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पौराणिक कथाएँ >> श्रवण कुमार

श्रवण कुमार

एम. आई. राजस्वी

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :77
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3927
आईएसबीएन :81-310-0236-5

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माता-पिता की सेवा को ही भगवान की आराधना मानने वाले युवक की दिव्य गाथा...

Shravan kumar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अयोध्या का निकटस्थ वनप्रदेश हिस्रक पशुओं से आक्रांत हो गया था। महाराज दशरथ जनकल्याण और आखेट अर्थात् कर्तव्य और आनंद दोनों की दृष्टियो से इस अवसर का लाभ उठाने स्वयं वनप्रदेश की ओर चल दिए।
घटाटोप अंधकार में महाराज दशरथ के कानों में कुछ ऐसी ध्वनि पहुंची जिससे उन्हें लगा कि कोई हिंस्रक पशु जल पी रहा है। महाराज ने शब्दभेदी बाण छोड़ा। बाण अपने सही निशाने पर लगा। लेकिन मानवी चीत्कार सुनकर महाराज भय से जड़वत् हो गए। उनके बाण ने एक युवक का सीना बेंध दिया था। इस बाण ने मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार के प्राण ले लिये थे।

श्रवण कुमार

शांतवन को गृहस्थ जीवन व्यतीत करते-करते काफी समय व्यतीत हो चुका था। उनकी गृहस्थी सुखी-संपन्न थी, किंतु एक दुख ऐसा था जो उनके हर सुख पर भारी था। वे लाख प्रयत्न करके भी इस दुख से छुटकारा नहीं पा सकते थे, ना पा सकते थे। यह दुख था उनका संतानहीन होना। संतान-सुख से वंचित होने की विडंबना उन्हें उठते-बैठते, सोते-जागते, हर घड़ी सताती रहती थी।

शांतवन की पत्नी ज्ञानवती यद्यपि अपने पति को हर समय समझाती रहती थी कि प्रकृति से नहीं लड़ा जा सकता और संसार में जो भी सुख-दुख है वे प्रकृति-प्रदत्त हैं, तथापि वे सब समझते हुए भी स्वयं को शांत नहीं रख पाते थे। ज्ञानवती ज्ञान-ध्यान की बातें सुनकर पति के दुख को विस्मृत करने के प्रयास में जुटी रहती थी। हालांकि वह स्वयं भी उसी दुख से दुखी थी जिससे शांतवन के सीने में शूल की तीव्र चुभन होती थी, किंतु वह अपने दुख की टीस को अपने ही कंठ में छुपाए पति को सांत्वना देकर स्वयं सांत्वना पाने का एहसास करती थी।
एक दिन शांतवन और ज्ञानवती संतानहीनता की व्यथा को एक-दूसरे से बांटते हुए शोक निमग्न हो रहे थे।
‘‘स्वामी !’’ ज्ञानवती अपने पति शांतवन से कह रही थी, ‘‘कभी आप यह कहा करते थे कि प्रभु प्राणी को जिस दशा में रखे, उसी में प्रसन्न रहना चाहिए।’’

‘‘देवी ! उचित तो यही है।’’ शांतवन धीरे से बोले, ‘‘और इसी में प्राणी का कल्याण भी है, पर मनुष्य को धैर्य और संयम की शक्ति का ज्ञान होते हुए भी धैर्य और संयम को अपने जीवन में उतारना सरल नहीं है।’’

‘‘यदि धैर्य और संयम में शक्ति है और इस शक्ति का रहस्य किसी को ज्ञात है तो फिर इसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य को धैर्य और संयम का पालन करना ही चाहिए।’’
‘‘देवी ! प्राणी का जीवन बहुत कुछ प्रकृति और परिस्थिति के सहारे भी आगे बढ़ता है। उसमें धैर्य और संयम केवल उतने ही रह पाते हैं, जितना कि प्रकृति और परिस्थिति चाहती है।’’
‘‘मगर स्वामी !’’ ज्ञानवती धीरे से बोली, ‘‘आप ही तो कहा करते हैं कि प्राणी में सद्गुण और दुर्गुण जन्मजात नहीं होते। इसका तो सतत अभ्यास के द्वारा ही विकास किया जा सकता है। जो प्राणी असुर कुल में जन्म लेकर भी संतजनों की संगति में रहता है, वह शनैः-शनैः सद्गुणों को प्राप्त करता जाता है। इसके विपरीत जो प्राणी उच्च कुल में जन्म लेकर दुर्जनों की संगति में रहता है, वह दुर्गुणों को प्राप्त होता है। इसका अर्थ यही है कि दुर्गुणों से सद्गुणों का उनकी संगति के अनुसार विकास किया जा सकता है।’’

‘‘वास्तविकता तो यही है देवी ! परंतु शोक और क्षोभ के कारण जैसे हमारे जीवन से धैर्य और संयम का लोप ही हो चला है। निःसंतान होने की ग्लानि इतना प्रताड़ित करती है कि इससे इहलोक और परलोक दोनों ही बिगड़ते हुए प्रतीत होते हैं।’’

‘‘स्वामी ! दुर्दैव से संघर्ष करके उस पर विजय प्राप्त करना भी तो प्राणी के लिए संभव नहीं है।’’
‘‘यही पीड़ा तो हृदय में शूल के समान गड़ रही है। समझ में नहीं आता कि क्या करूं ? किससे पूछूं कि इस पीड़ा से मुक्ति का क्या उपाय है ? ऐसा कौन-सा यत्न करूं कि अधीर मन को कुछ धैर्य मिले, व्यथा को कुछ शांति मिले ?’’ शांतवन व्यथित स्वर में अपने मन की गांठ खोलते हुए बोले, ‘‘शास्त्रों का कथन है कि निःसंतान रहते हुए मृत्यु को प्राप्त होने पर सद्गति नहीं मिलती, पर सद्गति की प्राप्ति के लिए मैं क्या उपाय करूं ? है सृष्टि में कोई ऐसा देव, यक्ष, गंधर्व, ज्ञानी-ध्यानी प्राणी, जो मेरी इस जटिल समस्या का समाधान कर सके ?’’
शांतवन जब इसी प्रकार तरह-तरह से व्यथित स्वर में अपनी व्यथा पर प्रलाप कर रहे थे, ठीक उसी समय वातावरण में एक गंभीर घोष सुनाई पड़ा, ‘‘नारायण....नारायण !’’
शांतवन और ज्ञानवती ने चौंक कर इधर-उधर देखा मगर उन्हें वहां कुछ भी नहीं दिखायी दिया
‘नारायण...नारायण’ का घोष वातावरण में एक बार फिर गूंजा। इसके साथ ही एक मृदुल स्वर भी, ‘‘चिंतातुर होने से समस्या का समाधान नहीं मिलता शांतवन ! शांत होकर धैर्यपूर्वक विचार करने से ही समस्या का समाधान मिलता है...नारायण...नारायण !’’

मृदुल स्वर के साथ ही शांतवन और ज्ञानवती ने इस बार वीणा के तारों से उत्पन्न हुई मधुर झंकार भी साफ-साफ सुनी।
शांतवन अपनी व्यथा भूलकर आसन से उठ खड़े हुए और सम्मानित स्वर में बोले, ‘‘देवर्षि नारद !’’
तभी ‘नारायण-नारायण’ पुकारते और वीणावादन करते हुए देवर्षि नारद एकाएक वहां प्रकट हुए।
देवर्षि नारद को अपने सामने देखकर शांतवन ने करबद्ध हो देवर्षि के चरणों में शीश झुकाया।
‘‘आयुष्मान भवः वत्स !’’ देवर्षि ने हाथ उठाकर शांतवन को आशीर्वाद दिया।
ज्ञानवती ने भी अपने पति का अनुकरण करते हुए करबद्ध होकर देवर्षि के चरणों में शीश नवाया।
देवर्षि ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘अखंड सौभाग्यवती भवः।’’
देवर्षि नारद के लिए आसन लगाते हुए शांतवन धीरे से बोले, ‘‘देवर्षि ! कृपया आसन ग्रहण करके हमें कृतार्थ कीजिए।’’
‘‘अवश्य वत्स !’’ देवर्षि नारद शांत भाव से आसन पर विराजते हुए बोले, ‘‘भगवद्-भक्तों के यहां आसन ग्रहण करते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता होती है वत्स !’’

‘‘देवर्षि के मुख से स्वयं के लिए भगवद्-भक्त की उपाधि प्राप्त करके मुझे स्वार्गिक आनंद की अनुभूति हो रही है, किंतु देव ! क्या मुझे कभी मेरी भक्ति का यथोचित फल भी प्राप्त हो सकेगा ?’’
‘‘वत्स शांतवन ! इस बात से तुम्हारा क्या आशय है, स्पष्ट शब्दों में कहो ?’’ देवर्षि नारद गंभीर वाणी में बोले, ‘‘और भगवद्-भक्ति का क्या यथोचित फल तुम प्राप्त करना चाहते हो, यह भी कहो ?’’
‘‘देवर्षि ! मेरे मन की व्यथा से आप निश्चय ही परिचित होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।’’
‘‘कदाचित तुम अपने संतानहीन होने की बात कह रहे हो ?’’

‘‘दवर्षि ! आपका कथन सर्वथा उचित है।’ शांतवन तनिक आवेश से बोले, ‘‘क्या संतानहीन होने की पीड़ा मेरे लिए कम है....एक भगवद्-भक्त का संतानहीन होना क्या उसकी भक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाने के समान नहीं है ?’’
‘‘यहां पर तुम कुछ भ्रम का शिकार हो गए लगते हो वत्स ! भगवद्-भक्ति औप प्राणी की पीड़ा दोनों का विषय अलग-अलग होता है। भगवद्-भक्त होने का तात्पर्य यह नहीं होता कि उसे प्रत्येक सांसारिक सुख अवश्य ही प्राप्त हो जाए और यदि ऐसा न हो सके तो भक्त की भक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाया जा सके।’’ देवर्षि नारद शांतवन को समझाते हुए बोले, ‘‘और फिर निर्णय करना कि भगवद्-भक्ति का यथोचित फल क्या होगा, यह भक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं करता बल्कि यह भगवान की इच्छा से निर्धारित होता है।’’

‘‘मगर देवर्षि ! मैंने तो सुना है कि भगवान की इच्छा भक्त की इच्छा के अनुकूल होती है।’’
‘‘हां ऐसा ही होता है....।’’
‘‘परंतु अभी तो आप कह रहे थे कि भगवद्-भक्ति का फल भक्त की इच्छा पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह भगवान की इच्छा से निर्धारित होता है और अभी आप यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि भगवान की इच्छा भक्त की इच्छा के अनुकूल ही होती है।’’ शांतवन कुछ उलझन-भरे स्वर में बोले, ‘‘आप दो विरोधाभासी बातें एक साथ किस प्रकार कह सकते हैं देवर्षि ?’’


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