लोगों की राय

सांस्कृतिक >> वंश वृक्ष

वंश वृक्ष

भैरप्पा

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :292
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3286
आईएसबीएन :9788188118274

Like this Hindi book 14 पाठकों को प्रिय

63 पाठक हैं

जीवनगत निर्णयों के उद्दाम स्त्रोतों से प्रस्फुटित कई जीवन लीलाओं के तटों को निर्धारित और ध्वस्त करती इस कथा में लेखक के द्वंद्वों को स्वर देने का काम उसके नायक करते हैं तथा मानो यह सब घटित होते हैं पाठक के साथ। कृति, कृतिकार और पाठक के त्रिकोण का यह अंतरंग संबंध ‘वंशवृक्ष’ की एक अन्य तथा अन्यतम उपलब्धि है।

Vansh vriksh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कन्नड़ के विख्यात उपन्यासकार भैरप्पा ने प्रस्तुत उपन्यास में वंशावली के आदि और जटिल प्रश्नों पर आधारित जिस गहन एवं मर्मस्पर्शी कथा का ताना-बाना बुना है, वह भारतीय मनीषा की प्रश्नाकुलता की ऊर्जा है और हमारी वंशीय परम्परा का राग-अनुराग एवं विराग भी। जीवन के लिए निर्धारित लक्ष्यों को अर्जित कर लेना, अपने ‘वंश’ को आगे बढ़ाने का स्वस्थ संकेत है, अथवा संतति के माध्यम से ही वंशीय परम्परा का वहन सहज सम्भव हो सकता है-अपने उपलक्ष्य में यह कृति इन प्रश्नों से भी जूझती है। वंशजों के रक्त-संबंधों की शुचिता की आशंकाएँ तथा सरोकार भी इस कथा में जहाँ-तहाँ तैरते हुए नए भावबोध और अवधारणाओं से हमारा सामना कराते हैं।

भैरप्पा के उपन्यासों के पाठक जानते हैं कि अपने पात्रों की बहुविधि दुनिया का जैसा सजीव शब्दांकन वह करते हैं, वह विलक्षण है। ‘वंशवृक्ष’ के सभी पात्र स्वयं में सम्पूर्ण हैं-मनुष्यगत अपूर्णताओं के साथ। वे परम्परा के साथ संवाहक और भंजक हैं तथा उनकी यही ‘अनायासता’ उन्हें एक सच्चे और खरे आदमी के चरित्र में कायांतरित कर देती है। इसी कारण यह कृति कथा हम सबकी देह और आत्मा को बारंबार छूकर निकलती है। इसमें वर्णित देह और नेह की फुहारों से आप-हम रोमांचित और संवेदनशील हो उठते हैं। लक्ष्यार्जन के पश्चात मृत्यु को जिस सहजता और कृमिकता के साथ लेखक यहाँ अवतरित करता है, वह यमलीला सहज स्वीकार्य प्रतीत होती है इस उपन्यास में।

एक अंचल विशेष का वर्णन होते हुए भी यह कृति अखिल भारतीय या कहें कि वैश्विक मनोजगत की प्रतिनिधि रचना है। जो जीवन के संबंधों, संयोगों और सहभावों से संरचित है। जीवनगत निर्णयों के उद्दाम स्त्रोतों से प्रस्फुटित कई जीवन लीलाओं के तटों को निर्धारित और ध्वस्त करती इस कथा में लेखक के द्वंद्वों को स्वर देने का काम उसके नायक करते हैं तथा मानो यह सब घटित होते हैं पाठक के साथ। कृति, कृतिकार और पाठक के त्रिकोण का यह अंतरंग संबंध ‘वंशवृक्ष’ की एक अन्य तथा अन्यतम उपलब्धि है।

 

वंशवृक्ष
1

 

 

1924 में कपिला नदी में भयंकर बाढ़ आई थी। तब से नंजनगूडु की जनता ऊँचे स्थानों पर बसने लगी। किन्तु श्रीनिवास श्रोत्रिय का घर अभी तक राजमहल वाली सड़क पर है। अब देवालय के आसपास जो पाठशाला, नारायणराव का अग्रहार, दुकानें हैं, उनका महत्त्व कुछ घट चला है।

बुज़ुर्गों का बनवाया पुराना घर छोड़कर नयी जगह जाना सरल नहीं होता है। श्रीनिवास श्रोत्रिय के लिए इसकी कल्पना भी असंभव है। कपिल ने उन्मत्त् हो, अपने को फैलाकर प्रचंड वेग से लगातार पाँच दिन तक पूरे नगर को संत्रस्त कर दिया गया था। जिस तरह मंद-मधुर संगीत अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर अर्थात् नाद-लय-ताल में लीन होता है, उसी तरह कपिला अपनी शांत गति से प्रबलतम गति तक पहुँच गई थी।

शुद्ध श्वेतवर्णी कपिला मानो अब चुनरी ओढ़कर चली जा रही थी। सभी उसके इस रूप से भयभीत हो उठे थे। अपने सम्पूर्ण कल्मष को एकबारगी धो देने का संकल्प करके जैसे वह अट्टहास कर रही थी। कितने लोग इस प्रलयंकर बाढ़ के ग्रास बने, कितने मकान इसमें धराशायी हुए, कितने परिवार निराश्रित हुए, इन सबका स्पष्ट चित्र किसी को दिखाई नहीं दे रहा था।

श्रोत्रियजी के घर में घुटनों पानी भर आया था। इस तबाही के लिए सारे गाँव ने नदी को कोसा, लेकिन श्रोत्रियजी ने ऐसा नहीं किया। ‘गंगे च यमुने चैव’ का उच्चारण करते हुए उन्होंने घर की देहली के पास ही डुबकी लगाई। उस घर को छोड़ जाने का आग्रह उनके आठ वर्षीय पुत्र नंजुंड़, पत्नी भागीरतम्मा, नौकरानी लक्ष्मी-तीनों ने किया था। लेकिन श्रोत्रियजी न माने। उन्होंने कहा- ‘‘इतने बरसों से जो माता संरक्षण देती आई है, अब उसके थोड़ा-सा उग्र रूप धारण कर लेने पर क्या भाग जायें ?’’ ऊपर की मंजिल पर चूल्हा जलाकर खाना पका लो। अंतत: बाढ़ उतरी। प्रवाह धीमा पड़ा। नदी फिर नियत स्वरूप के अनुसार बहने लगी।

श्रीनिवास श्रोत्रिय का पुत्र नंजुंड श्रोत्रिय बड़ा हुआ। मैसूर के कालेज में पढ़ने लगा। माता-पिता ने कात्यायनी के साथ उसका विवाह कर दिया। एक बालक जन्मा। बालक छह माह का था कि बाढ़ में नंजुंड की मृत्यु हो गई। कपिला ने उसे निगल लिया। वह तैरना जानता था, प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष की शक्ति भी उसकी बाहों में थी। पिता के समान ऊँचा, हृष्ट-पुष्ट, गौर वर्ण, आजानुबाहु था, विशाल माथा था, लेकिन नदी कि विकरालता के सम्मुख उसकी एक न चली। वह उमड़-घुमड़कर बहनेवाली उस नदी में तैरने नहीं, बल्कि सतर्क होकर मणिका घाट पर स्नान करने उतरा था। पैर फिसला। किनारे लगने के उसके सारे प्रयत्न विफल हुए। किनारे पर खड़े लोग चिल्लाने लगे। उसने भी आवाज दी, लेकिन देखते ही देखते वह भँवर में फँस गया। नदी-किनारे ही उसका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
छह महीने बीत गये।

इकलौते पुत्र की अकाल मृत्यु से माता-पिता की चिंता अधिक है या बीस साल की उम्र में ही पति को ग्रसने वाली उसकी प्रेममयी पत्नी की चिन्ता ? एक के दु:ख को, दूसरे की नजर से आँकना असाध्य कार्य है। पुत्र-वियोग से माँ एक ही महीने में बूढ़ी हो चली। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि बेटे की मृत्यु के लिए रोये या नई बहू को देखकर तरस खाये अथवा निश्चिंत मुस्कराते, निद्रामग्न एक वर्षीय पौत्र को उठा लेती। आँखें भर आतीं। पास खड़ी बहू सिसक-सिसककर रो उठती। सास स्वयं धीरज धर, बहू को सीने से लगा लेती। सुख-दु:ख से अनजान बच्चा हँसता रहता। सास-बहू को सान्त्वना प्रदान करने वाला वही तो था।

एक दिन दोपहर को कोई दो बजे कात्यायनी ऊपरी मंजिल के कमरे में पालने के पास बैठी थी। पालने में बच्चा सो रहा था। मन अतीत के बारे में सोच रहा था। शादी हुए केवल दो ही साल हुए थे। प्रिय और जी-जान से प्यार करनेवाला पति, देव-तुल्य सास-ससुर और सारे घर को चाँदनी-सी चमक देने वाला पुत्र-अर्थात्, किसी भी बहू को सन्तुष्ट करा देनेवाला परिवार मिला था। ससुर के सात्विक स्वभाव, वेदशास्त्रों के अगाध ज्ञान ने इस परिवार को समाज में विशेष गौरव प्राप्त कराया था। कात्यायनी को पति का हँसता हुआ चेहरा, उसका प्रेमल स्वभाव सदा आनन्द देते थे। उसे और चाहिए भी क्या था ? इस सब पर उसे अभिमान भी था। और अब छह महीने पहले, एक दिन कपिला ने उसके सुखी संसार को सदा के लिए नष्ट कर दिया। उस दिन से आज तक उसने जो आँसू बहाये, वे कपिला के बहाये पानी से कम न थे !

उसके मन में कभी-कभी जीवन के अर्थ को लेकर प्रश्न उठते। लेकिन इन सबको उसकी बुद्धि पकड़ न पाती। कात्यायनी ने इण्टरमीडिएट पास किया था। साहित्यकारों के जीवन के संबंध में उनके विचार पढ़े थे। उसने उन विचारों को मन में उलटा-पलटा; किन्तु कोई भी उसे अपनी इस घोर विपत्ति का कारण नहीं समझा पाया। सीढ़ियों पर किसी के आने की आहट सुनाई पड़ी। कात्यायनी ने मुड़कर देखा। ससुर आ रहे थे। बच्चा सोया था, फिर भी सिर तनिक झुकाकर वह पालना झुलाने लगी। श्रोत्रियजी विचार-मग्न थे। उन्होंने बहू को नहीं देखा। सीधे दूसरे कमरे में चले गये। यह कमरा उनका स्वाध्याय-कक्ष था। कमरे में पांड़ुलिपियाँ, छपे ग्रन्थ और उन्हीं के हाथ की लिखी कुछ पुस्तकें हैं। एक स्थान पर कलम और स्याही रखी है। खिड़की के पास बाघ-चर्म बिछा है, जिस पर तकिया रखा है ताकि दीवार से टिककर बैठ सकें। सामने व्यासपीठ है। कम-से-कम तीस साल से इस कमरे में वे वेदशास्त्र, पुराण धर्मशास्त्र, आयुर्वेद आदि का अध्ययन कर रहे हैं।

 पुत्र की मृत्यु से लेकर उसकी उत्तरक्रिया तक वे इस कमरे में नहीं आये। सब समाप्त होने के पश्चात् भी एक-दो सप्ताह तक इस कमरे में प्रवेश नहीं किया था। पत्नी और बहू को सान्त्वना देते हुए उनके साथ ही रहते थे। अब पूर्ववत् अध्ययन-कक्ष में आने लगे हैं। पत्नी की भागीरतम्मा नौकरानी लक्ष्मी के साथ रहतीं। कभी-कभी बहू के पास बैठ जातीं। वे पुत्र की याद करके आँसू बहाती रहतीं, तो कात्यायनी पति का स्मरण करके। नौकरानी जो भागीरतम्मा की ही उम्र की थी, चुपचाप तड़पती रहती। लेकिन कात्यायनी ने ससुर की आखों में कभी एक बूँद आँसू भी नहीं देखा। वह जानती है कि वे पाषाणहृदय नहीं हैं, लेकिन उनकी सहन-शक्ति की गहराई उसकी ग्रहण-शक्ति की पकड़ के परे थी।

शाम होने को आई, बच्चा अभी तक सो रहा था। कात्यायनी का मन अपार चिंताओं में डूबा था। पीछे खड़े ससुर की पुकार उसे ऐसी लगी मानो कोई दूर से आवाज दे रहा हो- ‘बेटी !’
कात्यायनी ने मुड़कर देखा। श्रोत्रियजी सीढ़ी के पास खड़े हैं। वह उठ खड़ी हुई। नीचे उतर रहे श्रोत्रियजी फिर ऊपर आ गये और पास के ही खम्भे के पास बैठकर कहने लगे- ‘‘बैठो बेटी !’’
कात्यायनी सिर झुकाककर मूक-सी बैठी रही। जब से घर की बहू बन आई है, तब से उनमें पिता-पुत्री का-सा व्यवहार है। लेकिन पति की मृत्यु के पश्चात् वह उनसे कभी नहीं बोल पाती थी। अत: श्रोत्रियजी ने ही पूछा-‘‘बेटी, जैसा कि मैंने कहा था, भगवद्गीता पढ़ती है न ?’’
कात्यायनी ने कोई उत्तर नहीं दिया। दो मिनट बाद उन्होंने प्रश्न दोहराया, तो कहा- ‘‘पढ़ने की कोशिश की किन्तु समझ नहीं पाती। और फिर मन भी नहीं लगता।’’

‘‘जितना समझ में आये, उतने से संतोष करना चाहिए। धीरे-धीरे सब समझ में आ जायेगा।’’
एक क्षण चुप रहकर कात्यायनी ने कहा- ‘‘भगवद्गीता का दर्शन मेरी समझ के परे है। मेरे दु:ख को दूर करने की शक्ति किसी वेदांत में नहीं है। पढ़ने से क्या लाभ ?’’
श्रोत्रियजी विषाद से हँसकर सान्त्वना के स्वर में कहाँ- ‘‘यह सच है कि हर एक को अपना दु:ख स्वयं भोगना पड़ता है। कोई ग्रन्थ या व्यक्ति उसे अपने ऊपर नहीं ले सकता। लेकिन इन ग्रन्थों से मालूम होगा कि इस महान जगत की घटनाओं के साथ तुलना करने पर हमारा दु:ख कितना छोटा है। इस दु:ख को सहना भी सरल होगा जब हम समझ जायेंगे कि वह भी भगवान की इच्छा का एक अंश है। इसलिए कहता हूँ कि ध्यान देकर पढ़ो....।’’

श्रोत्रियजी समझा ही रहे थे कि बच्चा जाग उठा। शायद नींद पूरी नहीं हुई थी, वह रोने लगा। ‘‘बच्चे को चुप करा लो’’- कहकर वे नीचे चले गये। कात्यायनी बच्चे को दूध पिलाने बैठ गयी। बच्चा चुप हुआ। जब उसे पति की याद आने लगती, वह बच्चे को छाती से और अधिक चिपका लेती। मन कुछ हलका होता। इसके सिवा और किसका आसरा है उसे !
दूध पी चुकने के बाद बालक खेलने लगा और माँ के चेहरे को नाखूनों से खरोंचता हुआ हँसने लगा। एक बार पूरे घर को सुनाता-सा ज़ोर से हँस पड़ा। हँसी सुनकर दादा ने पुकारा-‘‘चीनी !’’

कात्यायनी बालक को लेकर नीचे आई। श्रोत्रियजी बालक को अपने कंधे पर बैठाकर घर के पीछे बाड़े में चले गये। कात्यायनी रसोईघर में चली गई। सास रसोई में लगी थी। कात्यायनी चुपचाप खड़ी रही। बहू को देख, सास ने कहा- ‘‘बेटी, तू अकेली मत बैठ। जितनी अकेली रहेगी उतनी ही अधिक चिन्ता होगी। कभी मेरे पास, कभी लक्ष्मी के पास बैठ जाया कर। कुछ बोलती रहा कर। गाय-बछड़ों के काम में लग जाया कर। कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। इससे थोड़ा तो भूलेगी। यों खड़ी क्यों है बैठ जा।’’ फिर वह अपने काम में जुट गई। कुछ याद कर कहा- ‘‘नहीं, बैठकर अँगीठी की ओर ध्यान रख। कुछ उबले तो मुझे आवाज़ देना। मैं भगवान की पूजा की तैयारी करके आती हूँ। उनके आने का समय हो चुका है।’’ वह देवपूजा के कमरे में चली गई।

सायं संध्या-देवार्चना समाप्त कर श्रोत्रियजी जब पूजागृह से बाहर निकले, तब रोज़ की तरह रात के आठ बज चुके थे। पूजागृह से सीधे घर के पिछवाड़े संध्या-वंदन की सामग्री को केले के पौधे के पास डालकर पुन: जब पूजा गृह की ओर जाने लगे तो कात्यायनी ने कहा- ‘‘मैसूर से डॉ. सदाशिवलाल आये हैं, दीवानखाने में बैठे हैं।’’
‘‘कितनी देर हुई है ?’’
‘‘करीब दो घंटे हुए होंगे। आप तब संध्या करने बैठे ही थे।’’

और वेदमंत्रों का पाठ न कर, पूजा के पात्रों को  भीतर रखकर श्रोत्रियजी बाहर आये। डॉ. सदाशिवराव क़रीब पैंतीस वर्ष के हैं। आँखों पर चश्मा चढ़ा है। सिर के काफी बाल सफेद हो गए हैं। और लगता है कि वेशभूषा की ओर ध्यान कम ही दिया गया है। वह दीवानखाने में एक कुर्सी पर बैठे संस्कृत की कोई पुस्तक देखने में मग्न थे। श्रोत्रियजी की आवाज़ पर ही आँखें ऊपर उठाईं। ‘‘आपको आये काफी देर हुई-प्रतीक्षा करनी पड़ी-क्षमा करें।’’

‘आप बड़े हैं। क्षमा की बात ही क्या ? मुझे और कोई काम भी तो नहीं है, फिर मैं तो फुरसत से ही आया हूँ।’’
कुर्सी पर बैठते हुए श्रोत्रियजी ने पूछा- ‘‘आपका ग्रन्थ कहाँ तक पूरा हुआ ?’’
‘‘वह प्रकाशित हो चुका है। लंदन के एक प्रकाशक ने प्रकाशित किया है। आपको उसी की प्रति भेंट करने के लिए आया हूँ।’’- कहकर सदाशिवराव ने थैली से एक पुस्तक निकालकर श्रोत्रियजी को दी। सैकड़ों पृष्ठों का सुन्दर ग्रन्थ-‘प्राचीन भारतीय राजतंत्र को धर्म की देन’। श्रोत्रियजी ने पहला पन्ना पलटा, कन्नड़ में लिखा था- ‘‘पूज्य श्रीनिवास श्रोत्रियजी को भक्तिपूर्वक.....सदाशिवराव।’’

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book