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महान व्यक्तित्व >> सम्राट अशोक

सम्राट अशोक

एम. आई. राजस्वी

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3985
आईएसबीएन :81-8133-618-6

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एक महान विजेता,जिसने हिंसा,घृणा और वैर का मार्ग त्यागकर संसार को अहिंसा करुणा और प्रेम का संदेश दिया...

Samrat Ashok

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने भाइयों के रक्त से रंजित मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होकर अशोक ने अपना साम्राज्य शुरू किया था, किंतु कलिंग विजय के पश्चात इसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया। जिसमें उसके संपूर्ण जीवन-दर्शन को बदल दिया। उसे अपनाकर वह बिना ‘प्रियदर्शी’ और हृदय सम्राट-महान अशोक !

सम्राट अशोक

‘‘पुत्र अशोक ! अब उज्जयिनी में विद्रोहियों ने अपने विद्रोह का झंडा ऊँचा कर दिया है।’’ कहने के साथ ही सम्राट बिंदुसार ने उज्जयिनी के प्रकाशक द्वारा भेजा गया वह पत्र अशोक की ओर बढ़ा दिया जो संदेशवाहक उज्जयिनी से लेकर आया था। पत्र पढ़कर अशोक बोला, ‘‘पिताश्री ! आप मुझे शीघ्रता से उज्जयिनी की ओर जाने का आदेश दीजिए। इस प्रकार से विद्रोह जितना शीघ्र संभव हो, समाप्त कर देना उचित होता है।’’

‘‘पुत्र ! जाने से पूर्व यदि तुम विश्राम कर लेते तो ....।’’
‘‘पिताश्री ! कर्मशील व्यक्ति कर्म करते हुए विश्राम कर लेता है। कर्म में ही उसका विश्राम, हर्ष और आनंद निहित है।’’

उज्जयिनी की ओर बढ़ते समय अशोक विश्राम करने के लिए विदिशा नगरी के निकट रुका। वहाँ उसने कुछ युवतियों के दल को देखा तो वह एक अनोखे आकर्षण में बँधा उनकी ओर खिंचा चला आया और उनसे पूछा कि वे थाल सजाये कहाँ जा रही हैं।
अशोक के प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व सबसे आगे वाली युवती ने अशोक से उसका परिचय पूछा।
‘‘हे सौंदर्य बाला !’’ अशोक ने बताया, ‘‘मैं मगध सम्राट बिंदुसार का पुत्र अशोक हूं।’’

‘‘राजकुमार अशोक पिताजी से आपकी वीरता की कहानियाँ सुन चुकी हूँ। आपके साक्षात दर्शन कर मन बड़ा प्रसन्न हुआ।’’ वह युवती बोली।
‘‘मुझे भी अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ सौंदर्य बाला !’’
अशोक सौंदर्यबाला के सौंदर्य का आँखों ही आँखों में रसपान करते हुए बोला, ‘‘इसलिए कि अब से पहले मैंने कभी आप जैसी सौंदर्य की देवी के दर्शन नहीं किए।’’
‘‘आप पाटलिपुत्र की ओर प्रस्थान कर रहे हैं और मेरा हृदय कहता है कि बात पिताश्री के अस्वस्थ होने से भी अधिक बढ़कर है...कहीं राजसिंहासन के लिए आपका अपने भाइयों से कोई विवाद न हो जाए और यदि ऐसा हुआ तो आपसे वचन लेना चाहती हूँ कि आप रक्तपात से स्वयं को दूर रखेंगे।’’

‘‘प्रिये ! एक क्षत्रिय के लिए इस प्रकार के वचन में बंधना यद्यपि उचित नहीं, तथापि जहां तक संभव होगा, मैं स्वयं को रक्तपात से बचाकर रखूँगा।’’
‘‘अच्छा आर्यवीर ! अब विदा लो। भगवान बुद्ध आपका मार्ग प्रशस्त करें।’’ कहकर विदिशा ने अशोक को विदा किया।
‘‘राजन ! मैं आपसे बिलकुल भी घृणा नहीं करता।’’ वह बाल भिक्षु बोला, ‘‘भगवान बुद्ध का कथन है कि क्षमा ही घृणा, द्वेष और पाप के लिए सबसे बड़ा दंड है। घृणा द्वेष और पाप तो बड़े संहारक होते हैं, इन्हें तो क्षमा और प्रेम के द्वारा ही जीता जा सकता है।’’

‘‘इस अल्पायु में ही तुमने इतना महान ज्ञान कहाँ से प्राप्त कर लिया ?’’
‘‘राजन ! भगवान बुद्ध के उपदेशों में परम ज्ञान विद्यमान है। इसी ज्ञान से अशांत मन को शांति मिलती है।’’
‘‘प्रियवर ! मेरा मन तो बड़ा अशान्त है। मुझे किस प्रकार शांति प्राप्त हो सकती है ?’’
‘‘राजन ! भगवान बुद्ध की शरण में आपके मन को निश्चित ही शांति प्राप्त होगी।’’

अशोक की महत्वाकांक्षा कलिंग विजय के बाद क्षत-विक्षत हो गई। इस विजय से अशोक का हृदय हिल उठा। रही-सही कसर महारानी विदिशा के उस पुत्र ने पूरी कर दी, जिसमें उसने लिखा था-‘हिंसा का मार्ग अपनाकर क्योंकि आप अपने वचन से हट गये हैं, इसलिए मैं आपका और आपकी संतान का त्याग करती हूं।’ अभी अशोक इन अघातों से उभर ही नहीं पाए थे कि उस बालभिक्षु की बातों ने, जो उसका भतीजा था- जिसके पिता की हत्या अशोक ने की थी, सम्राट के दिलो-दिमाग को बुरी तरह मथ दिया और वे भी बुद्ध की शरण में चले गए। देश-विदेश में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक ने जिस तरह से किया, उसकी बराबरी इतिहास में नहीं मिलती।

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