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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (अमृतलाल नागर)

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3381
आईएसबीएन :81-7016-652-7

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दस कहानियाँ : किस्सा बी सियासत भठियारिन और एडीटर बुल्लेशाह का, एक दिल हजार अफसाने, जंतर-मंतर, मन के संकेत, लंगूर का बच्चा, शकीला की माँ, सती का दूसरा ब्याह, ओढ़री सरकार, सूखी नदियाँ तथा पाँचवा दस्ता...

10 pratinidhi kahaniyan a Hindi Book by Amritlal Nagar - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - अमृतलाल नागर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दस प्रतिनिधि कहानियाँ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक महत्वाकांक्षी कथा-श्रंखला है, जिसमें हिंदी कथा-जगत् के शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है। इस सीरीज़ में सम्मिलित दिवंगत कथाकारों की कहानियों के चयन के लिए उनके कथा-साहित्य के प्रतिनिधि एवं अधिकारी विद्वानों तथा मर्मज्ञों को संपादन-प्रस्तुति हेतु आमंत्रित किया गया है। यह हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने प्रिय कथाकार की दस प्रतिनिधि कहानियों को चुनने का दायित्व गंभीरता से निबाहा है। किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए अग्रज कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। हिंदी के अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार अमृतलाल नागर के प्रस्तुत संकलन में वरिष्ठ साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं : किस्सा बी सियासत भठियारिन और एडीटर बुल्लेशाह का, एक दिल हजार अफसाने, जंतर-मंतर, मन के संकेत, लंगूर का बच्चा, शकीला की माँ, सती का दूसरा ब्याह, ओढ़री सरकार, सूखी नदियाँ तथा पाँचवा दस्ता। संपादक द्वारा लिखी गयी पुस्तक के भूमिका के माध्यम से अमृतलाल नागर की समग्र कथा-यात्रा और उसके महत्व से भी सहज ही परिचित हुआ जा सकता है। हमें विश्वास है कि इस प्रस्तुति के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक अमृतलाल नागर की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद संतोष का अनुभव करेंगे।

अमृतलाल नागर : एक श्रेष्ठ गल्पशिल्पी


हिन्दी कहानी पर किताबघर प्रकाशन कई वर्षों से एक सुचिंतित योजना के अंतर्गत एक पुस्तक-श्रृंखला प्रस्तुत कर रहा है। ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ नाम से इस श्रृंखला में प्रत्येक उल्लेखनीय कहानी-लेखक का संग्रह प्रकाशित किया जाता है। कई प्रकाशन सामने आ चुके हैं, कई आने वाले हैं, पं० अमृतलाल नागर ने वैसे तो उपन्यास और कहानियों के अलावा हास्य-व्यंग्य नाटक, संस्मरण, जीवनी, रिपोर्ताज़, निबंध और प्रचुर मात्रा में बाल-साहित्य भी लिखा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उनका प्रथम प्रेम कहानी ही है। 1916 में जन्मे नागर जी ने अपेक्षाकृत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था और उन्नीसवें वर्ष अर्थात् 1935 में ‘वाटिका’ नाम की जो पहली पुस्तक छपी, वह उनका कहानी-संग्रह ही है। यह और बात है कि इन अत्यधिक भवोच्छवासमयी कहानियों की ज़मीन और मिज़ाज से-जो धुंधले तौर पर आरंभिक जयशंकर प्रसाद या विनोदशंकर व्यास की याद दिलाता है-नागर जी के बाद में जो कहानियाँ लिखीं, वे सर्वथा भिन्न हैं। ‘बाद में’ से मेरा मंतव्य उस कालखंड से ही नहीं है जब नागर जी आयु और लेखन-दोनों में ही प्रौढ़ हो चुके थे, बल्कि 1935 के तुरंत बाद के वर्षों से भी है। इस संग्रह की कहानी ‘शकीला की माँ’, जो अपनी भीषण यथार्थधर्मिता में कुछ अतिरिक्त नाटकीयता के बावजूद, भूख के आतंक में मानवीय अधोगति के चित्रण के साथ मूलतः नारी-शोषण और सामजिक ह्रास की कहनी है, 1936 में लिखी गई थी। ‘वटिका’ के भावुकतापूर्ण संसार से ‘शकीला की माँ’ की ओर नागर जी के प्रस्थान के पीछे उनका निजी साहित्यिक व्यक्तित्व तो है ही, एक और भी प्रेरणाप्रद प्रसंग है।

नागर जी का मानना है कि उनकी इस दृष्टि के विकास में प्रेमचंद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वास्तव में ‘वाटिका’ की एक प्रति नागर जी ने प्रेमचंद को भी भेजी थी। अपने 12 मई, 1935 के पोस्टकार्ड में प्रेमचंद ने उन्हें लिखा :
प्रिय अमृतलाल जी,
‘वाटिका’ मिली। धन्यवाद।
यह तो गद्य-काव्य की-सी चीजें हैं। मैं रियलिस्टिक कहानियाँ चाहता हूँ, जिनका आधार जीवन पर हो, जिनसे जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ सके। मैंने वाटिका के दो-चार फूल सूँघे। अच्छी खुशबू है। आलोचना करूँगा।

शुभाकांक्षी
प्रेमचंद

बहुत बाद में, डॉ. बिंदु अग्रवाल को दिए गए एक साक्षात्कार में नागर जी कहते हैं : ‘‘प्रेमचंद के इस वाक्य ने एक तरह से मेरी जन्मपत्री ही बदल दी। वे चिंतन और लेखन में मोड़ लाने का एक कारण बने।’’

इस प्रकार 1936 से ही नागर जी के सामाजिक चिंतन और लेखन में ‘वाटिका’ की मानसिकता से विच्छेद प्रकट होने लगता है। ‘शकीला की माँ’ 1938 में छपे उनके कहानी-संग्रह ‘अवशेष’ में संग्रहीत है। उसे, और इसी संग्रह के ‘जंतर-मंतर को, इस संग्रह में उस दौर की प्रतिनिधि रचनाओं के रूप में शामिल किया गया है। (वास्तव में, अगस्त, 1985 के ‘सारिका’ के विशेषांक में, जो नागर जी पर ही केंद्रित था, नागर जी ने स्वयं ‘शकीला की माँ’ को अपने आरंभिक दौर के लेखन की प्रतिनिधि रचना मारकर पुनर्प्रकाशित कराया है।) ‘अवशेष’ में ऐसी अनेक कहानियाँ हैं, जिनमें जन-जीवन की आशा-निराशा, उसके संघर्ष, उसकी विडंबनाएँ, उसकी दुर्गति आदि के प्रति नागर जी के लगाव और उसकी यथार्थमूलक दृष्टि का परिचय मिलने लगता है।

नागर जी ने 1934 से लेकर 1982 तक के विस्तीर्ण कालखंड में-लगभग आधी शताब्दी तक कहानियाँ लिखी हैं। इनकी संख्या 78 है और कुछ और भी हैं जो ‘अमृतलाल नागर रचनावली’ में नहीं आ पाई हैं। प्रेमचंद, जैनेंद्र, यशपाल आदि की तुलना में कहनियाँ संख्या में कम हैं। फिर भी नागर जी की कहानियाँ कई अर्थों में जैनेंद्र, अज्ञेय आदि के रचना-संसार से अलग दीखती हैं। प्रेमचंद की समाजदृष्टि और उनके साहित्य से बहुत प्रभावित होने के बावजूद, और कई अर्थों में प्रेमचंद की परंपरा के वाहक समझे जाने पर भी नागर जी की कहानियों का संसार प्रेमचंद के कथा-संसार से भी काफी भिन्न है। नागर जी की एक श्रेष्ठ गल्पशिल्पी हैं और कई बार पाठक उस शिल्प के चमत्कार से इतना अभिभूत हो जाता है कि उनकी कहानियों की अंतर्निहित अनुगूंजों, उनकी बहुस्तरीयता और बहुआयामिता के तत्त्वों की तत्काल पहचान नहीं करता। फिर भी ये तत्त्व उसे जीवन की गहन अनुभूतियों में डुबाने की क्षमता रखते हैं। कहानियों की इसी जटिल प्रकृति के कारण इनमें से दस प्रतिनिधि कहानियाँ चुनने का काम अंततः मेरे लिए सरल नहीं सिद्ध हुआ जितना कि शुरू में जान पड़ा था।
असली कठिनाई नागर जी की संवेदना की विस्तीर्ण जनजीवन के प्रति उनके गतिशील चिंतन में है। इस विस्तीर्णता और गतिशीलता के ही कारण उनकी अधिकांश कहानियाँ शुरू तो होती हैं परिहासमय परिवेश-चित्रण या पात्रों से, पर कुछ ही देर में हमारा साक्षात्कार जनजीवन की किसी नई विडंबना से, या नए त्रासद अनुभव से होने लगता है। शुरू में जो एक रोचक रेखाचित्र मात्र लगा था, वही आगे चलकर साँपों की पिटारी जैसा बन जाता है। उनकी लगभग हर कहानी में ज़िंदगी का कोई न कोई नया अनुभव है, कोई न कोई नई समस्या है। इस स्थिति में उनकी हर रचना अपने आप में एक प्रतिनिधि रचना बन जाती है।

उदाहरण के लिए, अगर हम इसी संग्रह की ‘शकीला की माँ’, ‘जतर मंतर और ‘किस्सा बी सियासत भठियारिन और एडीटर बुल्लेशाह का’ को सिर्फ शैली या ऊपरी शिल्प की दृष्टि से देखें तो लगेगा कि ये एक कहानी की प्रतिनिधि हो सकती है। पर कुछ विचार करते ही यह देखा जा सकता है कि एक तो इन कहानियों का शिल्प ऊपर से ठोंके हुए ठप्पे जैसा नहीं है, जिसे यूँ ही आरोपित कर दिया गया है और दूसरे, तीनों कहानियाँ बिलकुल अलग-अलग अनुभव-संसार की उपज हैं। यही नहीं, समान-सा दीखने वाला जो शिल्प इनके लिए चुना गया है वह कहानी-विशेष की अनिवार्यता है, उसे कहानी को संश्लिष्ट रूप से प्रभावकर बनाने के लिए ही अपनाया गया है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि नागर जी की कहानियों में किस्सागोई का तत्त्व प्रबल रूप से मौजूद है, पर वह कथा-साहित्य का अपना निजी भारतीय संस्कार है, जिसे नागर जी ने अपने शिल्प-विधान में सचेत रूप से, अपने ढंग से अपनाया है। उदाहरण के लिए, उनकी कहानियों में निम्न वर्ग के विपन्न और विपद्ग्रस्त मुस्लिम पात्रों के अनेक रेखाचित्र मिलेंगे, जिनमें पुराने लखनऊ की गलियों के बोलचाल और रहन-सहन को वहीं की दिलचस्प ज़बान में-जिसका प्रयोग प्रायः संवादों में हुआ है- चित्रित किया गया है यह वही ज़बान है जो लखनऊ के पुराने, पेशेवर किस्सागो ‘अलिफ लैला की कहानियाँ’ ‘तिलिस्म होशरुबा’, ‘सैर कोहसार’ आदि की कहानियाँ नाटकीय ढंग से सुनाने में इस्तेमाल करते थे। इसी बोली-बानी और रहन-सहन के अंदाज़ में रतननाथ ‘शरशार’ ने, कुछ साहित्यिक परिष्कार के साथ, ‘फिसान-ए-आजा़द’ के लिए अपनाया था। नागर जी ने एक ऐसे ही अफीमची किस्सागो से 1936-37 के दिनों में पुराने उर्दू क्लासिकों के किस्से सुने थे और उस शैली की अपार साहित्यिक संभावनाओं के अन्वेषण और उपयोग के प्रति आकृष्ट हुए थे। उन्होंने कहा भी है, ‘‘मेरा मालिक आम पाठक था, जिसमें अमीर भी थे और गरीब भी। इसलिए किस्सागोई की रूचि को मैंने जनरुचि का किस्सा बनाकर ही पेश करने की कोशिश की।’’

पर किस्सागोई तो एक तत्त्व-भर है जो प्रथमिक रूप से पाठक को आकर्षित करने और उसकी रुचि कायम रखने में कारगर है, पर नागर जी की कहानियों के मूल तत्त्व, जिनका संकेत पहले किया जा चुका है, कहानी को एक साथ कई स्तरों पर चलाने की क्षमता और उनकी बहुआयामिता हैं। उनकी रचना में ये तत्त्व कैसे समाविष्ट होते हैं, इस प्रक्रिया का उल्लेख नागर जी ने स्वयं इन शब्दों में किया है :
‘‘मैं छोटी कहानी लिखूँ या बड़ी अथवा उपन्यास, कहानी के ढाँचे को मुख्यताः उसके चरित्रों के नाते से आगे बढ़ाता हूँ। पात्र अपने रिश्तों के कारण ही कहानी की घटनाएँ बनाते हैं, घटनाएँ बाहर की भी होती हैं और मन के भीतर की भी। चरित्र-चित्रण के माध्यम से कहानी को आगे बढाता हुआ इन घटनानुभूतियों के क्रम को मैं स्वयं चरित्रों के मनोनुकूल होकर ही आगे बढ़ाता हूँ, अपनी कल्पनात्मक सनकों को चरित्रों पर आरोपित नहीं करता।’’

दूसरे शब्दों में, नागर जी अपने पात्र पर अपना व्यक्तित्व आरोपित न करके स्वयं उसके व्यक्तित्व में समाहित हो जाते हैं और उस प्रक्रिया में उन सारी जटिलताओं को अनुभूति के स्तर पर ग्रहण करते हैं, जो सहज से सहज पात्र के भी मन को चिंताओं और गुत्थियों के रूप में पलती-रहती हैं। यह काम बडे़ रचनाकार ही कर सकते हैं।

नागर जी की कहानियों की संपूर्ण संरचना और वैविध्यपूर्ण अंतर्वस्तु को देखते हुए दस ‘प्रतिनिधि’ कहानियों के चयन में भले ही ऊहापोह की स्थिति रही हो, पर मेरी चेष्टा रही है कि इन कहानियों के माध्यम से पाठक को नागर जी के विस्तीर्ण कथा-संसार की बहुरंगी झाँकियाँ-भर न मिलें, बल्कि उनकी सामाजिक चिंताओं और उनकी संवेदना के विभिन्न आधारों का भी वह साक्षात्कार कर सके। जिस संकटग्रस्त-फिर भी परिहास-बोध में जीवंत-जनजीवन के प्रति उन्होंने अपनी समझ और एकात्मकता दिखाई है, उसमें रामविलास शर्मा के शब्दों में, ‘‘पुराने रईस, बिगड़े रईस, साहूकार, ज़मींदार, संपत्तिहीन सामंत, पुरोहित, कथावाचक, मध्यवर्ग के पढ़े-लिखे युवक, गरीबी और बेकारी का सामना करने वाले नौजवान, व्यभिचारी और पाखंडी, बड़े आदमी, हर तरह का अत्याचार सहने वाली स्त्रियाँ, अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली युवतियाँ, कथाकार, कवि, महात्मा, संत-समाज के हर स्तर के व्यक्ति नागर जी के कथा-सहित्य में मिलेंगे।’’ यही नहीं, समाज के इस व्यापक चित्रण में उनकी चिंता का प्रमुख केंद्र नारी है। एक दूसरे स्थल पर मैंने लिखा है: ‘‘यह शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय की अतिभावुक, अतिमेधावी नारी नहीं है; रंडियों भठियारियों, हरम की बीवियों, हरम में घुसने के लिए आतुर कुटिल साहसिकाओं के अलावा रूढियों और परंपराओं के जाल में घिसटती, उससे टूटने के लिए छटपटाती महिलाओं का यह विचलित करने वाला संसार है।’’ ये शब्द नागर जी के संपूर्ण कथा-साहित्य को लक्षित करके लिखे गए हैं, पर इनकी प्रासंगिकता इन कहानियों के साथ भी लक्षित की जा सकती है। नागर जी की इस विराट दृष्टि का प्रमुख कारण उनका यह सुदृढ़ विश्वास है कि ‘‘जब तक भारत देश संपन्न नहीं हो जाता, तब तक उसके साहित्य का नायकत्व दीन-हीन, दलित और संघर्षशील नर-नारी के हाथों में रहेगा।’’

नागर जी हिंदी के अत्यंत प्रतिष्ठित और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले रचनाकारों में से हैं। पर लगता है कि उनकी कहानियों को उनका प्राप्य महत्त्व अभी पूरी तौर से नहीं मिल पाया है। संभवतः कुछ हद तक उनके उपन्यासों की भव्यता और लोकप्रियता भी इसका कारण हो। यह भी हो सकता है कि पिछली शताब्दी के छठे दशक से शुरू होकर नवें दशक तक चलने वाले व्यापक कहानी अंदोलनों में जिस कोटि की कहानियाँ ज़्यादा प्रशंसित होकर उभरीं, उनके खांचे में फिट न होने के कारण इन्हें सीमित रूप में ही ग्रहण किया गया हो। जो भी हो, आशा है कि इस संग्रह से नागर जी के कहानी-साहित्य के प्रति लोगों की रूचि पुनर्जागृत होगी, पाठकों को नए सिरे से उसके रसास्वादन की प्रेरणा मिलेगी और साहित्य के पारखी भी उसके अध्ययन और पुनर्मूल्यांकन की ओर प्रवृत्त होंगे।

लखनऊ 15 अक्तूबर, 2003

श्रीलाल शुक्ला


किस्सा बी सियासत भठियारिन
और एडीटर बुल्लेशाह का



जाड़े की रात। नया जंगल। एक डाल पर तोता, एक डाल पर मैना। हवा जो सनसन चली तो दोनों काँप उठे। मैना अपने परों को समेटकर बोली कि अय तोते, तू भी परदेशी, मैं भी दूसरे देश की। न यहाँ तेरा आशियाना और न मेरा बसेरा। किस्मत ने हमारा घर-बार छुड़ाया, लेकिन मुसीबत ने हमें साथी बनाया, इसलिए अय तोते अब तू ही कोई जतन कर कि जिससे रात कटे; कोई किस्सा छेड़ कि मन दूसरा हो।

तोता बोला कि अय मैना, सुन ! मैं देश-परदेश उड़ा और सरायफानी देखी। उसके भठियारे का नाम इलाही, और भठियारिन है बी सियासत, जो ज़िंदगी की सेज से उतरने का नाम ही नहीं लेतीं। उन्हें ढली जवानी में नई-नवेली बनने का शौक चर्राया है कि अल्लह-अल्लह ! उनसे साज-सिंगार की फरमाइशों ने मियाँ इलाही की सरायफानी को सुनार की दुकान बना रखा है। चारों ओर भट्ठियाँ धधक रही हैं, दिमाग का सोना गलाया जा रहा है। हर तरफ ठक-ठक का शोर इस कदर की भठियारे मियाँ इलाही के हुक्के की गुड़गुड़ाहट ही दब गई। गाहकों की तौबातिल्ला और शिकायतों से सरायफानी का छप्पर उड़ने लगा। मगर ऐ मैना, अजब ढंग हैं बी सियायत के कि कल का खयाल ही नहीं; उन्हें तो आज ही में कल नहीं पड़ती। घड़ी में सुनारों की छाती पर सवार और दम-दम में जाम आज़ादी का दौर। ढली जावानी का बगूला इस ज़ोर से भडका कि कत्तालेआलम बन गईं। और अब तो जानेजहाँ इस बात पर मचली हैं कि हम आग से आग को बुझाएँगे।
भनक एडीटर बुल्लेशाह को पड़ी। अक्ल की फकीरी पर शक्ल की अमीरी अपनाई, खुदा के नूर पर मेहँदी रचाई, जुल्फों में तेल डाला, और फिर जो सुरमीली नज़रों को तिरक्षा घुमा के फेंक दिया तो जहान में आग लग गई। सीना-चाक, दहन फाड़कर बुल्लेशाह चिल्लाए कि ऐ बी सियासत, जाने-मन !


उल्फत का जब मज़ा है
कि दोनों हों बेकरार,
दोनों तरफ हो आग
बराबर लगी हुई।
...लो, आओ, बुझाओ !


गमक के उठीं बी सियासत, भठियारे से बोलीं, मर्दुए, अपनी दुनिया सँभाल, मैं तो चली।


बन ठन के चली मैं पी की गली
मुए काहे का शोर मचावत है।
हरजाई बनी, तोसे नाहीं बनी,
तू तो दीन की बीन बजावत है !


...ऐ निगोड़े, मैं ठहरी सियासत, मुझे तेरे चरम-ईमान से क्या काम ? तेरे ग्राहकों के चैन-आराम से क्या निस्बत ? मुझे बगलें गरमाने में मजा़ आता है। आज इसकी, कल उसकी हुई।
भठियारा बोला कि ऐ बीवी, शरीफों का चलन चल, नेकबख्त बन। बदी में मजा़ नहीं प्यारी, रग-रग, पोर-पोर में चुभन होगी, दामन चाक-चाक हो जाएगा।
मैना ने पूछा, तब !

तोता बोला : तब खूने-आशिक की हिना से रँगी उँगलियों को नचाकर, भँवें मटका, मुँह बिचकाकर बोलीं बी सियासत कि ऐ मुए दाढ़ीजार, तुझे शायर का कलाम याद नहीं, कि गुलों से खार बेहतर हैं, जो दामन थाम लेते हैं। फिर तेरे पास धरा ही क्या है ? तेरे नाम की माला जपने से क्या हासिल ? उधर बुल्लेशाह के लाखों मुरीद हैं, हिंदी में, उर्दू में, तमिल, गुजराती, मराठी, बंगाली में, चीनी, जापानी में, अंग्रेज़ी में, रूसी, फ्रांसीसी में, गर्जे की हर ज़बान में बुलबुले फूटते हैं। शाह का मंतर ज़माने के सिर पर चढ़ के बोलता है। सुफेद कागज़ पर स्याह हुरूफों से ढलकर उनकी आवाज़ बुलंद होती है। जिस पर उनकी मेहर की नज़र हो जाती है, वह तिल से ताड़ बन जाता है, और जिससे उनकी नज़र फिर जाती है, वह सूरज की तरह रोशन होकर भी बुझा चिराग माना जाता है। ऐसे सनक के गले में बाँहें डालकर मैं जो एक आह करूँ तो गली-कूचों में शोर मच जाए, जो चाह करूँ वह पूरी हो, जो गुनाह करूँ वह छिप जाए, मेरी वाहवाही हो, मेरी धूम मच जाए। इसलिए ऐ निगोड़े मुए भठियारे, मैं तुझे छोड़ चली, मुँह मोड़ चली...


जाके घर-घर में आग लगाउँगी मैं।
तेरे खल्क को खाक बनाऊँगी मैं।।


कहके बी सियासत ने अपनी ओढ़नी सँभाली...तिरंगी छटा छहरी, सातों सितारे चमके, हिलाले ईद उगा, पट्टियाँ और धारियाँ लहराईं; हँसिया-हथौड़ा ठमका..नज़र जिसकी भी पड़ी उसी ने हाय भरी, कसके कलेजे को थामा; दुनिया दीवानी बनी, बी सियासत की ओढ़नी के गुन गाने लगी।
बोली मैना कि अय तोते, तेरा किस्सा आला है, तर्जेबयाँ निराला है; मगर यह क्या बात है कि हर वार बेचारी औरतज़ात पर ? अरे कुछ तो इंसाफ कर। मर्दों के कसूर को तू मर्द होने से मत माफ कर। कुछ तो बता कि बुल्लेशाह ने क्या किया ?
तोता बोला कि अय मेरी प्यारी मैना, उतावली न दिखा, बेचैन न हो। सुन...
बोला बुल्लेशाह कि ऐ परी पैकर। फोटू तुम्हारी देख कर दिल पर हुआ असर। मैं भूल गया गैली प्रूफ, प्रेस का मैटर। अब तो हरम कर। मैं तोड़ता हूँ आज से नाता जहान से, कलचर से, लिटरेचर से, दीनो ईमान से। तेरे ही गुण गाऊँगा ऐ बीबी सियासत। कदमों में लुटा दूँगा मैं कुल अपनी रियासत। तू चल के बैठ तो ज़रा टाइपों के केस में; हर फोंट में, पैका में, हर पुर्जे के प्रेस में। फिर देख मेरे जौहर कि तेरे शौहर को नामों चने न चबवा दूँ तो मेरा नाम बुल्लेशाह नहीं, झब्बू !
सुन के बी सियासत मुस्कराई, बुलाक की लटकन ने बल खाया। चितवन ने बाँका वार किया, बुल्लेशाह के गले में बाँहें डालकर बोली :


हमें तो अब किसी पहलू नहीं आराम आता है।
तुम्हीं इस दिल को ले लो ये तुम्हारे काम आता है।
अभी तो इब्तदाए इश्क है, अय हज़रते ‘फरहत’
तुम्हारे सामने देखना क्या अंजाम आता है।


मगर अंजाम की परवा किसको है। तोते ने कहा कि अय मैना, यह हौसला मर्द का ही होता है, जिसने तिरछी नज़र से वार किया, उस पर दिलों जान सब निसार किया। अडीटर बुल्लेशाह की ऐड़ी जो तर हुई तो जोशेजुनूँ में दहन फाड़कर चीखे कि ऐ मेरी प्यारी, तू देख मेरा करिश्मा। यों कहके गले लगाया। नाक पे चश्मा और कलम को म्यान से निकाल लिया। पश्चिम में बैठे और पूर्व में टाँगें फैलाईं, उत्तर की ओर मुँह किया और दक्खिन में आग लगाई। यों चारों कोने जीतकर बोले वो एडीटर, अब तेरे लिए क्या करूँ बोल ऐ मेरी जिगर। तू कहे तो इलाही की मूँछें उखाड़ लूँ। दुनिया सरायफनी को पल में उजाड़ दूँ। सूरज की राह रोक करूँ चाँद को फना। दरिया को सोख लूँ कि करूँ आग को मना। ताँबे में तेरे दिए प्रेसट्रस्ट-रायटर। तेरे गुलाम हो गए मेरे रिपोर्टर।

यह सुनकर सियासत बी भठियारिन मुस्काईं। पनडब्बा निकाला, दो बीड़े आप जामाए और जूठन बुल्लेशाह को इनायत की। बुल्लेशाह के सात पुरखे और भी आने वाली सात पीढियाँ निहाल हो गईं। फिर कलम चूम के बी सियासत बोलीं कि ऐ मेरे पालतू बंदर। बस, मेरे इशारे पर चला कर। मैं जो कहूँ वही लिखा कर। गर सच को कहूँ झूठ, तो तू झूठ बोल दे। हक के खिलाफ बोल...बस, जिहाद बोल दे। मैंने भठियारे इलाही से बदला लेने की ठानी है। सरायफनी के मुस़ाफिरों को मिस्मार करने की मन्नत मानी है। तवारीव के वर्क यह साबित करते हैं कि सराय इलाही की है, औ’ मुसाफिरों की बस्ती है। मगर मेरी निगाह में औकात हक की सस्ती है। मैं दौलत की बहन हूँ, उसकी अज़ीज़ हूँ।

सोने की आव देख बनी मैं कनीज़ हूँ। इसलिए ऐ प्यारे बुल्ले, तू फूट, हज़ार बार फूट। झूठ से अपने तन को काला कर। बहन दौलत का बोलबाला कर। मैं हक का नाम लेके नाहक करूँगी शोर। मगर एक शोर को तू सच न समझना मेरे भोले बालम। यह मेरी चाल है, मेरी अदा है, मेरा चकमा है। मेरा दफ्तर तो बस झूठ का मुहकमा है। दुनिया सरायफनी के गरीब मुसाफिरों के लिए मैं पकवान बनाऊँ, मगर उन्हें दौलत के चहेतों को खिलाऊँगी। रिपब्लिक का नाच नाचूँगी, मगर पब्लिक को अगूँठा दिखाऊँगी। दौलत का हो गुलाम दुनिया का हर बशर। बस आज सियासत को है कोरी यही फिकर। तू एक काम कर। जो मेरी राह के रोड़े हैं उनको तबाह कर। कल्चर और लिटरेचर, आर्ट औ’ साइंस, हिस्ट्री और हक का फलसफा....ये मुए मेरी पोल खोलते हैं। तू इनकी कमर तोड़ दे ऐ मेरे प्यारे बुल्ले, इनकी खबरें न छाप, इनकी आँख फोड़ दे। इनमें से जो मेरे गुलाम बन जाएँ, उनकी वाह-वाह कर; बाकी को तबाह कर।

मैना बोली कि ऐ तोते, इसके बाद क्या हुआ ? तोते ने आह भरकर कहा कि इसके बाद जो होना था वही हुआ। बी सियासत ने कमर लचकाकर तेगेनज़र का वार किया और झुककर बुल्लेशाह को चूम लिया।

मैना ने फिर पूछा कि तब बुल्लेशाह ने क्या किया ?
तोते ने जवाब दिया कि बुल्ला जवानी का मारा करता क्या ! सियासत के जोबन से मखमूर हुआ। हक से बहुत दूर हुआ। ईमान उसका चूर हुआ।


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