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10 प्रतिनिधि कहानियाँ(खुशवंत सिंह)

खुशवंत सिंह

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3476
आईएसबीएन :81-7016-376-5

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खुशवंत सिंह की दस प्रतिनिधि कहानियाँ...

10 Pratinidhi Kahaniyan a hindi book by Khushwant Singh - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - खुशवंत सिंह

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किताबघर प्रकाशन की महत्वाकांक्षी कथा-सीरीज़ ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ को विस्तार देते हुए इसे अब अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया गया है। अर्थात् इस सीरीज़ में अब सभी भारतीय भाषाओं के शीर्ष कथाकारों की प्रतिनिधि कहानियाँ उपलब्ध कराये जाने की योजना है।
सीरीज़ के इस नव्यतम सेट में शामिल कथाकार हैं : अमरकान्त, कृष्ण बलदेव वैद, खुशवंत सिंह, गोविन्द मिश्र, ज्ञानरंजन, देवेन्द्र सत्यार्थी, निर्मल वर्मा, प्रतिभा राय, शानी, शेखर जोशी तथा शैलेश मटियानी। विभिन्न भाषाओं के इन भारतीय कथाकारों ने अपनी सृजनात्मकता के बल पर स्वयं को आधुनिक कथा के जिस शीर्षस्थ स्थान पर स्थापित किया है वह अपने आप में एक उपलब्धि है। इसी उपलब्धि को एक सीरीज़ के माध्यम से पाठक तक पहुँचाकर हम गौरवान्वित हैं।
यह सुखद संयोग है कि आजादी की पावन स्वर्ण जयंती के शुभ अवसर पर देश का विशाल पाठक वर्ग इन कथाओं के माध्यम से मनुष्य और परिवेश के नितांत नये रूपों और अप्रकाशित छवियों को पा सकेगा। इन कहानियों में आदमी के मनुष्य हो जाने की अनुभूतियों को जिस तरलता और सरलता से पिरोया गया है, वह सचमुच एक अद्भुत पाठकीय अनुभव है।
कहानीकार के कथाकर्म का प्रतिनिधि एवं केन्द्रीय स्वर, गहन आत्मीयता से यहाँ सामने लाया गया है। यह कथाकार की अपनी कथाभूमि तो है ही, लगता है, हम सबकी सगी दुनिया भी यही है। टूटती-ढहती और फिर से बनती-सँवरती दुनिया। मानवताकामी शुभेच्छा की यह आकांक्षा ही इस सीरीज़ की वह शक्ति है जो आज की तमाम चालू कथा-सीरीज़ों से इसे अलग खड़ा करती है।
तो प्रस्तुत हैं खुशवंत सिंह की दस प्रतिनिधि कहानियाँ।

भूमिका


यदि मन्नू भंडारी के कथ्य को प्रतिमान मान लें कि किसी लेखक की प्रतिनिधि कहानियाँ वे होती हैं जिनके साथ जाने-अनजाने लेखक-मन का कोई तार जुड़ा होता है, तो इस संग्रह में संकलित दस कहानियाँ सही अर्थों में खुशवंत सिंह की प्रतिनिधि कहानियाँ है। ‘रसिया’ को छोड़ इनमें से सभी कहानियाँ बँटवारे से पहले लाहौर और बाद में इंगलैंड एवं कनाडा प्रवास के दौरान हुए उनके अनुभवों पर आधारित हैं। ‘रसिया’ सन् 70 में लिखी गई जब वे बंबई में परिवार से दूर अकेले रहते हुए ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ का संपादन कर रहे थे।
अपने संस्मरणों में वे लिखते हैं-विवाह के बाद मेरे पिता ने मुझे लाहौर हाई कोर्ट के पास रहने के लिए घर और दफ्तर किराए पर ले दिया। पर महीनों तक जूझने के बाद भी मुझे अपने ही बलबूते पर लड़ने के लिए एक भी मुकदमा नहीं मिला। कई बार तो मैंने मात्र सोलह रुपए रोजाना पर कत्ल के ऐसे मुकदमे भी ले लिए जिनको लड़ने के लिए कोई भी वकील राजी नहीं होता था। वकालत से मैं उकताने लगा था। अचानक ही मेरा मन अंग्रेजी कविता और क्लासिकों को पढ़ने में रमने लगा।
बँटवारे के बाद उन्होंने वकालत के धंधे से तौबा की और भारत सरकार के राजनयिक पद पर लंदन और बाद में ओटावा में नौकरी करने लगे। लेकिन लंदन और ओटावा दोनों जगह अपने ऊपर के अफसरों की घटिया मनोवृत्ति से वे इतने क्षुब्ध हुए कि मन की भड़ास निकालने का उन्हें एक ही जरिया दिखा और वह था लेखन। वे आगे लिखते हैं-लाहौर और ओटावा में हुए अनुभवों पर आधारित मेरा पहला कहानी-संग्रह ‘मार्क ऑफ विष्णु’ सैटर्न प्रेस से प्रकाशित हुआ। इसको काफी प्रसिद्धि मिली और इसके साथ ही मैंने बड़ी गंभीरता से लेखन को अपनी जीविका का साधन बनाने का निश्चय किया।
तो कहानी ही वह विधा थी जिसमें खुशवंत सिंह ने सर्वप्रथम अपनी कलम आजमाई।
‘रेप’ और ‘नास्तिक’ कहानियाँ उनके लाहौर के वकालत के दिनों से जुड़ी है। ‘कर्म’ और ‘ब्रह्म-वाक्य’ आजादी से पहले के भारत की गुलाम मानसिकता की प्रतिछवियाँ हैं। ‘दादी माँ’ की दादी, जाहिर है कि खुशवंत जी की अपनी ही दादी हैं जो हडाली में उनके बचपन के दिनों की अकेली साथी थीं। बाद में, माता-पिता के पास दिल्ली आने पर अनेक कमरों वाली आलीशान कोठी में भी वे अपनी दादी के साथ एक ही कमरे में रहते रहे।
‘काली चमेली’ के बैनर्जी की संवेदनशीलता की परिकल्पना खुशवंत सिंह जैसा सहृदय व्यक्ति ही कर सकता था।
इस संकलन की सभी कहानियाँ उनके तीन अंग्रेजी संग्रहों-‘दि मार्क ऑफ विष्णु एंड अदर स्टोरीज’ (सैटर्न प्रेस, लंदन,1950) ‘दि वायस ऑफ गॉड एंड अदर स्टोरीज’ (जैको, बंबई, 1957) तथा ‘ए ब्राइड फॉर दि साहिब एंड अदर स्टोरीज’ (हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 1967) से ली गई हैं।
ये अनूदित कहानियाँ पाठकों को मौलिक रचना का- सा रसास्वादन दे सकें, इसी कामना के साथ,
नई दिल्ली

उषा महाजन

कहानी पर


कौन कहता है कि कहानी का अंत हो चुका है ?
भारत में तो अभी-अभी इसका पुनर्जन्म हुआ है और साहित्यिक पंडितों के अनुसार इसकी जन्मपत्री में लिखा है कि इसकी उम्र बहुत लंबी और समृद्ध होगी।
अन्य अनेक विकासशील देशों की तरह भारत में भी कागज की उपलब्धता और प्रिटिंग की तकनीक शुरू होने से पहले साहित्य की दो ही विधाएँ प्रचलित थीं-एक कविता और दूसरी लोक-नाट्य। इन दोनों विधाओं का माध्यम अलिखित था। रचनाओं को कंठस्थ कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता था। सामान्य जन में शिक्षा का प्रसार होना तो अभी हाल की ही घटना है।
कविता और लोक-नाट्य के बाद जो एक और विधा लोगों में लोकप्रिय थी, वह थी, लतीफा या दंतकथा। थोड़े से शब्दों में कोई शिक्षा या संदेश देने का माध्यम होती थीं ये कथाएँ जिनका अंत हमेशा एक ऐसी पंक्ति से होता था जिसमें कथा का सार छुपा होता।
उपन्यास विधा से तो हमारा परिचय अंग्रेजों ने कराया। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभ में यह परिदृश्य बदलने लगा। अब कविता का सिंहासन डोलने लगा था, यद्यपि कवि-सम्मेलनों की लोकप्रियता बरकरार रही। अधिकतर लोगों को किताबों में छपी कविताओं में उतनी रुचि नहीं रह गई थी। लोक-नाट्य की लोकप्रियता भी जाती रही थी क्योंकि न तो उनके लिए समुचित थिएटर थे और न ही व्यावसायिक कलाकार। केवल धार्मिक तरह के नाटक ही खुले रंगमंचों पर खेले जाते थे।
भारत में भी अब लेखकों ने उपन्यास लिखने शुरू कर दिए थे, लेकिन वे इस विधा में उतने सहज नहीं थे। साहित्य की एक ऐसी ही विधा थी जिसकी जड़ें हमारी परंपरा में निहित थीं और जो प्रिंटिग माध्यम से मिले विस्तृत अवसर तथा लोगों की साहित्य के प्रति बढ़ती रुचि का लाभ उठाते हुए फूल-फल सकती थी और वह थी-कहानी। कुछ वर्षों तक इसका केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी रहा-कविता। किंतु पिछले दशकों में कहानी ने कविता की लोकप्रियता पर विजय पा ली। उसका एक कारण यह भी था कि जहां कहानी का सटीक अनुवाद किया जा सकता है, कविता का हूबहू अनुवाद नहीं हो सकता।
आज भी हमारी कुछ सबसे अच्छी कहानियाँ उन लेखकों के द्वारा लिखी जाती हैं जिनके नाम से ज्यादा लोग परिचित नहीं होते और ये कहानियाँ ऐसी अज्ञात, दीन-हीन पत्रिकाओं में छपती हैं जो अपने लेखकों को कोई पारश्रमिक नहीं देती। ऐसी कहानियों पर चर्चा होने और इनका अनुवाद होने में लंबा समय लगा जाता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भारत की सभी बड़ी चौदह भाषाओं में लिखी जा रही कहानियों का स्तर समान रूप से ऊंचा है और उनकी लोकप्रियता बेजोड़ है। मैं कुछ उदाहरणों के साथ स्पष्ट करूँगा। पिछले सौ वर्षों में भारतीय मानस पर प्रभाव डालने वाली दो मुख्य बातें रहीं। एक तो देश पर अंग्रेजों का राज और दूसरी भारत का विभाजन। ब्रिटिश राज और मुल्क के बँटवारे को लेकर, उपन्यास, कहानी नाटक तथा कविता-सभी विधाओं में अथाह लेखन हुआ और इन दोनों विषयों पर लिखे उपन्यासों, कविताओं अथवा नाटकों के मुकाबले कहानियाँ ही अधिक सफल रहीं।
प्रेमचंद ने राज और देश के अधोपतन को लेकर अनेक उपन्यास लिखे, लेकिन उनमें से किसी में भी वे गुलामी के मनोवैज्ञानिक प्रभाव को उस रूप में रेखांकित नहीं कर पाए जैसा कि उन्होंने अपनी कुछेक पृष्ठों की कहानी ‘त्यागपत्र’ में किया।
कहानी एक विनम्र किस्म के बाबू (क्लर्क) को लेकर है जो एक मंदबुद्धि और क्रूर अंग्रेज की फर्म में काम करता है। अंग्रेज मालिक का यह रोज का नियम है कि वह अपने मुलाजिमों के साथ अशिष्टता से पेश आता है। बेचारे कर्मचारी साहब की अभद्रता को अपनी नौकरी की शर्त के रूप में स्वीकार करते हुए चुप रहते हैं। लेकिन बाबू की पत्नी के मन में अपने पति की छवि किसी होरो की सी है और वह सोचती है कि यद्यपि बाकी के मुलाजिम साहब से डरते हैं, उसका पति साहब की कोई परवाह नहीं करता। हर शाम जब जब वह घर लौटता है, तो पत्नी पूछती है कि दफ्तर में क्या-क्या हुआ और वह हर दिन उसे लोगों के साथ किए साहब के अशिष्ट व्यवहार के किस्से बताता है। पत्नी एक दिन उससे कहती है, तुम ही क्यों नहीं एक दिन साहब का दिमाग ठिकाने लगाते ? वह बड़े रोब से हामी भरते हुए पत्नी को कहता है कि वह निश्चय ही किसी दिन यही करेगा। इस तरह बाबू हर दिन दोहरी जिंदगी जी रहा है। दफ्तर में रिरियाते हुए साहब की चाटुकारी करना और घर पर पत्नी के सामने शेखी बघारना कि वह उससे बिल्कुल नहीं डरता। चरम सीमा तो उस दिन आती है जब साहब नशे में धुत हुआ दफ्तर आता है और अपना सारा कहर उस बाबू पर निकालता है। घर आकर बाबू पत्नी को वह घटना घुमा-फिरा कर सुनाने की कोशिश करता है, पर अपने भीतर चल रहे मानसिक द्वंद्व से वह जूझ नहीं पाता, पत्नी उसकी मानसिक अवस्था से बेखबर उसकी बातें सुनती गौरवान्वित होती रहती है कि उसका पति कितना बहादुर है पत्नी उसका खाना परोस रही होती है, तभी बाबू के मन में न जाने क्या आता है कि वह तय कर लेता है जिस तरह की डींगे वह अपनी पत्नी से हाँक रहा है, क्यों न वास्तव में वही कर दिखाए। और वह अपना खाना छोड़ छाता उठा कर दफ्तर की तरफ दौड़ पड़ता है। देखता है कि साहब अभी भी नशे की अवस्था में ही है। बाबू उसकी मेज पर अपना इस्तीफा दे पटकता है और अपने छाते से साहब के सिर पर ठोंक मारता है। अब वह बड़े जोश से घर की ओर मुड़ता है जहाँ उसकी पत्नी खाने की थाली लिए प्यार से उसका इंतजार करती बैठी है।
देश का बँटवारा, जिसके दौरान पाँच लाख से भी ज्यादा लोगों की जानें गईं और एक करोड़ लोग बेघर हुए, बाद के अनगिनत उपन्यासों की विषयवस्तु बना। यहाँ भी बाजी एक बिल्कुल बेतुकी और मनगड़ंत कहानी ने ही मार ली। वह कहानी है मंटो की टोबा टेकसिंह। दृश्य है लाहौर के एक पागलखाने का। समय विभाजन के कुछ महीने बाद का, जब शरणार्थियों का आना-जाना, जमीन और संपत्ति का आदान-प्रदान निबट चुका था। केवल दोनों तरफ के पागलों की अदला-बदली बाकी थी। उच्चस्तरीय सरकारी पर्यालोचन के बाद निर्णय लिया गया था कि दोनों तरफ के पागलों की एक विशेष दिन (वर्ष का सबसे ठंडा दिन) सीमा पर ले जाकर अदला-बदली कर दी जाएगी। लाहौर के पागलखाने में कई दिनों से केवल पाकिस्तान बनने पर ही बातचीत हो रही थी। एक मुसलमान पागल अपने आपको जिन्ना समझने लगा था और वह पाकिस्तान को जायज करार देते हुए भाषण देता था। एक सिख पागल अपने आपको मास्टर तारा सिंह समझ पाकिस्तान बनने के खिलाफ बोलता था। लेकिन एक ऐसा पागल भी था जो ज्यादातर पेड़ पर चढ़ा बैठा रहता था और अपने आप को ईश्वर समझता था और सोचता था कि वही अंतत: घटनाओं का रुख मोड़ने में सफल होगा। कहानी का नायक है बिशन सिंह जो उस पागलखाने में सालो से था। उसकी केवल एक ही चिंता थी कि उसका गाँव टोबा टेकसिंह जहाँ उसकी बेटी रहती थी कहाँ पड़ा था, पाकिस्तान में कि हिंदुस्तान में ! वह उक्त दोनों नेताओं और ईश्वर बने पागल से पूछता, पर कोई उसे संतोषजनक जवाब न देता। आखिरकार वह दिन भी आता है जब हिंदू और सिख अपने मुसलमान मित्रों से विदा लेकर सीमा की ओर ले जाए जाते हैं। सारे रास्ते भर बिशन सिंह सभी से एक ही बात पूछता जाता है कि टोबा टेकसिंह किधर पड़ता है। किसी ने भी उसके इस अज्ञात गाँव का नाम नहीं सुना होता। सभी पागल उस कड़ाके की ठंड में सीमा की चौकी पर देर तक इंतजार करते बैठे रहते हैं। बिशन सिंह बार-बार उनसे यही पूछता रहता है कि टोबा टेकसिंह कहाँ पड़ता है। अंतत: सर्दी से ठिठुरता हुआ वह हिंदुस्तान में प्रवेश करता है। यहां आने पर एक हिंदुस्तानी सिपाही से पूछने पर उसे पता चलता है कि टोबा टेकसिंह तो पाकिस्तान में चला गया। बिशन सिंह वापस मुड़ कर पाकिस्तान की तरफ भागने की कोशिश करता है और दोनों देशों के बीच की जमीन पर अपना दम तोड़ जाता है।
इस पागलपन और वीभत्सता के परिवेश में नफरत की उन्माद भरी आग से अलग हुए लोगों की त्रासदी को मंटो ने कॉमेडी का जामा पहना कर प्रस्तुत किया है। विभाजन पर शायद ही इससे चुटीली कोई और रचना मैंने कहीं पढ़ी हो।
कहानी का प्रचलन पश्चिम में अब नहीं रहा है, लेकिन भारत में यह फूल-फल रही है। इसका कारण यह है कि एक साहित्यिक विधा के रूप में इसके लिए कुछ निश्चित नियमों को लेकर चलना होता है। भारतीय लेखक इन नियमों का पालन करते हैं, जबकि आधुनिक यूरोपियन और अमेरिकी लेखक ऐसा नहीं करते।
इसके नियम यद्यपि एकदम अटल तो नहीं, कि तोड़े ही न जा सकें, लेकिन फिर भी जो अपने विचार कहानी की विधा में व्यक्त करना चाहते हैं, उन्हें अग्रलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. कहानी को छोटा होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मैं सलाह दूँगा कि इसकी शब्द-सीमा 3500 शब्दों से अधिक न हो।
2. कहानी किसी एक घटना अथवा अनेक घटनाओं वाले किसी एक विषय अथवा किसी एक चरित्र के इर्द-गिर्द बुनी होनी चाहिए।
3. इसे फंतासी के रूप में भी लिखा जा सकता है बशर्ते कि यह सच्चाई के दायरे में आती हो और कोई संदेश देती हो।
4. कहानी का एक निश्चित आदि मध्य और अंत होना चाहिए।
5. बिच्छू की पूँछ में छुपे डंक की तरह इसका अंत ऐसा होना चाहिए जो कहानी का सारांश बता दे।
फिर भी इन नियमों का पालन व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। मेरे खयाल से तो विश्व के महान लेखकों ने भी जाने-अनजाने इन नियमों का पालन किया है।
नई दिल्ली

-खुशवंत सिंह

विष्णु का प्रतीक

‘‘यह काले नाग के लिए है,’’ तश्तरी में दूध उड़ेलते हुए गंगाराम बोला, ‘‘मैं हर रात इसे दीवार वाले उस बिल के पास छोड़ आता हूँ और सुबह उठते ही यह सफाचट मिलता है।’’
‘‘हो सकता है बिल्ली पी जाती हो,’’ हम बच्चों ने सुझाया।
‘‘बिल्ली,’’ गंगाराम ने विरक्ति में मुँह सिकोड़ा, ‘‘कोई बिल्ली उस बिल के करीब फटकती तक नहीं। वहां काला नाग रहता है। जब तक मैं उसे दूध देता रहूँगा, वह इस घर के किसी व्यक्ति को नहीं डसेगा। तुम सब जहाँ चाहो, नंगे पैर घूमते रहो और जहाँ मर्जी आए, खेलते रहो।’’
हमें गंगाराम के संरक्षण की कोई जरूरत नहीं थी।
‘‘तुम एक बेवकूफ बुढ़ऊ ब्राह्मण हो,‘‘ मैंने कहा, ‘‘तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि साँप दूध नहीं पीते ? कम-से-कम तश्तरी भर दूध तो हर दिन वह पी ही नहीं सकता। हमारे अध्यापक ने हमें बताया था कि साँप कई-कई दिनों में सिर्फ एक बार ही खाता है। हमने एक घास वाला साँप देखा था, जिसने एक मेढ़क को निगल लिया था। मेंढक कई दिनों तक उसके गले में गोली की तरह अटका रहा। तब जाकर वह किसी तरह घुल-घुलकर उसके पेट में पहुँचा। हमारी प्रयोगशाला में दर्जनों साँप मिथाइल वाली स्पिरिट में डूबे रखे हैं। क्यों, पिछले महीने ही तो अध्यापक जी ने सपेरे से एक साँप खरीदा था जो दोनों तरफ रेंग सकता था। इसका दूसरा सिर पूँछ की तरफ था। प्रयोगशाला में कोई खाली जार था ही नहीं, सो अध्यापक ने उसे एक धारीदार विषैले नाग वाले जार में ही डाल दिया। चिमटों के साथ उसके दोनों मुँहों को पकड़कर टीचर ने उसे जार में छोड़ा था और तुरंत ही ढक्कन बंद कर दिया था। जार में तो उसने मानो तूफान ही ला दिया था। चक्कर मार-मारकर पहले वाले साँप को नोच-फाड़कर टुकड़े-टुकड़े ही कर दिया।
पवित्र मन के गंगाराम ने जुगुप्सा और संत्रास से आँखें बंद कर लीं।
‘‘तुम्हें किसी दिन इसका बदला चुकाना पड़ेगा, हां, जरूर चुकाना पड़ेगा।’’
गंगाराम के साथ बहस करने का कोई फायदा नहीं था। अन्य हिंदुओं की भाँति वह भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति में विश्वास करता था। ब्रह्मा-संसार के जन्मदाता, विष्णु-उसके रक्षक और महेश-उसके संहारक। इन तीनों में विष्णु में उसकी सर्वाधिक आस्था थी। प्रतिदिन तड़के ही वह अपने अभीष्ट विष्णु की प्रतिष्ठा में माथे पर ‘V’ के आकार में चंदन का तिलक लगाया करता था। वह ब्राह्मण था, लेकिन था निरा अनपढ़ और अंधविश्वासी। उसके लिए तो हरेक प्राणी मात्र ही पवित्र था, भले वह साँप हो बिच्छू हो या फिर कान-खजूरा। जब कभी उसकी नजर इनमें से किसी पर भी पड़ती वह तपाक से उन्हें सरका देता कि कहीं हम उन्हें मार ही न डालें। हमारे बैडमिंटन रैकटों की चोट से प्रताड़ित ततैयों को भी उठाकर वह उनके भग्न परों को सहलाने लगता। कभी-कभी उसे डंक भी लग जाते। पर उसका विश्वास फिर भी न डिग पाता। जंतु जितना ज्यादा भयानक होता, गंगाराम की उसकी अस्तित्व में उतनी ही अधिक आस्था होती। इसीलिए उसे सर्पों के प्रति श्रद्धा थी और सबसे बढ़कर तो अजगर के लिए जो उसका काला नाग था।
‘‘अगर कहीं तुम्हारा काला नाग दिखाई दिया तो हम उसे जरूर मार देंगे।’’
‘‘मैं तुम्हें हरगिज ऐसा नहीं करने दूँगा। इसने सौ अंडे दिए हुए हैं। अगर तुमने इसे मारा तो सारे अंडों से अजगर बन जाएँगे। पूरा घर अजगरों से भर जाएगा। तब तुम क्या करोगे ?’’
‘‘हम उन्हें जिंदा पकड़ लेंगे और बंबई भेज देंगे। वहाँ इन साँपों को दुहकर जहर काटने वाला सीरम बनाया जाता है। जिंदा अजगर का वे दो रुपया देते हैं। दो सौ रुपए तो हमारे यों ही बन जाएँगे।’’
‘‘तुम्हारे डाक्टरों के जरूर थन होते होंगे। पर साँपों के तो मैंने कभी नहीं देखे। लेकिन, खबरदार जो तुमने इनको छुआ तक। यह फनियर नाग है, समझे, फन वाला। मैंने इसे देखा है। पूरे तीन हाथ लंबा है। और जहाँ तक इसके फन की बात है, ‘‘गंगाराम ने अपनी हथेलियों को खोला और सिर को डुलाते हुए बोला,‘ तुम खुद ही इसे कभी लॉन में बैठे धूप सेंकते हुए देखना, तभी जान पाओगे।’’
‘‘तुम कितने झूठे हो, तुमने खुद ही साबित कर दिया। फनियर तो नर होता है, मादा नहीं। फिर इसके सौ अंडे देने का सवाल ही नहीं उठता। अंडे फिर तुमने ही दिए होंगे।’’
बच्चों की टोली कहकहे लगाकर हँसने लगी, गंगाराम के ही अंडे होंगे। अब तो जल्दी ही हमें सौ गंगाराम देखने को मिलेंगे।
गंगाराम के पास कोई जवाब नहीं बचा था। नौकर की तो नियति में ही होता है, निरंतर मुँह बंद कर दिया जाना। लेकिन घर के बच्चों द्वारा दिन-रात मजाक का पात्र बनाया जाना गंगाराम के लिए भी अब असहनीय हो गया था। वे आए दिन उसे नीचा दिखाने की नई-नई विषैली युक्तियाँ ढूँढ़ा करते। वे कभी अपने धर्मग्रंथों को नहीं पढ़ा करते थे। महात्मा गाँधी जो अहिंसा के विषय में कहते, उसकी भी उन्हें परवाह नहीं थी। बंदूकें लेकर चिड़ियों को मारते फिरना या फिर मिथाइल-स्पिरिट के मर्तबानों में साँपों को डुबाना, बस यही आता था उन्हें तो। जीवन की पवित्रता में गंगाराम का विश्वास भी अडिग रहा। वह साँपों को खिलाता-पिलाता था और उनकी रक्षा करता था, क्योंकि उसकी नजर में ईश्वर के बनाए तमाम जीवों में ये ही सर्वाधिक जघन्य प्राणी थे। अगर हम इन्हें मारने के बदले इन्हें प्यार कर सकें, तभी ईश्वर में हमारी सच्ची आस्था होगी।
गंगाराम-कौन सी विचारधारा को सिद्ध करना चाहता था, यह तो उसके लिए भी अस्पष्ट था। अपनी आस्था सिद्ध करने को उसके लिए इतना ही काफी था कि रोज रात को दूध-भरी तश्तरी बिल के पास रख दे और सुबह होते ही इसे सफाचट हुआ देख ले।
एक दिन हमने काले नाग को देख लिया। बरसात अपने जोरों पर थी। रात-भर बारिश होती रही थी। ग्रीष्म ऋतु के झुलसाते सूरज की गर्मी में तपी सूखी झुलसी धरती में मानो एक नया ही जीवन उमड़ आया था। छोटे तालाबों में मेंढक टर्राने लगी थे। घास उगनी शुरू हो गई थी। केलों के चिकने पात हरे-भरे होकर चमकने लगे थे। काले नाग के बिल में पानी भर आया था। उसका चमकीला काला फन सूरज की धूप में और भी चमक रहा था। नाग काफी बड़ा था-कोई 6 फुट लंबा रहा होगा। गोलाकार और मंसाल-मेरी कलाई की तरह।
‘‘लगता है यह अजगर नागराज ही है। चलो इसे पकड़ें।
काले नाग को हमने ज्यादा मौका नहीं दिया। जमीन फिसलन भरी थी। सारे बिल और गटर पानी से भरे पड़े थे। मदद के लिए गंगाराम भी घर पर नहीं था।
उसे खतरे की भनक भी लग पाती, इससे पहले ही बाँस के डंडे हाथों में लिए हमने उसे घेर लिया। जब उसने हमें देखा, उसकी आँखों से मानो अंगारे फूट रहे थे। वह फुफकारते हुए चारों ओर थूक उगलने लगा। तभी मानो बिजली की सी फुर्ती से काला नाग केले के कुंजों की ओर लपका।
जमीन कीचड़ भरी थी। वह रुकते-पड़ते सरक रहा था। अभी वह पाँच गज भी आगे नहीं बढ़ पाया था कि एक लाठी उसके बीचो बीच आकर पड़ी और बेचारे की पीठ टूट गई। चारों ओर से इस कदर प्रहारों की बौछार हुई कि वह काले सफेद रंग की पिचपिची लुगदी में ही परिणत होकर रह गया। खून और मिट्टी से वह लथपथ हो गया था, लेकिन उसका सिर अभी भी सलामत था।
‘‘इसके सिर को मत कुचलना,’’ हम में से एक चिल्लाया, हम इस काले नाग को स्कूल ले जाएँगे।
सो हमने कोबरे के पेट के नीचे बाँस का डंडा डाला और उसे डंडा के सिरे पर टाँग लिया। बिस्कुट के एक बड़े से खाली कनस्तर में उसे डाला और कनस्तर को रस्सी से अच्छी तरह बाँध दिया। फिर टिन के उस डिब्बे को हमने एक चारपाई के नीचे छिपा दिया।
रात को मैं गंगाराम के आसपास मँडराता रहा कि कब वह दूध से भरी तश्तरी लेकर आए। आखिर मुझसे न रहा गया, मैंने उसे पूछ ही लिया, ‘‘आज तुम काले नाग के लिए दूध नहीं ले जाओगे क्या ?’’
‘‘हाँ, ले जाऊँगा,’’ गंगाराम ने चिड़चिड़ाते हुए जवाब दिया, ‘‘तुम जाओ न सोने !’’
वह इस विषय पर और अधिक तर्क-वितर्क करना नहीं चाहता था।
‘‘उसे अब और इस दूध की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’
गंगाराम ठिठका, ‘‘क्यों ?’’
‘‘ओह ! नहीं कुछ नहीं। इतने मेंढक है चारों ओर। उसे तुम्हारे दूध से उनका स्वाद कहीं ज्यादा भाता होगा। तुम दूध में चीनी भी तो नहीं मिलाकर देते।’’
दूसरे दिन गंगाराम दूध की भरी-भराई तश्तरी लेकर वापस लौट आया। वह काफी खिन्न और उदास दिख रहा था। लगता था, उसे हम पर शक हो गया है।
‘‘मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि साँपों को दूध से ज्यादा मेंढक पसंद होते हैं।’’
हम लोग कपड़े बदलकर नाश्ता करने में जुटे थे। गंगाराम पूरे वक्त हमारे आसपास ही मँडराता रहा। स्कूल बस आई और कनस्तर को लेकर थोड़ी कठिनाई के साथ हम बस में चढ़ गए। जैसे ही बस चालू हुई, हमने गंगाराम को कनस्तर उठाकर दिखा दिया।
‘‘यहां है तुम्हारा काला नाग, इस बक्से में। बिलकुल सुरक्षित है। अब हम इसे स्पिरिट में डालने जा रहे हैं।’’
हमने देखा उसकी बोतली बंद हो गई है और छूटती बस को वह दीदे फाड़-फाड़कर देख रहा है।
स्कूल में काफी उत्तेजना फैली हुई थी। हम चार भाइयों की टोली अपनी उद्दंडता के लिए मशहूर है हमने एक बार फिर यह साबित कर दिखाया था।
‘‘कोबरा नागराज है !’’
‘‘छ: फुट लंबा !’’
‘‘फणियर !’’
कनस्तर हमने विज्ञान के अध्यापक के हवाले कर दिया। डिब्बा अध्यापक की मेज पर स्थापित था और हम इसी इंतजार में थे कि कब से इसे खोलें और हमारे शिकार की सराहना करें।

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