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बहुभागीय पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति 4

चन्द्रकान्ता सन्तति 4

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2690
आईएसबीएन :9788183615174

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हिन्दी का सर्वाधिक चर्चित तिलस्मी उपन्यास....

Chandrakanta Santati-4

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तेरहवाँ भाग

पहिला बयान


अब हम अपने पाठकों का ध्यान जमानिया के तिलिस्म की तरफ फेरते हैं, क्योंकि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को वहाँ छोड़े बहुत दिन हो गये, और अब बीच में उनका हाल लिखे बिना किस्से का सिलसिला ठीक नहीं होता।
हम लिख आये हैं कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी किताब को पढ़कर समझने का भेद आनन्दसिंह को बताया, और इतने ही में मन्दिर के पीछे की तरफ से चिल्लाने की आवाज आयी। दोनों भाइयों का ध्यान एकदम उस तरफ चला गया, और फिर यह आवाज सुनायी पड़ी, ‘अच्छा-अच्छा, तू मेरा सर काट ले, मैं भी यही चाहती हूँ कि अपनी जिन्दगी में इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को दुःखी न देखूँ। हाय इन्द्रजीतसिंह ! अफसोस, इस समय तुम्हें मेरी खबर कुछ भी न होगी !’’ इस आवाज को सुनकर इन्द्रजीतसिंह बेचैन और बेताब हो गये और आनन्दसिंह से यह कहते हुए कि ‘कमलिनी की आवाज मालूम पड़ती है,’ मन्दिर के पीछे की तरफ की लपके। आनन्दसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले गये।

जब कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह मन्दिर के पीछे की तरफ पहुँचे तो एक विचित्र वेषधारी मनुष्य पर उनकी निगाह पड़ी। उस आदमी की उम्र अस्सी वर्ष से कम न होगी। उसके सर, मोंछ, दाढ़ी और भौं इत्यादि के तमाम बाल बर्फ की तरह सुफेद हो रहे थे। मगर गर्दन और कमर पर बुढा़पे ने अपना दखल जमाने से परहेज कर रक्था था, अर्थात् न तो उसकी गर्दन हिलती थी, और न कमर झुकी हुई थी। उसके चेहरे पर झुर्रिया (बहुत कम) पड़ी हुई थीं, मगर फिर भी उसका गोरा चेहरा रौनकदार और रोबीला दिखाई पड़ता था, और दोनों तरफ के गालों पर अब भी सुर्खी मौजूद थी। एक नहीं बल्कि हर रंग की किसी-न-किसी हालत से वह अस्सी बरस का बुड्ढा जान पड़ता था, परन्तु कमजोरी, पस्तहिम्मती, बुजदिली और आलस्य इत्यादि के धावे से अभी तक उसका शरीर बचा हुआ था।

उसकी पोशाक राजों-महाराजों की पोशाकों की तरह बेशकीमती तो न थी, मगर इस योग्य भी न थी कि उससे गरीबी और कमलियाकत जाहिर होती। रेशमी तथा मोटे कपड़े की पोशाक हर जगह से चुस्त और फौजी अफसरों के ढंग की, मगर सादी थी। कमर में एक भुजाली लगी हुई थी, और बायें हाथ में सोने की एक बड़ी-सी डलिया या चंगेर लटकाये हुए था। जिस समय वह कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखकर हँसा, उस समय यह भी मालूम हो गया कि उसके मुँह में जवानों की तरह कुल दाँत अभी तक मौजूद हैं, और मोती की तरह चमक रहे हैं।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को आशा थी कि वे इस जगह कमलिनी को नहीं तो किसी-न-किसी औरत को अवश्य देखेंगे, मगर आशा के विपरीत एक ऐसे आदमी को देख उन्हें बड़ा ही ताज्जुब हुआ। इन्द्रजीतसिंह ने वह तिलिस्मी खंजर जो मन्दिर के नीचेवाले तहखाने में पाया था, आनन्दसिंह के हाथ में दे दिया और बढ़कर उस आदमी से पूछा, ‘‘यहाँ से एक औरत के चिल्लाने की आवाज आयी थी, वह कहाँ है ?’’

बुड्ढा : (इधर-उधर देखके) यहाँ तो कोई औरत नहीं है।
इन्द्र: अभी-अभी हम दोनों ने उसकी आवाज सुनी थी।
बुड्ढा : बेशक सुनी होगी, मगर मैं ठीक कहता हूँ कि यहाँ पर कोई औरत नहीं है।
इन्द्र: तो फिर वह आवाज किसकी थी ?
बुड्ढा : वह मेरी ही आवाज थी।
आनन्द : (सिर हिलाकर) कदापि नहीं।
इन्द्र: मुझे इस बात का विश्वास नहीं हो सकता। आपकी आवाज वैसी नहीं है, जैसी वह आवाज थी।
बुड्ढा : जो मैं कहता हूँ, उसे आप विश्वास करें, या यह बतावें कि आपको मेरी बात का विश्वास क्योंकर होगा। क्या मैं फिर उसी तरह से बोलूँ ?

इन्द्र: हाँ, यदि ऐसा हो तो हम लोग आपकी बात मान सकते हैं।
बुड्ढा : (उसी तरह से और वे ही शब्द अर्थात्- ‘अच्छा-अच्छा, तू मेरा सर काट ले’-इत्यादि बोलकर) देखिये, वे ही शब्द और उसी ढंग की आवाज है या नहीं ?
आनन्द : (ताज्जुब से) बेशक, वही शब्द ठीक वैसी ही आवाज है।
इन्द्र: मगर इस ढंग से बोलने की आपको क्या आवश्यकता थी?
बुड्ढा : मैं इस तिलिस्म में कल से चारों तरफ घूम-घूमकर आपको खोज रहा हूँ। सैकड़ों आवाजें दीं, और बहुत उद्योग किया, मगर आप लोगों से मुलाकात न हुई। तब मैंने सोचा कदाचित् आप लोगों ने सोच लिया हो कि इस तिलिस्म के कारखाने में किसी की आवाज का उत्तर देना उचित नहीं है, और इसी से आप मेरी आवाज पर ध्यान नहीं देते। आखिर मैंने यह तरकीब निकाली और इस ढंग से बोला, जिसमें सुनने के साथ ही आप बेताब हो जायँ और स्वयं ढूँढकर मुझसे मिलें, और आखिर जो कुछ मैंने सोचा था, वही हुआ।
इन्द्र: आप कौन हैं और मुझे क्यों बुला रहे थे ?

आनन्द : और इस तिलिस्म के अन्दर आप कैसे आये ?
बुड्ढा : मैं एक मामूली आदमी हूँ और आपका एक अदना गुलाम हूँ, इसी तिलिस्म में रहता हूँ, और यही तिलिस्म मेरा घर हैं। आपलोग इस तिलिस्म में आये हैं तो मेरे घर में आये हैं, अतएव आप लोगों कीमेहमानी और खातिरदारी करना मेरा धर्म है, इसीलिए मैं आप लोगों को ढूँढ रहा था।
इन्द्र: अगर आप इसी तिलिस्म में रहते हैं, और यह तिलिस्म आपका घर है तो हम लोगों को आप दोस्ती की निगाह से नहीं देख सकते, क्योंकि हम लोग आपका घर अर्थात् यह तिलिस्म तोड़ने के लिए यहाँ आये हैं, और कोई आदमी किसी ऐसे की खातिर नहीं कर सकता, जो उसका मकान तोड़ने आया हो, तब हम क्योंकर विश्वास कर सकते हैं कि आप हमें अच्छी निगाह से देखते होंगे, या हमारे साथ दगा या फरेब न करेंगे।

बुड्ढा : आपका खयाल बहुत ठीक है, ऐसे समय पर इन सब बातों को सोचना और विचार करना बुद्धिमानी का काम है, परन्तु इस बात का आप दोनों भाइयों को विश्वास करना ही होगा कि मैं आपका दोस्त हूँ। भला सोचिए तो सही कि मैं दुश्मनी करके आपका क्या बिगाड़ सकता हूँ। हाँ, आपकी मेहरबानी से अवश्य फायदा उठा सकता हूँ।
इन्द्र: हमारी मेहरबानी से आपका क्या फायदा होगा और आप तिलिस्म के अन्दर हमारी क्या खातिर करेंगे ? इसके अतिरिक्त यह भी बतलाइए क्या सबूत पाकर हम लोग आपको अपना दोस्त समझ लेंगे और आपकी बात पर विश्वास कर लेंगे ?

बुड्ढा : आपकी मेहरबानी से मुझे बहुत कुछ फायदा हो सकता है। यदि आप चाहेंगे तो मेरे घर को अर्थात् तिलिस्म को बिल्कुल चौपट न करेंगे। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि आप इस तिलिस्म को न तोड़े और इससे फायदा न उठायें, बल्कि मैं यह कहता हूँ कि इस तिलिस्म को उतना ही तोड़िए, जितने से आपको गहरा फायदा पहुँचे और कम फायदे के लिए व्यर्थ उन मजेदार चीजों को चौपट न कीजिए, जिनके बनाने में बड़े-बड़े बुद्धिमानों ने वर्षों मेहनत की है, और जिसका तमाशा देखकर बड़े-बड़े होशियारों की अक्ल भी चकरा सकती है। अगर इसका थोड़ा-सा हिस्सा आप छोड़ देंगे तो मेरा खेल-तमाशा बना रहेगा, और इसके साथ-ही-साथ आपके दोस्त गोपालसिंह की इज्जत और नामवरी में भी फर्क न पड़ेगा, और वह तिलिस्म के राजा कहलाने लायक बने रहेंगे। मैं इस तिलिस्म में आपकी खातिरदारी अच्छी तरह कर सकता हूँ, तथा ऐसे-ऐसे तमाशे दिखा सकता हूँ, जो आप तिलिस्म तोड़ने की ताकत रखने पर भी बिना मेरी मदद के नहीं देख सकते। हाँ, उसका आनन्द लिये बिना उसको चौपट अवश्य कर सकते हैं। बाकी रही यह बात कि आप मुझ पर भरोसा किस तरह कर सकते हैं, इसका जवाब देना अवश्य ही जरा कठिन है।
इन्द्र: (कुछ सोचकर) तुमसे और राजा गोपालसिंह से जान-पहिचान है ?

बुड्ढा : अच्छी तरह जान-पहिचान है, बल्कि हम दोनों में मित्रता है।
इन्द्र: (सिर हिलाकर) यह बात तो मेरे जी में नहीं बैठती।
बुड्ढा : सो क्यों ?
इन्द्र: इसलिए कि एक तो यह तिलिस्म तुम्हरा घर है, कहो हाँ।
बुड्ढा : जी हाँ।
इन्द्र: जब यह तिलिस्म तुम्हारा घर है तो यहाँ का एक-एक कोना तुम्हारा देखा हुआ होगा, बल्कि आश्चर्य नहीं कि राजा गोपालसिंह की बनिस्बत इस तिलिस्म का हाल तुमको ज्यादा मालूम हो।
बुड्ढा : जी हाँ, बेशक ऐसा ही है।
इन्द्र: (मुस्कुराकर) तिस पर राजा गोपालसिंह से और तुमसे मित्रता है !
बुड्ढा : अवश्य

बुड्ढा : तो तुमने इतने दिनों तक राजा गोपालसिंह को मायारानी के कैदखाने में क्यों सड़ने दिया ? इसके जवाब में तुम यह नहीं कह सकते कि मुझे गोपालसिंह के कैद होने का हाल मालूम न था, या मैं उस सींखचेवाली कोठरी तक नहीं जा सकता था, जिसमें वे कैद थे।
इन्द्रजीतसिंह के इस सवाल ने बुड्ढे को लाजवाब कर दिया, और वह सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह: ने समझ लियाकि यह झूठा है, और हम लोगों धोखा दिया चाहता है। बहुत थोड़ी देर तक सोचने के बाद बुड्ढे ने सिर उठाया, और मुस्कराकर कहा, ‘‘वास्तव में आप बड़े होशियार हैं, बातों की उलझन में भुलावा देकर मेरा हाल जानना चाहते हैं, मगर ऐसा नहीं हो सकता। हाँ, जब आप तिलिस्म को तोड़ लेंगे तो मेरा परिचय भी आपको मिल जायगा, लेकिन यह बात झूठी नहीं हो सकती कि राजा गोपालसिंह मेरे दोस्त हैं, और यह तिलिस्म मेरा घर है।’’
इन्द्र: आप स्वयं अपने मुँह से झूठे बन रहे हैं, इसमें मेरा क्या कसूर है। यदि गोपालसिंह आपके दोस्त हैं तो आप मेरी बात का पूरा-पूरा जवाब देकर मेरा दिल क्यों नहीं भर देते हैं ?
बुड्ढा : नहीं, आपकी इस बात का जवाब में नहीं दे सकता कि गोपालसिंह को मैंने मायारानी के कैदखाने से क्यों नहीं छुड़ाया।

इन्द्र: तो फिर मेरा दिल कैसे भरेगा और मैं कैसे आपपर विश्वास करूँगा ?
बुड्ढा : इसके लिये मैं दूसरा उपाय कर सकता हूँ।
इन्द्र: चाहे कोई उपाय कीजिए, परन्तु इस बात का निश्चय अवश्य होना चाहिए कि यह तिलिस्म आपका घर है, और गोपालसिंह आपके मित्र हैं।
बुड्ढा : आपको तो केवल इसी बात का विश्वास होना चाहिए कि मैं आपका दुश्मन नहीं हूँ।
आनन्द : नहीं नहीं, हम लोग और किसी बात का सबूत नहीं चाहते, केवल वह दो बात आप साबित कर दें, जो भाईजी चाहते हैं।
बुड्ढा : तो इस समय मेरा यहाँ आना व्यर्थ ही हुआ ! (चंगेर की तरफ इशारा करके) देखिए आप लोगों के खाने के लिए, मैं तरह-तरह की चीजें लेता आया था, मगर अब लौटा ले जाना पड़ी, क्योंकि जब आपको मुझे पर विश्वास ही नहीं है तो इन चीजों को कब स्वीकार करेंगे।
इन्द्र: बेशक मैं इन चीजों को स्वीकार नहीं कर सकता, जब तक कि मुझे आपकी बातों का विश्वास न हो जाय।
आनन्द : (मुस्कुराकर) क्या आपके लड़के-बाले भी इसी तिलिस्म में रहते हैं ? ये सब चीजें आपके घर की बनी हुई हैं, या बाजार से लाये हैं ?
बुड्ढा : जी मेरे लड़के-बाले नहीं हैं, न दुनियादार ही हूँ, यहाँ तक कि नौकर भी मेरे पास नहीं है-ये चीजें तो बाजार से खरीद लाया हूँ।

आनन्द : तो इससे यह भी जाना जाता है कि आप दिन-रात इस तिलिस्म में नहीं रहते, जब कभी दखेल तमाशा देखने की इच्छा होती होगी तो चले आते होंगे।
इन्द्र: खैर जो हो, हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं, हमारे सामने जब ये अपने सच्चे होने का सबूत लाकर रक्खेंगे, तब हम इनसे बातें करेंगे और इनके साथ चलकर इनका घर भी देखेंगे।
इस बात का जवाब उस बुड्ढे ने कुछ न दिया और सिर झुकाये, वहाँ से चला गया। इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी यह देखने के लिए कि वह कहाँ जाता है और क्या करता है, उसके पीछे चले। बुड्ढे ने पीछे घूमकर इन दोनों भाइयों को अपने पीछे-पीछे आते देखा, मगर इस बात की उसने कुछ परवाह न की और बराबर चलता गया।
हम पहिले के किसी बयान में लिख आये हैं कि इस बाग के पश्चिम तरफ की दीवार के पास एक कूआँ था। वह बुड्ढा उसी कूएँ की तरफ चला गया, और जब उसके पास पहुँचा तो बिना कुछ रुके एकदम उसके अन्दर कूद पड़ा, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी उस कुएँ के पास पहुँचे और झाँककर देखने लगे, मगर सिवाय अन्धकार के और कुछ भी दिखायी न दिया।
आनन्द : जब वह बुड्ढा बेधड़क इसके अन्दर कूद गया तो यह कूआँ जरूर किसी तरफ निकल जाने का रास्ता होगा !
इन्द्र: मैं भी यही समझता हूँ।
आनन्द : यदि कहिए तो मैं इसके अन्दर जाऊँ ?
इन्द्र: नहीं नहीं, ऐसा करना बड़ी नादानी होगी, तुम इस तिलिस्म का हाल कुछ भी नहीं जानते। हाँ, मैं इसके अन्दर बेखटके जा सकता हूँ, क्योंकि तिलिस्मी किताब को पढ़ चुका हूँ, और वह मुझे अच्छी तरह याद भी है,मगर मैं नहीं चाहता कि तुम्हें इस जगह अकेला छोड़कर जाऊँ।

आनन्द : तो फिर अब क्या करना चाहिए ?
इन्द्र: बस सबके पहिले तुम इस तिलिस्मी किताब को पढ़ जाओ और इस तरह याद कर जाओ कि पुनः उसके देखने कि आवश्यकता न रहे, फिर जो कुछ करना होगा, किया जायगा। इस समय इस बुड्ढे का पीछा करना हमें स्वीकार नहीं है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, यह दगाबाज बुड्ढा खुद हम लोगों का पीछा करेगा और फिर हमारे पास आयेगा, बल्कि ताज्जुब नहीं कि अबकी दफे कोई नया रंग लावे।
आनन्द : जैसी  आज्ञा, अच्छा तो वह किताब मुझे दीजिए, मैं पढ़ जाऊँ।
दोनों भाई लौटकर फिर उसी मन्दिर के पास आये, आनन्दसिंह किताब को पढ़ने में लौलीन हुए।
दोनों भाई चार दिन तक उसी बाग में रहे। इस बीच में उन्होंने न तो कोई कार्रवाई की और न कोई तमाशा देखा। हाँ, आनन्दसिंह ने उस किताब को अच्छी तरह पढ़ डाला और सब बातें दिल में बैठा लीं। यह खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब बहुत बड़ी न थी और उसके अन्त में यह बात लिखी हुई थी-
‘‘निःसन्देह तिलिस्म खोलने वाले का जेहन तेज होगा। उसे चाहिए कि इस किताब को पढ़ कर अच्छी तरह याद कर ले, क्योंकि इसके पढ़ने से ही मालूम हो जायगा कि यह तिलिस्म खोलनेवाले के पास बची न रहेगी, किसी दूसरे काम में लग जायगी, ऐसी अवस्था में अगर इसके अन्दर लिखी हुई कोई बात भूल जायगी तो तिलिस्म खोलनेवाले की जान पर आ बनेगी। जो आदमी इस किताब को आदि से अन्त तक याद न कर सके, वह तिलिस्म के काम में कदापि हाथ न लगावे, नहीं तो धोखा खायेगा।।’’


दूसरा बयान


दिन लगभग पहर-भर के चढ़ चुका है। दोनों कुमार स्नान-ध्यान पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाने के लिए जा ही रहे थे कि रास्ते में फिर उसी बुड्ढे से मुलाकात हुई। बुड्ढे ने झुककर दोनों कुमारों को सलाम किया और फिर अपनी जेबमें से एक चीठी निकाल कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर बोला, ‘‘देखिए राजा गोपालसिंह के हाथ की सिफारिशी चीठी ले आया हूँ, इसे पढ़कर तब कहिए कि मुझ पर भरोसा करने में अब आपको क्या उज्र है ?’’ कुमार ने चीठी पढ़ी और आनन्दसिंह को दिखानेके बाद हँसकर उस बुड्ढे की तरफ देखा।

बुड्ढा : (मुस्कुराकर) कहिए, अब आप क्या कहते हैं ? क्या इस पत्र को आप जाली या बनावटी समझते हैं ?
इन्द्र: नहीं नहीं, यह चीठी जाली नहीं हो सकती, मगर देखो तो सही-इस (आनन्दसिंह के हाथ से चीठी लेकर और चीठी में लिखे हुए एक निशान को दिखाकर) इस निशान को तुम पहिचानते हो या इसका मतलब तुम जानते हो ?
बुड्ढा : (निशान देखकर) इसका मतलब तो आप जानिए या गोपालसिंह जानें मुझे क्या मालूम, यदि आप बतलायें तो..
इन्द्र: इसका मतलब यही है कि यह चीठी बेशक सच्ची है, मगर इसमें जो कुछ लिखा है, उस पर ध्यान न देना !
बुड्ढा : क्या गोपालसिंह ने आपसे कहा था कि हमारी लिखी जिस चीठी पर ऐसा निशान हो, उसकी लिखावट पर ध्यान न देना।
इन्द्र: हाँ, मुझसे उन्होंने ऐसा ही कहा था, इसलिए जाना जाता है कि यह चीठी उन्होंने अपनी इच्छा से नहीं लिखी, बल्कि जबर्दस्ती किये जाने के सबब से लिखी है।
बुड्ढा : नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आप भूलते हैं, उन्होंने आपसे इस निशान के बारे में कोई दूसरी बात कही होगी।

कुमार : नहीं नहीं, मैं ऐसा भुलक्कड़ नहीं हूँ, अच्छा आपही बताइए यह निशान उन्होंने क्यो बनाया।
बुड्ढा : यह निशान उन्होंने इसलिए स्थिर किया है कि कोई ऐयार उनके दोस्तों को उनकी लिखावट का धोखा न दे सके। (कुछ सोचकर और हँसकर) मगर कुमार, तुम भी बड़े बुद्धिमान और मसखरे हो !
कुमार : कहो अब मैं तुम्हारी दाढ़ी नोच लूँ ?
आनन्द : (हँसकर और ताली बजाकर) या मैं नोच लूँ ?
बुड्ढा : (हँसते हुए) अब आप लोग तकलीफ न कीजिए, मैं स्वयं इस दाढ़ी को नोचकर अलग फेंक देता हूँ !
इतना कह उस बुड्ढे ने अपने चेहरे से दाढ़ी अलग कर दी, और इन्द्रजीतसिंह के गले से लिपट गया।
पाठक, यह बुड्ढा वास्तव में राजा गोपालसिंह थे, जो चाहते थे कि सूरत बदलकर इस तिलिस्म में कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की मदद करें, मगर कुमार की चालकियों ने उनकी हिकमत लड़ने न दी और लाचार होकर उन्हें प्रकट होना ही पड़ा।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह दोनों भाई राजा गोपालसिंह के गले मिले और उनका हाथ पकड़े हुए नहर के किनारे गये, जहाँ पत्थर की एक चट्टान पर बैठकर तीनों आदमी बातचीत करने लगे।

तीसरा बयान


अब हम रोहतासगढ़ का हाल लिखते हैं। जिस समय बाहर यह खबर आयी कि लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो गयी, और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ गयीं, उस समय राजा बीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और कहा, लक्ष्मीदेवी से पूछना चाहिए कि उसकी तबीयत यह कलमदान देखने के साथ ही क्यों खराब हो गयी ?’’
इसके पहिले के तेजसिंह राजा बीरेन्द्रसिंह की बात का जवाब दें या उठने का इरादा करें जिन्न ने कहा, ‘‘आश्चर्य है कि आप इसके लिए जल्दी करते हैं !’’

जिन्न की बात सुनकर राजा बीरेन्द्रसिंह मुस्कुराकर चुप हो रहे और भूतनाथ का कागज पढ़ने के लिए तेजसिंह को इशारा किया। आज भूतनाथ का मुकदमा फैसला होनेवाला है, इसलिए भूतनाथ और कमला का रंज और तरदुद तो बाजिब ही है, मगर इस समय भूतनाथ से सौगुनी बुरी हालत बलभद्रसिंह की हो रही है। चाहे सभों का ध्यान उस कागज के के मुट्ठे की तरफ पर लगा हो, जिसे अब तेजसिंह पढ़ा चाहते हैं, मगर बलभद्रनाथसिंह का खयाल किसी दूसरी तरफ है। उसके चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छायी है, और वह छिपी निगाहों से चारों तरफ इस तरह देख रहा है, जैसे कोई मुजरिम निकल भागने के लिए रास्ता ढूँढता हो, मगर भैरोसिंह को मुस्तैदी के साथ अपने ऊपर तैनात पाकर सिर नीचा कर लेता है।
हम यह लिख चुके हैं कि तेजसिंह पहिले उन चीठियों को पढ़ गये, जिनका हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है, अब तेजसिंह ने उसके आगेवाला पत्र पढ़ना आरम्भ किया, जिसमें यह लिखा हुआ था-

‘‘मेरे प्यारे दोस्त,
आज मैं बलभद्रसिंह की जान ले ही चुका था, मगर दरोगा साहब ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया। मैंने सोचा था कि बलभद्रसिंह के खतम हो जाने पर लक्ष्मीदेवी की शादी रुक जायगी, और उसके बदले में मुन्दर को भरती कर देने का अच्छा मौका मिलेगा, मगर दारोगा साहब की यह राय न ठहरी। उन्होंने कहा कि गोपालसिंह को भी लक्ष्मीदेवी के साथ शादी करने की जिद्द हो गयी है, ऐसी अवस्था में यदि बलभद्रसिंह को तुम मार डालोगे तो राजा गोपालसिंह दूसरी जगह शादी करने के बदले में बरस दिन अटक जाना मुनासिब समझेंगे, और शादी का दिन टल जाना अच्छा नहीं है, इससे यही उचित होगा कि बलभद्रसिंह को कुछ न कहा जाय, लक्ष्मीदेवी की माँ को मेरे ग्यारह महीने हो ही चुके हैं, महीना-भर और बीत जाने दो, जो कुछ मरे होगा शादीवाले दिन किया जायगा। शादीवाले दिन जो कुछ किया जायगा, उसका बन्दोबस्त भी हो चुका है। उस दिन मौके पर लक्ष्मीदेवी गायब कर दी जायगी, और उसकी जगह मुन्दर बैठा दी जायगी और उसके कुछ देर पहिले ही बलभद्रसिंह ऐसी जगह पहुँचा दिया जायगा, जहाँ से पुनः लौट आने की आशा नहीं है, बस फिर किसी तरह का खटका न रहेगा। यह सब तो हुआ, मगर आपने अभी तक फुटकर खर्च के लिए रुपये न भेजे। जिस तरह हो सके, उस तरह बन्दोबस्त कीजिए और रुपये भेजिए नहीं तो सब काम चौपट हो जायेगा, आगे आपकी अख्तियार है।

वही-भूतनाथ’’
बीरेन्द्र : (भूतनाथ की तरफ देखके) क्यों भूतनाथ यह चीठी तुम्हारे हाथ की लिखी हुई है!
भूतनाथ : (हाथ जोड़कर) जी हाँ महाराज, यह कागज मेरे हाथ का लिखा हुआ है।
बीरेन्द्र : तुमने यह पत्न हेलासिंह के पास भेजा था ?
भूतनाथ : जी नहीं।
बीरेन्द्र : तुम अभी कह चुके हो कि यह पत्र मेरे हाथ का लिखा है और फिर कहते हो कि नहीं !
भूतनाथ : जी मैं यह नहीं कहता कि यह कागज मेरे हाथ का लिखा हुआ नहीं बल्कि मैं यह कहता हूँ कि यह पत्र हेलासिंह के पास मैंने नहीं भेजा था।

बीरेन्द्र : तब किसने भेजा था ?
भूतनाथ : (बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इसने भेजा था और इसी ने अपना नाम भूतनाथ रक्खा था, क्योंकि यह वास्तव में लक्ष्मीदेवी का बाप बलभद्रसिंह नहीं है।
बीरेन्द्र : अगर यह चीठी (बलभद्रसिंह की तरह इशारा करके) इन्होंने हेलासिंह के पास भेजी थी तो फिर तुमने इसे अपने हाथ से क्यों लिखा ? क्या तुम इनके नौकर या मुहर्रिर थे ?
भूतनाथ : जी नहीं, इसका कुछ दूसरा ही सबब है, मगर इसके पहिले कि मैं आपकी बातों का पूरा-पूरा जवाब दूँ, इस नकली बलभद्रसिंह से दो-चार बातें पूछने की आज्ञा चाहता हूँ।
बीरेन्द्र : क्या हर्ज है, जो कुछ पूछना चाहते हो पूछो।
भूतनाथ : (बलभद्रसिंह की तरफ देख के) इस कागज के मुट्ठे को तुम शुरू से आखिर तक पढ़ चुके हो या नहीं !
बलभद्र : हाँ, पढ़ चुका हूँ।
भूतनाथ : जो चीठी अभी पढ़ी गयी है, इसके आगेवाली चीठियाँ, जो अभी पढ़ी नहीं गयीं, तुम्हारे इस मुकद्दमे से कुछ सम्बन्ध रखती हैं !

बलभद्र : नहीं।
भूतनाथ : सो क्यों !
बलभद्र : आगे की चीठियों का मतलब हमारी समझ में नहीं आता।
भूतनाथ : तो अब आगेवाली चीठियों को पढ़ने की कोई आवश्यकता न रही !।
बदभद्रः तेरा कसूर साबित करने के लिए क्या इतनी चीठियाँ कम हैं, जो पढ़ी जा चुकी हैं ! भूतनाथ : बहुत हैं, बहुत हैं, अच्छा तो अब मैं यह पूछता हूँ कि लक्ष्मीदेवी के शादी के दिन तुम कैद के लिए गये थे।
बलभद्र : हाँ।
भूतनाथ : उस समय बालासिंह कहाँ था और बालासिंह कहाँ है !
भूतनाथ के इस सवाल ने बलभद्रसिंह की अवस्था फिर बदल दी। वह और भी घबड़ाना-सा होकर बोला, ‘‘इन सब बातों के पूछने से क्या फायदा निकलेगा ?’’ इतना कहकर उसने दरोगा और मायारानी की तरफ देखा। मालूम होता था कि बालासिंह के नाम ने मायारानी और दारोगा पर भी अपना असर किया, जो मायारानी के बगल ही में एक खम्भे के साथ बँधा हुआ था। बीरेन्द्रसिंह और उनके बुद्धिमान ऐयारों ने भी बलभद्र और दारोगा तथा मायारानी के चेहरे और उन तीनों की इस देखा-देखी पर गौर किया और बीरेन्द्रसिंह ने मुस्कुराकर जिन्न की तरफ देखा।
जिन्न : मैं समझता हूँ कि इस बलभद्रसिंह के साथ अब आपको बेमुरौवती करनी होगी।

बीरेन्द्र : बेशक, मगर आप क्या समझते हैं कि यह मुकदमा आज फैसला हो जायगा ?
जिन्न : नहीं, यह मुकद्दमा इस लायक नहीं कि आज फैसला हो जाय। यदि आप इस मुकद्दमें की कलई अच्छी तरह खोला चाहते हैं, तो इस समय इसे रोक दीजिए और भूतनाथ को छोड़कर आज्ञा दीजिए कि महीने-भर के अन्दर जहाँ से हो सके, वहाँ से असली बलभद्रसिंह को खोज लावे नहीं तो उसके लिए बेहतर न होगा।।
बीरेन्द : भूतनाथ को किसकी जमानत पर छोड़ दिया जाय।
जिन्न : मेरी जमानत पर।
बीरेन्द्र : जब आप ऐसा कहते हैं तो हमें कोई उज्र नहीं है, यदि लक्ष्मीदेवी और लाडिली तथा कामलिनी इसे स्वीकार करें।
जिन्न : उन सभों को भी कोई उज्र नहीं होनी चाहिए।
इतने में पर्दे के अन्दर से कमलिनी ने कहा, ‘‘हम लोगों को कोई उज्र न होगा, हमारे महाराज को अधिकार है, जो चाहें करें !’’

बीरेन्द्र : (जिन्न की तरफ देखके) तो फिर कोई चिन्ता नहीं, हम आपकी बात मान सकते हैं। (भूतनाथ से) अच्छा तुम यह तो बताओ कि जब वह चीठी तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई है, तो तुम इसे हेलासिंह के पास भेजने से क्यों इनकार करते हो।
भूतनाथ : इसका हाल भी उसी समय मालूम हो जायगा, जब मैं असली बलभद्रसिंह को छुड़ाकर ले आऊँगा।
जिन्न : आप इस समय इस मुकद्दमें को रोक दीजिए, जल्दी न कीजिए क्योंकि इसमें अभी तरह-तरह के गुल खिलने वाले हैं।।
बलभद्र : नहीं नहीं, भूतनाथ को छोड़ना उचित न होगा, यह बड़ा भारी बेईमान, जालिया, धूर्त और बदमाश है। यदि इस समय छूटकर चल देगा तो फिर कदापि न आवेगा।
तेज : (घुड़ककर बलभद्र से) बस चुप रहो तुमसे इस बारे में राय नहीं ली जाती।
बलभद्र : (खड़े होकर) तो फिर मैं जानता हूँ, जिस जगह ऐसा अन्याय हो, वहाँ ठहरना भले आदमियों का काम नहीं।
बलभद्रसिंह उकर खड़ा हुआ ही था कि भैरोसिंह ने उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, ‘‘ठहरिए, आप भले आदमी हैं, आपको क्रोध न करना चाहिए, अगर ऐसा कीजियेगा तो भलमनसी में बट्टा लग जायगा। यदि आपको हम लोगों की सोहबत अच्छी नहीं मालूम पड़ती तो आप मायारनी और दारोगा की सोहबत में रक्खे जायेंगे, जिसमें आप खुश रहें, हम लोग वही करेंगे।’’

भैरोसिंह ने बलभद्रसिंह की कलाई पकड़ के कोई नस ऐसी दबायी कि वह बेताब हो गया, उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसके तमाम बदन की ताकत किसी ने खैंच ली हो, और वह बिना कुछ बोले इस तरह बैठ गया जैसे कोई गिर पड़ता है। उसकी यह अवस्था देख सभों ने मुस्कुरा दिया।
जिन्न : (बीरेन्द्रसिंह से) अब मैं आपसे और तेजसिंह से दो-चार बातें एकान्त में कहा चाहता हूँ।
बीरेन्द्र : हमारी भी इच्छा है
इतना कहकर बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह, देवीसिंह से कुछ इशारा करके उठ खड़े हुए और दूसरे कमरे की ओर चले गये।
राजा बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और जिन्न आधे-घण्टे तक एकान्त में बैठकर बातचीत करते रहे। सभों को जिन्न के बिषय में जितना आश्चर्य था, उतना ही इस बात का निश्चय भी हो गया था कि जिन्न का हाल राजा बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और भैरोसिंह को मालूम हो गया है, परन्तु वह किसी से न कहेंगे और न कोई उनसे पूछ सकेगा।


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