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गान्धार की भिक्षुणी

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : शब्दकार प्रकाशित वर्ष : 1982
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3351
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक

Gandhar Ki Bhikshuni

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

यह विष्णुजी का ऐतिहासिक नाटक है। एक नाटक की पृष्ठभूमि है - हूण आक्रान्ता मिहिर कुल का भारत पर आक्रमण और उसके प्रबल प्रतिरोधी नायक यशोधर्मन, जिसे जनेन्द्र के नाम से संबोधित किया गया है। यह किसी राजवंश का प्रतिनिधि न होकर जनसाधारण के प्रतिनिधि के रुप में इतिहास पटल पर उभरा है। इतिहास की पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक पात्रों के आधार पर लेखक ने आज के समाज पर एक सार्थक टिप्पणी के रुप में इस नाटक को प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिक होते हुए भी यह याचक पूरी तरह आज के संदर्भ का है।

भूमिका


इस नाटक की कथा भारत के प्राचीन काल के अन्तिम दौर की कथा है। वाकाटक-गुप्त-युग का भारतवर्ष अपनी जिस सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि के लिए विख्यात है उसी की अंतिम झलक इस ऐतिहासिक नाटक में देखने को मिल सकती है। यह शान्ति-युग की समाप्ति और मध्यकाल के आरंभ की कथा है और इस कथा का ऐतिहासिक नायक है जनेन्द्र यशोधर्मन। नाटक की कथा का भी वह एक प्रमुख पात्र है। नायकत्व का भार सहज ही उसके कन्धे से उतर कर एक नारी पर जा पड़ा है। नाटक का आरम्भ करते समय वह नारी मेरे सामने नहीं थी, पर जैसे ही शब्द काग़ज़ों पर अंकित होने लगे तो उन शब्दों के पीछे से आनन्दी की आकृति उभर उठी। वह आकृति उस युग की बेदना और बलिदान की आकृति है। उस युग के इतिहास में उसका नाम भले ही न लिखा हो, पर तत्कालीन पीड़ित जनता की, जनता के उस अद्भुत विद्रोह की वह प्रतीक है। इसीलिए लेखक ने उसको सहर्ष स्वीकार कर लिया। और रास्ता ही न था।

नाटक के ऐतिहासिक नायक यशोधर्मन के इतिहास का अभी तक कोई सर्वसम्मत निर्णय नहीं हो सका है। यह बात नहीं कि उसके बारे में खोज नहीं हुई। इतनी हुई कि वह ऐतिहासिक से पौराणिक अवतार बन गया। वायु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड और कल्कि पुराणों में उसका वर्णन आता है। जायसवाल ने यशोधर्मन और कल्कि भगवान की तुलना पर एक लेख लिखा है (इंडियन एन्टीक्युएरी-1917)। विक्रम सम्वत का चलाने वाला विक्रमादित्य भी वह बना है। कुछ विदेशी इतिहासकारों ने तो कालिदास आदि नवरत्नों को उसी के दरबार में खोज निकाला है। गुप्तों के बाद का भारत-सम्राट तो, उसे अनेकों ने माना है। परंतु सत्य यह है कि इतिहास उसके बारे में कोई विशेष प्रामाणिक सामग्री उपस्थित नहीं करता। उसके कुल, और यहाँ तक कि नाम के बारे में भी मतभेद रहा है। वह किसी राज-वंश से था या साधारण जनसेवक रहा, इस बारे में भी विवाद है। जो एकमात्र प्रमाण उसकी कथा पर प्रकाश डालता है वह एक प्रस्तर स्तंभ है जो आज भी दशपुर (वर्तमान मन्दसौर, जो मध्य प्रदेश में स्थित है)  में पड़ा हुआ है। यह वास्तव में विजय स्तंभ है। इस पर लिखा है-‘‘उसने उन प्रदेशों को भी जीता जिन पर गुप्त-सम्राटों का आधिपत्य नहीं था और न जहाँ राजाओं के मुकटों को ध्वस्त करने वाले हूणों की आज्ञा ही प्रवेश कर पायी थी। लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) से लेकर महेन्द्र पर्वत (उड़ीसा) तक और गंगा से स्पृष्ट हिमालय से लेकर पश्चिम पयोधि तक के प्रदेशों के सामन्त उसके चरणों पर लोटते थे। मिहिरकुल ने भी, जिसने भगवान शिव के अतिरिक्त और किसी के सामने सिर नहीं नवाया, अपने मुकुट के पुष्पों द्वारा युगल चरणों की अर्चना की।’’

ये भुक्ता गुप्तनार्थन सकलवसुधाक्रान्तिदृष्टप्रतापे
नार्ज्ञा हूणाधिपानां क्षितिपतिमुकुटाध्यासिनी यान्प्रविष्टः।
चूणा पुष्पोपहारैमिहिरकुलनृपेणार्चितं पादयुग्मम्।।
                (1.1.3.नं. 33, पृष्ठ-146, 148)

हुएन-त्साँग तथा देववर्णिक और सारनाथ के लेखों के आधार पर गोकुलदास वन्द्योपाध्याय ने बालादित्य को हूण विजेता माना है। वस्तुतः बालादित्य किसी राजा का नाम नहीं था। यह तत्कालीन राजाओं का सामान्य विरुद हो गया था। इसलिए अब इतिहासकारों ने यह मान लिया है कि हूणों को पराजित करने वाला बालादित्य गुप्त-वंश का अंतिम सम्राट भानुगुप्त बालादित्य था। इसके राज्यकाल के बारे में मतभेद है, पर लेखकों ने सोच-विचार कर पं. जयचन्द्र विद्यालंकार के काल-निर्णय को मान लिया है जो लगभग 508-528 ई. है। कुछ काल के लिए अर्थात् 510 ई. में एरण (तत्कालीन मालवा की एक प्रधान नगरी) के युद्ध के बाद से लेकर लगभग 527 ई. तक, जब उसने मिहिरकुल को गंगा के कछार में भटका कर क़ैद कर लिया था, उसे तोरमाण के बेटे मिहिरकुल को अपना अधिपति मानना पड़ा था। क़ैद करके भी अपनी माँ के कहने पर उसने हूण-सम्राट को छोड़ दिया था। उसका परिणाम भारत को भुगतना पड़ा। इधर-उधर भटक कर जब मिहिरकुल को काश्मीर में शरण मिली तो सम्भवतः आर्यों ने सोचा होगा कि चलो हूण सदा के लिए परास्त हो गये। परन्तु मिहिरकुल चुप बैठने वाला नहीं था। उसने अवसर पाते ही अपने शरणदाता को नष्ट करके काश्मीर का राज्य हथिया लिया। ‘‘तब फिर उसने गांधार पर चढ़ाई की और वहाँ जघन्य अत्याचार किये। हूणों के दो तीन आक्रमणों से तक्षशिला सदा के लिए मटियामेट हो गया।’’1

तब तक भानुगुप्त की मृत्यु हो चुकी थी। उसके उत्तराधिकारी थे या नहीं थे—इस बारे में कोई निश्चित मत नहीं है। पर वे हों तो और न हों तो, उत्तराकालीन गुप्तों ने हूणों का डट कर मुक़ाबिला नहीं किया। ‘‘पंजाब, थानेसर और मालवा को गुप्त-सम्राट हूणों से न बचा सके, तब वहाँ की सारी प्रजा हूणों के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई। उसका अगुआ ‘जनता का नेता’ यशोधर्मन नाम का एक व्यक्ति था। उसने वह काम कर दिखाया जो गुप्त सम्राटों के वंशज न कर सके थे।’’ इस नाटक का ऐतिहासिक नायक यही जनता का नेता (जनेन्द्र) यशोधर्मन है। यूँ कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मालवा के राजा यशोधर्मन और मगध के राजा बालादित्य ने हूणों के विरुद्ध एक संघ बनाया था और भारत के शेष राजाओं के साथ मिलकर मिहिरकुल को परास्त किया था। यह बात अब असत्य प्रमाणित हो चुकी है। भले ही यशोधर्मन गंगा के कछार वाले युद्ध में रहा हो (जैसा कि लेखक ने भी माना है, वह था), पर वह राजा नहीं था। उस काल में वहाँ कोई माण्डलिक नरेश, जो हूणों का आधिपत्य मानता था, राज्य करता था। और जब यशोधर्मन ने मालवा में विद्रोह का नेतृत्व करके हूणों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा तब वालादित्य मर चुका था। इसलिए उन दोनों के मिलकर मिहिरकुल को परास्त करने
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1.    जयचन्द्र विद्यालंकार—इतिहास प्रवेश
की बात जयचन्द्र विद्यालंकार की तिथियों के अनुसार ग़लत है। जो कुछ किया वह अकेले यशोधर्मन ने किया। वह राजवंश से संबंध नहीं रखता था और न उसने अपना कोई राजवंश स्थापित किया।

यशोधर्मन के विजयस्तम्भ को सच स्वीकार करें तो मानना पड़ेगा कि भारत के बहुत बड़े भाग पर उसका आधिपत्य था। पर वास्तव में इस प्रशस्ति में अतिशयोक्ति और अतिरंजन है। कवि अर्थशास्त्र में विश्वास नहीं करता, फिर भी इतना तो सच ही है कि कम-से-कम मध्यभारत में उसने हूणों की शक्ति समाप्त करके एकच्छत्र शासन स्थापित किया। भगवतशरण उपाध्याय ने ‘प्राचीन भारत के इतिहास’ में लिखा है-‘‘प्रमाणित है कि यह सम्राट मालवा का था और अधिकतर उसके प्रताप और शासन का प्रसार हूणों की मालवा भूमि पर ही हुआ था। इसमें कुछ संदेह नहीं कि उसकी प्रशस्ति में अतिरंजन है परंतु यह निश्चित है कि उसने मिहिरकुल को पराजित कर मालवा में हूणों की शक्ति तोड़ दी। सम्भवतः उनको मालवा से निकालने के ही उपलक्ष्य में उसने अपना विक्रमादित्य विरुद धारण किया।’’1

यशोधर्मन और मिहिरकुल का युद्ध सन् 532 से कुछ पूर्व हुआ होगा, पर इतिहासकार मानते हैं कि मिहिरकुल उसके 10-15 वर्ष बाद तक जीवित रहा। उसके मरने पर हूण-शक्ति टूट गयी। धीरे-धीरे हूण हिन्दू समाज में घुलमिल गये और आज की हिन्दू जाति के अनेक स्तर हूणों की देन हैं।

लेखक ने इस नाटक की कथा को मालवा से हूणों के बहिष्कार तक ही सीमित रखा है। इसलिए यह प्रशस्ति के अतिरंजन से बच गया है। आनन्दी गांधार की पंडिता भिक्षुणी है। उसकी प्रतिहिंसा के बलिदान में परिणत होते ही नाटक की कथा समाप्त हो जाती है, पर इसी बीच में जनेन्द्र यशोधर्मन का पाठकों को यथेष्ठ परिचय मिल जाता है। वह इतिहास के जनेन्द्र से बहुत दूर नहीं है। नाटक के दूसरे पात्रों में भी तत्कालीन या मध्यकाल के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। नाटक में द्रोणसिंह का नाम आया
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1.    पृष्ठ 393
है। वह सौराष्ट्र (काठियावाड़) में छठी शती के आरंभ में जो मैत्रकवंश स्थापित हुआ था। उसका वंशज था। उसका समूची पृथ्वी के एक स्वामी अर्थात् गुप्त-सम्राट ने स्वयं राज्याभिषेक किया। मैत्रकों का राजवंश तब से वलभी नगरी (भावनगर के पास) में स्थापित हो गया।1 कुमार कीर्तिवर्मा को लेखक ने मौखरियों का प्रतिनिधि मान कर लिया है। जयचन्द्र विद्यालंकार की मान्यता के अनुसार ‘‘मौखरी लोग पहले-पहल हूणों के युद्ध में प्रसिद्ध हुए, संभवतः ये यशोधर्मन की सेना की हरावल में रहे थे।’’ वहीं इन्होंने पिछले गुप्तों के मुक़ाबले में, अंतर्वेद के ठीक बीच में, दक्खिन पंचाल की राजधानी कन्नौज में अपना राजवंश स्थापित किया। सम्राट हर्ष की बहन राज्यश्री का विवाह इसी वंश के राजा ग्रहवर्मा से हुआ था। इस नाटक में एक सामंत नरवर्धन की चर्चा भी है। वह कुरुदेश के वैसवंश का सामन्त था। इसी ने वैस वंश को राजवंश बनाया। इसकी राजधानी स्पाणच्या (वर्तमान थानेसर) थी। जयचंद्र विद्यालंकार के अनुसार, कुरुदेश का वैशवंश भी हूणों के युद्धों में प्रसिद्ध हुआ।2 मध्यकाल का प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन इसी राजवंश का भूषण था।

इनके अतिरिक्त जो पात्र हैं उनके नाम इतिहास के पन्नों पर उस स्याही से नहीं लिखे गये हैं जो पढ़ी जा सके। वे सब अदृश्य स्याही के पीछे छिपे हुए हैं। और कुछ भी क्यों न हो, वे इतिहास की किसी मान्यता को झुठलाते नहीं है, बल्कि उसको वैज्ञानिक रीति से प्रमाणित करते हैं। मिहिरकुल के अत्याचारों की मूर्तिमयी प्रतिमाएँ भिक्षुणी, आनन्दी, मालव सेनापति मारुत की कन्या मालवी, शैव गुरु और श्रेष्ठि हरिगुप्त आदि हैं। कवि और जनता, विद्रोह की साक्षी देने के लिए नाटक में आये हैं। हूणों की शक्ति उन्हें युद्ध में परास्त करने पर ही नहीं तोड़ी जा सकती। नाटक के यशोधर्मन के शब्दों में उनकी राजनीतिक शक्ति तोड़कर उन्हें समाप्त करने का एक एकमात्र वैदिक मार्ग उन्हें अपने में आत्मसात कर लेना है। इसी के लिए हूण कन्या भारती और मिहिरकुल की बेटी शाहज़ादी की सृष्टि हुई है। शाहज़ादी का भविष्य नाटक में स्पष्ट नहीं किया गया।

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1.    जयचन्द्र विद्यालंकार : इतिहास प्रवेश, पृष्ठ 161,
2.    वही, पृष्ठ 159
उसका कारण यह है कि यशोधर्मन की कहानी ही पूरी नहीं होती।
उस युग में सवर्ण विवाह का स्वर उठने लगा था, परंतु अभी जन्म-सवर्ण का विचार दृढ़मूल नहीं हुआ था। इस बात का वर्णन इस नाटक में भी आता है और यह हूणों के अत्याचार से उत्पन्न जान पड़ता है। बाद में ये हूण आर्यों में मिल गये। चेदिराज गयाकर्ण की माता तथा चेदिराज कर्ण की राजमहिषी अवंती देवी हूणवंश की थी।1 उसके बाद आर्यों में वर्जनशीलता बढ़ गयी। यशोधर्मन ने इस बात की चेतावनी दी है। वह वस्तुतः एक अद्भुत चरित्र है। राजा न होकर भी वह जनता का नेता है। राजवंश स्थापित न करके वह वंश-परंपरा से होने वाले राजाओं की प्रथा का खंडन करता है। राजवंश के उस युग में वह प्रजातंत्र का अग्रदूत है, पर शायद तत्कालीन समाज इस बात के लिए तैयार नहीं था, इसलिए वह भावना राजाओं की अराजकता के भँवर में फँस कर नष्ट हो गयी। यशोधर्मन के शांति युग के साथ हमारे इतिहास का प्राचीनकाल समाप्त होता है।

यह तो इतिहास की कहानी है। नाटक की सारी कथा उसी को प्रचारित करती है। फिर भी शुष्क इतिहास को पीछे छोड़कर उसमें मानवीय भावना ऊपर आ गयी है। उसके बिना नाटक, नाटक न बन पाता। लेखक तो मानता है कि वह भावना अब भी कम ही रह गयी है। उस काल के रीति-रस्मों की चर्चा करते समय लेखक ने हरिदत्त वेदालंकार की पुस्तक भारत का सांस्कृतिक इतिहास से भी सहायता ली है। श्री हजारी-प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित प्राचीन भारत का कला-विकास तो सामने रहा ही है। वेशभूषा के लिए डॉक्टर मोतीचन्द्र की ‘प्राचीन भारत में वेशभूषा को लेखक ने आधार माना है। यह नाम इसलिए गिनाये हैं कि नाटक में जो कुछ है उसे प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया है। कल्पना की आड़ लेकर इतिहास के तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा नहीं है और न कथा को ही विकृत किया है। हूणों के रूप रंग और स्वभाव का वर्णन भी इतिहास के सर्वमान्य आधार पर किया है। उनकी
 
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1.    एप्रीग्रेफ़िया इंडिया वोल्यूम, 11, पृष्ठ 309
बनावट और व्यवहार में आततायीपन था। जितना नरसंहार उन्होंने किया उतना किसी और जाति ने नहीं किया। मिहिरकुल का पिता तोरमाण इस बात को समझ गया था कि भारत में भारतीय बनकर ही रहा जा सकता है। उसने यहाँ का धर्म भी स्वीकार कर लिया था, परंतु मिहिरकुल ने उसकी नीति का विरोध किया। उसने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया, परंतु सफल नहीं हुआ। कहते हैं, यह विद्रोह उसने बौद्धों के उकसाने पर किया था। पर समय पर साथ न देने पर वह उनका कट्टर शत्रु हो गया और उसने शैव मत धारण कर बौद्धों और बौद्ध-विहारों को नष्ट करने की ठान ली। भगवतशरण उपाध्याय के शब्दों में-वह पिता से भी अधिक नृशंस था और क्रूरता के कार्यों से बड़ा प्रसन्न होता था। हुएन-त्साँग और कल्हण, दोनों ने उसकी क्रूरता का वर्णन किया है। चीनी यात्री ने लिखा है कि मिहिरकुल बौद्धों के प्रति असहिष्णुता का व्यवहार करता था। उन्हें वह मरवा और उनके विहारों तथा स्तूपों को जलवा देता था। उसका एक विचित्र व्यसन हाथियों का वध करना था। हाथी पहाड़ की चोटी पर चढ़ाकर नीचे गिरा दिये जाते थे। गिरते हुए हाथियों का कातर चिंग्घाड़ उसे बड़ा प्रिय लगता था।1 हूण लोग वैसे वराह-अवतार की उपासना करते थे।

इस नाटक की कथावस्तु इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। बालादित्य और फिर यशोधर्मन के प्रयत्नों के बावजूद देश में स्थायी शांति स्थापित न हो सकी, बल्कि कुछ ऐसी राजनीतिक और सामाजिक कुरीतियाँ पनप उठीं जिन्होंने आगे चल कर देश की न केवल राजनीतिक शक्ति को दुर्बल किया बल्कि सभ्यता और संस्कृति को भी विकृत कर दिया। जनता का न राजा में विश्वास रहा और न पंचायत राज ही पनप सके। उनके स्थान पर जातीय पंचायतें पैदा हो गयीं। राजा लोग या तो युद्ध करते थे या फिर विलास में डूबे रहते थे। जनता का उनसे कोई सम्पर्क नहीं रह गया था। इस कारण भी राष्ट्रीय शक्ति दुर्बल पड़ रही थी। सबसे बुरी बात तो यह थी कि हिन्दू संस्कृति में संकोच का आरम्भ हो गया था। यद्यपि

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1.    प्राचीनकाल का इतिहास, पृष्ठ 292
हूणों को आर्यों ने अपने में मिला कर क्षत्रियों का पद दिया, पर साथ ही रक्तशुद्धि की भावना बलवती हो उठी। इसलिए अन्तर्जातीय विवाह और दूसरे पारस्परिक संबंधों की बात पीछे छूटने लगी। यह सब जाति-भेद के दोष के कारण हुआ। इस नाटक में इन सब बातों का आभास मात्र है।
फिर भी यह मानना पड़ेगा कि जिन हूणों ने यूरोप और एशिया में रक्त की नदियाँ बहायी थीं और जो अत्याचार का साकार रूप बन गये थे उन्हें भारत के आर्य निगल गये। हूण वास्तव में तातारी थे और मध्य एशिया की जेई-सेई नदियों के उत्तर-पूर्वी तुर्किस्तान के निवासी थे। ईरान, काबुल और कंधार जीतकर उन्होंने जब सन् 455 में भारत पर आक्रमण किया तब स्कन्दगुप्त की बलिष्ठ भुजाओं ने उन्हें वापिस लौटने पर विवश किया। विलासी गुप्त-सम्राट कुमारगुप्त के ये अंतिम दिन थे। स्कन्दगुप्त के राज्यकाल (455-467) में वे फिर न लौटे। पर सन् 500 में गान्धार के हूण राजा तोरमाण शाही जऊव्वल ने गुप्त-साम्राज्य को दुर्बल पाकर पंजाब से मालवा तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया। उसके बाद की कथा नाटक में आ ही जाती है।

कला-साहित्य की भी नाटक में चर्चा आयी है। वाकाटक-गुप्त युग की सभ्यता और संस्कृति भारत के स्वर्ण-युग की सभ्यता और संस्कृति है। इस युग में कला और साहित्य ने जो उन्नति की वह भारत के इतिहास में अद्वितीय है। इसलिए उसकी चर्चा का इस नाटक में होना अनिवार्य था। वैसे मैंने साहित्य और कला-प्रेम का संतुलित उपयोग ग्राह्य माना है। असंतुलित कला-प्रेम विलास है। गुप्तों के पतन का एक कारण उनका असंतुलित कला-प्रेम भी माना जाता है। इस नाटक का कवि बार-बार सांस्कृतिक दिग्विजय का दावा पेश करके भी विलासिता का विरोध करता है। वह जितनी कुशलता से कविता कर सकता है, उतनी खूबी से तलवार भी चला लेता है।

आज का भारत इस युग की कथा से बहुत कुछ सीख सकता है। सीखने का अर्थ उस युग को वापिस लाना नहीं है, पर उसकी भावना को आत्म-सात करके तत्कालीन परिस्थितियों से जूझना है। सम्राटों के युग में जनेन्द्र का उदय कोई कम क्रांतिकारी घटना नहीं है और फिर उदय होकर इतने शीघ्र अस्त हो जाना कई कारणों से अध्ययन का विषय है।
सन् 1952 में ‘समाधि’ के नाम से मैंने एक नाटक लिखा था लेकिन दो संस्करण हो जाने के बाद अनेक कारणों से मैंने उसे वापिस ले लिया था। अब उसी नाटक के एक अंश को लेकर उसे जिस नये रूप में प्रस्तुत किया है वह आज की स्थिति पर एक सार्थक टिप्पणी है।

मुझे विश्वास है कि सुधि पाठक उस टिप्पणी को समझ सकेंगे।
जिन पुस्तकों से सहायता ली गयी है उनका नामोउल्लेख ऊपर हो चुका है। उनके अतिरिक्त भी अनेक पुस्तकों, पत्रों और पत्रिकाओं से सहायता ली गयी है। कई परिचित और अपरिचित मित्रों को भी कष्ट दिया है मैंने। वे सब मेरी कृतज्ञता के अधिकारी हैं, विशेषकर कवि देवराज ‘दिनेश’। यदि वह अपनी स्वाभाविक सहृदयता के कारण इस नाटक के गीत न लिख देते तो यह निश्चय ही विरस हो रहता।

-विष्णु प्रभाकर


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