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नारी विमर्श >> जी जी जी

जी जी जी

पाण्डेय बेचन शर्मा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3823
आईएसबीएन :8171194494

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‘उग्र’ जी का उपन्यास 'जीजी जी'....

Jijiji

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

मुरलीः मुरली ठाकुर मेरा नाम है और जीजीजी मेरी बड़ी बहन हैं, जिन्हें मेरे जन्म के पहले ‘प्रभा’ कहकर पुकारा करते...अक्सर मैं जीजीजी को समझाता हूँ कि वे माँ की अनुचित बातों पर विद्रोह क्यों नहीं करतीं...!
मंगला प्रसादः अपनी प्राण से प्यारी, पुत्र की तरह पाली हुई पुत्री को मैट्रिक तक पढ़ाकर इम्तहान में नहीं बैठाया। एक-एक कर सारी मानवी स्वतंत्रताएँ उसकी अपहरण कर ली गईं। स्त्री का प्रेम पाने के लिए उसके चुनिंदे पुरुष को अपनी लड़की तक दे देना ! स्त्री भी वह जो कन्या की माँ नहीं !

जीजीजीः एक औरत की हैसियत से मैं सदा हताश और निराश हुई और सिवा पुरुषों की रुचि रखने की दूसरी कोई गति सचमुच मुझे स्त्रियों की नजर नहीं आई। प्रायः सारे संसार का इतिहास स्त्रियों पर पुरुषों के अत्याचार से भरा है।
नरकूः मगर उक्त सारी बातें मनगढ़ंत थीं, चित्र की युवती का मुँह तो जीजीजी की तरह मैंने बनाया था-नाक उनकी जरा सुधार कर। कोई दस हजार बार असफल स्केच करने के बाद जीजीजी का चित्र अब मेरी उँगलियों में उतर आया है।

 

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’

 

जन्म :
1900 ई. जन्म-स्थान : चुनार, जिला मिर्ज़ापुर। 14 वर्ष की आयु तक स्कूल की बजाय गलियों-सड़कों पर। 1915 से पढ़ाई की शुरुआत; 1920 में जेल जाने से शिक्षावरोध। 1921 में रिहाई।
1921 से 1924 तक दैनिक ‘आज (बनारस) में कहानियाँ, कविताएँ, व्यंग्यादि का लेखन। तत्पश्चात् कलकत्ता में ‘मतवाला’ के संपादकीय सहयोगी। 1926-27 में पुनः जेलयात्रा। 1930-38 में बंबई जाकर फिल्म-लेखन। 1939-45 के दौरान मध्य प्रदेश से प्रकाशित स्वराज्य, वीणा, विक्रम आदि पत्रों में लेखन-संपादन 1947 में मिर्ज़ापुर से ‘मतवाला’ का पुनर्प्रकाशन। लेकिन 1950-52 में पुनः कलकत्ता और फिर 1953 से मृत्युपर्यंत-23 मार्च 1967 तक दिल्ली में।

प्रकाशित कृतियाँ:

चाकलेट, चन्द हसीनों के खुतूत, फागुन के दिन चार, सरकार तुम्हारी आँखों में, घंटा, दिल्ली का दलाल, शराबी, यह कंचन-सी काया, पोली इमारत, चित्र-विचित्र, कालकोठरी, कंचनघट, सनकी अमीर, जब सारा आलम सोता है, कला का पुरस्कार, मुक्ता गालिब और उग्र, तथा, अपनी खबर।

आवरण-चित्र :

डॉ. लाल रत्नाकर :जन्म : 12 अगस्त, 1957 जौनपुर। शिक्षा: सन् 1978 में कानपुर विश्वविद्यालय से ड्राइंग और पेंटिंग में एम.ए.। सन् 1985 में बनारस हिंदू विश्वासविद्यालय से ‘फोक आर्ट ऑफ इस्टर्न उत्तर प्रदेश’ विषय पर पी.एच.डी.। संप्रति एम.एम.एच. स्नातकोत्तर कॉलेज गाजियाबाद के फाइन आर्ट्स विभाग में लेक्चरर। देश की विभिन्न कला-दीर्घाओं में प्रदर्शनियाँ। भारतीय पर्यटन विकास निगम लि. नई दिल्ली, नेस्ले इंडिया लि. वे अनेक निजी संग्रहों में काम संग्रहीत।

 

प्रकाशकीय

 

अपने समय के विद्रोही लेखक ‘उग्र’ जी का रचनात्मक साहस और अनुभवगत वैविध्य समाज और साहित्य के लिए आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। बल्कि कहना चाहिए कि हमारे आज के दोमुँहेपन और सामाजिकता के तहत स्वीकार्य मान ली गई ‘हिप्पोक्रेसी’ को देखते हुए ऐसे साहित्य की ज़रूरत आज और भी ज्यादा है जो कड़वी चीजों को कड़वे ही ढंग से सामने रखता हो, ताकि पता चले कि वास्तव में हम कहाँ आ पहुँचे। ‘उग्र’ जी में वह धार थी जो झूठ को काटती है; यही कारण है कि हम उनकी दो पुरानी पुस्तकों को एक साथ ‘राधाकृष्ण पेपरबैक्स’ से लेकर आ रहे हैं। दोनों पुस्तकें (जीजीजी-प्रकाशन वर्ष 1943 और कढ़ी में कोयला-प्रकाशन वर्ष 1955) अपने समय में पाठकों द्वारा बहुत सराही गईं और बड़े पैमाने पर पढ़ी गईं। इनको नई साज-सज्जा के साथ पाठकों को सौंपते हुए हमें विशेष प्रसन्नता हो रही है। आशा है कि पाठक भी इन्हें नए आग्रह के साथ पढ़ेंगे।

 

प्रकाशक

 

दीबाचा

 

कम्यूनिस्टों का कहना है कि संस्कृति बुर्जुओं की विरासत नहीं-संपत्ति के साथ मजूरों को संस्कृति भी लेनी होगी। मजूर समृद्धिवान हों और संस्कृत बनें इसमें भला किसे आपत्ति हो सकती है-शुद्ध भारतीय दृष्टिकोण किसी की भी समृद्धि का दाहक नहीं और सभी को तहज़ीबदार या संस्कृत बनाने का पक्षपाती है। मगर समृद्धि वर्ग विशेष की छीन लेना और स्वयं क्षम बनकर पैदा करना दो पोलों का अंतर रखने वाली बातें हैं। वैसे ही संस्कृति ‘ले लेना’ और संस्कृत बन जाना दो बातें हैं।
यहाँ पर मैं कम्यूनिस्टों के स्त्री-विषयक सिद्धातों की चर्चा करना चाहता हूँ, यह बताने के लिए कि उनमें तथ्य कितना है। वह औरतों से कहते हैं कि उन्हें अपने पेट की कमाई स्वयं करने में स्वयं-आत्म-निर्भर होना चाहिए, न कि पुरुष-निर्भर। वह कहते हैं कि पुरुषों के साथ बाँह में बाँह डालकर उन्हें स्वतंत्र विचरने या ‘मित्रता सौख्य’ लेने का अधिकार होना चाहिए। कुल मिलाकर वह कहते हैं कि हर तरह से औरतें पुरुष के बराबर की बन जाएँ।

एक विदेशी सु-लेखक के मत से स्त्रियों के बराबर अधःपात का कारण है उनकी नैसर्गिक शारीरिक दुर्बलता। जिस देश के लोग जितना ही ज्यादा युद्धि-प्रिय होते हैं, स्त्रियों पर अत्याचार भी उतना ही वे करते हैं। यह बात नहीं कि स्त्रियों ने अपनी स्वाभाविक कोमलता और नम्रता के कारण ही निजी रुचि से यह सारी मुसीबत और गुलामी ली हो-नहीं; लाचारी से। कुव्वतेबाजू में वे मर्द का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं-सकेंगी। हमेशा उन्हें, चाह    या न-चाहकर, उसकी दासी ही बनी रहना पड़ेगा। यदि वे पार पा सकतीं तो कभी पुरुष का बलात्कार बर्दाश्त न करतीं। अक्सर इतिहासों में मौका आने पर स्त्रियाँ पुरुषों से कहीं ज्यादा खूँख्वार नजर आती हैं; मगर उनका सहज स्वभाव निर्माण कोमल और मधुर ही है।
जो स्वतंत्रता कम्यूनिस्ट या साम्यवादी औरतों के लिए आज चाहते हैं मेरे मते भारत में युगों पहले उसकी जाँच हो चुकी है। पुराण-जातक के उद्दालक के पुत्र उस श्वेतकेतु ने इस देश से उस परंपरा का नाश किया था-घोर प्रचार या तप से उस वक्त स्त्री और पुरुष और दोनों के एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्यों की परिभाषा नए सिरे से तैयार की गई थी और तबसे आजतक इस देश में स्त्री पुरुष की एक संपत्ति है।

इस ‘संपत्ति’ से चिढ़ने की ज़रूरत ? अगर पुरुष ने स्त्री को संपत्ति माना तो वह तो सँभालने ही की चीज़ हुई न कि ख्वार करने की ! जो पुरुष स्त्री-संपत्ति का दुरुपयोग करे वह तो दंडनीय ही है। संपत्ति तो श्रद्धया सुख और समय के लिए सावधानी से सुरक्षित खने की चीज़ है ? मैं पुरुषों का वकील नहीं; न तो महिलाओं की गुलामी का पट्टेदार ही-आज़ाद मैं दोनों को देखना चाहता हूँ; मगर पुरुष की आज़ादी और है, औरत की और। औरत पढ़ने-लिखने के मैदान में, शील समझ जीविका पैदा करने के मैदान में और समाज के अनेक सुधारक, रचनात्मक क्षेत्रों में पुरुष की होड़ कर सकती है मगर, अगर वह ताल ठोंककर मर्दों से कुश्ती भी लड़ना चाहे-बाँहें सटाना-तो वह चाह सकती है, वैसा करती भी है कभी मगर वह कुशलप्रद होता नहीं उसके तात्त्विक विकास के हक में।

ये रूसी मतवाले कहते हैं कि स्त्रियों को भी पुरुषों की तरह अपने मित्र बनाने का अधिकार क्यों न हो। ये पति और मित्र में भेद करना चाहते हैं। ये भगवान या-भगवती से भी तत्त्वतः स्त्रियों को अविश्वस्त करना चाहते हैं। कहते हैं-वहाँ (रूस में) स्त्री-पुरुष इस तरह घुल मिलकर एकाकर हो गए हैं, जैसे शीरोशकर। वहाँ पत्नियाँ समय निकालकर नर्सों का काम करती हैं और परपुरुषों को, युगों, उन्नत वक्ष से लगाए रखने पर भी शिशु-रूप ही में देखती हैं ! ऐसी विचार-क्रांति वहाँ हुई है ! पुरुष भी औरत को पाते ही ‘भकोस’ जाने की वस्तु न मान, बच्चों की तरह परस्त्रियों की गोद में सिसकने को बुरा न मान ‘मित्रता सौख्य’ लेते हैं यही कभी क्या देश में भी हो सकेगा ? यही यहाँ के कम्यूनिस्टों का रोना है।
रूस या इंग्लैंड की महिलाओं की स्वतंत्रता का इतिहास सौ साल का रोना है।

रूस या इंग्लैंड की महिलाओं की स्वतंत्रता का इतिहास सौ साल का भी नहीं है। सन’ 14 वाले महायुद्ध के बाद, लेनिन की सफलता के बाद, रूस में स्त्रियों को जो कुछ मिला हो, सो हो। वैसे ही इंग्लैंड की महिलाओं ने भी पिछले महायुद्ध ही के अवसर पर हंगामा उठाकर बहुत से अधिकार पाए थे मगर जो अधिकार मिले उनसे स्वयं स्त्रियों को संतोष नहीं....

The status of women workers is still an inferior Status. They are generally paid less then men for doing the same work. Wages for work done exclusively by women, even when it is skilled work, are less then the wages paid for unskilled mens work, an enquird by the minsrtry of labour in 1940 in industries covering more then six million workers were rarely more then 50 per cent. Of mens earning, in many cases a good deal less.

 

Mary Sutherland


मैरी सदरलैंड इंग्लैंड की फ़ेबियन पार्टी की विख्यात लेखिका हैं। उक्त उद्दरण उनके एक लेख से मैंने दिया है जो युद्ध शुरू होने के बरसों बाद लिखा गया है। याने आज भी विलायतवाले औरत मजूरों को उतनी मजूरी नहीं देते हैं, जितनी पुरुषों को सो भी अच्छी-से-अच्छी कारीगरी के कामों की भी ! नौसिखिया मर्द जहाँ एक सौ कमाता है वहीं कलापंडिता औरत पचास से अधिक नहीं कमा सकती। औरतों को मर्दों से कम मजूरी यों मिलती आई हैं कि वे औरतें हैं। मिल हो कि फै़क्टरी कि ऑफिस-सभी जगह औरत का वहीभाव है। और ऐसे सभी उद्योगों में जिसमें मजूरों की आवश्यकता है दो मजूरियाँ हैं, दो तनख़्वाहें हैं। इस पर जो वहाँ की देवियों (या मानवियों) ने हो हल्ला मचाया तो पुरुषों के वकीलों ने यह कहकर मर्दों की वकालत की कि उन्हें औरत –बच्चों का पालन करना पड़ता है-मगर औरतों को वह मुसीहत नहीं। इस पर औरतों का दावा है कि मर्दों की तनख़्वाहों से जब तक बच्चों की रक़म काट लेने का क़ानून बन न जाए उन्हें औरतों से ज्यादा मजूरी या तनख़्वाह समता के सिद्धांत से हर्गिज नहीं मिलनी चाहिए।

मैरी सदरलैंड का कहना है कि जब स्त्रियों की आर्थिक समस्या पर विचार किया जाए तो यह बात भी भूल न जानी चाहिए कि गृहिणी की हैसियत से उसका क्या पद है। वह कहती हैं कि इंग्लैंड के वे सुधारक जो विवाहित स्त्रियों की दुरवस्था का गिला करते हैं-यों कि विवाह के बाद के आर्थिक-नरक में रहती हैं क्योंकि उन्हें कहीं से कोई तनख़्वाह नहीं मिलती-सत्य को रंगीन चश्मे से देखते हैं।

Our outlook is so coloured  by the cash values of a profit-making economic system, that we are apt to assume that to earn wages-a by product in the bussiness of earning profit for employers and shareholders-is the only basis of individual dignity and real respect and independence.

 मुनाफे पर जीने वाली आर्थिक व्यवस्था से हमारा दृष्टिकोण ऐसा एकरंगा हो गया है कि हम विवश हैं यह सोचने को कि मजूरी कमाना ही-जिससे दूसरी शक्ल में मालिक और हिस्सेदार मोटे बनते हैं-व्यक्ति की इज्जत आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और सबकुछ है। कुछ सोचतीं-घर में पुरुषों के अधीन रहने से बेहतर है कमाना; और घर का केयर विशेषज्ञों पर छोड़ना। बच्चों को उस्तादों के हवाले, खाने को जातीय होटल के हवाले धोने-धाने काम चौकन्ने धोबियों के हवाले, घर की सफाई दूसरे विशेषज्ञों के हवाले वह तो हफ्ते के अंत में पे-पैकेट या ‘पगार’ लाया करे। इससे वह बेहतर माँ बन सकेगी, हफ्ते के उन क्षणों में जब उसे बच्चों के पास होने की फुरसत होगी-साथ ही दिन के काम के अंत में पति की सहगामिनी भी वह अधिक प्रसन्न रहेगी।

घर-गृहस्थी के सारे काम व्यर्थ के होते हैं, जिनसे स्त्रियों के विकास का कोई खास संबंध नहीं, यह सोचना भी-मैरी सदरलैंड की राय से-सही नहीं। वह कहती हैं, ऐसा सोचने वाले यह नहीं सोचते कि ‘गृह’ और ‘गृहस्थी’ के बनाने में कर्तबगारी की ज़रूरत होती है। ख़ासकर अगर बाल-बच्चे हों। ऐसे परिवार में जिसमें ऐसे लोग यह भी भूल जाते हैं कि विवाहिता स्त्री अगर बाहरी धंधा करे तो उसके माथे दो धंधे मढ़ जाते हैं-बाहरी जॉब और घरेलू और दोनों पाटों में बिचारी बुरी तरह पिसकर भी सुखी नहीं रह पाती। याने-

Economic independence through wages earning does not lift the working women out of the ‘‘slavery’’ of home.

मेरा दावा है जो कुछ रूस में हुआ या हो सकता है, वह भारत में कभी संभव नहीं। चंद पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ प्रोपेगैंडात्मक प्रस्ताव पास किया करें लेकिन असल में उन प्रस्तावों में निजी विकृत भावना या जान-बूझकर किसी पार्टी के प्रचार के सिवा और कुछ नहीं। इस बात को सोवियत भाव से भारतीय स्त्रियों के सुधारक भी जानते हैं। तभी पूरी हिम्मत से अपने मत का प्रचार वह नहीं कर पाते। अपने ही वक्तव्यों में हकलाते हैं। एक जगह अगर रूसी टाइप का चरित्र चित्रण भी कर जाते हैं तो दूसरे ही क्षण प्रेस में प्रच्छन्न शब्दों में उसके लिए खेद प्रकट करते हैं-कहते हैं, मुमकिन है इस देश के हक़ में रूसी रंग स्वास्थ्यप्रद न हो और फ़र्माते हैं-काहू के बैंगन बायले, काहू के बैंगन पंथ।

रूस अपनी राजनीति और सामाजिक समस्याओं को हल करने में पहले राष्ट्रीय था, फिर अंतर्राष्ट्रीय बना मगर अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन सफल होते हुए भी रूस से चलाया न जा सका-घरेलू आवश्यकताओं के कारण। इसीलिए उस दिन डिक्टेटाराचार्य कामरेड स्टालिन ने ‘थर्ड इंटरनेशनल’ या साम्यवाद का रूस की तरफ़ से होने वाला अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन बंद कर दिया। इधर भारतीय कम्यूनिस्ट बिना राष्ट्रीय हुए ही अंतर्राष्ट्रीय बनने को तैयार हैं ! जैसे कोई माँ बिना गर्भ धारण किए बच्चा जनना चाहे ! फिर, यहां के कम्यूनिस्ट आज मुख्य राजनीतिक शत्रु के विरुद्ध आंदोलन भी नहीं चला सकते-मैं तो कहूँगा चर्चिल साहब के चुरूट की गर्मी से-मगर सामाजिक उलट-फेर यह न छोड़ेंगे। इसी को कहते हैं मियाँ से ज़ोर न चले, बीबी को आँख बतावे। भारत के उद्धार के मसलों का मियाँ देश का स्वातंत्र्य है, न कि औरतों की वह आज़ादी जिससे वह पुरुषों के गले में हाथ डालकर मित्रता-सौख्य का अनुभव करें। उद्दालकेय श्वेतकेतु के पहले यह रुसी प्रथा यहाँ थी। उन्हीं दिनों की विचारधारा के आसपास पांचाली के पाँच पति हुए होंगे-मगर ऋषियों ने औरतों के मसले को पुनःपुनः सोचा और अंत में, उन्हें उपजाऊ धरती सी मान, उनके लिए पुष्ट और शुद्ध बीज ही की तजवीज़ की। अच्छी से अच्छी ज़मीन पर आए दिन जिस तिस बीज के उगाते रहने से उसकी उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाती है। बढ़िया ज़मीन पर अगर थूहर और बबूल उगाए जाएँ तो वे प्रबल थूहर और बबूल उगेंगे-याने अपने ही गुणों को सु-कु विकसित करेंगे न कि आम या नारंगी के वृक्ष बन जाएँगे।

अब वे सज्जन जो प्रकृति-विरुद्ध भी बबूल और आम को एक करना चाहते हैं, पूछ सकते हैं कि क्या मैं बबूल और थूहर को हमेशा कँटीला और बझाऊ ही बना रहने देने के पक्ष में हूँ ? उन्हें कभी किसी प्रकार आम या संतरे बनने ही नहीं देना चाहता ? सो बात नहीं। विलायत में कुछ लोग आलू के पौधे में टमाटर की क़लम लगाकर टमाटर और आलू एक साथ ही पैदा करने लगे हैं, मगर इस बात की जाँच अभी लंबे पैमाने पर नहीं हुई है। मैं कहता हूं, बबूल या समाज के पतियों को आम या ऊँचों के बराबर करना अच्छी बात है, बुरी ज़रा भी नहीं-बुरा है बिना रसीला बने बबूल को आम के बाग़ में रोपना। स्त्रियाँ मेरे मत से हरेक पुरुष से अवगुंठन-विहीन मिल सकती हैं। मगर ‘मैत्री-सौख्य’ हरेक से लेने का चस्का भले ही उनका यह जीवन नमकीन बना दे, लेकिन मज़े का चस्का-कितना ही स्वादिष्ट हो-व्यक्ति को ऊँचे नहीं उठाता। उधर ऊँचे ही तो स्वर्ग है, जहाँ परमात्मा होंगे; और रुसी टाइप का साम्यवादी न तो स्वर्ग में विश्वास करता है और न परमात्मा में-वह तो मर्त्य ही में जो कुछ भी पल्ले पड़ जाए उसी का निरंकुश भोक्ता बनने के फेर में है। किसी की भी दौलत, किसी की भी औरत अपनी-दारवत् परदारेषु परद्रव्येषु आत्मवत् है तो यही साम्यवाद यथार्थ !

ज्ञानी के किए संसार में इतनी असंतोषजनक अपमानजनक बातें हैं, ज्ञान होते ही मैंने सोचा कि इस जगत का नाश हो जाए तो बेहतर। युगों और युग-युगांतरों से इस जर्जर जगत् का वही छायावादी चर्खा चलता जा रहा है-दुख-सुख की आँख मिचौनी मात्र मृग-मरीचिका वैभव-ज्ञान। विश्व-विधायक के विधान को विज्ञान और प्रज्ञान बनकर भी बाल बराबर बदल नहीं सकता-जैसे बड़े लाट के आगे जज का आर्डर चल न सके; न ही पार्लमेंट की सिफ़ारिश ! फिर ऐसे ज्ञानमय जीवन-विधान से लाभ ? वही महाकवि भर्तहरि का-‘ब्रह्माज्ञातं ततःकिम् !’ ! कुछ भी जानो यार, लेकिन तुम्हारी सारी जानकारी किसी अदृश्य डिक्टेटर की मुट्ठी में है जिस पर ज्ञानी का ज़रा भी वश नहीं। ज्ञान-मुग्ध भले वह प्राण दे दे लेकिन क्या मजाल कि उसके प्रयत्न गुलाब के काँटे निकाल सकें या सोना को सुगंधित कर पावें अथवा आग को निर्धूम वा समुद्र को मीठा। फिर इस सृष्टि-मानव का उद्देश्य क्या ? बहानेबाजी बहुत सुन चुका, यथार्थ कोई कहे-खाना पीना भोगना सोना हगना गिरना और मरना ? मात्र ?? छिः !!! ज्ञानी मात्र इतने के लिए सारी दुनिया की परेशानी कशमकशों में क्यों खपे ? क्यों किसी को खपने दे ? मैंने सोचा-मुझे कभी बल मिले तो मैं सृष्टि-क्रम ही बंद कर दूँ-प्रचार, औषधि और आविष्कारों की मदद से। एक ऐसी पीढ़ी की ज़रूरत है जो यथाशीघ्र इस सृष्टि-क्रम का ध्वंस कर दे। पुरुष ब्रह्मचारी ही रहें, स्त्रियाँ जननी न बन सकें-उन्हें ऐसी दवाएँ खिला दी जाएँ-ऐसे अंग काटकर फेंक दिए जाएँ। इस तरह जिसका कोई ख़ास उद्देश्य नहीं, और जो सदा से मत-मतांतरों का पागलख़ाना और जेलख़ाना ही बना रहा है !

गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है ‘पुरुष त्याग सक नारिहिं जो विरक्त, मतिधीर’-याने हिम्मती मर्द बिना औरत के रह सकता है। मगर उन्होंने यह न जाने क्यों नहीं लिखा कि हिम्मती औरत भी बिना मर्द के रह सकती है। शायद एक औरत से ठगाए गोस्वामी सदा उस जाति से चिढ़े ही रहे; नहीं तो, इतना और भी कहीं लिख देते कि-‘नारि त्याग सक पुरुषहिं जो सुशक्ति, गंभीर।’ और इसमें कोई झूठ भी नहीं, पुराणों-इतिहासों के प्रमाण हैं, स्त्री अपने पर आ जाए तो वह पुरुष की अवहेलना ऐसे कर सकती है जैसे उस चित्र की महाभीमा चंडी जिसके चरणों के नीचे विश्वनाथ दबे हुए हैं !’’
जातक की एक कथा में भगवान बुद्ध, जब बोधिसत्व थे, एक बार हिमालय से उतर अपने एक शिष्ट राजा के राज में नमक खाने को आए और सोलह वर्ष उसकी सेवा से संतुष्ट उसके महलों ही में डटे रहे। उसी दरमियान एक बार वह राजा जब शिकार पर गया तो गुरु की सेवा का भार अपनी सुलक्षणा महारानी को सौंपता गया। एक दिन महारानी गुरु के लिए भोजन तैयार कर प्रतीक्षा करतीं करतीं एक छोटी पलंग पर जरा झपक गयी। उसी वक्त गुरुजी आये और उन्होंने महारानी को असावधान व कपड़े अस्त-व्यस्त उनका उन्मादक अंग खुला देखा, इतने में गुरु को वस्त्रों की खरखराहट से महारानी सजग हो उठीं और उन्होंने सादर उन्हें भोजन कराया। लेकिन वह तपस्वी तो महारानी के अंग खुला देखने के कारणध्यान-च्युत हो, मोहमुग्ध हो, रानी की कामना करने लगा !

फिर भी था शख़्त समझदार निश्चय किया कि दिल क़ाबू में नहीं तो उस औरत के हाथ से खाना भी ठीक नहीं। और लगे हजरत उपवास करने। तब आए स्वयं महाराज शिकार समाप्त कर। उपवास का सबब पूछने पर गुरु ने साफ़ बतला दिया कि वह राजा की महारानी पर आसक्त हो गया है ! राजा ने कहा-महाराज, महारानी सुलक्षणा को अभी आपकी सेवा में भेजता हूँ। आप तपस्वी-आचार्य सिद्ध चिंता न करें। राजा के आग्रह पर महारानी ने गुरु की पत्नी बनना स्वीकार तो लिया लेकिन चंद शर्तें लगाकर, जिन्हें राजा ने स्वीकारा। रानी कामातुर, व्याकुल गुरु के पास आईं-लो मैं आपकी हुई, मगर अब राजा से एक घर तो माँगिए, नहीं तो रहेंगे कहाँ ! उधर कैसा घर दिया जाए सो महारानी ने राजा को बतला रखा था। जो घर गुरु को मिला उसमें तिल-तिल पर गू और मैला भरा-धरा था। महारानी की इच्छा से औरत के लिए गाड़ियों गू गुरुदेव ने अपने माथे उठाकर फेंका औरत कामातुर होने के कारण दस मजूरों का काम अकेले किया ! अब चूल्हा लाओ, चक्की लाओ, झाड़ू लाओ, सिल लाओ, नमक-हल्की-मिर्ची आटा, दाल, चावल ओढ़ना-बिछोना यह लाओ, वह लाओ ! मारे आर्डरों के महारानी ने दौड़ाते गुरु को कुत्ता बना दिया। मगर उसने भी किया सबकुछ और कहीं पर भी उसकी आँखें खुलीं नहीं-यहाँ तक कि अपने हाथ से पलंग बिछाकर, अंतिम आकांक्षा-पूर्ति के लिए तैयार हो गया-उसने हाथ पकड़कर महारानी को अपनी तरफ़ खींचा !


 

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