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महान व्यक्तित्व >> गोपाल कृष्ण गोखले

गोपाल कृष्ण गोखले

धरमपाल बारिया

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3923
आईएसबीएन :000000

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असाधारण कर्मयोगी और महात्मा गाँधी के राजनीतिक गुरू....

gopalkrishn gokhle

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

होनहार बिरवान

गोपालकृष्ण तब तीसरी कक्षा के छात्र थे। अध्यापक ने जब बच्चों के गृहकार्य की कॉपियां जांची, तो गोपाल कृष्ण के अलावा किसी के जवाब सही नहीं थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण को जब शाबाशी दी, तो गोपालकृष्ण की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी हैराम हो उठे। गृहकार्य उन्होंने अपने बड़े भाई से करवाया था।
एक तरह से शुरुआत थी यह उस निष्ठा की, जिसके आधार पर गोखले ने आगे चलकर अपने चार सिद्धांतों की घोषणा की-

1. सत्य के प्रति अडिगता
2. अपनी भूल की सहज स्वीकृत
3. लक्ष्य के प्रति निष्ठा
4. नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव


वाकपटुता का कमाल



बाल गंगाधर तिलक से मिलने के बाद गोखले के जीवन को नई दिशा मिल गई थी। गोखले ने पहली बार कोल्हापुर में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया था-सन् 1885 में। गोखले का भाषण सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे, भाषण का विषय था-
अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भारत।

प्रतिज्ञा वाक्य


गोखले के अन्तर्निहित गुणों के विकास में महादेव गोविन्द रानाडे, अर्थशासत्र के प्राध्यापक पद से महाराष्ट उच्च न्यायलय के न्यायाधीश पद की यात्रा करने वाले महामानव की भूमिका महात्वपूर्ण थी। रानाडे अर्थशास्त्र के प्राध्यापक पद से महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के न्यायधीश पद की यात्रा करने वाले महामानव की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। रानाडे को गोखले अपना गुरु मानते थे। रानाडे से मिलने के बाद गोखले ने लिखा था-‘मैं विनम्र, किन्तु अडिग भाव से निम्न कार्य पूरे करने की चेष्टा करूंगा-

1. नियमित योग साधना।
2. प्राचीन इतिहास, प्राचीन एंव आधुनिक दर्शन, खगोलशास्त्र भू, विज्ञान, जीव विज्ञान, मनोविज्ञान और फ्रेंच भाषा का अध्ययन करूंगा।
3. बंबई विधान परिषद् या सुप्रीम विधान परिषद् या ब्रिटिश पार्लियामेंट का सदस्य बनने का प्रयास करूंगा।
4. प्रचारक बनकर उत्कृष्टतम दर्शन मूलक धर्म का पालन, करूंगा।’

सुधारक की कड़ी भाषा


‘केसरी’ और ‘मराठा’ अखबारों के माध्यम से तिलक जहां अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध लड़ रहे थे, वहीं ‘सुधारक’ को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया हुआ था। ‘केसरी’ की अपेक्षा ‘सुधारक’ का रूप आक्रामक था।
सैनिकों द्वारा बलात्कार का शिकार हुई दो महिलाओं ने जब आत्महत्या कर ली, तो ‘सुधारक’ ने भारतीयों को कड़ी भाषा में धिक्कारा था-
‘तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।’
इन शब्दों ने भारत में ही नहीं, इंग्लैंड के सभ्य समाज में भी खलबली मचा दी थी।
‘सर्वेन्ट ऑफ सोसायटी’ की स्थापना गोखले द्वारा किया गया महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस तरह गोखले ने राजनीति को आध्यात्मिकता के ढांचे में ढालने का अनुठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्यों को ये 7 शपथ ग्रहण करनी होती थीं-

1. वह अपने देश की सर्वोच्च समझेगा और उसकी सेवा में प्राण न्योछावर कर देगा।
2. देश सेवा में व्यक्तिगत लाभ को नहीं देखेगा।
3. प्रत्येक भारतवासी को अपना भाई मानेगा।
4. जाति समदाय का भेद नहीं मानेगा।
5. सोसाइटी उसके और उसके परिवार के लिए जो धनराशि देगी, वह उससे संतुष्ट रहेगा तथा अधिक कमाने की ओर ध्यान नहीं देगा।
6. पवित्र जीवन बिताएगा। किसी से झगड़ा नहीं करेगा।
7. सोसायटी का अधिकतम संरक्षण करेगा तथा ऐसा करते समय सोसायटी के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देगा।


गोपाल कृष्ण गोखले


भारत भूमि को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने के लिए बहुत से वीर सपूत भारत भूमि पर जन्मे और आजादी पाने के लिए अपने त्याग और बलिदान से इतिहास रचकर चले गए। कुछ ने तलवार और बारूद से गुलामी की जंजीरों को काटने के प्रयास किए तो कुछ ने अपने बुद्धि-चातुर्य से। ऐसे समय में जब 1857 का स्वतंतत्रा-समर दम तोड़ चुका था तब समर से बुझती चिन्गारी को हवा देने के लिए भारत के समराकाश पर एक सितारा उदय हुआ जिसने अपने तर्कों एवं अहिंसावाद से अंग्रेजों के पांव उखाड़ दिए और जिसे आज संसार गोखले के नाम से जानता है।


जन्म एवं परिवारिक स्थिति



1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नौ वर्ष बाद गोखले जी का जन्म हुआ, यह वह समय था जब स्वतंत्रता संग्राम असफल अवश्य हो गया था, किंतु भारत के अधिकांश देशवासियों के हृदय में स्वतंत्रता की आग धधकने लगी थी।
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, सन् 1866 को बंबई (अब मुम्बई) प्रेजीडेंसी के रत्नागिरी जिले के कोतलुक गांव में हुआ था। गोखले परिवार मूल रूप से इसी जिले के वेलणेश्वर गांव का रहने वाला था, किंतु व्यावसायिक कारणों से यह परिवार एक अन्य गांव ताम्हनमाला में आ बसा था। यह ससम राजनीतिक आन्दोलनों का था, जैसा कि बताया जा चुका है कि कुछ वर्षों पूर्व ही 1857 का राजनीतिक विद्रोह समाप्त हो चुका था जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कई महान विभूतियों को लील लिया था जिसमें महारानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे जैसी प्रमुख विभूतियां थीं। इस विद्रोह की असफलता के बाद ही जहां लोगों के मन में स्वतंत्र होने की इच्छा बलवती होने लगी थी, वहीं ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन भी भारत से समाप्त हो गया था और सत्ता की बागडोर महारानी विक्टोरिया ने अपने हाथों में ले ली थी।

भारत में गरीबी, अशिक्षा और असंतोष फैला हुआ था जब गोपालकृष्ण गोखले ने आंखें खोलीं।
गोखले परिवार मध्यम वर्ग का था। उनके परिवार के पास थोड़ी ही जमीन थी जो कि रत्नीगिरी में थी। रत्नागिरी की भौगोलिक स्थिति एवं अतिवृष्टि के कारण हालांकि वहां अधिक अनाज नहीं उगाया जा सकता था किन्तु फल-फ्रूट आदि की पैदावार वहां अच्छी थी।
यह परिवार उच्चस्थ ब्राह्मण कुल का था, इनका कुल चितपावन था। यह कुल अपने क्षेत्र में अग्रणी माना जाता है। महाराष्ट्र पर सौ वर्षों से भी अधिक शासन करने वाला पेशवा परिवार भी इसी ‘चितपावन’ ब्राह्मण कुल से सम्बद्ध था। यह (गोखले) परिवरा व्यवहार कुशल एवं महत्वाकांक्षी था और परिवार का सिंद्धांत था-‘परमित इच्छा संयत व्यय।’
ऐसे संस्कारशील एवं उच्च ब्राह्मण कुल में हुआ गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म।

उनके पिता का नाम कृष्णराव था, जो कोल्हापुर रियासत के एक सामंती रजवाड़े कागल में कार्यरत थे। प्रारंभ में कृष्णराव वहां एक साधारण क्लर्क थे, किंतु धीरे-धीरे उन्नति करके वे रियासत पुलिस के इन्स्पेक्टर बन गए थे। गोपाल कृष्ण गोथले की मां कोतलुक गांव के ‘ओक’ परिवार से थीं। उनका नाम वालूबाई उर्फ सत्यभामा था, वे एक सरल-स्वभाव की महिला थीं। उन्होंने अपने बच्चों को परिवार के प्रति निष्ठा, धर्म के प्रति आस्था तथा हृदय को कोमल बनाए रखने की शिक्षा दी। गोपाल को अपने माता-पिता से उत्कृष्ट गुण विरासत में मिले। कृष्णराव के परिवार में उनकी पत्नी के अतिरिक्त चार पुत्रियां और दो पुत्र थे। उनके बड़े भाई का नाम गोविन्दराव था। चार पुत्रियां गोविंदराव से छोटी थीं। गोपालराव यानी गोपाल कृष्ण गोखलपे भी गोविन्दराव से पांच वर्ष बड़े थे।

छः बच्चों और पत्नी के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व अकेले कृष्णराव पर था। कृष्णराव रियासत के पुलिस निरीक्षक अवश्य थे, परंतु रियासत से वेतन बहुत कम मिलता था। इस पर भी कृष्णराव की इच्छा थी कि उनके पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बन जाएं। यही कारण था कि छोटी आयु के होने पर भी वे अपने दोनों पुत्रों से मित्रवत व्यवहार करते थे। वे उनके साथ बैठते-बतियाते उनकी समस्याएं सुनते और खुले दिल से उन समस्याओं का समाधान करते, उनकी शिक्षा के विषय में पूछते और अपनी सलाह देते। वे अपनी कोई भी इच्छा अपने पुत्रों पर लादने के पक्ष में नहीं थे।
गोपाल कृष्ण शुरू से ही सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार थे।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा कांगला में शुरू हुई। यहीं जब वे तीसरी कक्षा के छात्र थे, तब एक ऐसी घटना घटी जिसने गोखले को पूरे स्कूल का चहते और सम्मानीय बना दिया।
घटना इस प्रकार थी-
गोपाल कृष्ण गोखले तीसरी कक्षा में छात्र थे। गणित के अध्यापक ने उन्हें कुछ सवाल घर से हल करके लाने के लिए दिए।
दूसरे दिन कक्षा में जब अध्यापक महोदय ने सभी छात्रों की कॉपियां जांचीं, तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि गोपाल कृष्ण गोखले के अतिरिक्त किसी भी छात्र के उत्तर सही नहीं थे। सभी के सवाल गलत थे। तब अध्यापक ने सभी छात्रों को डांटा और गोपाल कृष्ण की पीठ थपथपाई, मगर एकाएक ही गोपाल कृष्ण फूट-फूटकर रोने लगे।
यह देखकर अध्यापक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने उनसे रोने का कारण पूछा, तब सिसकते हुए गोपाल कृष्ण ने बताया कि जो शाबाशी उन्हें मिल रही है, वे उसके असली अधिकारी नहीं हैं। यह सभी सवाल उन्होंने अपने भाई से हल कराए हैं, इसलिए वे प्रसंसा के नहीं बल्कि दण्ड के अधिकारी हैं।

उनके अध्यापक उनकी इस सत्यनिष्ठा और निर्भीकता से अध्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें हृदय से लगा लिया।
इस घटना से उनका नाम सत्यनिष्ठा के लिए पूरे स्कूल में जाना जाने लगा।
सन् 1874 में गोपाल कृष्ण अपने बड़े भाई गोविन्द कृष्ण गोखले के साथ उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोल्हापुर आ गए। कोल्हापुर कांगल के नजदीक ही उच्च शिक्षा का केंद्र था। यहां अंग्रेजी शिक्षा का भी प्रबंध था। कृष्णराव का तो एकमात्र यही प्रयास था कि भले ही उन्हें कितनी भी कठिनाइयां क्यों न उठानी पड़े, उनके बच्चे किसी प्रकार पढ़-लिखकर बड़े आदमी बन जाएं।
मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था। कृष्णराव के पुत्र क्या बने और भविष्य में उनका क्या हुआ, यह देखने के लिए कृष्णराव जीवित न रहे। एक दिन अचानक गोखले परिवार पर वज्रपात हुआ। कृष्णराव गोखले का अचानक देहांत हो गया।

उस समय दोविन्दराव 18 वर्ष के और गोपाल कृष्ण मात्र 13 वर्ष के थे। गोविन्दराव का विवाह हो चुका था क्योंकि उन दिनों छोटी आयु में ही लड़के का विवाह कर दिया जाता था। यह सामाजिक रीति थी।


घोर आर्थिक संकट



यूं तो गोखले परिवार की आर्थिक स्थिति वैसे ही डावांडोल थी, मगर कृष्णराव की मृत्यु के बाद तो परिवार के सामने खाने तक का संकट उत्पन्न हो गया। गोविन्दराव के चाचा अनन्तराव कहने को तो सरकारी कर्मचारी थे, मगर उनकी पगार भी इतनी अधिक नहीं थी कि वे किसी की आर्थिक मदद कर पाते। सच तो यह था कि उसके अपने परिवार का गुजारा ही मुश्किल से होता था। भाई के अकस्मात निधन से उन्हें गहरी चोट पहुंची थी। मगर कुछ भी था, वे अपने भतीजों और विधवा भाभी को भी बेसाहरा नहीं छोड़ सकते थे। अतः उन्हें अपने साथ ताम्हनमाला ले आए। तत्पश्चात् कुछ दिन के बाद यह निर्णय हुआ कि आर्थिक संकट से निपटने के लिए गोविंदराव पढ़ाई छोड़कर ताम्हनमाला में ही नौकरी करें। गोपालराव के लिए निर्णय लिया गया कि वे कोल्हापुर में ही रहकर अपनी पढ़ाई पूरी करें और अपने पिता के ‘बड़ा आदमी’ बनने के स्वप्न को पूरा करें।

मगर गोपालराव ने इस बात का विरोध किया। वे चाहते थे कि वे स्वयं भी पढ़ाई छोड़कर वहीं रहे और आर्थिक संकट से निपटने में भाई का हाथ बटाएं, मगर परिवार ने उनकी इस इच्छा को सिरे से ही नकार दिया। गोविंदराव और उनकी पत्नी ने समझा-बुझाकर और पिताजी की इच्छा का हवाला देकर बड़ी कठिनाई से उन्हें पढ़ने के लिए राजी किया।
तत्पश्चात् भारी मन से गोपाल कृष्ण गोखले उर्फ गोपालराव कोल्हापुर रवाना हो गए।
इधर, कई सिफारिशों के बाद गोविन्दराव की नौकरी लगी, मगर मात्र पन्द्रह रुपये माहवार पर। वे चूंकि स्वयं कोल्हापुर रहकर पढ़ थे, इसलिए उन्हें गोपाल कृष्ण की पढ़ाई में आने वाले खर्च का पता था, अतः आठ रुपये महीना उन्होंने गोपाल कृष्ण को भेजना निर्धारित किया और मात्र सात रुपये माहवार घर खर्च के लिए रखे। इतने कम रुपयों में परिवार का गुजारा बेहद कठिनाई से चल रहा था, पूरा परिवार घोर संकट के दौर से गुजर रहा था।
गोविंदराव ने सोच लिया था कि भले ही कितनी कठिनाइयां झेलनी पड़ें, वे गोपाल की पढ़ाई में व्यवधान नहीं आने देंगे।


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