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भैरव उपासना

राधाकृष्ण श्रीमाली

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3669
आईएसबीएन :81-7182-515-X

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भैरव जी की उपासना पर आधारित पुस्तक...

Bhairav Upasana a hindi book by Radhakrishna Shrimali - भैरव उपासना - राधाकृष्ण श्रीमाली

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैदिक साहित्य में उपासना का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी-वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सनातन धर्मावलम्बी-उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं।

यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु मन्त्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं।
क्रमबद्धता भी उपासना का महत्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है, उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।

अतः उपासना-पद्धति में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है भैरव उपासना।

लेखकीय

मानवीय जीवन के मूलभूत उद्देश्य धर्म, काम और मोक्ष प्राप्ति के साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार अथवा भक्ति, ईश्वर-चिन्तन, मनन, भगवत्-प्राप्ति आदि भी है। समय अपनी गति से अपनी धुरी पर चलता रहा और धीरे-धीरे मनुष्य आज का मनुष्य इन सबको प्राय: भूलता चला गया। जैविक गुणों में सर्वथा विमुख होता गया मात्र भौतिक वादी बनता गया। इसी कारण आज यत्र-तत्र-सर्वत्र यहां-वहां शत्रुता द्वेष, ईर्ष्या, कटुता, वैमनस्यता, हिंसा, विध्वंस, अनाचार, दुराचार, विनाश, पशुत्व भाव की प्रधानता दिखाई देती है। अध्यात्म और ईश्वरत्व पुस्तकीय मात्र रह गया। लौकिक और पारलौकिक पतन अवश्यंभावी हो गया है। परन्तु इस प्रकार के लौकिक, विपत्तिनाश, भौतिक अभ्युदय एवं ईश्वर-प्राप्ति का चिन्तन-मनन का साधन मात्र देवोपासना ही है। घोर भौतिकवाद का कड़ुवा स्वाद चखकर पुन: मनुष्य अध्यात्म की ओर आने को छटपटा रहा है।

भारतीय वाङ्मय में, भारतीय दर्शन एवं देवोपासना में हर एक उपासनाएं अपनी-अपनी विशेषताएं लिये हुए हैं, भिन्नता लिये हुए हैं तथापि उन सब का लक्ष्य दिशा एक ही है। हां, साधक की भावना विशेष से ही देवोपासना में भेद हो गया है। इसके अलावा कामना भेद, विचार भेद, देवभेद आदि भी हेतु होते रहे हैं। अनेक रूप-रुपाय का मूलभूत सिद्धांत उपासना भेद को अपने में निहित रखता चला आ रहा है। इतने पर भी, तथापि भगवान भैरव की उपासना साधक वास्ते कल्प वृक्ष है-

‘बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:।
ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।’

अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वदन्ति बटुक नाम के प्रसिद्ध यह भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के सामन फलदाता है।
यही सोचकर अन्यान्य उपासना गणेश उपासना, शिव उपासना, गायत्री उपासना, श्री लक्ष्मी उपासना, हनुमान उपासना, विष्णु उपासना की इस कड़ी में सरलतम भाषा में भैरव उपासना पाठकों को सौंप रहा हूं। पाठक लाभ उठायें। शंका या आवश्यकता होने पर लिखें। उत्तर दूंगा। यह मैं अपना पावन कर्तव्य मानता हूं।

डॉ. राधाकृष्ण श्रीमाली
ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र (शोध एवं अन्वेषण)
विश्व तंत्र (ज्योतिष मासिक पत्रिका)
19-20/ए, हाईकोर्ट कॉलोनी, जोधपुर (राजस्थान)

भैरवनाथ : एक दन्तकथा


गुरु गोरखनाथ के सम्प्रदाय का भैरवनाथ नाम का एक योगी बहुत बड़ा सिद्ध तांत्रित और महा प्रभावशाली था। उसके शिष्य भी थे 360। वह वैष्णवों तथा भक्ति के उपासकों अर्थात् शाक्तों का कट्टर व परम शत्रु था। जहां कहीं भी उसे वैष्णव या शाक्त धर्मावलंबी, विष्णु अथवा देवी-उपासक मिलते, वहीं उन्हें अनेकानेक प्रकार के कष्ट पहुंचाने से नहीं चूकता था। उसके इस अत्याचार पूर्ण व्यवहार से धर्मात्मा लोग थरथराते थे, कांपते थे, परेशान और दु:खी थे। लाचार होकर उसकी अनुचित आज्ञाओं का पालन भी करते थे।
उस महादुष्ट योगी ने अपने प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में मद्य-मांस का खूब प्रचार दिया था। स्त्रियां पतिव्रत धर्म का त्याग करके व्यभिचारिणी बन गई थीं तथा पुरुष उसके ही इशारे पर अनेकानेक प्रकार के उपद्रव मचाया करते थे तथा वैष्णवों को कष्ट पहुंचाया करते थे।

जब राजकुमारी चन्द्रभागा की प्रार्थना पर भगवती माता दुर्गा ने चन्द्रभागा (चिनाव) नदी के तट पर अपना निवास बनाया और वहां भक्तों की भीड़ उनके दर्शनार्थ भारी संख्या में पहुंचने लगी तथा माता की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी, तो उनके यश को सुनकर दुष्ट भैरवनाथा ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया और अपने 360 शिष्यों सहित गोरख टीला (जिला झेलम) से चलकर माता के निवास-स्थान मन्त्रीपुर (वजीराबाद, जम्मू) में जा पहुंचा।

माता ने आने वाले अन्यान्य लोगों के समान उसका भी उचित स्वागत किया तथा उसे मद्य-मांस कर वैष्णव भोजन करने तथा धर्म की मर्यादा का पालन करने का उपदेश दिया। परन्तु भैरवनाथ तो माता की परीक्षा लेने और उन्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से आया था। इसलिए उसने माता के उपदेशों को अनसुना करते हुए कहा- ‘हे देवी ! मैंने सुना है कि आप सब लोगों की इच्छा पूरा करती हैं, अत: अब मेरी इच्छा पूर्ण करें।’
माता ने पूछा-
‘‘तुम्हारी क्या इच्छा है ?’’ तो दुष्ट भैरवनाथ उनकी ओर पापपूर्ण कामुक दृष्टि से देखने लगा और उनके साड़ी के पल्ले को पकड़ने की कोशिश करने लगा। उस दुष्ट की मनोभावना को समझकर माता उसी समय वहां से अन्तर्धान होकर जम्मू नगर में जा पहुँचीं।

जम्मू नगर से 5 मील की दूरी पर ‘नगर कोटा’ (नगरोटा) नामक एक गांव है। जिस समय माता जम्मू नगर में जा पहुंचीं, उस समय गाँव में कुछ लड़कियां गेंद का खेल, खेल रही थीं। माता भी एक अन्य कन्या का रूप बनाकर उनके मध्य जा पहुंचीं, और खेल में सम्मिलित हो गईं। कुछ देर तक खेलने के बाद माता ने अपनी दिव्य शक्ति के प्रभाव से उन सब लड़कियों को स्वादिष्ट भोजन खिलाया। उसके बाद उन्होंने एक लड़की से पानी ले आने के लिए कहा। उस समय उस लड़की ने यह उत्तर दिया कि मेरे पास कटोरा नहीं है। साथ ही यहां पर कहीं पानी भी नहीं है, जो मैं ला सकूं। यह सुनकर माता ने उस कन्या को सोने का एक कटोरा देकर कुछ दूरी पर दिखाई देने वाले एक गड्ढे की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘तू इस कटोरे को ले जाकर उस गड्ढे में से पानी भर ला।’ यह कहकर माता ने अपनी दृष्टि मात्र से ही उस सूखे गड्ढे को जल से भर दिया। तब वह लड़की उस कटोरे को लेकर उस गड्ढे में से पानी भर लायी। कटोरे को हिलाने से उस स्थान का नाम ‘कौल कन्धोली’ पड़ गया। यह स्थान वैष्णों देवी की यात्रा का दर्शनीय स्थान है।
अब भगवती कौल कन्धोली नामक स्थान पर रहने लगीं तो कुछ ही दिनों में उनका यश वहां पर भी दूर-दूर तक फैल गया और लोग उनके दर्शनार्थ कौन कन्धोली पहुंचने तथा मनोभिलाषा पूर्ण कराने लगे। भगवती भी वहां रहकर कन्याओं के साथ खेलने तथा अपने भक्तों को मनोरथ पूर्ण करने लगीं।

कौल-कन्धोली क्षेत्र में ही ‘माई देवा’ नामक भगवती की एक पूजारिन रहा करता थी। उसने बाल्यावस्था में ही दुर्गा देवी का भजन-पूजन किया था और वृद्ध हो जाने पर भी उसके नित्य-नियम में कोई परिवर्तन नहीं आया था। वह रात और दिन माता की सेवा पूजा में ही लगी रहती थी। भगवती वैष्णवी देवी ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे प्रत्यक्ष दर्शन देकर कृतार्थ किया, साथ ही यह वरदान भी दिया कि मेरी पूजा के साथ तेरी पूजा भी हुआ करेगी और जो लोग तेरा दर्शन करने के बाद मेरे दर्शन करेंगे, उनकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।
देवी से यह आशीर्वाद पाकर देवीमाई सदैव के लिए अमर हो गई। कुछ समय बाद जब उसने शरीर त्यागा, उसी स्थान पर भक्तजनों ने एक मन्दिर का निर्माण करा दिया, जो वर्तमान में ‘देवीमाई’ या ‘माई देवा’ ‘ढक’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान वैष्णों देवी यात्रा में दर्शनीय है।

‘कौल-कन्धोली’ में भगवती के निवास की प्रसिद्धि जब चारों ओर फैल गई तो भैरवनाथ को भी उसका पता लगा। तब वह कौल-कन्धोली पहुंचकर देवी से मिलने का विचार करके अपने 360 शिष्यों को साथ लिये जम्मू के लिए चल पड़ा।
मार्ग में ‘हंसाली’ नामक गांव पड़ता था, जिसमें देवी के परम कृपा पात्र पं. श्रीधर भगत रहा करते थे।
भैरवनाथ को जब यह पता चला कि पं. श्रीधर देवी के बड़े भक्त हैं और माता उस पर विशेष कृपा करके हंसाली में ही निवास करती हैं, तो वह अपने शिष्यों को साथ लिये हुए पं. श्रीधर के मकान पर जा पहुंचा और उन्हें भण्डारा देने के लिए विवश करने लगा।

पं. श्रीधर गरीब ब्राह्मण थे। भैरवनाथ को 360 शिष्यों के सहित भण्डारा दे पाना उसके बस की बात नहीं थी। उधर भैरवनाथ का कहना था कि मैं तुससे भण्डारा लिये बिना नहीं मानूंगा। ऐसी स्थिति में जब पं. श्रीधर अत्यन्त दु:खी और चिन्तित थे, उस समय माता ने वहां प्रकट होकर अपने भक्त से कहा कि तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। तुम भण्डारा देने के लिए कह दो। मैं ही तुम्हारा सब प्रबंध कर दूंगी।

माता का यह आदेश मानकर पं. श्रीधर ने भैरवनाथ को भंडारा देना स्वीकार कर लिया। उस समय वैष्णवी माता ने अपनी शक्ति के प्रभाव से सोने-चांदी के बर्तनों सहित उनके प्रकार के पकवान वहां पर उपस्थित कर दिये। वे स्वयं ही भोजन परोसने के लिए प्रकट हुईं और भैरवनाथ के सभी शिष्यों को भूमिका नामक स्थान पर बिठाकर, इच्छानुसार भोजन करवा तृप्त कर दिया। जब सभी शिष्य भोजन कर चुके, तब भैरवनाथ ने भगवती के सामने पहुंचकर अपने लिए मद्य और मांस के भोजन की मांग प्रकट की। भगवती ने उसे उत्तर देते हुए कहा कि यह राक्षसों का भोजन है, अत: मैं ऐसा भोजन नहीं दे सकती। यदि तुम सात्विक भोजन करना चाहो तो वह तैयार है।
जिस समय माता यह कह रही थी उसी समय पापी भैरवनाथ ने, जो पूर्व से ही माता के लिए कुविचार रखता था, आगे बढ़कर उसके हाथ को पकड़ना चाहा। यह देखकर माता वैष्णवी वहां से उसी समय यकायक अन्तर्धान हो गईं और भैरवनाथ फिर से हाथ मलता रह गया। परन्तु उसने हार नहीं मानी और वह भगवती का पीछा करता हुआ आगे बढ़ने लगा।

भैरवनाथ को वहीं छोड़कर भगवती कुछ दूर चलकर पहाड़ के नीचे उस स्थान पर जा पहुंची जिसे आज ‘बाण गंगा’ कहा जाता है।
भगवती के वाहन शेर को प्यास लग गई थी, साथ ही भगवती स्वयं भी स्नान करने की इच्छुक थीं, इसलिए उन्होंने इस स्थान पर अपने धनुष से बाण चलाकर, पृथ्वी से जल निकाला था। इसीलिए उस जल धारा को ‘बाण गंगा’ कहा जाता है। इसके बाद भगवती ने उस धारा में अपने सिर के बाल भी धोए थे, इसी कारण उसे बाल गंगा के नाम से भी पुकारा जाता है।

बाण गंगा के स्थान पर जब भगवती का शेर पानी पी रहा था, तो पीछे से आते हुए भैरवनाथ ने उसे दूर से ही देख लिया, परन्तु जब तक भैरवनाथ उस स्थान पर पहुंचे, उससे पहले ही भगवती उस जगह जा पहुंची जिसे आज ‘चरण पादुका’ नाम से जाना जाता है।
कहा जाता है कि चरण पादुका नामक स्थान पर भगवती ने अपने चरण पर्वत के ऊपर रखे हैं तथा शीघ्रता के कारण इसी स्थान पर भगवती के चरणों की पादुका अर्थात् खड़ाऊं रह गई थी। कुछेक लोगों के मतानुसार इस स्थान पर भगवती सती के पवित्र चरण गिरे थे इसलिए इस स्थान को चरण पादुका कहा जाता है वह 51 शक्तिपीठों में से एक है परन्तु यह मत निर्विवाद रूप से मान्य नहीं है।

हंसाली से चलकर भैरवनाथ पहले बाण गंगा फिर चरण पादुका नामक स्थान पर पहुंचा, परन्तु तब तक भगवती उस जगह जा पहुंची जिसे वर्तमान समय में ‘आदकुमारी’ कहा जाता है। यह शब्द आदि कुमारी का अपभ्रंश है। इस स्थान पर माता कुछ समय के लिए ठहरी थीं। वर्तमान में इसी स्थान पर भगवती का एक छोटा-सा मन्दिर बना हुआ है।

जब भैरवनाथ आदि कुमारी स्थान पर भी पहुंचने को उद्यत हुआ तब माता वैष्णों देवी गर्भ गुफा में से निकलकर अपनी त्रिकूट पर्वत वाली गुफा में ही पुन: जा बैठीं। गर्भ गुफा को गर्भजून भी कहा जाता है। इस गुफा की बनावट ऐसी है कि जो व्यक्ति इस गुफा के भीतर पहुंच जाता है, वह गुफा से बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगता है, जिस प्रकार गर्भस्थ शिशु गर्भ से बाहर निकलने के लिए छटपटाता है।


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