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कही ईसुरी फाग

मैत्रेयी पुष्पा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :339
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3122
आईएसबीएन :9788126711222

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ईसुरी फाग मानव स्त्री के प्रेम पर आधारित एक सम्पूर्ण उपन्यास है

Kahin Isuri Phaag

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

ऋतु डॉक्टर नहीं बन पाई क्योंकि रिचर्ड गाइड प्राध्यापक प्रवर पी.के. पाण्डे की दृष्टि में ऋतु ने ईसुरी पर जो कुछ लिखा था, वह न शास्त्र-सम्मत था ,न शोध अनुसंधान की जरूरतें पूरी करता था। वह शुद्ध बकवास था क्योंकि ‘लोक’ था।
‘लोक’ में भी कोई एक गाइड नहीं होता। लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं-जो जहाँ तक का रास्ता बता दे वही गाइड बन जाता है-कभी-कभी तो कोई विशेष पेड़, कुआँ या खंडहर ही गाइड का रूप ले लेते हैं। ऋतु भी ईसुरी-रजऊ की प्रेम कथा के ऐसे ही बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार है। बड़ा खतरनाक होता है जंगलों, पहाड़ों, और समुद्र का आदिम सम्मोहन...हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के ‘दर्शन’ के लिए ‘कहीं ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऐसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है।

शास्त्रीय भाषा में ईसुरी शुद्ध ‘लम्पट’ कवि है- उसकी अधिकांश फागें एक पुरुष द्वारा स्त्री को दिये शारीरिक आमंत्रणों का उत्वीकरण है। जिनमें श्रृंगार काव्य की कोई मर्यादा भी नहीं है।
इस उपन्यास का नायक ईसुरी है, मगर कहानी रजऊ की है-प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ दोनों के रास्ते बिलकुल विपरीत दिशाओं को जाते हैं। प्यार बल देता है तो तोड़ता भी है...

सिद्ध संगीतकार कविता की किसी एक पंक्ति को सिर्फ अपना प्रस्थान बिन्दु बनाता है-बाकी ठाठ और विस्तार उसका अपना होता है। बाजूबंद खुल-खुल जाए में न बाजूबंद रात-भर खुल पाता है, न कविता आगे बढ़ पाती है क्योंकि कविता की पंक्ति के बाद सुर-साधक की यात्रा अपने संसार की ऊँचाइयों और गराइयों के अर्थ तलाश करने लगती है। मैत्रैयी पुष्पा की कहानी उसी आधार का कथा-विस्तार है-शास्त्रीय दृष्टि के खिलाफ़ अवैध लोक का जयगान।

 

अस्वीकृति-पत्र

प्रमाणित किया जाता है कि कुमारी ऋतु ने हिन्दी विषयान्तर्गत ‘ईसुरी के काव्य में नारी संचेतना’ शीर्षक से शोधकर्ता पी.एच.डी की उपाधि हेतु मेरे मार्ग-निर्देशन में निष्पादित एवं पूर्ण किया है। शोधार्थी ने दो सौ दिवस से अधिक की उपस्थितियाँ दर्ज कराई हैं।

मेरी जानकारी एवं विश्वास में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध शोधार्थी का स्वयं का कार्य है
विषय चयन की दृष्टि से भी यह कार्य गम्भीर अध्ययन-विश्लेषण की माँग करता है, क्योंकि शोधकर्ता का लक्ष्य होता है अज्ञात को ज्ञात करना तथा ज्ञात को नई दृष्टि के आलोक में विश्लेषित करना।
परंतु इस शोध को लेकर मेरी कुछ आपत्तियाँ हैं क्योंकि इस प्रबन्ध विश्वविद्यालय की शोध-उपाधि के लिए अध्यादेश की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करता।

1. शोधग्रन्थ के निष्कर्षों के लिए कुछ लिखित प्रमाण आवश्यक होते हैं, जैसे-विद्वानों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों से उद्धरण, इतिहास ग्रन्थों से लिए गए प्रमाण, पत्र-पत्रिकाओं में दिए गए मंतव्य। ऐसे ही साक्ष्यों से निष्कर्षों को पुष्ट किया जाता है।
अन्य पांडित्यपूर्ण गवेषणाएँ, जो शोध का आधार हो सकती हैं, इस शोध-प्रबन्ध में नहीं है। तब फिर संदर्भ नोट और संदर्भ-सूची बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई।

अनावश्यक काल्पनिक बातों, सुनी-सुनाई किंवदन्तियों को शोध का आधार बनाया गया है। साहित्य में अभी तक ‘ईसुरी और रजऊ’ ये दो ही नाम मिलते हैं। लोक साहित्य, वह भी मौखिक माध्यम, इस दिशा में कोई मानक प्रमाण नहीं हो सकता। यह शोध तो एक तरह से ईसुरी जैसे महान कवि का चरित्र हनन है। यदि हमारे कीर्ति-पुरूषों पर इस तरह के शोध-प्रबन्ध लिखे जाएँगें तो हम उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा किस प्रकार कर पाएँगे ?

2.जहाँ तक इस शोध-प्रबन्ध की भाषा का प्रश्न है, वह भी तत्सम, प्रांजल और परिनिष्ठित रूप में नहीं है। चालू मुहावरे की बोलचाल वाली भाषा का प्रयोग किया गया है। माना कि यह रोचक और लोकप्रिय हो सकती है, मगर साहित्यिक नहीं। भाषा के इस व्यवहार से शोध की शास्त्रीय गरिमा को ठेस पहुँचती है। यह मान्य प्रविधि के प्रतिकूल है।
कुल मिलाकर मैं विश्वविद्यालयीन अकादमिक स्तरीयता को देखते हुए इस शोध-प्रबन्ध पर शोधकर्ता को पी.एच.डी की उपाधि देने की अनुशंशा करने के लिए विवश हूँ।

 

-डॉ.प्रमोद कुमार पाण्डेय

निर्देशक

 

 

नाटक

 

 

दिन के साढ़े दस बजे थे। गली में धूप फैल गई थी। तभी मैरून रंग की चमचमाती हुई कार सर्राटे से गली में घुस आई। उस चबूतरे के पास खड़ी हो गई, जिसके ऊपर नीम का पेड़ था और नीम के आगे बैठका बना था। बैठका के किवाड़ बन्द थे, क्योंकि फगवारे रात के लिए फाग-नाट्य का अभ्यास कर रहे थे। इसलिये उन्हें इस ‘आई कोन फोर्ड’ ब्रान्ड कार के आने का पता नहीं चला। हार्न की आवाज भी सुनाई नहीं दी। अन्दर झीका नगड़िया, मंजीरा, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य बज रहे थे। गली में बहुत सारे बच्चे इकठ्ठे हो गए। इनकी आँखों में भी कोई कौतूहल न था, अभ्यस्तता-सी थी, जैसे कार का आना-जाना अक्सर देखते हों अपने गांव में। बरहाल छोटे से छोटा बच्चा कार में से उतरने वालों की उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। किसी-किसी बच्चे ने कार के शीशे पर आँखें सटा रखी थीं।

क्या इस कार में से कोई परी उतरने वाली है ? या कोई सांता क्लॉज, जो इन बच्चों के लिए तोहफे लाए ? मगर बहुत देर तक कोई नहीं उतरा।
कार ड्राईवर बराबर हॉर्न दिए जा रहा था। गली कर्कश शोर से भर गई। बच्चे भी सहम कर पीछे हट गए। गली में खुलने वाले घरों से इक्का-दुक्का लोग निकले, जो कार को देखकर घरों में ही लौट गए।

तभी बैठका का दरवाजा खुला। किवाड़ों के बीच नगड़िया बजानेवाला कलाकार दिखा। और फिर कार के पिछले दरवाजे खुले। भीतर से जो निकले, वे दो लड़केनुमा आदमी थे। पोशाक के नाम पर जींस के साथ डेनम की जैकेट। छाती पर बटन खुले हुए। इनकी इकहरी छाती के बाल मर्दानगी की निशानी हैं, दिख रहा था। गले में फैशन के तहत रूद्राक्ष की मालाएँ और बाहों पर काले धागे के जरिए बँधे ताबीज। उनका पहनावा यूनीफार्म की तरह था, जो किसी संस्था की एकता के चिन्ह की तरह होता है। संस्था के क्या तेवर होंगे, यह लड़कों की सुर्ख आँखों से जाना जा सकता था। उनकी नजरें भी नेजों की तरह तेज थीं। जल्दबाजी अंगों में फड़क रही थी। चाल में खास किस्म की दमक, जो दहशत-सी पैदा करती थी। चेहरे के भावों में लोलुपता का रंग लार की तरह टपकता था। मुझे ऐसा ही लगा। हो सकता है अपने लड़कीपन के कारण लगा हो, जो संस्कारों में घुला है।

वे बैठका के भीतर समा गए। अभिनय के लिए ‘ग्रीन रूम’ रूपी कोठे में बहती वाद्यों की स्वर-तरंगें यकायक ऐसे रुक गई जैसे सामने कोई अलंघ्य पहाड़ आ गया हो। कहाँ मौके के हिसाब से वाद्यों के साथ फागें ऐसे क्रम में बिठाई जा रही थीं, जैसे माला को मोहक और मजबूत बनाने के लिए मनकों और धागे को जोड़ा जाता है ।
कथा के अनुसार लोककवि ईसुरी की उन फागों को विशेष महत्त्व दिया जा रहा था, जो उनकी प्रेमिका रजऊ की ओर से थीं।

लड़के अब फगवारों के आमने-सामने थे। मैं उन्हें बाहर से देख रही थी। मैं, अर्थात ऋतु नाम की युवती। मैंने माइकेल जैक्सन को टेलीविजन के पर्दे पर देखा है। कार से उतरकर यहाँ तक आने वाला एक लड़का माइकेल जैक्सन छाप लम्बे बाल रखे हुए था, लम्बे और सीधे। दूसरे के सिर पर खूँटानुमा छोटे बाल थे। मेरा साथी माधव ऐसे बालों को अमेरिकन स्टाइल में ‘क्रूकट’ कहता है। दोनों लड़कों का कद लम्बा माना जा सकता था, ऐसा जैसा की पुलिस और सेना के लिए काम करने वाले युवकों की भर्ती करते समय लम्बाई और सीने की चौड़ाई का खास माप रखा जाता है।

बेशक वे पतली कमर के मालिक थे और जरूरत से ज्यादा चौड़ी पेटियाँ कमर में बाँधे थे। मैंने यह भी गौर किया कि वे सीड़ियों के जरिए चबूतरे पर नहीं चढे थे, खास तरीके से टाँगें उछालते हुए ऊपर आ गए थे। इस अदा ने उनके रूप को नई तरह का रूतवा दिया था, इसमें संदेह नहीं। साथ ही खुली किवाड़ों को बेमतलब धकियाते हुए बैठका में प्रविष्ट हुए, उनकी अपनी नई शैली थी। और फिर-
‘‘हल्लो’’ धीरे पंडा का अभिनय करने वाला फगवारा फुर्ती से आगे बढ़ता हुआ आया और हाथ बढ़ाकर माइकेल जैक्सन से हाथ मिलाया।

मगर इसके बरक्स मेरी निगाह वहाँ ठहर गई, जहाँ कार ड्राइवर अपनी जेब से टॉफी निकाल-निकालकर बच्चों को बांट रहा था और बच्चे उत्फुल्ल होकर होंठों पर जीभ फेरते हुए छोटे-छोटे हाथों से सौगात ग्रहण कर रहे थे।
इधर क्रूकट पूछ रहा था- ‘‘कैसे हाल-चाल हैं ?’’
‘‘नाटक कर रहे हैं। फागें बढ़िया रंग लै रही हैं।’’ धीरे पंडा ने कहा।

इतने में दो मूढ़े बराबर-बराबर रख दिए गए। वे दोनों इत्मिनान से मूढ़ों पर विराजे और दो क्षण बाद ही माइकेल जैक्सन ने अपनी जैकेट की जेब से छोटी-सी थैली निकाली। थैली खैनी की थी। वह हथेली पर खैनी अँगूठे से मलने लगा, पट्ट-पट्ट की आवाज हुई। खैनी मुँह में डालने से पहले सवाल किया- ‘‘कितने दिनन को पिरोगराम है ?’’
मैं चौकी। अत्याधुनिक वेशभूषा और अति गँवार भाषा-बोली !
धीरे पंडा जवाब दे रहा था- ‘‘ सरस्वती देवी जानें कि हमें कितेक दिनन रोकेंगीं।’’
‘‘फिरऊँ।’’ क्रूटक ने मुँह मटकाया।

‘‘हफ्ता-दस दिना तो मामूली हैं। गाँव में भी जोश है।’’
‘‘कैसो गाँव है ! गाँवन में आजकल फागें को सुनत ? बैंचो सब पिक्चर के दिवाने हैं। सबै स्वाँग चइर।’’
‘‘चइर, तब ही तो हमने फागें नाटक में ढाली हैं। सरस्वती देवी नई-नई जुगत खोजने वाली जनी है। सो देख लो रात को लोग आसपास के गाँवों से चले आ रहे।’’ धीरे पंडा अपने काम पर मुग्ध था।
मैं कोठे के बाहर खड़ी थी। माइकेल जैक्सन बीच-बीच में बाहर देख लेता था। थोड़ी ही देर बाद पूछ बैठा- ‘‘मंडली में लड़कियाँ भर्ती करलईं का ?’’

नगड़िया वाला तुरंत बोला - ‘‘अरे आँहा !’’ कहकर उसने कानों में हाथ लगाया। माइकेल जैक्सन सिर हिला-हिला कर मुस्काया और बोली में व्यंग्य मिलाकर बोला- ‘‘हओ, ऐसो पाप करम तुम्हारी सरसुती नहीं करेंगी, काए से कि बैंचो फगवारे मतवारे हो जाएँगे। फागुन में क्वार महीना।’’ कहकर वह ठाहाका लगाकर हँसा। क्रूकट ने हँसी में साथ निभाया। आगे क्रूकट बोला- ‘‘खुर्राट डुकरिया है, सिरकारी लोगन खों भरमा रही है।’’

धीरे पंडा बनने वाला कलाकार माइकेल जैक्सन और क्रूकट के गूढ़ दर्शन को नासमझ की तरह मुँह बाए सुन रहा था। बाकी फगवारे भोले बच्चों की तरह स्वीकृति में सिर हिला रहे थे।

हाँ मैं तनिक पीछे हट गई कि वे मुझे न देख सकें। मगर वे भी तो मुझे नहीं दिख पा रहे थे। बस उनमें से एक की आवाज सुनाई दी- ‘‘तुम लोग खुदई देखोगे एक दिना कि तुम्हारी बूढ़ी सरसुती चिरइया जहाज में बैठके उड़ गई। हम ऐसी तमाम औरतन खों जानते हैं, जौन अनुदान खा-खाकें मुटिया रही हैं। सो बस सरसुती जी होंगी मालामाल और तुम ससुर जू ठोकते रहो नगड़िया, नाचते रहो जिन्दगी भर-।’’

मैं आवेश में उस खिड़की पर आ गई, जिनके पाटों के बीच महीन-सी फाँक थी। मेरे भीतर गालियों की झड़ी लग गई- बदतमीज, बदमाश, गुंडे सरस्वती देवी का इस तरह अपमान कर रहे हैं ? आखिर वे इनका क्या खाती हैं ? मालामाल हो गईं होती तो छोटे से गाँव सटई में रह रही होतीं ? कच्ची गलियों में पैदल चल रही होतीं ?

अब क्रूकट की बारी थी- ‘‘हम कितेक समझाएँ तुम्हें कि हाथी के दाँत खावे के और, दिखावे के और। इन सरसुती जू के भरोसे न रहो, लछमीं जू का भी मान-आदर करो। कहो, हमारे संगै जब-जब गए हो, जेबें भरके रूपइया मिले हैं कि नहीं ?’’
धीरे पंडा ने हामी भरी, सिर ऊपर-नीचे हिलाया। नगड़िया वाले ने मुस्कराहट के साथ कहा- ‘‘सो ऐसान मानते हैं हम तुमारा।’’

माइकेल जैक्सन ने उँगली के बाद कलाई पकड़ने जैसा भाव दिखाया- ‘‘ऐसान काय का ? बैंचो आँधी के से आम हते। कोन-सी परमामेन्ट आमदनी हती ? ऐसान तो तब मानोगे, जब पाँच सितारे वाले होटिल में तुम्हें ठाड़े कर देंगे हम। पोंदन (चूतरों) के नीचे मखमल और पाँवन तले ईरानी कालीन’’ धीरे पंडा अकबकाया- सा देखने लगा।

क्रूकट बोला-‘‘उजबक की तरियाँ क्या देख रहे ? हमारी तरफन अच्छी तरह हेरो। देख लो, मोबाइल गरे में डारे हैं और तमंचा जेब में धरे हैं। बैंचो आईकोन ठाड़ी है अरदली में, और क्या चइए आज के जमाने में ? सेठन के मोंड़ा क्या सोने की लेंड़ी हग रहे सो हम नहीं हग रहे ?’’ वाक्य समाप्त करने तक क्रूकट के हाथ में पिस्तौल दिखाई दी। उसने अपने हथियार को धूर्तता से मुस्कराते हुए उस खिड़की की ओर तान दिया, जिधर मैं खड़ी थी।
‘‘यार धीरे पंडा, हुनर खों पहचानो। तुम्हारे जैसी अदाकारी इलाका भर में नहीं है किसी के भीतर। बास्टर सारूफ खाँ की माँ..

तब तक माधव लौट आया, जो नहाने गया था। बाँह पर भींगे अण्डरवियर और बनियान लटकाए हुए साँवले और इकहरे बदन वाला माधव धुली साफ बनियान और पायजामा पहने हुए पूछ रहा था- ‘‘ऋतु, पड़ौस वाले घर से कोई खाने के लिए लिवाने नहीं आया ? सरस्वती देवी तो कह रही थी कि इनकी साथिन सरोज हमारे लिए खाना बना रही है।’’
मैं माधव की बात सुनकर झुँझला गई, क्योंकि पहले से खीझी हुई थी।

‘‘तुम्हें तो खाने की पड़ी है बस। यह क्या खाने ही आए थे ? और अब इतनी देर में आए हो, क्या नदी नहाने गए थे ?’’ कहना चाहती थी कि देखो हमारी तुम्हारी उम्र के लड़के क्या तूफान उठाने वाले हैं !

मगर तब तक क्रूकट मंडली के बीच लाठी की तरह खड़ा हो गया था। कहने के लिए मैंने उधर से मुँह फेर लिया, क्योंकि माइकेल जैक्सन ने खिड़की खोल दी थी और वह..पंडा से कह रहा था- ‘‘यार सरसुती बाई की चेली से इंटोडैक्सन तो करा दो । इनें तौ एक दिन रजऊ को पाट खेलनें ही हैं और हमारे संगै जानें ही है। सरसुती खों इन मेनका जू के दम पर अनुदान नहीं खाने देंगे हम। जो कि वे खाएँगी कि इस्तरी ससक्तीकरन कर रही हैं। और ससुर जू तुम्हें लोहे के लंगोटों में कस देगी कि बधिया हो जाओ।’’

माइकेल जैक्सन हँस पड़ा- ‘‘तब भागोगे मंडली छोड़कर। मौकापरस्त औरत के दाँव अभी से समझ लो ससुरी खों उल्टी मात दै दो।’’
धीरे पंडा बनने वाला अभिनेता मंडली का मुख्य आदमी है। वह कभी इन लड़कों को ललचाई निगाह से देखता तो कभी आँखें अजिज-सी हो जातीं।
‘‘अच्छा ठीक है। जो जब होगा सो तब देखा जाएगा। तुम तो अपनी सुनाओ।’’

माइकेल जैक्सन के चेहरे पर आत्मविश्वास बोल रहा था- ‘‘क्या बता दें, बैंचो देख नहीं रहे कि ‘आइकोन’ झुपड़िया के आगे काए ठाड़ी ? हम भइया जौहरी हैं, हीरा तलासते फिर रहे हैं। तुम्हें चमकनें है तो चलो संगै, नातर ससुर जू इतै परे-परे घूरा चाटो।’’ धीरे पंडा ने हाथ जोड़ कर उन लड़कों की औकात बढ़ा दी। वह गर्व से बोला-‘‘ तुम कह रहे थे यह वारी-फुलवारी सरसुती देवी के कारण फूली-फली है तो हम कह रहे हैं नाम भी उन्हीं के कारन होगी नास-विनास में तुम न घिरो। फिरांस की पार्टी आई है, राग रंग की सौखीन है। ओरक्षा में रजऊ और ईसुरी की प्रेम कहानी सुनी होगी। सालिगराम कराटे गुनी गाइड है, सो समझा दई कि बुन्देलखण्ड में पग-पग पर मनमोहिनी लुगाई हैं।’’

मानकेल जैक्सन ने जेब में से छोटा सा पर्स निकाला। धीरे पंडा बनने वाले कलाकार के आगे हजार-हजार के दो नोट लहरा दिए।
‘‘देख रहे हो ऐसे तो कितने ही पैदा हो जाएँगे। फ्रेंक पोंड और डॉलर की माया देखोगे तो गस आ जाएगा। इतै तुम ससुर जू पूरी पपरिया खाकर समझ रहे हो, राजा हो गए। चना-चबैना रोज की खुराक मान रहे हो। क्या कहते हैं कि लाई के लडुआ सुईट डिस। अब तक गाँवों के कलाकार ऐसे लुटते रहे हैं। ईसुरी की लीला कर रहे हो ईसुरी की असलियत जानते हो ? कैसी दिसा भई। तुम्हारे लानें तो कोई आवादी बेगम भी पैदा नहीं होने वाली। आज की औरतें सरसुती बनकर तुम्हें तबाह कर देंगी।’’

मैं बुरा मानू मुझे होश नहीं था। मेरी वह दुनिया उजड़ी जा रही थी, जिसे बसाने की शुरूआत मैंने कर दी थी। और बड़ी कोशिशों, बड़ी ठोकरों के बाद पाया था, यह ठिया।

मन में आया क्रूकट के हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँ। अपने काम की दुहाई दूँ। सारा का सारा ब्योरा बताऊँ यहाँ फागों का होना हमारी पहुँच के भीतर है। पाँच सितारा होटल में इस फाग-लोक को कैद मत करो। बसंतोत्सव में मेरा साहित्य-शोध छिपा है, इस पर पहरे मत लगाओ। लोक संस्कृति पर हमारा भी हक है, हिस्सा हमसे मत छीनो। मगर क्रूकट अपनी रौ में था।

‘‘विदेशी लोग मौंमागा पइसा देते हैं। समझे धीरे पंडा रूपी रतीराम जी ? देर करोगे तो गढ़ी म्हलैरावाली मंडली मोर्चा मार लेगी। तुम पछताते रह जाओगे। हम तो महुसानिया के मंडली डीलर खों भी अडवांस दे आए हैं। सीजन की बात है। फिर तो हम भी वैष्णों देवी के जागरन की डीलिंग में लग जाएँगे, ससुर बखत ही कहाँ है ?’’

लगातार क्रूकट का मोबाइल फोन भी चल रहा था- हल्लो, बातचीत चल रही थी। सौदा पट रहा है। कम-बढ़ की गुंजाइस राखियो ।
माइकेल जैक्सन ने यह कहकर धीरे पंडा को पटा लिया कि वह फगवारों का शीश मुकुट है। रघु नगड़िया वाला माना हुआ उस्ताद है और सोनुआ झींका बजाने में प्रदेश प्रसिद्ध वादक। तीनों राई नाच में घूँघट ओढ़कर नर्तकियों के ‘अपरूप मौडिल’ बन जाते हैं। किरनबाई बेड़िनी से भी सौदा चल रहा है।

चटपटे प्रोग्राम के लिए गर्मागर्म नोट थमाए माइकेल जैक्सन ने और मंडली को खरीद लिया। लाभ-लोभ की बातें-वीडियो फिल्म बनेगी, सी डी बिकेंगी, हिस्सा बराबर रहेगा। आमदनी लगातार होगी। जी टी. वी सोनी टी. वी पर देख लेना अपनी फोटू। हल्के होकर चलो। झींका-मींका, नगड़िया-फगड़िया मत लादो, गिटार बजेगी जमकर। क्या कहते हैं कि सिंथैसाइसर तैयार रखा है। अँग्ररेजी धुन में सजकें फागें अँगरेजिन हो जाएँगी। एक दिना तीजनबाई की तरह तुम विदेस के लानें उड़ जाओगे। हित की बातें सुन लो, नातर इन गाँवन में पड़े-पड़े सड़ जाओ। सरसुती देवी भी तुम्हें सड़े अचार की तरह नुकसानदायक मानकें फेंक देंगी।

सौदा होते ही क्रूकट कार में से यूनीफार्म निकाल लाया।
‘‘बसंती कमीज !’’ धीरे पंडा ने कहा तो माइकेल बोला- ‘‘कमीज नहीं यल्लो टी साट। बिलेक पेंट। टीसाट पर क्या लिखा है ? पढ़े हो तो पढ़ो-
‘मेरा भारत महान !’

पेंच के घुटनों पर जय हिन्द की चिप्ची ! देखते ही देखते फगवारों की टोली ‘आइकोन फोर्ड’ कार में भर गई। जो बाकी बचे थे, उनके लिए डिक्की खोल दी गई। वे सामान की तरह ठँस गए।
कच्ची गली थी। कार चली गई, पीछे धूल का गुबार था बड़ा-सा।
मैं और माधव खड़े थे, लुटी-लुटी गली में, उजड़े से गाँव में खून-खच्चर सपनों की छाँव में... स्तब्ध और हतप्रभ !
हताशा ने चेतना सोख ली।

माधव ने मेरी ओर देखा, जैसे पूछ रहा हो-अब ? अब अगला पड़ाव कहाँ होगा ? हम दोनों ऐसे ही चुपचाप कितनी देर तक खड़े रहे ? मैं पीछे कब लौटी ? सत्रह गाँव की खाक छानकर आई मैं, ऋतु, जहाँ रजऊ की खोज में जाती, वहाँ ईसुरी के निशान तो मिलते, प्रेमिका का पता कोई नहीं देता था, जैसे उसके बारे में बताना किसी वेश्या का पता देना हो। ईसुरी के साथ जोड़कर लोग उसके नाम पर मजा लेते, मगर उसको अपने आसपास की स्त्री मानने से मुकर जाते। बुरा मानते की एक लड़की उस बदचलन औरत के बारे में बात कर रही है और गाँव की लड़कियों को उस बदनाम स्त्री से परिचित कराने की कोशिश में है।
एक आदमी ने विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहा था-आजकल पढ़ाई में लुच्चियायी फागें सोई पढ़ाई जाती ?
एक गाँव में एक मनचले ने मुझे घेरकर कहा था-सुनोगी, तुम्हारे लानें हम ईसुरी की फागें लाए हैं-

 

जुवना कौन यार खों दइए
अपने मन की कइए
हैं बड़बोल गोल गुरदा से, कॉ लौ देखें रइए
जब सरति सेज के ऊपर, पकर मुठी में रइए
हात धरत दुख होत ईसुरी, पीरा कैसें सइए

 

( तुम किस यार को जुबना दोगी ? इनकी बड़ी कीमत है। ये गुरदे की तरह गोल हैं। सेज पर सर्राते हैं मुठ्ठी में कस लेने को मन करता है। हाथ रखने से दुखते हैं, तुम दर्द कैसे सहोगी ?)

वह गाँव मेरी बुआ का गाँव था, मेरी बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया है ? मैं अपने ऊपर झुझलाकर रह गई क्योंकि कोई शिकायत करती तो रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार न करता, उसके रूप में मेरी देह के अक्स लोगों के सामने फैल जाते।

तब क्या मैं अपने लक्ष्य को वापस ले लूँ ? ऊहापोह में उस गाँव से सवेरे ही सवेरे अपना बैग उठाकर भागी थी, बुआ अचम्भा करती रह गई। अरे लड़की महीने भर के लिए आई थी, मगर...
‘क्या मैं विषय बदल दूँ ?’ सोचा यह भी था।
मगर अपना मन कैसे बदलूँगी ? मन जो माधव को ईसुरी के रूप में देखकर जुड़ा गया था। माधव का ध्यान करते ही चिन्ता तिरोहित-सी होने लगी। वह कॉलिज के झंझावातों में मुझ से ऐसे ही आ जुड़ा था। जुड़ाव ऐसा हुआ कि उसने भी ‘ईसुरी का बुन्देली को योगदान’ को अपने शोध का विषय बना लिया।

माधव मुग्ध भाव से बोला था- ‘‘तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है ऋतु ? ईसुरी अपने रऊद के पास आया है।’’
‘‘धत् ! वैसे भी लोग अजीब निगाहों से देखने लगे हैं। प्रतियोगिता में ईसुरी और रजऊ का रोल निभाने वाले कहीं वास्तविक प्रेम की पींगे तो नहीं बढ़ाने लगे।’’
‘‘ठीक ही सोचते हैं लोग। मैंने भी तो यही सुनकर अपने शोध का विषय बदल दिया था कि प्रतियोगिता वाली ऋतु खुद को रजऊ समझने लगी है। मुझे भी ईसुरी होना है।’’
‘‘आज देख लो माधव मैं खाक छान रही हूँ।’’

माधव ने हँस कर कहा- ‘‘दोनों मिलकर खाक छानेंगे, जल्दी छन जाएगी।’’ माधव की बातें ! मुझे अनचाहे ही हँसी आ जाया करती है। वह दुख को खुशी में बदलने की कोशिश करता रहता है। अन्तरविश्वविद्यालय प्रतियोगिता में जब वह ईसुरी की ओर से फागें कहता था और मैं रजऊ की ओर से गाया करती थी, वह झूमने लगता था। कौन हारा कौन जीता कभी नहीं देखता था। हारकर भी जीत की बातें, यही अदा तो मुझे नहीं लुभा गई ? मैं चिढ़ाती हूँ-माधव निहत्थे होकर शेरों के सपने देखते हो। एक दिन शेर ही तुम्हें खा जाएगा।

‘‘तुम शेर को भी वश में कर लोगी, मैं जानता हूँ। अब मेरे शोध ग्रन्थ को ही ले लो, तुम साथ रहती हो तो उसमें स्त्री -भाषा का चमत्कार घटित होने लगता है। सच में तुम स्त्री के लिए पुरूषों द्वारा गढ़ी गई भाषा को अपदस्थ कर रही हो।’’
‘‘हाय मंडली चली गई !’’ कहकर मैं बार-बार ठंडे श्वास भर रही थी। माधव मौन उदासी के हवाले था। एक वाक्य कहकर रह गया- ‘‘कैसी खरीद-फरोक्त हुई !’’ माधव आज अपने घर जाने के लिए बैग पैक कर चुका था, क्योंकि मैं अब सरस्वती देवी के साथ यहाँ थी। मंडली की फागे सुन ही नहीं रही थी, देख रही थी। कल क्या नजारा था।

यों तो गाँव था, नाट्यमंच की सभी सुविधाएँ भी नहीं थीं। पर्दा उठने-गिरने का हीला भी नहीं, मगर कुशल संयोजन की करामात कि हर दृश्य सजीव हो उठा। बिजली गुल थी, पैट्रोमैक्स जगमगा रहा था। बाहर आकाश में तैरते चाँद ने चाँदनी धरती पर उतार कर सहयोग किया था। जलती हुई मशाल भी तो फगवारों ने एक कोने में गाड़ रखी थी।

सूत्रधार के रूप में धीरे पंडा उदित हुए। वे दर्शकों का अभिवादन करने के बाद अपने साथियों को सर्वश्रेष्ठ अभिनय करने का इशारा दे रहे थे। तभी किसी दर्शक ने कहा- ‘‘सटई गाँव की सरस्वती देवी से हमें ऐसी ही मंडली की उम्मीद थी। फगवारों में अच्छा जोश है।’’ सरस्वती देवी आगे की लाइन में मेरे और माधव के पास जाजिम पर बैठी थीं। लम्बी कद-काठी की पचाससाला औरत। तीखे नैन नक्श वाला लम्बोतरा गेहुँआ चेहरा। उनका मुख जुड़ी हुई भवों के कारण विशेष लगता। वैसे वे मुझे और माधव को शोधार्थी के रूप में पाकर गौरव और उत्साह से भरी हुई थीं।

मंच के बीचों बीच नगड़िया, झींका, बाँसुरी, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य रखे थे, जिन्हें घेरकर फगवारे गोल बाँधकर बैठे थे। फगवारे लाल, नीले पीले, हरे कुर्ते और छींटदार पगड़ियों में सजे थे। सबने सफेद धोतियाँ पहन रखी थीं। गिनती में वे दस थे।

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