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नरक गुलजार

सुभाष मुखोपाध्याय

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3787
आईएसबीएन :81-7119-309-9

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Nrak Guljar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हर पेशे की कोई न कोई पहचान होती है। ख़ास तौर पर अगर ऐसा कोई पेशेवर आदमी हर किसी को आसानी से मिल जाए।
थोड़ा देखकर लँगड़ा होना, और सामने डाक्टर पाकर मरीज़ बन जाना जैसी बात वैसे ही आम है। डाक्टर के मामले में और भी ज़्यादा। सामने डाक्टर हो तो फिर अपने आप मुँह से निकल पड़ता है, ‘अटेनशन...सैलूट...थम....’
वैसे यहाँ तुलना करने जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन लेखकों को भी तमाम जंजाल से जूझना और फिर बाहर निकलने की कोशिश करनी पड़ती है।

डाक्टरों के नसीब में ढेर सारे रोगी होते हैं लेकिन बेचारे लेखक के नसीब में पाठक कहाँ ? हाँ, उसके बदले कुछ लेखक ही आ जुटते हैं। डाक्टर अगर रोगी को अपनी ओर खींचता है तो लेखक-लेखक को।
पहले शादी-ब्याहवाले घर में दावत के बाद हाथ पोंछे जानेवाले कागजीरुमाल पर कविता लिखने के लिए कवियों की गुहार होती थी। आज की कविता इस तरह के झमेलों से आजाद है। यह ठीक है कि अमुक की जयंती, तमुक का अभिनंदन, नवजात शिशु का नामकरण, शौकिया पत्रिका (मूढ़ी-मिसरी जैसी या हर धान बाइस पसेरी बताकर जिसे एक बहुत खूबसूरत नाम दिया गया है-लिट्ल मैगजीन) में लिखने की पुकार और डाँट-फटकार जैसे झमेले अभी और कुछ दिन चलते रहेंगे।

इस तरह की उठा-पटक में पड़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती अगर मैं दूसरे की पाण्डुलिपियाँ लेकर अपना सिर नहीं खपाता। हमारे इन प्रकाशकों की जात-धात भी कुछ अलग तरह की है। ये प्रकाशक महीने-महीने भर कोई ढंग का सम्पादक रखे बिना नामवर पत्रिकाओं के खूंखार संपादकों के पीछे पड़े रहते हैं। ये चाहते हैं नामी गिरामी लेखकों की सिफारिशें। इस जुगाड़ से अगर कहीं कोई किताब चढ़ गई तो प्रकाशक की प्रौ बारह वर्ना बेचारा लेखक तो यूँ ही अंटा चित पड़ा रहता है।
इसी तरह शुरू से ही न जाने कितनी पाण्डुलिपियाँ लेकर प्रकाशकों के दरवाज़े पर मत्थे मारता रहा हूँ-इसका कोई हिसाब नहीं है। तमाम कोशिशें राख में घी डालने जैसी ही हैं। दो चार मामले में बिल्ली के नसीब से छींका टूटा भी है लेकिन इसके बाद लेखक और प्रकाशक हाथ लगे माल को कुछ इस तरह लूट लेते हैं कि मेरे हाथ फूटी कौड़ी तक नहीं लगती।
इसीलिए, आजकल अगर कोई पाण्डुलिपी हाथ लगती भी है तो उसे परे हटा देता हूँ। एक तरह बाजार में चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं और दूसरी तरफ दोस्तों से उधार की रकम भी बढ़ती जा रही है। मेरी तबीयत इन दिनों वैसे ही उखड़ी-उखड़ी रहती है। सारी जिन्दगी भूतों की तरह बेगार खटते-खटते ही खत्म हो गई। मेरी आँख बंद हुई नहीं कि सारी दुनिया मुँह मोड़ लेगी। इसके बाद मेरे सारे बेटी-बेटे दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे। कोई उनकी तरफ़ मुड़कर देखेगा भी नहीं।

मेरी ढाई साल की पोती वैसे तो आजकल की हवा में पली-बढ़ी है लेकिन शायद मुझसे भी ज़्यादा भोली-भाली है। और जब नाराज़ होती है तो अपने खिलौनों को एक तरफ़ उठाकर पटक देती है और कहती है-‘धत तेरे की !’ तभी मैं उस पगली के खिलौनों की तरह अपने होंठों पर हर घड़ी एक तरह की मुस्कान पोते रखता हूँ। लेकिन आजकल इस मुस्कान में भी एक तरह की झूठी नकल या मिलावट घुल गई है। मेरे पुराने दोस्त इसे नहीं भाँप पाते। लेकिन मुझे लगता है कि नये लोग इसे अच्छी तरह समझ लेते हैं।

इन बातों को बताने की ज़रूरत थी या कि नहीं थी-इस पर आगे कुछ न कहकर मैं असली बात पर आना चाहता हूँ।
बात कोई दो साल पहले की है। दूसरे ही दिन मुझे कहीं बाहर जाना था। इसलिए मन-ही-मन जाने की तैयारी चल रही थी।

तभी रजिस्ट्री डाक से कागजों का एक बंडल मेरे नाम आया। इस हाथ में थामते हुए मैं समझ गया कि मेरे सिर पर फिर किसी पाण्डुलिपि का बोझ आ पड़ा। और मेरे मुँह से बेसाख़्ता यही निकल पड़ा, ‘‘लो, मुफ़्त में मारे गये।’’ अब यह सुनकर चाहे कोई कुछ भी सोचे, लेकिन जिसके सिर पर आ टपकती है, वही समझ पाता है कि पराये आदमी की पाण्डुलिपि को ढोते फिरना सिवा परेशानी के और कुछ नहीं। अब मेरे पास कोई पेटी-वेटी या संदूक़ची तो थी नहीं, इसलिए उसके गुम जाने की बात सीने में काँटे की तरह चुभती रहती है। प्रकाशक की बात और है। वह ऊपर से राज़ी होने पर भी अनन्त काल तक इसे परे हटाकर रख सकता है। और अगर यह पाण्डुलिपि भी कहीं खो खा जाय तो आख़िरकार उसकी सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही पड़ेगी।

अब थोड़े ही दिनों में पाण्डुलिपि लेखक की चिट्ठी आने लगेगी। पहले तो अनुनय-अनुरोध फिर आरोप और उसके बाद तूफानी धमकी भूत की तरह बेगार करने के बाद आख़िरकार मुझे गालियाँ सुनने को मिलेंगी और इसे वापस करते हुए अपनी टेंट के पैसे ढीले करने होंगे, सो अलग।
अब वापस आकर ही इसे देखूँगा। और यही तय कर मैंने इसे ताक पर रखा और बाहर चला गया।
और इसके बाद आम तौर पर जो होता है-वापस आकर और भी पाँच तरह के झंझट-झमेलों में फँस गया और पाण्डुलिपि की बात दिमाग से पूरी तरह निकल गई। लेकिन जैसाकि इस मामले में अक्सर होता है, पाण्डुलिपि के लेखकगण कोड़े मार-मारकर मेरी याददाश्त को एकदम तरोताज़ा बनाये रखते हैं।

लेकिन इस पाण्डुलिपि के मामले में पता नहीं क्या हुआ कि देखते-देखते कैसे दो साल बीत गये-मैं खुद समझ नहीं पाया। कुछ दिन पहले ताक पर रखी किताबों की झाड़ पोंछ करते हुए अचानक वह बंद बंडल हाथों में आ गया।
मैं उस पर जमी धूल झाड़कर एक तरह से तभी पालथी मारकर बैठ गया। उस समय चूँकि कहीं बाहर जाने की हड़बड़ी थी इसलिए इसे भेजनेवाले का नाम-पता ठीक से मैं देख भी नहीं पाया था। अब इस घड़ी इस पर नज़र पड़ी। नाम और पता दोनों ही दक्षिण भारतीय थे। इस बंडल के अंदर क्या कुछ है-यह मुझे तभी देखना चाहिए था। अपनी इस कोताही पर मुझे बड़ी खीज हुई। बाहरी लिफ़ाफ़ाफाड़ने पर इसके अंदर एक और बंद लिफ़ाफ़ामिला। बाकी काग़ज़ इसी में तहाये हुए थे। पहले लिफा़फे़ के साथ ही एक छोटी सी पर्ची भी लगी थी-जिस पर अंग्रेज़ी में लिखा था :

‘प्रिय महाशय,
आपका एक पता लिखा लिफ़ाफ़ामुझे एक ट्रेन के कचरे में मिला। हो सकता है, इसमें कोई ज़रूरी काग़ज़ात हों-इसलिए मैं इसे रजिस्ट्री की मार्फ़त भेज रहा हूँ। ढेर सारे कामों में उलझा रहने के कारण इसे भेजने में काफ़ी देर हो गई। आशा है, आप मेरी विवशता को समझेंगे। मैंने जान-बूझकर देर नहीं की, इसके लिए मेरी ग़लती को माफ़ करने की कृपा करेंगे।’
मेरे लिए यह उचित होता कि मैं पत्र पढ़ने के तुरंत बाद उस भले आदमी को पत्र लिखकर धन्यवाद देता। लेकिन मैंने ऐसा एकदम नहीं किया; बल्कि लिफा़फे़ की बात मैं एक तरह से भूल ही गया। इस बीच उस भले आदमी ने हम बंगालियों के बारे में ज़रूर ही कोई धारणा बना ली होगी।

लेकिन अब कोई उपाय भी न था। आज दो साल के बाद मैं उसकी चिट्ठी निकालकर पढ़ रहा था। अब इस भूल को कबूल करूँ तो कहीं का नहीं रहूँगा, इससे तो अच्छा है कि चुप कर बैठ जाऊँ पुराने घाव को फिर से कुरेदना ठीक न होगा।
 यही सब सोचते हुए अंदर के लिफ़ाफ़े पर लिखे गये ठिकाने पर एक बार फिर नज़र गई। भेजनेवाले ने अपना नाम-पता तो लिखा नहीं था ? अंदर-बाहर एक ही पता था। और हो भी क्यों नहीं ?

यह तीस साल पहले की बात होगी-तब की सड़क और घर का नम्बर। तब आस-पास के सभी रास्तों का एक ही नाम होता था। घरों का पता प्लाट के नम्बर से होता था। पता बदल जाने के बावजूद हम पिछले चालीस सालों में अब भी उसी प्लाट में रह रहे थे। ऐसा न होता तो यह लिफ़ाफ़ा कभी मेरे पास नहीं पहुँचता। पुराने पते के साथ, ढेर सारी पुरानी बातें आकर मुझे तंग करने लगीं-क्या बताऊँ !

और इससे भी बड़ी बात यह थी कि पुरानी पहचान होने के कारण ही डाकिया मुझे यह वज़नी रजिस्टर्ड लिफ़ाफ़ा जो कि प्रेषक के नाम और पता बिना ही भेजा गया था-मुझे सौंप गया था। उसे मुझ पर भरोसा था-इसलिए। चूँकि उस दिन मैं बाहर जाने की हड़बड़ी में था-इसलिए इस बात पर मैंने कोई खास ध्यान नहीं दिया।
इतने दिनों बाद, इस घड़ी मेरा जी उतावला हो उठा कि आखिर इसके अंदर क्या है ?
दूसरा लिफ़ाफ़ा खोलते ही मैंने देखा कि उसमें एक चिट्ठी थी-मेरे नाम।

यह चिट्ठी भी अंग्रेज़ी में ही थी। लेकिन शुरू में किसी तरह का संबोधन या अंत में कोई नाम या दस्तख़त नहीं था। और कहना न होगा, दूसरे लिफ़ाफ़े के ऊपर भी कोई नाम या पता नहीं था। मतलब साफ़ था, पत्र का लेखक अपना नाम और पता छुपाकर रखना चाहता था। इतनी देर बाद मेरी जिज्ञासा शांत हुई।
दरअसल, पत्र में अपने को इस तरह छुपाकर रखनेवाली बात को मैं तनिक भी बर्दाश्त नहीं करता। लेकिन मधुमक्खी के छत्ते में पत्थर मारकर इसे तहस-नहस करनेवाले जितने भी पत्र अब तक मिले हैं-वे सब के सब एक तरह से बेनामी ही मिले हैं। और इनमें एक ऐसा नपुंसक तेवर होता है जिसे पढ़कर गुस्सा तो आने से रहा-अजीब सी उबकाई आती है। कहना चाहिए, घिन सी लगती है।

लेकिन नहीं। यह चिट्ठी उस तरह की नहीं थी। उसकी पहली पंक्ति कुछ दूसरे तरह से लिखी गई थी, लिखा था :
‘अगर यह चिट्ठी किसी तरह अपने पते पर पहुँच जाये तो यही सबसे आश्चर्यजनक बात होगी।’
आख़िर क्या कहना चाहता था वह ? यही कि मैंने जान-बूझकर इसे ट्रेन में फेंक दिया था। और ऐसा करते हुए मुझे इस बात का विश्वास था कि बहुत संभव है, कोई सहृदय आदमी इसे उठाकर, अपनी गाँव से पैसे ख़र्च कर इसे यथास्थान भेज देगा। इस विश्वास या भरोसे पर उसका कितना यक़ीन-था इस बात पर कोई अटकल लगाये जाने का कोई तुक नहीं था।
लेकिन इस बारे में थोड़ा-बहुत अंदाज़ तो लगाया जा ही सकता था। और अगर यह लिफ़ाफ़ा किसी अनपढ़ झाड़ूबरदार के हाथ लगता तो उसकी क्या हालत होती-यह तो आसानी से समझा जा सकता है और इसकी शुरुआत ही कुछ ऐसी थी कि पहली चुस्की में ही मक्खी...खैर ! और तभी ग़लत या सही पते पर इसके पहुँच जाने पर पहले ही हैरानी का हवाला दिया गया था।

चूँकि लिफा़फ़े पर कोई नाम-धाम था नहीं-इसलिए ज़ाहिर था कि इस पत्र के लेखक ने इस पर अपना कोई अधिकार नहीं जताया था। यह शायद दो कारणों से था-एक, अधिकार जताने पर इसके साथ ही उसकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती-जबकि लेखक ने अपने आपको इससे पूरी तरह मुक्त रखा है। दूसरे, पत्र-लेखक एक सीधा सादा आदमी था-सबसे अलग-न किसी से लेना और न किसी का देना। लेकिन प्रस्तुत पत्र के परिणाम के बारे में लेखक पूरी तरह अछूता हो-मुझे ऐसा नहीं जान पड़ा। क्योंकि ऐसा न होता तो वह लिफ़ाफ़ा ट्रेन में छोड़कर न जाता-इसे वह बड़े आराम से पानी में फेंक दे सकता था। वह इस लिखित सामग्री को किसी के हाथों सौंप देना चाहता तो था ही। पते से यह बात साफ़ थी।
हो सकता है अपने ख़र्चे से वह इसे भेजना नहीं चाह रहा हो !

लेकिन इसके बाद भी, कई सवाल अब भी रह जाते हैं। इसे भेजने में जो भी डाक-ख़र्च आया हो और जिसने भी यह रकम चुकाई हो-इसको भेजने के लिए अगर किसी को ज़िम्मेदार समझा जा सकता था तो वह इसका लेखक ही था। इस मामले में पत्र भेजनेवाले और पत्र पाने वाले के बीच जो सम्बन्ध था-वह क्या केवल संयोग ही था ?
तो फिर चिट्ठी में कोई संबोधन क्यों नहीं है ? बाद में कोई बखेड़ा न हो-क्या इस डर से ? दूसरी भाषाओं में ‘आप’ और ‘तुम’ के अंतर से जाने-अनजाने या बड़े-छोटे का बोध हो जाता है। लेकिन अंग्रेज़ी का ‘यू’ एक ऐसा गूढ़ संबोधन है कि इसे ठीक से समझ पाना सचमुच बहुत कठिन है।
कहीं मेरे किसी पुराने दोस्त ने तो इसे नहीं लिखा ? हो सकता है पिछले तीस सालों से इसके साथ मेरा कोई संबंध नहीं रह गया हो !

चाहे जिसने भी लिखा हो, उसकी उम्र पैंतालीस साल से एक बाल इधर नहीं होगी-ऐसा मैं बड़े इतमीनान से कह सकता हूँ।
लेकिन यह भला मुझे भेजा ही क्यों गया है ? लोग जब से मुझे एक लेखक की हैसियत से जानने लगे थे-उसके बहुत पहले से ही हमारी सड़क का नाम बदल गया है।
और जो मुझे लेखक के तौर पर नहीं जानता-उसको इसे मेरे पास भेजने की भला ऐसी क्या ज़रूरत थी ?
मेरे लिए दूसरी पहेली थी कि सारी चिट्ठी अंग्रेज़ी में लिखी गई थी। मैं सचमुच अजीब-सी उलझन में था।
 
यह बात भी सही है कि हमारे कई सहपाठियों में ऐसे भी बहुत से थे, जो देसी भाषा में लिखना अपना अपमान समझते थे। चूंकि हम लोग अपनी भाषा में थोड़ा बहुत लिख लेते थे और साहित्य चर्चा किया करते थे-इसलिए ये लोग हमें टेढ़ी नज़र से देखते थे।
तो फिर ऐसी क्या बात थी कि साँप के फूत्कार-भर से डर जाने वाले इस डरपोक लेखक को अंग्रेज़ी में लिखी अपनी पाण्डुलिपि भेज दी है ?
क्या बात है ?

अचानक मुझे ख़याल आया कि मेरा एक परिचित मित्र आन्ध्र प्रदेश के किसी एक इलाके में स्थायी तौर पर बस गया था। बहुत पहले, किसी शादी ब्याह के मौके पर उससे भेंट भी हुई थी उसके बाल-बच्चों को बाङ्ला, एकदम नहीं आती थी।
हो सकता है, उसके ही परिवार का कोई सदस्य हो !
लेकिन उसके लिए भी मेरा इतना पुराना पता जान पाना संभव न था। और मेरा पूरा नाम यानी किताबी नाम जान पाना उनके लिए तो लगभग असंभव ही था।
अब चाहे जो भी हो। वह सारा कुछ अँधेरे में ही रहे।
मैंने तय किया कि अभी उस सारे रहस्य को जान पाना न तो संभव है और न ही इसकी कोई ज़रूरत है। इसमें खामख्वाह वक़्त ही बर्बाद होगा।

बल्कि देखना यह चाहिए कि इस पाण्डुलिपि में क्या कुछ है ?
सरसरी तौर पर इसके पन्ने पलटते हुए लगा कि इसे काफ़ी लम्बे समय तक थोड़ा-थोड़ा करके लिखा गया है। काग़ज भी कई तरह के और कई आकार के हैं। कभी यह कलम से लिखी गई तो कभी डॉट पेन से। अक्षर काफ़ी छोटे-छोटे हैं। कहना चाहिए, बारीक हैं। लेकिन मैं इन्हें पढ़ सकता था। भाषा में किसी तरह की लाग-लपेट या उठा-पटक नहीं थी। एकदम सीधी-सादी ज़ुबान और लहज़ा बेपरवाह। लेखक ने बड़ी लापरवाही से व्याकरण हो कि वर्तनी-दोनों की भरपूर छीछालेदर की है।

हालाँकि इससे कुछ आता-जाता नहीं था। लेखक ने लिखा तो है सब कुछ अपनी सीधी-सादी अंग्रेज़ी में-लेकिन मैं इसे अपनी ज़ुबान में ही कहूँगा।
लेखक क्या कहना चाह रहा है-इसे आप उसकी जुबान में और उसके कहने के अंदाज़ में नहीं सुन पाएँगे। मेरा काम एक तरह से दुभाषिये जैसा ही होगा। और इसे भी मूल लेखक की बात और आवाज़ मान लेने के अलावा और कोई चारा नहीं। दूध का स्वाद छाछ या मट्ठे में न मिले तो इस शिकायत के पहले ही मैं अपनी लाचारी प्रकट कर देना चाहूँगा।
लेकिन बात शुरू करने से पहले मैं कुछ निवेदन कर देना चाहता हूँ।
नाम के मामले में लेखक का मनोभाव कुछ अजीब तरह का है। इसमें लेखक तो गुमनाम है ही और उसने जिनके भी बारे में लिखा है-उनमें से किसी का भी नाम नहीं लिखा है।

इसी बात से जुड़ी एक बात और है-वह अभी-अभी याद आ गई।
श्रेद्धेय सुनीतिकुमार चटर्जी ने एक बार मुझे अपने घर बुलवा भेजा था-किसी फ्रांसीसी लेखिका से परिचय करने के लिए। उनसे बातचीत के दौरान पता चला कि वे अपने किसी भी उपन्यास में नायक-नायिका या प्रमुख पात्र के नाम का इस्तेमाल नहीं करतीं। उस भद्रमहिला ने उस दिन मुझसे ढेर सारी बातें कीं। उनकी बातों पर अच्छी तरह विचार किया जाए और पड़ताल की जाए तो रवीन्द्रनाथ के ‘उस’ या ‘वो’ का राज समझ में आ जाएगा कि वह ‘नाम’ क्यों नहीं बताता। बात यह है कि नाम बताने पर ‘ये’ केवल ‘वो’ पर ही अटक जाया करेंगे। इसी डर से।’
मैंने इसीलिए यह बात पहले ही बता दी ताकि मुझ पर यह इलज़ाम न लगाया जाये कि मैंने ही जान-बूझकर इसमें कोई नाम नहीं रखा।

मेरी बात अब भी पूरी नहीं हुई। जहाँ-जहाँ ‘यू’ का प्रयोग किया गया है वहाँ-वहाँ मैंने अपने विवेक से या विचार से ‘आप’ या ‘तुम’ में बदल दिया है। हो सकता है, हर जगह लेखक का ऐसा उद्देश्य या अभिप्रोत नहीं रहा हो-जैसाकि मैंने किया है।
लेकिन सबसे ज़्यादा दिक्कत हुई है। संवाद के मामले में। आंचलिक भाषा या स्थानीय बोली का जो पुट इसमें है-उसमें मेरा कोई दखल नहीं है। वक्ता या लेखक के भाव या आशय को ही अपना आधार बनाया है। अंग्रेज़ी लिखने या उगलनेवाले लेखक तो अपने मन के आनन्द और भाव के उन्माद में जो मन में आया-‘डायलाग’ मार देते हैं। मुसीबत हम देसी लोगों की होती है। अब किसी बात के लिए जूझते रहो अपनी ज़ुबान में कि इसका मतलब क्या है ?

हो सकता है, मूल लेखक के मन में यह रहा हो कि उसने घास-फूस और माटी से जो सूरत खड़ी है उसमें अपने रंग भर दूँ जिससे कि एक सुन्दर-सी कृति तैयार हो जाए।
इस बारे में मैं दो टूक शब्दों में पहले ही बता दूँ कि मैं तो अपनी ही आग में धधक रहा हूँ। दूसरे की आँच में तपने की भला मुझे क्या पड़ी है।
लेकिन दूसरे की बात रखते हुए गाहे-ब-गाहे अगर मुझे अपने बारे में कुछ कहना हुआ तो मैं उसे अपनी जुबान में अलग से ही कहूँगा।
अच्छा, तो मैं मैं शुरू करता हूँ।
तो फिर मेरी आवाज़ में सुनिए, उस लेखक की कहानी :


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