लोगों की राय

पौराणिक कथाएँ >> मां लक्ष्मी

मां लक्ष्मी

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3962
आईएसबीएन :81-310-0135-0

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

280 पाठक हैं

श्री,वैभव-ऐश्वर्य व धन-सम्पत्ति की प्रदात्री की कथा व महिमा....

Maa Laxmi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री महालक्ष्मी

श्रीमहालक्ष्मी धन-धान्य, सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी हैं। श्रीलक्ष्मी जगत पालनहार श्रीविष्णु की अर्द्धागिनी महाशक्ति हैं। जो भी व्यक्ति श्रीलक्ष्मी जी की पूजा एकाग्रचित होकर करता है, वे उसका घर सुख और ऐश्वर्य से भर देती हैं।
श्रीलक्ष्मी का निवास लाल कमल में रहता है। कमल का पुष्प श्रीविष्णु के चरण कमल का प्रतीक है। श्रीलक्ष्मी, श्रीविष्णु की अतिप्रिय हैं। वे मन को आनंद देने वाली हैं। लक्ष्मी का जन्म समुद्र के गर्भ से माना जाता है। गजराज कमल पुष्प चढ़ाकर श्रीलक्ष्मी जी का पूजन करते हैं। इसलिए इन्हें गजलक्ष्मी भी कहा जाता है।

लक्ष्मी का जन्म


एक बार सुमेरू पर्वत पर अमृत प्राप्ति के लिए देवगण एकत्र हुए। उनमें भगवान नारायण और ब्रह्मा भी थे।
नारायण ने देवताओं से कहा, ‘‘सभी देवगण और असुर मिलकर यदि समुद्र-मंथन करें तो अमृत की प्राप्ति हो सकती है।’’

देवताओं के राजा इंद्र ने भगवान नारायण से पूछा, ‘‘प्रभु ! यह समुद्र मंथन किस प्रकार किया जा सकता है ?’’
नारायण ने कहा, ‘‘मंदराचल की मंथनी बनाओ और शेषनाग की रस्सी। उसे कच्छप की पीठ पर रखकर समुद्र मंथन करो।’’
सुर-असरों ने मिलकर ऐसा ही किया। उस समय समुद्र-मंथन से जहाँ विष, अमृत, सुरा, चंद्रमा, उच्चैश्रवा अश्व, धन्वंतरि देव, दिव्य कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, कामधेनु विशाल ऐरावत आदि रत्न उत्पन्न हुए, वहाँ भगवती लक्ष्मी की भी अपने पूर्ण ऐश्वर्य और सौंदर्य में प्रकट हुईं। इसलिए लक्ष्मी को समुद्र की पुत्री के रूप में जाना जाता है।

देवीलक्ष्मी देवलोक में


देववराज इंद्र और देवर्षि देवलोक में स्थिति गंगा में स्नानदि कर सूर्योदय के समय जब सूर्य की उपासना कर रहे थे। उसी समय आकाश में उन्होंने देखा कि कमल पुष्प पर विराजमान एक अनिंद्य सुंदरी, बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत, अपने साथ आठ सुंदर स्त्रियों को लेकर उनकी ओर आ रही थी। वह रक्तिम कमल गंगा के तट पर रुक गया।

सर्वप्रथम उसमें से वह दिव्य सुंदरी उतरी और अपना परिचय देते हुए बोली,‘‘ हे देवराज इंद्र ! हे देवर्षि नारद ! लक्ष्मी का नमन स्वीकार करें। मैं समुद्र के गर्भ में स्थिति असुर लोक छोड़कर आपके देवलोक में आई हूँ। मेरे साथ ये आठ सुंदरियाँ आशा, श्रद्धा, शांति, विजिति, संतति, क्षमा और जया भी अब आपके देवलोक में रहेगी।’’
इंद्र ने कहा, ‘‘देवलोक में आपका स्वागत है देवियों ! मुझे प्रसन्नता है कि आपने असुर लोक छोड़कर देवलोक का चयन किया है।’’

देवराज इन्द्र के राजभवन में


देवराज इंद्र के राजभवन में इंद्र की धर्मपत्नी शचि ने देवी लक्ष्मी और उनके साथ आई आठों देवियों का स्वागत किया।
शचि बोली, ‘‘हे देवी लक्ष्मी ! आपने देवलोक में आकर हमारा जो मान बढ़ाया है, उसके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं। यहां रहते हुए आपको किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं होगी। वैसे भी आप और आपकी ये सखियाँ जहां विराजमान होती हैं, वहाँ लोग अपने धर्म से कभी विचलित नहीं होते, वहाँ आभाव और कष्ट तो कभी आते ही नहीं।’’

लक्ष्मी बोली, ‘‘बहन ! तीनों लोकों में चराचर प्राणी मेरे स्वरूप को प्राप्त कर परमात्मा के साथ संयोग के लिए निरंतर उद्योग करते रहते हैं। मैं संम्पूर्ण प्राणियों को ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए सूर्य की किरणों से खिले कमल में निवास करती हूँ। लोग मुझे पद्मा, कमलाश्री, पद्ममालिनी, लक्ष्मी, भूति, श्रद्धा, मेधा संतति, विजति, स्थिति, धृति, सिद्धि, समृद्धि स्वाहा, स्वाधा, नियति तथा स्मृति आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। धर्मशील पुरषों के देश में, नगर में और घरों में मेरा निवास है। परंतु तुम मुझे अपनी बहन ही मानो, यही उचित है।’’

नारद की शंका का समाधान


आदर-सत्कार की औपचारिकता पूरी हो चुकी तो नारद ने देवी लक्ष्मी से पूछा, ‘‘हे माते ! आप समुद्र के गर्भ में, दैत्य लोक में पहले रहती थीं। अब आपने वहाँ ऐसा क्या देखा, जो उसे छोड़ आई ?’’

लक्ष्मी ने मुस्करा कर रहा, ‘‘हे देवर्षि नारद ! मैं नित्य धर्म में प्रवृत रहने वाले शूरवीर, ज्ञानी सत्यवादी, दानशील और विजयी पुरुषों में सदैव निवास करती हूँ, परंतु असुरों ने अब अपने ये सभी गुण त्याग दिये हैं। पहले सत्य और धर्म से बँधकर रहते थे, तो मैं भी उनके साथ बँधी हुई थी। लेकिन समुद्र-मंथन के समय उन्होंने अपने दूषित कृत्यों में मेरी घोर उपेक्षा की, इसलिए मैंने उनका साथ छोड़ दिया। पहले उनका स्वभाव भी अच्छा था। वे सभी धार्मिक और दयालु थे। सरल और इंद्रीय संयमी थे। अपनों-परायों से स्नेह भरा व्यवहार करते थे। बड़ो का सम्मान करते थे। परंतु अब उन्होंने अपने सभी सद्गुणों का त्याग कर दिया है। इसलिए मुझे वहाँ से हटना पड़ा।’’

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book