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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

49


दिव्य ने पूछा, “गया था?"

अवाक् होकर सौम्य बोला, “कहाँ?"

“वाह ! ज्योति टेलरिंग।"

हा.. हा.. हा..।

सहसा बड़ी जोर से हँसने लगा सौम्य।

"तो तुम लोगों ने सच मान लिया था कि शादी कर रहा हूँ।"

"क्या? शादी नहीं कर रहा है?"

“दिमाग ख़राब हुआ है? खूब धोखे में रखकर कुछ दिनों तक तुम लोगों को उलझाये रखा।”

“ऐं ! कुछ दिनों तक हमें उलझाये रखने के लिए..."

"क्यों? इसमें बुरा क्या हुआ? घर में हर समय हर किसी का मुंह फूला रहता है। ये तो कुछ दिन हा हा हा।"

इसके अलावा कोई चारा नहीं था। सौम्य और कुछ कर नहीं सकता था।

पिताजी के सामने तक तो ठीक है। वह भी लाचार होकर। लेकिन घर के और लोगों के सामने उससे 'छोटा' होते नहीं बनेगा।

दिव्य बोला, “सुन रही हो क़िस्सा?'

"सुना लेकिन विश्वास नहीं किया।"

"विश्वास नहीं किया?"

"अविश्वसनीय है तभी नहीं किया।"

"तो फिर?'

"तो फिर, कुछ और बात है।”

"मेरी तो अक्ल के बाहर की बात है।"

"तुम क्या अपनी अक्ल का दायरा खूब लम्बा-चौड़ा समझ रहे थे?"

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