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हास्य-व्यंग्य >> जूता चकाचक होना चाहिए

जूता चकाचक होना चाहिए

पुष्कर द्विवेदी

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2568
आईएसबीएन :81-88267-12-0

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शासन और प्रशासन पर आधारित कहानी.....

joota chakachak hona chahiye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अगर किसी मंत्री या नेता से अपना प्रतिशोध या बदला लेना हो तो उसका जूता ले लो, जूता चोरी कर लो या चोरी करवा दो। जैसे क्षत्रिय का शस्त्र, वणिक का धन, ब्राह्मण की विद्या और शूद्र की सेवा का हरण कर लिया जाये तो वह मृतक के समान हो जाता है, व्यक्तित्वहीन हो जाता है, ठीक वैसे ही जूताविहीन मंत्री भी लुंज-पुंज और कमजोर हो जाते हैं। फिर किसी प्रदेश का मंत्री जूताविहीन हो जाए तो समझो कि सारा शासन-प्रशासन ढीला और ठप है। सत्ता और प्रशासन में भय का बड़ा महत्व है। इस लोकतंत्र में जूतों का भय जरूरी है। जिसके जूते मजबूत होते हैं उनकी खूब चलती है। जिनके जूते मजबूत होते हैं उनसे घाघ बदमाश भी डरते हैं। अगर घोटाले का शिकार न हुए हों तो पुलिस के जूते भी मजबूत होते हैं। पुलिस के जूतों का बहुत महत्व होता है। काम चकाचक न हो तो चलेगा, लेकिन जूता चकाचक होना चाहिए।


भूमिका



चाहता तो नहीं था कि अपने लिखे पर कुछ कहूँ, क्योंकि लिखे हुए पर कुछ कहने का अधिकार तो पाठकों का होता है; परंतु कभी-कभी अपनी चाहना के लिए नहीं, दूसरे की इच्छा के लिए भी लिखना पड़ता है। दूसरों के लिए काम करना होता है। लेखक के लिए लिखना भी एक समय पश्चात् एक लाचारी ही हो जाती है। बिना लिखे रहा नहीं जाता। वस्तुतः लेखन भी सही मायने में वही होता है जब लिखे बिना रहा नहीं जाय। मेरे साथ तो यही हुआ। लेखन हेतु विवश हो गया।
वे मेरे ग्रेजुएशन के दिन थे। कॉलेज में एक लड़का अतुकांत कविताओं की तुकबंदी किया करता था। एक दिन मैंने कहा, ‘‘ऐसी कविताएँ तो मैं चलते-फिरते कर सकता हूँ, फिर ‘आज की कविता/राम-राम/न कहीं कॉमा/न कहीं विराम’।’’ यह सुनते ही मेरा जिगरी दोस्त नवीन, जो आज जबलपुर में प्राचार्य है, उछल पड़ा। बोला, ‘‘वाह ! क्या व्यंग्य है !’’ बस यहीं से मेरे व्यंग्य-लेखन की नींव पड़ गई। फिर तो आए दिन किसी-न-किसी बात पर व्यंग्य होने लगे।

मेरे व्यंग्य लेखन की हवा लगी घर-परिवार में। मेरी दादी व पिताश्री सामान्य जीवन की बातों-घटनाओं पर हास्य-विनोद किया करते थे। मेरे माता-पिता का जीवन सामाजिक-राजनीतिक होने के कारण पत्रकारों का घर पर आना-जाना था। सो जब दैनिक ‘राष्ट्रमान’ के प्रकाशक-संपादक श्री गयाप्रसाद शुक्ल की मुझपर दृष्टि गई तो उन्होंने मुझे स्थान दिया, मुझे निरंतर व्यंग्य लेखन हेतु प्रेरित किया। वे मुझे मेरे लेखन पर जेबखर्च भी देते थे। आज वे जीवित नहीं हैं। वे होते तो मुझे राष्ट्रीय फलक पर देखकर गर्व से फूले नहीं समाते। अस्तु !

लिखते-लिखते ही मैंने जाना कि हास्य-व्यंग्य के लिए हर पात्र और घटना उचित नहीं होती। व्यंग्य के लिए बड़े पात्र उत्तम होते हैं। व्यंग्य प्रजा पर नहीं, सत्ता और राजा पर होना चाहिए। व्यंग्य जिम्मेदारी की उपेक्षा पर होना चाहिए। मेरी दृष्टि में व्यंग्य मीठी मार की तरह श्रेष्ठ है। जैसे कुंभकार ठोंकता-पीटता बरतन का आकार देता है मिट्टी को, वैसे ही व्यंग्यकार समाज को सही आकार देने की कोशिश करता है। क्या होना चाहिए, क्या हो रहा है-यह व्यंग्यकार बताता है।
आज व्यंग्यकार राजनीति पर कटाक्ष अधिक कर रहा है। ऐसे व्यंग्य आज के बाद भोथरे फीके पड़ जाते हैं। समाज के सरोकारों को लेकर लिखा गया व्यंग्य स्थायी होता है। शाश्वत व्यंग्य में कथा-तत्त्व होना चाहिए। व्यक्तिगत आक्षेप से बचना चाहिए। व्यंग्य में कल्पना का स्थान कम होता है। उसमें वास्तविकताएँ व विसंगतियाँ परिलक्षित होती हैं।
अपने लेखन में मैंने प्रयास किया है कि जड़ता नहीं हो, एकरसता नहीं हो। मैंने जीवन के विभिन्न पहलुओं को झाँकने की कोशिश की है। मेरा प्रयास रहा है। कि राजनीति पर किया गया व्यंग्य भी कल ‘गुजरा हुआ’ न लगे। अपने प्रयास में मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ, यह तो इस पुस्तक को पढ़कर ही पता चल पाएगा। अस्तु, अपनी कमियों एवं आपके सुझावों को जानने की प्रतीक्षा रहेगी।

216, कल्पना नगर,
सिविल लाइंस, इटावा-206001

-पुष्कर द्विवेदी


महँगी रेलयात्रा के फायदे



अधिकांश लोग रेल मंत्री से नाराज हैं। हालाँकि रेल मंत्री से अमूमन कोई खुश नहीं रहता। रेल मंत्री से नाराज रहना हमारी फितरत है। सच पूछो तो अधिकार है। जब से रेल और रेल मंत्री बने हैं, किराए-भाड़े बढ़ते रहे हैं। परिणामस्वरूप लोग नाराज भी होते रहे हैं।
वह स्वर्णकाल ही कहा जाएगा, जब दूसरे दर्जे के यात्रियों पर रेल मंत्री मेहरबान रहा हो और किराया नहीं बढ़ा हो अन्यथा रेल के हर दर्जे में किराया वृद्धि हूँककर होती रही है। यही प्रमुख कारण है कि रेल मंत्री से पूरा देश खुश नहीं रहता, सिवाय सरकार को छोड़कर।

मगर सच पूछो तो जब भी रेल का किराया बढ़ता है, मुझे बेहद खुशी होती है। दनादन किराया-वृद्धि होती रहनी चाहिए। इससे उन लोगों की गलतफहमियाँ दूर होंगी, जो रेल को अपनी बपौती समझते हैं और समझते रहे हैं। मेरा तो रेल मंत्री को मशवरा है कि रेल में बैठनेवालों से रेल की पूरी कीमत ही वसूल लिया करें। यदि इतना न हो सके तो कम-से-कम रेल के एक डिब्बे की कीमत उस डिब्बे में बैठनेवालों से पहले ही जमा करवा लिया करें, सिक्योरिटी की तरह। इससे फायदा यह होगा कि लोग डिब्बो में से बल्ब, नल की टोंटियाँ, पंखे और उनके स्विच, सीट कवर वगैरह उखाड़कर ले भी जाएँ तो रेल विभाग नुकसान में तो नहीं रहे।

‘सिक्योरिटी राशि’ के रूप में अगर रेल विभाग डिब्बे की पूरी कीमत यात्रियों से पहले ही रखवा लेगा तो सरकार ने रेल बीमा योजना और रेल हादसों में मरने का मुआवजा देने की जो योजना चालू की हुई है, उसमें सरकार को भारी मदद मिलेगी। रेल यात्रा जितनी ही महँगी होगी, लोग यात्राएँ भी फिर उतनी ही कम करेंगे। कहीं आने-जाने का झंझट ही समाप्त हो जाएगा। इससे ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ वाले मुहावरे की पुष्टि होगी और यह मुहावरा फलेगा-फूलेगा। तात्पर्य यह कि यात्राएँ ही नहीं होंगी तो रेल हादसें भी नहीं होंगे।

इस प्रकार, जब कोई कहीं जाएगा-आएगा ही नहीं तो एक ही जगह रहते हुए लोग एकता की डोर में बँधेंगे, समाज में समता का भाव पैदा होगा। विपक्षी दलों की रैलियों को फ्लॉप करने में यह सूत्र काफी मददगार होगा। रेलयात्रा महँगी कर देने का लाभ सरकार को यही मिलेगा। मुझे अफसोस है, रेल मंत्री कभी-कभी किसी एक वर्ष में रेल बजट पेश करते हुए मध्य श्रेणी पर बिजली नहीं गिराते हैं-किराया नहीं बढ़ाते हैं। अगर वे पाबंदी के साथ ऐसा करते रहते तो विपक्षी रैलियाँ और उनके आयोजन असफल ही होते रहेंगे। पर खैर ! आगे के लिए मेरा यह मशवरा रेल मंत्री नोट कर लें। रेल महँगी होने के कारण जब रेलयात्राएँ कम होंगी या फिर नहीं के बराबर होंगी तो रेल में होनेवाले अपराध-डकैती, लूट-खसोट, चलती ट्रेन में चेन पुलिंग वगैरह सभी अपने आप समाप्त हो जाएँगे। तब जी.आर.पी. यानी रेल पुलिस फिनिश। मतलब यह है कि यह विभाग समाप्त करने पर विचार हो सकेगा। इससे रेल-घाटे की पूर्ति में काफी सहायता मिलेगी।

मुझे उम्मीद है कि मेरे नेक मशवरे रेल मंत्री को रास आएँगे। इसमें पूरे देश का नहीं तो कम-से-कम रेल विभाग का फायदा-ही-फायदा है। अगर रेल मंत्री ने रेल को महँगा-और महँगा बना दिया तो सचमुच ही वे रेल विभाग के ‘रेल मेल’ यानी कि ‘रेल पुरुष’ निश्चित रूप से कहे जाएँगे।


मेरा घी लौट आया



घर में मेहमान आ गए थे। पत्नी ने हमें डिब्बा थमा दिया। आदेश दिया कि जाओ और बाजार से घी ले आओ। हमने साइकिल पर अपने दफ्तरवाले बैग में डिब्बा रखा। हैंडिल पर लटका लिया। लौटते समय रास्ते में बैग की तनी टूट गई। घी के डिब्बे समेत बैग कहीं गिर गया। मुझे खबर तक नहीं हुई। रास्ते में किसी ने मुझे आवाज भी नहीं दी। वैसे लोग जरूर चिल्लाते हैं पीछे से कि भाई साहब, फलाँ चीज गिर गई, उठा लीजिए। कभी-कभी लोग उठाकर भी दे देते हैं। मेरा घी गिरा तो किसी ने नहीं देखा। किसी ने आवाज नहीं दी। मुझे भारी कोफ्त हुई। एक बार मैं साइकिल पर बाजार से पत्नी के साथ आ रहा था। वो रास्ते में गिर पड़ी। मैं चलता चला गया, यह सोचकर कि अलाएँ-बलाएँ साथ छोड़कर रास्ते में गिर पड़े तो अच्छा ही है।

मगर लोगों ने पत्नी को उठाकर मुझे आवाज दी, ‘भाई साहब, पत्नी गिर पड़ी है। लेते जाइए।’ यानी लोगों की भलमनसाहत कि पत्नी तक लौटा दी। मगर घी के नाम पर नैतिकता मर गई ! घी नहीं लौटाया। मैं रास्ते में जाने क्या-क्या सोचता रहा, लोगों को कोसता रहा।

घर आकर मैंने पत्नी को सारी बातें बताईं और कहा कि वह गिर पड़ी थी तो मिल गई थी। अबकी बार घी गिरा, वह किसी ने वापस नहीं लौटाया। लोगों की निगाह में घी का मोल-महत्त्व पत्नी से अधिक है। इसपर पत्नी ने मुँह फुलाकर लटका लिया। मेरी लापरवाही को टीपने लगी।

बाद में पत्नी ने कु़ढ़कर सलाह दी कि अखबार में घी के खोने की खबर छपवा दी जाए ! मैंने कहा, ‘मगर इससे घी वापस थोड़े ही आ जाएगा ! अगर लोगों में नैतिकता और ईमानदारी होती तो अभी तक घी लौटा दिया होता।’
इस जमाने में चीजों को लोग नहीं लौटाते। हाँ, आदमी गिर जाए तो बता देते हैं। तब भी कोई आदमी को नहीं उठाए तो लोग परवाह नहीं करते। भले ही वह सड़क पर पड़ा पड़ा सड़ता रहे। पिछले दिनों शहर के व्यस्ततम इलाके में एक आदमी पता नहीं कैसे गिर पड़ा। किसी ने उसे उठाया तक नहीं। लोग एक नजर देखते और आगे बढ़ जाते। सड़क पर गिरा आदमी मर गया। सड़ने लगा तो चील-कुत्तों ने घसीटकर नाले में लुढ़का दिया। हाँ, ऐसे में कोई चीज गिरी होती तो उठाकर रख लेते लोग। नोट, कपड़ा, सोना-चाँदी सब रख लेंगे लोग। मेरा घी ही गिर गया। बताया किसी ने ?

 उठाकर रख लिया !
पत्नी ने राय दी, ‘अखबार में छपेगा कि एक लेखक का एक किलो घी गिरकर खो गया, तो उससे लेखक वर्ग की हैसियत बढ़ेगी। नाम होगा राइटर्स का। जो कहते हैं कि लेखक फटीचर होता है, भूखों मरता है, इस खबर को पढ़कर उनकी समझ में आ जाएगा कि लेखक भी घी खाता है, सिर्फ कागज नहीं। आगे आनेवाली पीढ़ी भी गर्व से कहेगी कि इक्कीसवीं शताब्दी में जब महँगाई चरमोत्कर्ष पर थी, उस समय लेखक घी खो दिया करते थे। एक-एक किलो घी खो दिया करते थे !’ पत्नी ने गंभीरता से कहा, ‘यदि किसी विदेशी को पता चला तो वह अपने मुल्क में बताएगा कि आज भी भारत में घी-दूध लोग (वह भी लेखक) किलो-किलो के हिसाब में गिरा देते हैं।’

उन्होंने आगे सलाह दी, ‘घी खोने की खबर जरूर छापना। आखिर पत्रकार हो ! पत्रकारिता कब काम आएगी ? जब लोगों को पता चलेगा कि द्विवेदीजी घी खाते हैं तो लोग ‘अंडर द टेबल’ घी दे जाया करेगा।’
   
मुझे पत्नी की बात समझ में आई। मेरे बारे में लोग जानते हैं कि द्विवेदी बस कलम सूँघता है, कागज रँगता है। सो मेरे साथ कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि कोई रिफिल ही दे गया हो। मुझे लगा कि पत्नी ज्यादा व्यावहारिक है। दूरदर्शिता में लाजवाब ! घी खोने की खबर से घी वापस आए, न आए, मैं ‘घीखोर’ के नाम से मशहूर हो सकता हूँ। भविष्य में कभी ‘घृत उपहार’ प्राप्त करने की आशा बलवती हो गई। पत्नी की बातें ध्यान में रखकर घी खोने की खबर बनाने को सोचा ही था दूसरे दिन अखबार के दफ्तर जाते समय वह हुआ जो मेरे या किसी के साथ कभी नहीं हुआ होगा। यानी कि कोतवाली में बुलाकर पुलिस ने मुझे मेरा घी लौटाया। यह किसी पुलिसवाले को मिल गया था। बैग में मेरे कागजों में मेरा पता पाकर थाने से इत्तिला आई थी।

घी पाकर मुझे अपार प्रसन्नता हुई। इसलिए नहीं कि घी मिल गया, वरन् इसलिए कि यदि पत्नी का मोल घी के मुकाबिल अधिक नहीं तो कम भी नहीं ठहरा। यह मुझे पत्नी का चेहरा देखकर भी पता चल रहा था। इधर जो पुलिस को जाने कितना गिरा हुआ समझने लगे थे, इस मेरे घी के गिरने ने पुलिस की छवि को सुधारकर उसका स्तर उठा दिया था।

मारे खुशी के मैं गुनगुना उठा-‘हवाओ, रागिनी गाओ, मेरा घी लौट आया है/मेरा महबूब आया है।...’


उनका प्रथम आगमन फ्लॉप



उनकी दिली तमन्ना थी कि वह भी प्रथम बार आएँ। अपने शहर में उनका भी प्रथम आगमन हो। वैसे तो अपने शहर में ही वह पैदा हुए। गली-गली चप्पलें चटकाईं। फिर बिजनेस किया तो उस चक्कर में शहर से बाहर गए-आए। बिजनेस फला-फूला। सारी इच्छाएँ भी फली-फूलीं। बस, अब एक ही इच्छा विशेष थी कि वह अपने शहर में प्रथम बार आएँ, जैसेकि नेता लोग प्रथम बार आते हैं। उन्हें यह देख-देखकर भारी कुढ़न होती कि दौ कौड़ी का कबाड़िया फलाँ पार्टी से जुड़कर नगर अध्यक्ष हो गया और फिर शहर प्रथम बार भी आ गया।

अब वह प्रथम बार आकर रहेंगे। उन्होंने ठान ली। तुरंत ही वह आनन-फानन में एक नवनिर्मित राजनीतिक दल ‘सपना दल’ के सदस्य हो गए। फिर चले गए लखनऊ-पार्टी के संस्थापक का आशीर्वाद लेने और भेंट देने। इससे पूर्व वह अपने कर्मचारियों और कुछ रिश्तेदारों को आदेश-निर्देश दे गए कि किसी भी तरह कुछ भीड़ इकट्ठा करके स्टेशन पर उनके स्वागत में वे आएँ। वह अपने मुंशी-कम-पी.ए. को धन भी दे गए, ताकि आम लोगों को भी जुटाया जा सके।
दूसरे ही दिन वह गए थे-प्रथम बार। स्टेशन पर उनका व्यापार मंडल खड़ा था। शहर में गला फाड़-फाड़कर एनांउस कराया गया था कि वह प्रथम बार आ रहे हैं। उनके प्रथम आगमन की सूचना के पोस्टर भी दीवारों पर चिपक गए। सो कुल मिलाकर स्टेशन पर पंद्रह-बीस लोग जमा हो गए।

स्टेशन पर गाड़ी का वह डिब्बा काफी आगे निकल गया, जिसमें वह विराजमान थे। उनके गुर्गे सबसे पीछे प्लेटफॉर्म पर गेट के पास खड़े थे। वह अकेले ही तेज-तेज जलते-दौड़ते और हाँफते हुए-से आए। उन्होंने आते ही कहा, ‘तुम सब कहाँ मर गए थे ? वहाँ डिब्बे के गेट पर मैं मालाओं के इंतजार में फँसा रहा। पीछे से भीड़ के धक्के खाता रहा, भीड़ के धक्कों से प्लेटफॉर्म पर औंधे मुँह गिरते-गिरते बचा। खैर !’
वह अपने संस्थान के कर्मचारियों पर झुँझलाए, ‘मालाएँ कहाँ हैं ?’
‘सर, आ रही हैं !’ एक कर्मचारी बोला।
‘कहाँ से आ रही हैं ? तब तक क्या ऐसे ही खड़ा रहूँ, बिना मालाओं के ? सारी भीड़ निकली जा रही है।’ वह अकुलाकर बोले।
‘ये कौन है ?’ उन्होंने पूछा।
‘एक तो आपका ड्राइवर है और दूसरे दो रज्जन व विमलेश की गाड़ियों के ड्राइवर हैं।’ उनके एक दूर के रिश्तेदार ने बताया।

‘इन्हें लाने की क्या जरूरत थी ?’
‘कुछ भीड़ तो बढ़ानी थी।’ किसी ने बताया।
‘तो उसके लिए अरविंद पुल से आठ-दस मजदूर ले आते, जो आम आदमी के बेहतर प्रतीक होते।’ वह खीझते हुए मुंशी-कम-पी.ए. की तरफ देखकर बोले, ‘मुंशीजी, क्या तुम्हारा इंतजाम यही रहा ?’
‘सरकार, आज शहर में आम आदमी का अकाल-सा है।’ तुरंत मुंशीजी ने अपने बचाव में शस्त्र चला दिया।
‘कहाँ मर गए सब ?’
‘एक बड़े राष्ट्रीय दल के मंत्री का आगमन हुआ है, सारी भीड़ वहीं के लिए खरीद ली गई। भीड़ ट्रैक्टर-टैपों में भर-भरकर पड़ोस के कस्बे में चली गई।’ मुंशीजी ने बताया।
‘इस मंत्री का आगमन भी मेरे प्रथम आगमन के साथ होना था।’
वह दाँत पीसते हुए बड़बड़ाए। फिर अपने क्षोभ-क्रोध पर काबू पाते हुए बोले, ‘अच्छा-अच्छा ठीक है। अब जल्दी से मालाएँ पहनाओं और जयकारे लगवाते हुए मुझे उठाकर इस, प्लेटफॉर्म के बाहर शहर की तरफ ले चलो।’
तुरंत ही मुंशीजी के इशारे पर उन ड्राइवरों ने उन्हें मालाएँ पहना दीं।

‘इन तीन मालाओं से बात नहीं बनेगी, कुछ और लोगों से मालाएँ पहनवाओ।’ धीरे से उन्होंने मुंशीजी से कहा।
‘हुजूर, मालाओं का भी अकाल है ! मालाएँ मंत्रीजी के लिए पहले ही खरीद ली गई थीं। और फिर यहाँ मालाएँ पहनानेवाले भी कहाँ हैं ? जो हैं, वे सब रिश्ते-नाते में आपके बुजुर्ग हैं। क्या उनसे मालाएँ पहनना आपको शोभा देगा ?’
मुंशीजी की बातों का उनपर प्रभाव पड़ा।
‘अच्छा-अच्छा, मुझे कंधों पर बैठाकर बाहर निकालो और जयकारे लगवाओ।’
‘हुजूर, यहाँ आपका वजन कौन उठा सकता है ? पूरा दो सौ किलोग्राम है ! आपको उठाने के लिए तो क्रेन या महाबलियों को लगाना पड़ेगा।’

मुंशीजी ने बाद में धीरे-धीरे से मुँह-ही-मुँह में कहा, ‘आपको तो ईश्वर ही उठा सकता है।’
‘मुंशीजी, यह मुँह-ही-मुँह में बोलने-बड़बड़ाने की आदत छोड़िए और चलिए, जयकारे लगाते हुए।’ उन्होंने चिढ़कर कहा और प्लेटफॉर्म से बाहर चल पड़े।
मन-ही-मन उन्हें अपना प्रथम आगमन फ्लॉप होता लग रहा था। मुंशीजी के सिवाय कोई जयकारे नहीं लगा रहा था। वह शर्म से सिर झुकाए चले जा रहे थे और प्लेटफॉर्म से लेकर निवास तक रास्ते में अन्य लोग मुसकराते हुए उनके फ्लॉप प्रथम आगमन को देख रहे थे।




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