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अक्षरों के आगे (मास्टर जी)

भैरव प्रसाद गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :254
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3279
आईएसबीएन :0000

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अन्धविश्वासों,कुप्रथाओं पर आधारित उपन्यास....

Aksharo Ke Aage Masterji a hindi book by Bhairav Prasad Gupta - अक्षरों के आगे (मास्टर जी) - भैरव प्रसाद गुप्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


"अज्ञानवश अन्धविश्वास में फँसना एक बात है और ज्ञान होते हुए भी अन्धविश्वास का शिकार होना दूसरी बात है, शक्ति तथा क्रियाशीलता में शिथिलता आती है, यहाँ तक कि वह एकदम निकम्मा तथा असामाजिक भी हो जाता है, जैसे लाखों साधू, सन्त, फकीर, आवारे, चोर, डाकू, हत्यारे अन्य अपराधकर्मी आदि। सबसे गम्भीर बात तो यह है कि अन्धविश्वासों के कारण समाज के विकास में बड़ी रुकावटें आती हैं, आदमी की सामाजिक चेतना कुंठित हो जाती है, जिसके चलते आदमी समाज के विकास की नयी दिशा में अथवा नये मार्ग पर चलने से इनकार कर देता है।...हमारी जिंदगी ऐसी क्यों है, हम क्यों अपने अनुभवों, कुप्रथाओं से जकड़े हुए हैं, हम क्यों नहीं अपने अनुभवों से भी कुछ नहीं सीखते ?

अक्षरों के आगे-मास्टरजी

हे धर्मराज ! धर्म-विकार का नाश कर आओ, धर्ममूढ़ों को बचाओ त्रास हर जो बेदी पूजा की डूब गयी है रक्त-पंक में तोड़ो, तोड़ो उसे पूर्णतः, आज करो निःशेष अन्त में धर्म-कारा-प्राचीरों पर सत्वर वज्र प्रहार करो इस अभागे देश में ज्ञान का आलोक भरो
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर

विवाह हुए पन्द्रह वर्ष बीत गये और मास्टराइन की गोद हरी न हुई, तो वे उदास रहने लगीं। एक रात उन्होंने मास्टर साहब से कहा-क्योंजी, क्या हमारा घर इसी तरह हमेशा सूना रहेगा ?
-क्यों ?-मास्टर साहब ने पूछा-जब मैं घर पर आपके साथ रहता हूँ, तब भी आपको घर सूना ही लगता है ?
-नहीं, तब तो सूना नहीं लगता,-मास्टराइन ने बताया आप जब स्कूल चले जाते हैं, तब बड़ा सूना-सूना लगता है।
-मोहल्ले के बाल-बच्चे तो आपके पास आते-जाते रहते हैं ?
-सो तो है,-मास्टराइन ने कहा-लेकिन कोई हर घड़ी तो मेरे पास नहीं रहता। सबका अपना घर बार है, अपने काम-धाम रहते हैं।
-काम तो आपके पास भी रहते हैं,-मास्टर साहब बोले-फिर मैं आप के पढ़ने के लिए किताबें और पत्रिकाएँ भी लाता हूँ। पढ़ने में मन नहीं लगता क्या ? मुझे तो किताबें मिलती रहें, तो मैं हमेशा पढ़ता ही रहूँ।
-वो तो मैं छुट्टियों के दिन देखती ही हूँ। लेकिन मैं...-क्या कहानियों और उपन्यासों के पात्र आपका साथ नहीं देते, आपसे बातें नहीं करते, आपको अपनी दुनिया की सैर नहीं कराते, आपका मन नहीं बहलाते ? मैंने यही सोचकर तो आपको पढ़ना-लिखना सिखाया है कि आपको मेरे यहां अकेले रहना पड़ता था, आपको पढ़ना आ जाएगा, तो आपका फालतू वक्त कुछ पढ़कर मजे से कट जाया करेगा। मैं तो सोच ही नहीं सकता कि उस आदमी का वक्त कैसे कटता है, जिसके पास फालतू वक्त होता है, लेकिन जो पढ़ नहीं सकता।
-आप ठीक कहते हैं, मास्टराइन ने कहा-लेकिन मैं अपने मन की क्या बताऊं ? मेरा मन इधर बहुत उचाट रहने लगा है। मैं हमेशा यही सोचती रहती हूँ कि क्या मेरी गोद में कोई शिशु नहीं खेलेगा ? इतने दिनों तो आशा बंधी रही, लेकिन अब, वह भी टूटने लगी है। कितने दिन बीत गये। जो भी औरत मेरे पास आती है, कहती है, यों हाथ-पर-हाथ धरे कब तक बैठी रहोगी ? मास्टर साहब से क्यों नहीं कहती कि कुछ करे-धरें। उनका देवी-देवताओं में साधू-फकीरों में विश्वास नहीं, तो डाक्टरों में तो है। वे किसी डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते ?

सुनकर मास्टर साहब हंस पड़े। फिर बोले-मैं जानता था कि एक-न-एक दिन आप यह बात मुझसे जरूर कहेंगी...
-लेकिन मैं कह न पाती थी, क्योंकि मैं देखती थी कि आप कितने निश्चिन्त, कितने प्रसन्न, कितने सन्तुष्ट रहते हैं। घर और स्कूल, स्कूल और घर। स्कूल में बच्चे और घर में मैं, अखबार और किताबें, काग़ज और क़लम। जैसे और कुछ आपके जीवन में हो ही नहीं, जैसे इस दुनिया में आपके लिए और कुछ हो ही नहीं। न और किसी से मिलना-जुलना, न बात-चीत। बहुत हुआ, तो नमस्ते-नमस्ते। ऐसे में मैं अपने मन के किसी दुख की कोई बात आपसे कहकर आपके शान्त-सुखी जीवन में अशान्ति तथा दुख का विष बोने का दुस्साहस कैसे करती ?
-वाह-वाह !-मास्टर साहब के मुंह से उद्गार निकल पड़ा-कैसी सुन्दर, प्रांजल, धारा-प्रवाह भाषा आप बोलती हैं ! सुनकर अशान्त और दुखी क्या, मेरा मन तो गद्गद हो उठा। आप कुछ लिखने का भी प्रयत्न क्यों नहीं करतीं ?
शरमाकर मास्टराइन ने मुंह फेर लिया-जाइए ! मैं कुछ नहीं बोलूंगी।
-अरे ! इसमें शरमाने की क्या बात है ?-उंगलियों से उनके गले के पीछे गुदगुदाते हुए मास्टर साहब उल्लसित होकर बोले-आपको याद है, जब मैं पहली बार आपको विदा कराके ले आया था, आप कैसी भाषा बोलती थीं ?
...रउरा घर में अउर केहू नइखे ? बियाह में केवनो हित-पहुनो ना आइल रहले हं ?...घूंघट में से पहली बात आपने यही कही थी न ? मुझे आज तक याद है।
-हां,-घूमकर मास्टराइन बोलीं-लेकिन इसमें याद रखने की कौन-सी बात है ? मैंने तो आपके घर में और किसी को न पाकर यह सवाल आपसे पूछा था और वही बोली-बोली थी, जो मैंने अपनी मां से सीखी थी।
-ओह ! वह कितनी मीठी लगी थी !-मास्टर साहब बोले-जैसे कानों में टपककर मन को मधु से शराबोर कर गयी हो ! क्या आप अब भी वह बोल सकती हैं ?

-वह तो मेरी घुट्टी में पड़ी है-मास्टराइन ने बताया-मैं तो यहां बच्चों से, औरतों से इसी बोली में अब भी बतियाती हूँ।
-तो मुझसे भी आप इसी बोली में बात क्यों नहीं करतीं ?
-आपसे मैं करूं ?-हंसकर मास्टराइन बोलीं-आप तो हमारी नहीं, अपनी भाषा बोलते हैं। आपने कितने परिश्रम से अपनी भाषा बोलना और पढ़ना मुझे सिखाया है। क्या आपके माता-पिता ने बचपन में ही यह भाषा सिखायी थी ?
-पिता की तो मुझे याद नहीं और माताजी से मैंने जो जबान सीखी, वह मैं बोलूं, तो आप हंसती-हंसती लोट-पोट हो जाएंगी। मेरी माताजी वह ज़वान बोलती थीं, जैसे बंगाली लोग हिन्दी बोलते हैं या हिन्दीवाले बंगाली बोलते हैं। वे कई बरस तक हाबड़ा में रह चुकी थीं।
-तो फिर अब वह जबान आप क्यों नहीं बोलते ?
जब तक माताजी रहीं, मैं घर में उनके साथ वही जबान बोलता था। अब किसके साथ वह जबान बोलूं। स्कूल में मास्टर लोग हिन्दी बोलते थे और हिन्दी पढ़ते थे। उनसे और पुस्तकों से मैंने हिन्दी सीख ली और वही बोलने और लिखने लगा।
-लेकिन यहां के लोग हमारी ही बोली बोलते हैं। आपने यह बोली क्यों नहीं सीखी ?
-यहां के लोगों ने हमारा बहिष्कार कर रखा था। कभी-कभी वे माता जी और मुझसे बोलते भी तो वही ज़बान बोलने की कोशिश करते थे, जो मेरी माताजी बोलती थीं। अब मैं सोचता हूं, तो लगता है कि इसी बहिष्कार और ज़बान और बोली के कारण यहां के लोगों के साथ हमारा कोई आत्मीय संबंध न बन सका। आप देखती हैं न, मैं किसी से कोई बात नहीं करता। पहले जब मैं उनकी बोली में उनसे बात करता था, वे हंसते थे और वे जब मेरी ज़बान में मुझसे बात करते थे, तो मैं हंसता था। अब मैं हिन्दी में उनसे बात करता हूँ, तो वे ऐसी हिन्दी बोलने लगते हैं कि मुझे सहन नहीं होती। फिर हमारे बीच संवाद कैसे हो ? समझीं ? ग़लत-सलत सुनकर मेरा मन खराब हो जाता है, जैसे ग़लत सुर में कोई संगीत सुनकर संगीत-प्रेमी का मन खराब हो जाता है।...अच्छा, हेडमास्टर साहब घर में कौन-सी भाषा बोलते हैं ?
पिताजी घर में हमारी ही बोली में बात करते हैं। वे सभाओं में भी बोली में ही भाषण देते हैं, आपने कभी सुना नहीं है ?
-नहीं, मैं किसी सभा में कहां जाता हूं ? स्कूल में तो वे हमेशा हिन्दी में ही बातें करते हैं। अच्छा, उन्होंने आपको पढ़ाया क्यों नहीं ?

-उनके पास मुझे पढ़ाने के लिये समय कहां था ? वे सुबह खा-पीकर स्कूल जाते, तो रात के बारह बजे से पहले कभी नहीं लौटते।
-स्कूल की छुट्टी तो चार बजे हो जाती है। उसके बाद वे कहां जाते थे क्या करते थे ?
-आपको नहीं मालूम ?
-मुझे तो किसी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। आप तो इतने दिनों से देख रही हैं, मैं स्कूल के सिवा और कहीं आता-जाता हूँ ?
-पिताजी को तो दूर-दूर तक लोग जानते हैं। वे यहां के नेता हैं। उन्हें घर की कोई चिन्ता नहीं रहती। रात-दिन वे देश का काम करते हैं। इसी को लेकर माताजी उनसे हमेशा लड़ती-झगड़ती रहतीं। वे कहतीं, ऐसा ही था तो आपने विवाह क्यों किया, बेटी क्यों पैदा की ! अकेले रहते और दिन-रात मिटिंग-सभा करते। इस पर पिताजी कहते, ग़लती तो हो गयी, अब मैं क्या कर सकता हूँ ? माताजी कहतीं, कर क्यों नहीं सकते ? हम दोनों को ले जाकर किसी कुएं में डाल दें। फिर निर्द्वन्द्व होकर मिटिंग-सभा करते रहें या जेल जाकर रोटी तोड़ें। इस पर पिताजी कहते, राम-राम ! यह आप मुझे यह क्या करने को कहती हैं ? मिटिंग-सभा तो मुझसे नहीं छूटेगी, जेल भी जाता-आता ही रहूँगा, लाठी-गोली भी हंसते-हंसते खा लूंगा, लेकिन आपको और प्यारी बिटिया क्रान्ति को तो...तो, माताजी कहतीं, मैं तो रो-गाकर किसी तरह जिन्दगी काट लूंगी, लेकिन आपकी प्यारी बिटिया यह क्रान्ति कुआंरी ही कब तक बैठी रहेगी ? पहले तो आप हंस-हंसकर कहते थे कि जब क्रान्ति हो जाएगी, तो बेटी के विवाह में कोई कठिनाई नहीं होगी। हमारे राज में बेटे-बेटी में कोई अन्तर नहीं होगा। लेकिन आपकी वह क्रान्ति तो अब तक जाने कहां सोयी पड़ी है, और यह प्यारी बिटिया क्रान्ति तो सयानी हो गयी। अब इसका क्या होगा ? इस पर पिताजी कहते, आप घबराइए नहीं, जिस देश-समाज का मैं इतना काम करता हूँ, वह क्या मेरा एक काम नहीं करेगा ? और माताजी यह कहकर चुप लगा जातीं कि मैं यह भी देखती हूँ न कि आपका देश-समाज आपका यह काम कब करता है।...और एक दिन पिताजी ने माताजी को बताया, क्रान्ति के लिए एक युवक का पता चला है। लेकिन अभी उसे मैंने देखा नहीं है। आप..वे बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि बीच में ही माता जी उतावली में पूछ बैठीं, कौन है ? कहां का है ? परिवार कैसा है ? खेती-बाड़ीवाले हैं या काम-धन्धेवाले या नौकरीपेशा ? लड़का देखने में कैसा है ? बताइए, मुझे सब बताइए ? पिताजी हंसकर बोले...
-अरे, आप मुस्करा क्यों रहे हैं ?

-यों ही,-मास्टर साहब बोले-आप बोलती जाइए ! इतने बरसों बाद आज आपको इतना और इस तरह धारा-प्रवाह बोलते पाकर मुझे कितनी खुशी हो रही है, मैं बता नहीं सकता। यह सच ही कहा गया है कि कहानी औरतों की चीज़ है, वे हर बात को कहानी बनाकर प्रस्तुत करती हैं। आप आगे कहिए !
-नहीं, -सिर हिलाकर मास्टराइन ठुनकीं-बहलाने, बहकाने और फुसलाने में मर्द माहिर होते हैं। मैंने तो अपने मन के दुख की एक बात कही थी, और कैसे आपने मेरे माता-पिता की बात छेड़ दी। मैं मूर्ख की तरह आपके बहकावे में आ गयी और अपनी बात छोड़कर...
-नहीं, ऐसा आप मत सोचिए,-मास्टर साहब ने कहा-और मर्दों की मैं नहीं जानता, किन्तु मैं किसी को भी क्यों बहलाऊं या बहकाऊं-फुसलाऊं जब मेरा किसी से कोई सम्बन्ध ही नहीं।
-क्यों ? मेरे साथ भी क्या आपका कोई सम्बन्ध नहीं है ?
-राम-राम ! यह कैसा सवाल आप कर बैठीं ? माताजी के बाद मेरा अगर किसी के साथ कोई सम्बन्ध हुआ है, तो वह आपके साथ ही हुआ है। लेकिन आपको मैं क्यों बहकाऊं या बहलाऊं-फुसलाऊंगा ? हमारे बीच क्या कभी ऐसी कोई बात आयी है, जब मैंने आपको बहकाया या बहलाया-फुसलाया हो ?
-लेकिन आज तो...
-नहीं, आज भी मैंने वैसे कुछ नहीं किया है। आज ही तो, सही माने में, हम दो के बीच पहली बार संवाद का सम्बन्ध स्थापित हुआ है। आज के पहले, आपको याद है, हमारे बीच कभी इतनी लम्बी बातें हुई हैं ?
-आप ही तो ज्यादा बात नहीं करते थे,-इसी कारण न कि बात-चीत में समय व्यर्थ व्यतीत न हो और मैं अध्ययन करती रहूँ ?

-वाह-वाह !-मास्टर साहब के मुंह से फिर एक उद्गार निकल पड़ा
-वाह-वाह क्या ?-मास्टराइन कुछ न समझकर अचकचा गयीं।
-समझीं नहीं ?-खुश-खुश मास्टर साहब ने पूछा।
-नहीं।
-मैंने अभी तो बताया था, अब आप कितनी प्रांजल भाषा बोलने लगी हैं ! सुनकर अनायास मेरे मुंह से वाह-वाह निकल...
-जाइए ! –मास्टराइन फिर शरमा गयीं।
-सच कहता हूँ, मैं आज बहुत खुश हूँ...
-आप मेरी बात का जवाब दीजिए !
-हां, एक बड़ा कारण तो वही था। मैं चाहता था कि आपको अधिक-से-अधिक समय पढ़ने को मिले।
-और दूसरा ?
-दूसरा तो मैंने आपको थोड़ी देर पहले ही बताया था। आप भूल गयी क्या ?
थोड़ी देर सोचकर मास्टराइन बोलीं-याद नहीं आ रहा। बता दीजिए, आप मेरे गुरु भी तो हैं !
-वही बोली और भाषा...
-ओ ! तो क्या आपको मेरी भी बोली असह्य लगती थी ?
-नहीं, आपकी बोली नहीं, आपकी वह ज़बान वह असह्य लगती थी, जो आप मेरी नकल कर बोलने की कोशिश करती थीं।
-तो आपने बताया क्यों नहीं, मैं अपनी बोली में ही आपसे बात करती ?
-मैं जो आपकी बोली नहीं बोल सकता था।
-उससे क्या, मैं अपनी बोली बोलती और आप अपनी भाषा।
-तब वह बात कहां बनती, जो आज बनी है। आज जो हमारा संवाद का सम्बन्ध बना है और हम इतनी बातें कर रहे हैं, यह कैसे सम्भव होता ? फिर एक बात और थी।

-वह क्या ?
-हम किस विषय पर बातें करते ? रोज़ाना की ज़िन्दगी की बातें बहुत छोटी-छोटी होती हैं। आदिम जाति के लोग और गांवों-शहरों के अपढ़-गंवार लोग भी वे बातें कर लेते हैं। उन्हें उन्हीं थोड़े से शब्दों की जानकारी होती है, जिनका सम्बन्ध उनके धंधे से और सामाजिक व्यवहारों से होता है। इनके बाहर वे किसी अन्य विषय पर बातें नहीं कर सकते, बहस करना तो दूर। आप ही बताइए, आपने जिन शब्दों का प्रयोग आज अपनी बातों में किया है, उनका प्रयोग आप पहले अपनी बातों में कर सकती थीं ?
-नहीं, तब मुझे इन शब्दों का ज्ञान कहां था ?
-अब बताइए, इन शब्दों का ज्ञान आपको कैसे हुआ ?
-पुस्तकों से। लेकिन मेरा धन्धा तो..
-क्या आपका धन्धा अब वही रह गया है, जो पहले था ?
-और नहीं तो क्या ?
-ज़रा सोचकर बताइए ! शब्दों के ज्ञान का सम्बन्ध स्वयं ज्ञान से है। अधिक शब्दों में ज्ञान का अर्थ अधिक ज्ञान है। जिसे अधिक ज्ञान होता है, वह अधिक सोच-समझ भी सकता है।
-हाँ। एक काम बढ़ा है। अब मैं पढ़ती-लिखती भी हूँ।
-ठीक। अब आपका धन्धा घर और चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं है। अब आप पढ़ने-लिखने का भी धन्धा करती हैं। पुस्तकें ही शब्दों का भांडार हैं, ज्ञान का भांडार हैं। इसीलिए बुद्धिजीवियों को सबसे अधिक शब्दों का ज्ञान होता है ज्ञान की भी कितनी ही शाखाएं हैं, बुद्धिजीवियों के भी धन्धे अलग-अलग हैं। प्रत्येक धन्धे का ज्ञान उस धन्धे से सम्बन्धित पुस्तकों से प्राप्त होता है। जिसे जिस धन्धे को अपनाना होता है, वह उस धन्धे से सम्बन्धित पुस्तकों को पढ़ता है, विशेष शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है और इस प्रकार वह इस धन्धे का विशेषज्ञ बन जाता है। एक इंजिनियर जो धन्धा करता है, वह एक डाक्टर नहीं कर सकता। वैसे ही एक डाक्टर जो धन्धा करता है, वह एक इंजिनियर नहीं कर सकता। इसी तरह दो इंजीनियर आपस में अपने धन्धे के बारे में बहुत बातें और बहसें कर सकते हैं, लेकिन एक इंजिनियर और एक डाक्टर के बीच बहुत बातें या बहसें नहीं हो सकतीं, क्योंकि इनके ज्ञान अलग-अलग प्रकार के होते हैं, इनके ज्ञान की शब्दावली अलग-अलग प्रकार की होती है। वे एक-दूसरे की बातें नहीं समझ सकते। यही हाल प्रत्येक धन्धे और उसे करने वाले का होता है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि समान पंखवाले पक्षी एक जगह इकट्ठे होते हैं। अध्यापकों का अपना संगठन है, वकीलों का अपना, साहित्यकारों का अपना संगठन है; और पत्रकारों का अपना, व्यापारियों का अपना संगठन है और उद्योगपतियों का अपना, किसानों का अपना संगठन है और मज़दूरों का अपना, विद्यार्थियों का अपना संगठन है और खिलाड़ियों का अपना। अपने-अपने संगठन में ये एकत्रित होते हैं और अपनी-अपनी समस्याओं पर खूब बातें और बहसें करते हैं। समझीं आप ?

मास्टराइन ने सिर हिलाकर कहा-हां, गुरुजी !
-अब आप यह बताइए, -मास्टर साहब ने पूछा-आपकी रुचि किस धन्धे में हैं ?
-मैं घर का काम-काज तो करती ही हूँ,-मास्टराइन ने कहा-और मैं कौन-सा धन्धा कर सकती हूँ ?
-देखिए, अपने घर का काम-काज तो प्रायः सभी स्त्रियाँ करती हैं, लेकिन अब बहुत सारी स्त्रियां ऐसी भी हैं, जो अपने घर के काम-काज के साथ कोई और भी धन्धा करती हैं। किसानिनें खेतों में काम करती हैं। मजदूरिनें कारखानों में काम करती हैं। बहुत सारी स्त्रियां स्कूलों में पढ़ाती हैं, कार्यालयों में काम करती हैं। बहुत-सी डाक्टर हैं, नर्स हैं। अब तो प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में आपको स्त्रियां काम करती दिखायी पड़ जाएंगी।
-भला मैं और कौन-सा धन्धा कर सकती हूँ ?
-हमारे समाज में हजारों तरह के काम हैं। इनमें से बहुत-सारे काम तो अपढ़-गंवार लोग ही करते हैं। फिर ऐसे भी काम हैं, जिनके लिए साधारण पढ़ाई-लिखाई जरूरी होती है। ऐसे भी काम हैं, जिनके लिए हुनर की ज़रूरत पड़ती है और ऐसे भी काम है, जिनके लिए उच्च शिक्षा-दीक्षा की आवश्यकता होती है। ये सभी लोग समाज के लिए कोई-न-कोई काम करते हैं। किसान समाज के लिए अन्न का उत्पादन करते हैं, मजदूर कारखानों में कपड़ों, चीनी, तेलों, साबुनों, सिमेंट, दवाइयों, साइकिलों आदि हज़ारों वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इंजिनियर यन्त्र, भवन, पुल, सड़कें, रेल, मोटर, हवाई जहाज आदि बनाते हैं। डाक्टर बीमार लोगों का इलाज करते हैं। अध्यापक और अध्यापिकाएं बालक-बालिकाओं को पढ़ाते हैं। वकील लोगों के मुकद्दमें लड़ते हैं, साहित्यकार लोगों के लिए कविता, कहानी, उपन्यास आदि लिखते हैं। अन्य कितने ही विद्वान अपने-अपने विषय के ग्रन्थ लिखते हैं। तात्पर्य यह कि समाज का प्रायः प्रत्येक व्यक्ति समाज के लिए कोई-न-कोई काम ज़रूर करता है। इसी से समाज चलता है, जनता का जीवन चलता है। अब आप बताइए कि आप समाज के लिए कौन-सा काम करती हैं ?

-मैं जो काम करती हूँ, वह आपको मालूम नहीं ?-मास्टराइन कुछ न समझकर यही बोल सकीं।
-मालूम है। आप जो काम करती हैं, वह हम दो के लिए करती हैं, मेरे लिए और अपने लिए, समाज के लिए तो नहीं। इसलिए आपके काम का कोई सामाजिक मूल्य नहीं, कुछ महत्त्व भले हो। इसीलिए यह कहा जाता है कि जो स्त्री समाज के लिए काम नहीं करती, वह घर की दासी होती है, अपने पति की दासी होती है, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता, निजत्व नहीं होता समझीं ?
मास्टराइन मुंह बंद कर रह गयीं। उनसे कुछ कहते न बना।
-इसी दासता से मुक्ति प्राप्त करने, अपना व्यक्तित्व तथा निजत्व प्राप्त करने के लिए स्त्रियां आन्दोलन कर रही हैं, पढ़-लिख रही हैं, काम-धन्धा कर रही हैं। अब समझीं ?
-हूँ,-मास्टराइन बोलीं-तो क्या यही सोच-समझकर आपने मुझे पढ़ाया लिखाया है ? अब आप मुझसे कोई काम-धन्धा करवाएंगे ?
-आप ही तो कह रही थीं न, कि आपका मन उचाट रहता है, पढ़ने के मन नहीं लगता।
-लेकिन वो तो...वो...तो
-वो तो मेरे हाथ में नहीं हैं...
-क्यों नहीं हैं ? क्या आप डाक्टर को नहीं दिखा सकते ?
-दिखा सकता हूँ। लेकिन सच पूछिए, तो मैं तो इसे वरदान ही समझता हूँ कि हमारे कोई बच्चा नहीं हुआ...
-यह क्या कहते हैं आप ?-बीच में ही चकित मास्टराइन बोल पड़ीं।
-जैसे आपने अपने मन की बात कही थी, वैसे ही मैंने भी अपने मन की बात कह दी। सच बात तो यह है कि मैं तो विवाह ही नहीं करना चाहता था...
-क्या ? –दुबारा चकित मास्टराइन के मुंह से निकल पड़ा। उन्होंने कब सोचा था कि मास्टर साहब कभी इस तरह की बातें अपने मुंह से निकालेंगे।

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