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विविध उपन्यास >> पीपल का पेड़

पीपल का पेड़

मनमोहन सिंह

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4039
आईएसबीएन :81-7043-454-6

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साक्षी पुनर्जन्म का....

peepal ka ped

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनाथ रमेश सिविल इन्जीनियर है। उसके अभिभावक अपनी बेटी ललिता का ब्याह उससे करने के इच्छुक हैं। पर नरेश को रह-रहकर विचित्र अनुभूतियाँ होती रहती हैं। लगता है जैसे उसका कोई बिछुड़ा साथी बुला रहा है। तत्काल ब्याह टालकर नरेश, रामगंगा पर बन रहे बाँध को पूरा कराने कालागढ़ चला गया है।

वहाँ बाँध से लगे टीले पर एक प्राचीन काली मंदिर है। उसका पुजारी बाँध निर्माण कार्य में अड़चन डाल रहा था। नरेश उनसे मिलता है। खुश होकर पुजारी अपना असहयोग वापस ले लेते हैं। वहीं टीले पर एक विशाल पीपल का पेड़ भी है। उसके नीचे नरेश की भेंट पुजारी की मुँहबोली बेटी पार्वती से होती है। उन दोनों से पता चलता है कि अपने पूर्व जन्म में नरेश इन्हीं पुजारी का बेटा था और पार्वती से भी उसकी घनिष्ठ मित्रता थी। उन दोनों ने मिलकर इस पीपल का पौधा लगाया था। वर्षों पूर्व रामगंगा में आयी भीषण बाढ़ में, कच्ची उमर में ही, वे दोनों डूब कर मर गये थे। अपनी उसी अधूरी साध को पूरी करने के लिए इस जन्म में अब दोनों का पुनः मिलन हुआ है।

नरेश की तार्किक बुद्धि इसे मानने को तैयार नहीं होती। पुजारी उन्हें सृष्टि के विधान और जीवात्मा के आवागमन का रहस्य बताते हैं। उनके और पार्वती के सहयोग से, नरेश बाँध निर्माण कार्य को शीघ्र पूरा करने में जुट जाता है। वहाँ के कुछ लोगों को नरेश और पार्वती का साथ नहीं सुहाता। कई मुसीबतें खड़ी करते हैं। अपनी मंगेतर को पार्वती के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए ललिता भी अपने माता-पिता सहित कालागढ़ पहुँच जाती है।

भेद की बात


यह कथा किसी को अंधविश्वास में भटकाने के लिए नहीं, वरन् उनकी ठस बुद्धि की मूढ़ता को झकझोर कर जगाने के लिए हैं। उनमें यह समझ पैदा करने के लिए लिखी गई है कि हमारी आकांक्षाओं के मूल स्रोत को, उनकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों या कृत्यों के आधार पर होने वाली उपलब्धियों और विफलताओं को तथा जीवन में मिलन विछोह की सुख दुख भरी अनुभूतियों के सही कारण को, केवल एक जीवन की घटनाओं की परिधि में, भौतिक परिस्थितियों के आधार पर ही, पूर्णतः समझ पाना सम्भव नहीं है।

हमारा अस्तित्व उस विशाल वृक्ष के समान है, जिसकी जड़े बहुत गहरे अतीत में गड़ी हुई हैं और शाखाएँ अज्ञात भविष्य के आकाश को छू लेने के लिए उत्सुक फैली हैं। जीवन के प्रवाह को केवल अपने सीमित दृष्टिकोण से नहीं जाना जा सकता। क्योंकि मैदान में बहने के पूर्व इसकी धारा किन्हीं ऐसी बर्फीली चट्टानों से गल कर निकली है, जो स्वयं सूर्य की तपन से धरती और सागर के रस को चूस कर, गरम वाष्प के जमने से बनी थी। आगे भी इन भौगोलिक सीमाओं को पार करती हुई इसकी तरंगें, पुनः उसी क्षीर सागर की गोद में समा जायेंगी।
सब कुछ एक दूसरे से ही निकल कर बनता, बदलता और विकसित होता जा रहा है। जो है, उसका कभी नाश नहीं होता-केवल रूप बदलता है। और जो है नहीं, उसे हम बना नहीं सकते। केवल भौतिक तथ्यों को जोड़-घटाकर नया अस्थिर रूप ही दे सकते हैं। विज्ञान भी कुछ नया नहीं बनाता, जो है उसी की खोज करता है। उसकी गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करके उनका प्रयोग ही करता है। उसी तरह यह कथा काल्पनिक अवश्य है पर अपने ढंग से व्यक्त होने की क्षमता रखती है।

बहुतेरे दृष्टान्त उपलब्ध हैं, जहाँ छोटे अविकसित बच्चों ने भी अपने पूर्व जन्म के संबंधियों, घर वस्तुओं और घटनाओं का ऐसा विवरण दिया है, जो जाँच करने पर सही पाई गईं। किसी के बिना सिखाई पढ़ाए या थोड़ा सा ही मार्ग-दर्शन मिलने पर, धार्मिक ग्रंथों से श्लोक धारा प्रवाह सुना दिये, किसी ने गणित के लम्बे जटिल प्रश्नों के उत्तर पल भर में निकाल दिये। और ढाई तीन वर्ष की बच्ची ने जटिल रागों के भेद दर्शा दिये। ऐसे दृष्टांत तो अनेक हैं जहाँ काल, तर्क और भौतिक सीमाओं से परे, लोगों ने कुछ ऐसा होते देखा या अनुभव किया, जिसका कारण न वो स्वयं जान सके और न अपनी सीमित बुद्धि से किसी को समझा ही सके हैं।

हाँ, भौतिक विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप कुछ ऐसा ही काम कम्प्यूटर भी अपनी निर्धारित सीमाओं के भीतर करने लगे हैं। पर ये दर्शाते उन्हीं संयुक्त परिणामों को हैं, जो हमने उन्हें सिखाया था, अथवा उनके अन्दर जो सूचनाएँ भर दी थीं। यह जीवन भी कम्प्यूटर की भाँति, अपने पूर्व अनुभवों के सार को ग्रहण कर अपने भविष्य की कल्पना करते हुए बढ़ रहा है आगे पुनः सूक्ष्म से ठोस और फिर अपनी जड़ स्थिति से मुक्त होता हुआ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर निराकार परब्रह्म की ओर। पर उसमें अपने रूप, विषय, दिशा, परिस्थितियों और उनके प्रभावों को बदलने तथा भावी अनुमान लगाने की चेतना शक्ति इन जड़ कम्प्यूटरों से अधिक है। वह स्वयं इस विराट सृष्टि की महा चेतना का अंश जो है। इस चैतन्य को सदा के लिए जड़ता की सीमाओं में बाँधकर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह भी तो उसी की एक क्षणिक अभिव्यक्ति है।
अस्तु, इस कथा का उद्देश्य जड़ अस्तित्व में व्यक्त उस चेतन जीव को अपने मूल स्वरुप को पहचान कर, उसकी क्षमता की याद दिलाने और सभी बंधनों से मुक्त होकर अपने विकास पथ पर अग्रसरित होने के लिए प्रेरित करना है। आगे वह स्वयं अपने भविष्य का निर्माता है।

मोहन मिश्र


इसी में से



बड़ा विश्वास है तुझे अपनी इन आँखों पर। तो क्या तू हवा को देख सकता है ? मन में उठती भाव तरंगों को इन हाथों से पकड़ सकता है ? हमारी इन्द्रियाँ एक सीमा तक व्यक्त पदार्थों की वर्तमान स्थिति को ही देखने और समझने की अभ्यस्त हैं। उसके आगे पीछे, ऊपर नीचे क्या है, नहीं जानतीं।
जहाँ से प्रश्न उठते हैं उत्तर भी वहीं होता है। बाहर से तो कोई संकेत भर कर सकता है। समाधान तो सबको अपने भीतर गोता लगा कर ही ढूँढ़ना पड़ता है।

यह संसार तो पाठशाला है और हर जीवन एक कक्षा। यहाँ आकर हम कुछ सीखते और ग्रहण करते रहते हैं। एक कक्षा की पढ़ाई जब पूरी हो जाती है, उसे छोड़ कर हम दूसरी, उसके ऊपर की कक्षा में चले जाते हैं। हर कक्षा में अर्जित ज्ञान, अनुभव अगली पढ़ाई में हमारे काम आता है। धीरे-धीरे जुटाया गया वही ज्ञान, अनुभव हमें अधिक विसकित करता चलता है। कथाएँ और पुस्तकें बदलती रहती हैं, पर विद्यार्थी तो वही जीवन होता है न ?


एक



नरेश की विस्तृत जाँचकर चुकने के बाद जब डॉक्टर मेहरोत्रा अपने परीक्षण कक्ष से बाहर निकले, उनके मुख पर एक उलझन का भाव था। अपनी कुर्सी पर बैठते हुए उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे अधेड़ आयु के सज्जन से बोले, ‘‘बात कुछ समझ में आई नहीं कामता। शारीरिक परीक्षण में कोई खराबी नहीं निकली। नरेश इज ऐब्सोयूटली नॉर्मल (वह एकदम सामान्य है)।’’
कामता प्रसाद को विश्वास नहीं हुआ। दुविधा में पड़े पूछा,‘‘तुमने उसकी जाँच तो ठीक से कर ली है न ?’’
डॉक्टर मुस्कुराए, ‘‘अरे भाई यह भी कोई पूछने की बात है ? कोई और होता तो शायद अपने किसी सहायक की रिपोर्ट मान लेता। पर तुम्हारे साथ तो घरेलू सम्बन्ध हैं। हर चीज की परीक्षा मैंने खुद की है। ब्लड, यूरिन, स्टूल भी की जाँच अस्पताल में न करवाकर अच्छे विश्वस्त जाँच केन्दों में करवाई है जिससे कहीं कोई चूक न रह जाए। पर सब कुछ नॉर्मल (सामान्य) है। नरेश पूर्व स्वस्थ नौजवान है।’’

कामताप्रसाद कुछ चिन्तित स्वर में बोले, ‘‘तुम तो जानते हो मेहरोत्रा अपनी लड़की का ब्याह मैं नरेश से करने की सोच रहा हूँ।’’
हाँ, मालूम है। भाभी ने बताया था-ललिता भी इसे पसन्द करती है। तुम तो सगाई भी जल्दी करने वाले थे ?’’
‘‘हाँ, पर इसी बीच पता चला कि नरेश को रह-रहकर अजीब से दौरे पड़ते हैं। इसी से कुछ दुविधा में पड़ गया हूँ। सगाई की तारीख भी स्थगित कर दी, कि पहले उसकी डॉक्टरी जाँच करवा लूँ।’’
‘‘सो तो ठीक किया तुमने’’, डॉ. मेहरोत्रा बोले, ‘‘पर शरीर से तो वह बिलकुल स्वस्थ है। तुम निश्चिन्त हो कर इससे ललिता का ब्याह कर सकते हो।’’
‘‘पर ये दौरे जो उसे पड़ते हैं, क्या हैं ? क्यों पड़ते हैं ?’’ कामताप्रसाद के मुख पर चिन्ता की रेखाएँ और गहरा गई थीं।
डॉक्टर कुछ सोचने लगे। उसी बीच नरेश भी शर्ट के बटन बन्द करता हुआ परीक्षण कक्ष से बाहर निकला और उनके पास आकर खड़ा हो गया। उसे ध्यान से देखते हुए डॉ. मेहरोत्रा ने पूछा, ‘‘अच्छा यह बताओ नरेश जब तुम्हें ऐसे दौरे पड़ते हैं, उसके पहले तुम्हारी अनुभूति क्या होती है ?’’

डॉक्टर के सम्मुख पड़ी कुर्सी पर बैठ नरेश कुछ सोचते हुए बोला, मैं कभी लेटा किसी से बात करता या कोई काम कर रहा होता हूँ एकाएक ऐसा लगता है कि दूर सो कोई मुझे अपनी ओर खींच रहा है। चेष्टा करने पर भी अपने को वश में नहीं रख पाता और आपसे आप उधर बढ़ने लगता हूँ। बिलकुल भूल जाता हूँ अपने को। इसका भी ध्यान नहीं रहता कि मैं कहाँ हूँ और क्या कर रहा हूँ।’’
‘कोई खास जगह दिशा या व्यक्ति है जिसकी ओर तुम खिंचने लगते हो ?’’ डॉक्टर ने पूछा।
‘‘नहीं, पर चेतना लौटने पर दो चार बार देखा कि उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ने लगता हूँ।’’
‘‘उधर क्यों ?’’ डॉक्टर की तीखी दृष्टि नरेश के मुख पर टिकी थी।
‘‘मालूम नहीं।’’
‘तुम कभी उत्तर पश्चिम क्षेत्र में रहे हो ? उधर कोई तुम्हारी जान पहचान का या रिश्तेदार तो नहीं रहता ?’’
‘‘नहीं, कोई नहीं है। मैं उधर कभी गया ही नहीं। मेरी सारी पढ़ाई लखनऊ, इलाहाबाद और वाराणसी में हुई है।’’
डॉक्टर के मुख पर पुनः चिन्ता की रेखाएँ उभर आईं। जैसे अँधेरे में टटोलते हुए पूछा, ‘‘अच्छा यह बताओ तुम्हारी ऐसी स्थिति कितनी देर बनी रहती है ?’’

‘‘इसका सही अनुमान मैं नहीं लगा सका हूँ। उस अवस्था में मेरे लिए जैसे समय, स्थान और परिस्थिति का समूचा ज्ञान लुप्त हो जाता है, उतनी देर के लिए।’’
‘‘कोई निश्चित समय है जब तुम्हें ऐसे दौरे पड़ते हैं ?’’
‘‘नहीं,’’ नरेश ने उत्तर दिया, ‘‘पर दिन ढले, संध्या समय, रात या कभी-कभी दोपहर में भी ऐसा होता है।
‘उस समय तुम अपने सिर पर या माथे में किसी तरह का भारीपन या नसों में तनाव का अनुभव तो नहीं करते ? दौरा पड़ने से पहले किसी तरह की कोई उलझन, कोई घबराहट तो नहीं होती है ?’’ बस कुछ खाली-खाली सा लगता है-जैसे मैंने कुछ खो दिया हो। कोई बहुत निकट का मेरा घनिष्ट साथी मुझसे बिछुड़ गया हो-और वही मुझे पुकार रहा है। बिना कुछ सोचे समझे और उधर खिंचता चला जाता हूँ।’’ नरेश कुछ खोया-खोया सा लग रहा था।
डॉक्टर को जैसे अँधेरे में कुछ टिमटिमाता हुआ सा दिखाई दिया। आशान्वित होकर बोले, ‘‘कोई ऐसा दोस्त साथी तो नहीं जो कहीं चला गया हो और तुम्हें उसका अभाव अखरता हो ?
नहीं मुझे ऐसा कुछ याद नहीं पड़ता।’’
‘‘अपने माता पिता की कभी याद आती है ?’’

‘‘नहीं, मैंने जबसे सुधि सँभाली चाचा जी को अपने पिता और चाची को ही माँ स्वरूप समझा है। मुझे अपने माता पिता की कोई याद नहीं।
नरेश के इस उत्तर से वह टिमटिमाहट अँधेरे में फिर खो गई। डॉक्टर मेहरोत्रा गम्भीर हो उठे थे। उसी स्थिति में धीरे-धीरे बोले, ‘देखो नरेश’ शारीरिक दृष्टि से तुम भले चंगे हो। सारी जाँच हो चुकी है। कोई भी कमी तुममें नहीं मिली। तुम्हारे ये दौरे केवल मानसिक हैं। मैंने विदेश में मानसिक रोगों पर भी विशेष अध्ययन किया है। उसी नाते तुम्हारे मन की गुत्थियों को सुलझाना चाहता हूँ। पर यह तभी सम्भव हो सकेगा जब तुम मेरा सहयोग करो और मन की दबी भावनाओं को सही-सही मेरे सामने खोल कर रखो। इसी लिए तुमसे ये प्रश्न कर रहा हूँ। कामता के आगे बताने में कोई हिचक हो तो इन्हें बाहर कर दूँ ?’
नरेश ने एक बार बगल में बैठे पिता-तुल्य कामताप्रसाद को देखा, फिर सीधे डॉक्टर मेहरोत्रा की आँखों में ताकते हुए बोला, ‘‘मैं कुछ भी नहीं छिपा रहा हूँ अंकल’ मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ ही नहीं-जिसे छिपाने की सोचूँ। जो जानता था सही-सही बता दिया। रही अबोध बचपन की बातें वह या तो मेरे माता पिता जानते थे या फिर चाचा जी ही बता सकेंगे।’’
‘‘उनसे तो मैं पूछ लूँगा।’’ कहकर डॉक्टर पल भर पुनः विचारने लगे। फिर नरेश से प्रश्न किया, अच्छा यह बताओ-जब तुम्हारा यह दौरा समाप्त हो जाता है-तब तुम्हें कैसा लगता है ?’’
नरेश पल भर मौन रहा। फिर जैसे कुछ स्मरण करते हुए बोला, ‘‘चेतना लौटने के पहले ऐसा लगता है, जैसे पानी की कोई लहर सामने से उठती हुई आती है और मुझे डुबाती हुई ऊपर से निकल जाती है। मेरे हाथ में कुछ पकड़ा हुआ होता है जो पानी के तेज बहाव में छूट जाता है। तभी मैं घबराकर चेत जाता हूँ। उस समय एक उलझन सी अवश्य होती है।’’
डॉक्टर को लगा कि अँधेरे में उनके हाथ फिर कुछ लग गया है। उसे टटोलते हुए प्रश्न किया, ‘‘तुम्हें पानी से डर लगता है ?
जी नहीं, नरेश का उत्तर स्पष्ट एवं दृढ़ था।

‘‘तैरना जानते हो ?’’
‘‘हाँ, अपने को तैराक तो नहीं कह सकता पर गहरेपानी में भी तैरकर निकल सकता हूँ।’’
‘‘तैरना कहाँ से सीखा ?’’
‘‘यहीं गोमती में अपने साथियों के साथ।’’
‘‘सीखते समय कभी डूबने तो नहीं लगे थे ?’’
‘‘नहीं, ऐसा कुछ याद नहीं पड़ता।’’
‘‘कोई और साथी तो नहीं डूबा तुम्हारे आगे ?’’
‘‘ऐसी भी कोई घटना नहीं हुई।’’
‘‘याद करो कभी बचपन में कोई ऐसी बात तुम्हारे साथ या तुम्हारे सामने घटी हो ?’’
नरेश मस्तिष्क पर जोर डालकर सोचने लगा। डॉक्टर ने अपने प्रश्न का उत्तर पाने की आशा में कामताप्रसाद की ओर ताका।

उन्हें भी कोई ऐसी घटना याद नहीं आ रही थी। सिर हिलाकर बोले, मेरे ध्यान में तो ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ। वरना मैं इसे पानी के निकट जाने की अनुमति भी न देता।’’
डॉक्टर की पकड़ फिर ढीली पड़ गई थी। अंधकार और प्रगाढ़ हो गया, जिसकी छाया उनके मुख पर स्पष्ट झलकने लगी थी। जैसे उसे पोंछते हुए उन्होंने फिर पूछा, ‘‘ऐसे दौरे तुम्हें कब से आ रहे हैं ?’’
‘‘यही कोई दो तीन साल से।’’
उसके पहले भी तुमने ऐसे खिंचाव का अनुभव किया था ?’’
‘‘नहीं पर कभी-कभी मन उदास और अनमना जरूर हो जाता था। लगता था जैसे मैं अकेला हूँ-किसी का साथ चाहिए मुझे।’’

‘‘क्या ललिता के साथ रहने पर भी तुम्हें ऐसे अकेले पन का आभास होता है ?’’
नरेश ने हिचकते हुए कहा, ‘‘हाँ, तब भी।’’
क्यों ? तुम्हें ललिता का साथ पसन्द नहीं है क्या ?’’
डॉक्टर का यह प्रश्न टेढ़ा था। मन को टटोलते हुए नरेश बोला, ‘‘ऐसी बात नहीं। वह मेरे बचपन की साथी है। पर-पर वह अनमनापन वह खिंचाव किसी और कारण से होता है।’’
‘‘किस कारण से ?’’ डॉक्टर की तीखी दृष्टि नरेश के मुख पर गड़ी थी। वह कुछ उलझते हुए बोला, ‘‘यह मैं नहीं जानता। मालूम होता तो आपको बता न देता ?’’
मेहरोत्रा एक लम्बी साँस लेकर चुप हो गये। उन्होंने अँधेरे में और टटोलना फिलहाल के लिए स्थगित कर दिया। कामताप्रसाद के उत्सुक नेत्र डॉक्टर पर ही टिके हुए थे। उन्होंने भारी स्वर में पूछा, ‘‘तो फिर इलाज क्या होगा ?’’
अपनी अनभिज्ञता को छिपाते हुए डॉ. मेहरोत्रा बोले, कैसा इलाज किसका इलाज़ ? मैंने कहा न-नरेश पूर्ण स्वस्थ है। उसे किसी दवा-दारु की ज़रूरत नहीं।’ फिर बुजुर्ग के नाते नरेश को समझाते हुए बोले, ‘देखो बेटा तुम बस इतना ध्यान रखो कि किसी भी समय अपने को अकेले मत छोड़ो। किसी न किसी काम या किसी के साथ में मन लगाए रहो। और इस अकेलेपन की भावना को भीतर से निकाल दो। तुम अकेले नहीं हो। हम सब तुम्हारे साथ हैं। ललिता भी शीघ्र ही तुम्हारी होने जा रही है।’’

‘‘मैं अपनी ओर से कुछ नहीं सोचता डॉक्टर चाचा, ‘‘नरेश ने आश्वासन दिया, ‘‘ऐसे भाव विचार आपसे आप उठने लगते हैं। मैं तो काम में जुटा ही रहता हूँ ?’’
बिषय बदलते हुए डॉ. मेहरोत्रा ने पूछा तुमने तो इंजीनियरिंग पास किया था। आजकल क्या कर रहे हो ?’’
‘‘जी। मैं सिंचाई विभाग की निर्माण शाखा में सहायक अभियंता हूँ।’’
‘‘करना क्या होता है उसमें ?’’
‘‘नदियों में बाँध बनाने और नहरें निकालने का।’’
‘‘अच्छा ? डॉक्टर ने उसमें रुचि दर्शाते हुए पूछा, ‘‘कौन सी नहर निकाली है तुमने ?’’
‘‘अभी तो मैं मुख्यालय से ही सम्बद्ध हूँ। क्षेत्र में काम करने का अवसर नहीं मिल सका।’’ कुछ सुस्ती के साथ नरेश ने उत्तर दिया।

उसके मन को टटोलते हुए डॉक्टर ने पूछा, ‘‘तुम्हें यह काम पसन्द है ?’’
‘‘दफ़्तर का नहीं। बाहर क्षेत्र में काम करने की इच्छा है’’, नरेश उत्सुकता के साथ बोला, ‘‘जब बरसात में नदी का उमड़ता पानी सब कुछ डुबोता और बहाता हुआ फैलने लगता है, तब जी चाहता है उसके दोनों छोरों को बाँध दूँ। प्रकृति की उस उच्छृंखलता को ऐसा नियंत्रित कर दूँ कि वह लोगों को तबाह नहीं, उन्हें आबाद करने में लग जाए।’
‘‘बड़े अच्छे विचार है तुम्हारे डॉक्टर मेहरोत्रा मुस्कुराए पर तुमने बाढ़ की ऐसी तबाही कब और कहाँ होते देखी है ?’’
नरेश सोच में पड़ गया। सच-मैंने यह सब कहाँ देखा है ? कब देखा ? कुछ याद नहीं पड़ता।
तभी डॉक्टर ने अपना प्रश्न फिर दोहराया, सोचो याद करो। कहीं तो तुमने ऐसा होते देखा होगा। अन्यथा बाढ़ से होने वाली तबाही की कल्पना कैसे कर ली ?’’

नरेश एक विचित्र उलझन में पड़ गया था। प्रशिक्षण के दौरान जल प्रवाह को रोकने, काटने और नियंत्रित करने की विधियों को समझने के लिए, नदियों पर हो रहे बाँध निर्माण कार्य तो उसने देखे थे, पर वर्षाकाल में उमड़ती नदियों के प्रकोप का प्रत्यक्ष दर्शन उसने कभी नहीं किया था। फिर उसका स्पष्ट आभास उसके भीतर क्यों और कैसे होता रहा है ? दुविधा के साथ उसने कह दिया, शायद चित्रों में देखा हो।’’
मेहरोत्रा पुनः गम्भीर हो उठे। नरेश का यह उत्तर उन्हें कुछ जँचा नहीं था। पूछ लिया, बस केवल चित्रों में ही देखने से तुम इतने प्रभावित हो गये ?’
नरेश को स्वयं लग रहा था कि वह अपनी इन अनुभूतियों का स्पष्ट आधार इंगित नहीं कर पा रहा है। उसका उत्तर अपूर्ण और प्रभावहीन है। पर इसके अतिरिक्त वह कुछ और बताता भी क्या ? उसकी अनुभूतियाँ स्वयं उसके लिए रहस्य बनी हुई थीं। एक उलझन के साथ बोला, कुछ अजीब सा लगता है। पर है सच डॉक्टर चाचा कि बाढ़ की कल्पना मात्र से ही ऐसा लगता है जैसै मैं स्वयं उसमें तबाह हो चुका हूँ।’’

नरेश का यह उत्तर सुनकर मेहरोत्रा चौंके, तुम तबाह हो चुके हो ? वह कैसे ?’’
उस उलझन में नरेश से एक स्थान पर बैठते नहीं बन रहा था। उठकर खड़ा हो गया और चिन्तित स्वर में बोला, ‘‘इसका उत्तर मैं नहीं दे सकूँगा। मालूम नहीं कि ऐसी अनूभूति क्यों होती है मुझे ?’’
नरेश को अपनी स्थिति का सही अनुमान लगाने में सहयोग देते हुए डॉक्टर फिर बोले, शायद तुम्हारे किसी साथी ने ऐसी तबाही का विवरण सुनाया हो, या तुमने उसे कहीं पढ़ा हो-और वही बातें तुम्हारे अन्तःकरण में इतनी गहराइयों तक जा उतरी हैं कि तुम्हारा मन उसे आप बीती मानकर उनके निराकरण के लिए उस्सुक हो उठा है ?’
नरेश ने खोया सा उत्तर दिया, ‘‘हो सकता है। पर मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी ने मुझसे इस विषय पर कोई चर्चा की हो या मैंने उसे कहीं पढ़ा ही हो।’’

डॉ. मेहरोत्रा ने इस विषय को तत्काल और बढ़ाना ठीक नहीं समझा। दो एक मरीज बाहर प्रतीक्षा भी कर रहे थे। अतः इस पर आगे फिर अभी अन्वेषण करने का मन में निश्चय कर, वो विषय को टालते हुए बोले, खैर जाने दो तुम व्यावहारिक पुरुष हो भावुकता छोड़ों और अपने काम में जुटे रहो। मन लगाकर अच्छा काम करोगे तो उन्नति के बहुत अवसर मिलेंगे। इसमें आजकल तो सरकार कई बाँध निर्माण योजनाएँ चला रही है।’
‘‘जी चेष्टा तो यही करता हूँ’’, कहकर नरेश कामताप्रसाद की ओर घूमकर बोला, ‘‘तो मैं चलूँ चाचा जी ? आज कालागढ़ बाँध योजना की प्रगति पर एक बैठक हो रही है। मुझे भी उसमें भाग लेना है।’’
कामता प्रसाद कुछ कहें उसके पूर्व डॉ. मेहरोत्रा बोल पड़े, ‘‘हाँ, बेटे तुम जाओ। काम सबसे पहले।’’
जब उन दोनों को नमस्कार कर के नरेश चला गया तब कामताप्रसाद कुछ सुस्ती के साथ बोले, तो फिर अब क्या करना चाहिए ?

मेहरोत्रा झट बोले, ‘‘करना क्या है ? गो अहेड विद योर ओरिजनल प्रोग्राम (बढ़ो आगे अपने मूल कार्यक्रम के अनुसार) और हाँ हमें बुलाना मत भूलना।’’
कामताप्रसाद अनिश्चित भाव से पल भर अपने मित्र को ताकते रहे। उन्हें इस अवस्था में देख डॉक्टर ने पूछा, ‘क्या सोच रहे हो ?’’

एक हिचकिचाहट के साथ कामताप्रसाद ने फिर पूछा, ‘‘तो मैं सगाई की तैयारी करूँ?’’
‘‘मैं और कह क्या रहा हूँ ? नरेश की चिंता छोड़ो। वह थोड़ा एमोशनली डिस्टव्र्ड मानसिक रूप से उद्धिग्न। लगता है बस और कोई बात नहीं। ब्याह हो जाने पर आप से आप ठीक हो जायेगा। तुम बिना किसी हिचक के तैयारी करो।’’ कह कर डॉ. मेहरोत्रा ने दूसरे मरीज को भीतर भेजने के लिए घंटी बजायी।
कामता प्रसाद कुछ सोचते हुए उठ पड़े।

 

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