाँव कैसा है ? बुजुर्ग बोला की दोस्त ! यह गाँव भी वैसा ही है। यहाँ के लोग भी उतने ही अच्छे हैं। वास्तव में इनसानों में भेद नहीं होता। जिनके सम्पर्क में हम आते हैं, वे हमारी ही तरह हो जाते हैं-अच्छे के लिए अच्छे और बुरे के लिए बुरे।

3

मातृछाया


सम्राट उत्तानपाद और सुमति के पुत्र ध्रुव ने मातृभक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया था। माता सुमति वृद्धावस्था में वनांचल में संन्यस्त थीं। ध्रुव के व्यक्तित्व में राजा और ऋषि का मणि-कांचन संयोग था। वे जितने भगवत् भक्त थे, उतने ही मातृभक्त भी थे। अंत समय में जब स्वर्ग का विमान उन्हें लेने आया तो मृत्यु स्वयं उनके समक्ष दंडवत होकर बोली ‘‘भगवान् ! आप मेरे मष्तक पर पादस्पर्श करते हुए विमान की सीढ़ियाँ चढ़ जाएँ। मैं कृतार्थ हो जाऊँगी।’’ ध्रुव ने ऐसा ही किया। पल भर में उनका पंचमौलिक शरीर दैवीदेह में बदल गया। मत्युलोक त्यागकर स्वर्गारोहण करने वाली जीवआत्मा अपना भौतिक अतीत भूल जाती है। मगर ध्रुव को एक बात याद थी।

उन्होंने उन्हें लेने आए देवदूतों से कहा कि ‘‘इस विमान को तुरंत मृत्युलोक की ओर मोड़ दो, क्योंकि वहाँ मेरी जो अमूल्य वस्तु रह गई है, उसके बिना मेरा स्वर्गारोहण अधूरा ही रहेगा।’’ देवदूतों ने पूछा कि ‘‘ऐसी कौन सी अलौकिक स्मृति है जिसे आप स्वर्गारोही की स्थिति में भी नहीं छो़ड़ना चाहते हैं।’’ ध्रुव बोले की वहाँ मेरी माता श्री हैं, जो मेरे समस्त ज्ञान की स्त्रोतस्विनी हैं। मैं उनके बिना स्वर्ग जाकर क्या करूँगा।’’ तभी देवदूतों ने उन्हें इशारे से कुछ बताया। ध्रुव ने अपने विमान के आगे एक अति भव्य विमान को जाते हुए देखा। देवदूतों ने कहा कि हमने आपकी माता श्री को आपसे पहले स्वर्ग भेजने की व्यवस्था कर दी है। मातृभक्त ध्रुव को अति संतोष हुआ कि वहाँ भी मैं उसी मातृछाया में रहूँगा, जो सदैव मेरे सन्मार्ग का संबल रही हैं। ईश्वर को अपने भक्त की माँ के प्रति श्रद्धा का आभास था।

4
मन की बात


एक माँ-बेटी थीं। जवान हो रही थी, लेकिन उसका विवाह नहीं हो रहा था। विधवा वृद्धा माँ इसी चिंता में घुली जा रही थी। जवान बेटी घर से बाहर जाती तो माँ उसकी चौकसी करती। बेटी को यह पसंद नहीं था। संयोग की बात थी कि दोनों को नींद में चलने और बड़बड़ाने की आदत थी। एक रात दोनों नींद में उठ गईं और सड़क पर चलने लगीं। माँ नींद में जोर-जोर से लड़की को गालियाँ दे रही थी-‘ इस दुष्ट के कारण मेरा जीना हराम हो गया है। यह जवान हो रही है और मैं बुढ़ापे में दबी जा रहीं हूँ’ बाजू की सड़क पर लड़की भी नींद में चल रही थी और बड़बड़ा रही थी-‘यह दुष्ट बुढ़िया मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं। जब तक यह जीवित है तब तक मेरा जीवन नरक है।’ तभी मुरगे ने बाँग दी। चिड़ियां चहचहाने लगीं और ठंडी बयार बहने लगी। बूढ़ी माँ ने बेटी को देखा। वह प्यार भरे स्वर में बोली, ‘‘आज इतनी जल्दी उठ गई। कहीं सर्दी न लग जाए। ऐसे दबे पाँव उठी कि मुझे पता ही नहीं चला।’’ बेटी ने माँ को देखा तो झुककर उसके पैर छू लिये माँ ने बेटी को लगे से लग लिया। तब बेटी उलाहने स्वर में बोली, ‘‘माँ कितनी बार कहा है इतनी सुबह मत उठा करो। मैं पानी भर दूँगी और घर साफ कर दूँगी। तुम बूढ़ी हो। बीमार पड़ गईं तो क्या होगा ? माँ, तुम ही तो मेरा एकमात्र सहारा हो। इतनी मेहनत करना ठीक नहीं है। आखिर मैं किसलिए हूँ !’’

माँ-बेटी नींद में क्या कह रही थीं और जागने पर क्या कह रही थीं ? नींद तो झूठ है। सपना झूठ है। नींद में चलना तो रोग है, लेकिन बात एकदम उल्टी है जो नींद में कह रही थीं, वह सच था। जो जागने पर कह रही है वह एकदम झूठ है। मन में गहरी दबी बातें भी नींद में बाहर आ जाती हैं। सज्जन व्यक्ति सुप्तावस्था में वही करते हैं, जो दुर्जन लोग जाग्रत् अवस्था में किया करते हैं।

5
खुदा का साथ


उमर खैयाम अपनी मस्ती में अपने साथियों के साथ देशाटन करते थे। भजन-पूजन करते और अलमस्ती के दिन गुजरते। एक दिन वे एक शिष्य के साथ घने जंगल से होकर जा रहे थे। नवाज का वक्त हो गया। वे नवाज अदा करने बैठ गए। शिष्य भी नवाज अदा करने लगा। तभी पास के जंगल से एक शेर की गर्जना सुनाई दी। शिष्य घबरा गया और जान बचाने के लिए पेड़ पर चढ़ गया। लेकिन खैयाम आराम से एकाग्रचित होकर नवाज अदा करते रहे। शेर वहाँ आया। उसने खैयाम को देखा। फिर पेड़ पर चढ़े शिष्य को देखा। खैयाम के सामने गरदन झुका कर चलता बना। लेकिन शिष्य के पेड़ के नीचे इतनी जोर से दहाड़ा कि शिष्य और भी डर गया। उसे डराकर शेर जंगल में चला गया।

शिष्य को जब शेर के जाने का यकीन हो गया, तब वह पेड़ से उतरा। नवाज खत्म करके खैयाम इस दृश्य को मजे से देखते रहे। गुरु और शिष्य ने अपना सामान समेटा और चल दिए। काफी दूर तक दोनो खामोश चलते गए। तभी शिष्य को एक थप्पड़ की आवाज सुनाई दी। खैयाम ने अपने ही गाल पर जोर से चाँटा रसीद कर दिया था। चेले ने ताज्जुब में आकर उस्ताद से पूछा कि ‘‘आप ने अपने ही गाल पर थप्पड़ क्यों मारा ?’’ खैयाम ने जवाब दिया-‘‘मेरे गाल पर एक मच्छर बैठ गया और उसने मुझे काँट लिया। उसे मारने के लिए मैंने चाँटा मारा।’’ शिष्य ने पूछा ‘‘जब आपके नवाज पढ़ते वक्त शेर आ गया, तब तो आप एकाग्र होकर नमाज पढ़ते रहे और आप जब मेरे साथ जंगल में जा रहे हैं तो एक मच्छर से इतना डर गए ?’’ खैयाम ने जवाब दिया कि ‘‘दोनों हालात में जमीन-आसमान का अन्तर है। उस वक्त मैं खुदा के साथ था इस वक्त बंदे के साथ हूँ। खुदा के साथ होने पर कोई खबर नहीं रहती।’’

6
मुहब्बत का मतलब


नूरी रक्काम फारस के पहुँचे हुए सूफी संत थे। उनके साथ बहुत से अनुयायी सूफी भी थे ये वहाँ की भेड़ों के कच्चे ऊन का बना वस्त्र ओढ़े दर-दर घूमते थे। ऐसे ऊन को फारसी में ‘सूफ’ कहते हैं। सो ये लोग ‘सूफी’ कहलाए। ये लोग अनलहक की रट लगाकर अलख जगाते थे। अनलहक हमारे ‘अहं ब्राह्मस्मि’ यानी मैं ब्रह्मा हूँ का समानार्थी है। तत्कालीन शासक ने इन्हें ईशद्रोही एवं काफिर कहकर सजा-ए-मौत की सजा सुनाई। अदालत का हुक्म था कि पहले दूसरों का कत्ल किया जाए और बाद में नूरी रक्काम को। जल्लाद नंगी तलवार लेकर आया। जैसे ही उसने दूसरों पर वार करने के लिए तलवार उठाई, नूरी ने उसकी जगह खुद को पेश कर दिया। वह भी अत्यंत प्रसन्नता तथा विनम्रता के साथ।

चूँकी सजा-ए-मौत सार्वजनिक रूप से दी जाती थी, सो वहाँ इकट्ठे सैकड़ों लोग सकते में आ गए। जल्लाद भी भौचक्का रह गया। उसने कहा, ‘‘नौजवान एक तो तुम्हारी बारी अभी आई नहीं है, दूसरे तलवार कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे मिलने के लिए लोग इतने व्याकुल हों।’’ फकीर नूरी बोला, ‘‘मेरे उस्ताद ने मुझे यही सिखाया है कि तुम्हारा दीन सिर्फ मुहब्बत है। मोहब्बत का मतलब है दूसरे के दुख को अपना दुख समझकर उसे सहने के लिए खुद को पेश करना। उस्ताद कहते थे कि जब तुम किसी कि मैयत जाते देखो तो यह कल्पना करो कि तुम खुद ताबूत में हो या अरथी पर बँधे हो। जिदंगी खेल है। मोहब्बत श्रेष्ठ है। मौत आए तो मित्र के आगे हो जाओ जीवन मिलता हो तो पीछे हो जाओ। इसे हम ‘प्रार्थना’ कहते हैं। प्रार्थना हृदय का सहज अंकुरण है। जब दूसरे की मृत्यु का वरण करके उसे जीवन देने की चेतना जगे तब प्रभु-प्रार्थना समझो।’’

7

यौवन दान


कुरु-युवराज दुर्योधन के द्वार पर आकर एक भिक्षु ने अलख जगाई-‘‘ नारायण हरि ! भिक्षां देहि !’’ उसने दुर्योधन का यशोगान भी किया। स्वयं को कर्ण से भी अधिक दानी समझने वाले दुर्योधन ने स्वार्णादि देकर भिभुक का सम्मान करना चाहा। भिक्षुक ने कहा, ‘‘राजन ! मुझे यह सब नहीं चाहिए।’’ दुर्योधन ने आश्चर्य से पूछा तो फिर महाराज कैसे पधारे ?’’ भिक्षुक ने कहा, ‘‘मैं अपनी वृद्धावस्था से दुखी हूँ। मैं चारों धाम की यात्रा करना चाहता हूँ, जो युवावस्था के स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है। इसलिए यदि आप मुझे दान देना चाहते हैं तो यौवन-दान दीजिए।’’ दुर्योधन बोला, ‘‘भगवन् ! मेरे यौवन पर मेरी सहधर्मिणी का अधिरकार है। आज्ञा हो तो उनसे पूछ आऊँ।’’ भिक्षुक ने सिर हिला दिया। दुर्योधन अंतःपुर में गया और मुँह लटकाए लौट आया। भिक्षुक ने दुर्योधन के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की।

वे स्वतः समझ गए और वहां से चलते बने। उन्होंने सोचा, अब महादानी कर्ण के पास चला जाए। कर्ण के द्वार पहुँचकर भिक्षुक ने अलख जगाई ‘‘भिक्षां देहि !’’ कर्ण तुरन्त राजद्वार पर उपस्थित हुआ-‘‘भगवन् ! मैं आपका क्या अभीष्ट करूँ ?’’ भिक्षुक ने दुर्योधन से जो निवेदन किया था, वही कर्ण से भी कर दिया। कर्ण उस भिक्षुक को प्रतीक्षा करने की विनय करके पत्नी से परामर्श करने अन्दर चला गया। लेकिन पत्नी ने कोई न नुकुर नहीं कि। वह बोली, ‘‘महाराज ! दानवीर को दान देने के लिए किसी से पूछने की जरूरत क्यों आ पड़ी ? आप उस भिक्षुक को निःसंकोच यौवन दान कर दें।’’ कर्ण ने अविलंब यौवन दान की घोषणा कर दी। तब भिक्षुक के शरीर से स्वयं भगवान् विष्णु प्रकट हो गए, जो दोनों की परीक्षा लेने गए थे।

8
जीविकोपार्जन


नारदजी शेषशायी विष्णु के पास पहुँचे और बोले, ‘‘नारायण ! नारायण !! यह क्या ? आज तो लीला विहारी अद्भुत व्यस्त हैं। शेष-शयन नहीं हैं। ब्रह्मा भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं और विष्णु भगवान् एक चित्र बना रहे हैं।’’ देवर्षि नारद चकित रह गए। इतनी विशाल सृष्टि रचना करके भी आदि रचनाकार असंतुष्ट है। एक और चित्र बना रहा है तो विचित्र बात है। देवता पंक्तिबद्ध खड़े हैं। कृपा-कटाक्ष की प्रतीक्षा में नारद स्तुति कर रहे हैं। भगवान् हैं कि चित्र बनाने में व्यस्त हैं। भगवान् विष्णु के इस व्यवहार से आहत नारद ने लक्ष्मी की शरण ली। पूछा-‘‘माता, भगवान् यह क्या कर रहे हैं ?’’ वे बोलीं-‘‘स्वयं जाकर देख लो भगवान् आज सवेरे से एक भक्त का चित्र अति तन्यमयता से बना रहे हैं।

कहते हैं कि वह तो नारद से भी बड़ा भक्त है।’’ ईर्ष्या से पीड़ित नारद ने समीप जाकर देखा कि प्रभु एक दीन-हीन चर्मकार का चित्र बनाने में तल्लीन हैं। नाराज नारद पृथ्वी लोक की ओर चल पड़े। एक स्थान पर मृत पशुओं के शवों से दुर्गंध आ रही थी। वहां एक दीन-हीन चर्मकार चमड़ा साफ कर रहा था। नारद आवाक रह गए। कहने लगे-‘‘यही वह व्यक्ति है, जिसका चित्र विष्णु भगवान् बना रहे थे। क्या यह चर्मकार मंदिर गया ? क्या इसने पूजा की ? कहाँ इसकी घृणित दिनचर्या ! नारद ने निश्चय कर लिया कि अब मैं भगवान् को शाप दूँगा।’’ जैसे ही उन्होंने शाप देने के लिए हाथ उठाया लक्ष्मी जी ने हाथ पकड़कर कहा, ‘‘नारदजी ! शाप देने से पहले चर्मकार की दिनचर्या का उपसंहार तो देख लीजिए।’’ नारद यह देखकर दंग रह गया कि चर्मकार ने चमड़े की गठरी बाँधी। हाथ-पैर धोए। गठरी के सामने विनय के स्वर में कहा, ‘‘हे प्रभू ! कल भी ऐसी ही कड़ी मेहनत से भरपूर जीविका देना।’’

9
कमाई की रोटी


गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ धर्म-उपदेश देते घूमते रहते थे। वे भूखे–प्यासे एक बस्ती में पहुँचे। शिष्यों ने सवाल किया कि यहाँ हमें भोजन कौन देगा ? तभी एक दीन-हीन बढ़ई वहाँ आकर बोला, ‘‘आप सब मेरे घर चलें।’’ उसके घर में खाने को कुछ न था। उसने सोचा कि इन सबको घर में विश्राम करने दिया जाए। दिन भर मेहनत करके जो कमाऊँगा, उससे खाने-पीने का बंदोबस्त करके शाम को इनकी सेवा करूँगा। वह अपने मालिक के यहाँ काम करने चला गया। नानक और उसके शिष्य भूखे ही सो गए। बढ़ई का नाम था लालो और जिस धनाढ्य के यहाँ वह काम करता था, उसका नाम था भागो। धनाढ्य ने उस दिन नगरभोज किया था। सबको खाना खिलाते-खिलाते शाम हो गई। लालो बढ़ई अपनी मजदूरी लेकर घर गया। उसकी पत्नी रोटी बनाने लगी।

तभी भागो सेठ ने आवाज लगाई-‘‘ मेरे नगर भोज के बाद नगर में कोई भूखा तो नहीं बचा है ?’’ उसके नौकरों ने बताया कि लालो बढ़ई के घर कुछ साधु भूखे सो रहे हैं। सेठ ने बढ़ई के घर सोए नानक सहित सभी साधुओं को बुलवा लिया और भोजन करने का आग्रह करने लगा। नानक बोले, ‘‘आपके नौकर लालो के यहाँ भी अब तक रोटियाँ बन गई हैं। उन्हें भी मँगवा लें’’ सेठ को ये नागवार गुजरा लेकिन उसने लालो बढ़ई के घर से रोटियाँ मँगवा लीं, फिर नानक से पूछा ‘‘महाराज, मेरे खाने में ऐसी क्या कमी है, जो मेरे नौकर के घर से खाना मँगवाया है।’’ नानक बोले, ‘‘ अभी बताता हूँ।’’ यह कहकर उन्होंने भागो सेठ की रोटी तोड़ी तो उसमें से खून बहने लगा। फिर लालो बढ़ई की रोटी तोड़ी तो उसमें से दूध की धार बह निकली। नानक ने सेठ से कहा, ‘‘तेरी कमाई गरीबों के शोषण की है और लालो बढ़ई की कमाई मेहनत की है।’’

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