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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

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मिंटू ने उत्तर दिया -

“अरुणदा !

दुर्बुद्धि मिंटू का हुक्म मानना तुम्हारा काम नहीं, ये मैं जानती थी। ऐसी आशा करती भी नहीं थी। सभी रास्तों का पता जानना, सबके लिए सम्भव नहीं। खैर, पलायक आसामी की तरह गृहत्यागी न होकर फिर से 'डेली पाखण्डी' की भूमिका सँभाल ली है जानकर खुशी हुई।

“परन्तु नयी चाची की तबीयत का हाल सुनकर मन बड़ा उदास हो गया। यह केवल शरीर का ही कलपुर्जा बिगड़ने से ऐसा हुआ है, ये बात नहीं है। नाटू की दादी से इस समस्या का समाधान न हो सकेगा। अतएव पुराने हुक्म के बदले नया हुक्म दे रही हूँ–'चाचीजी के घर में एक बहू ले आओ।'

“ज़िन्दगी नाटक नहीं है अरुणदा, कि उसे बरबाद किया जाये। तुम अवश्य ही नहीं चाहोगे कि मिंटू सोने के पलँग पर पड़ी-पड़ी लम्बी-लम्बी साँसें लेती रहे।

“लेकिन हाँ, ऐसी-वैसी लड़की आकर चाचीजी का घर तहस-नहस कर डाले, ऐसा मैं नहीं होने देंगी। लडकी का चनाव मैं स्वयं करूँगी। (यहाँ तक लिखने के बाद मिंटू ने अपने पति से परामर्श करना चाहा था। उसके बाद लिखा था) चुनाव करूँगी क्या, समझ लो किया है। मेरी एक ममेरी ननद है। बहुत अच्छी लड़की है। होगी ही। एक बहुत ही भले आदमी की बहन जो ठहरी। मुझ जैसी सुन्दरी नहीं है (वैसी अब तुम्हें मिलेगी कहाँ?) लेकिन फिर भी नयी चाची लोगों को बुला-बुलाकर बहू दिखाते वक्त शर्मिन्दा नहीं होगी। ज़रा पढ़ी-लिखी कम है। हायर सेकेण्डरी के बाद घर की असुविधाओं के कारण पढ़ाई बन्द हो गयी। लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है? ग्रेजुएट लड़की को क्या तुम धो कर पीओगे? बहुत सोचने-समझने के बाद ही मेरा यह सिद्धान्त है।

“अगर शादी करने को राजी न हुए तो उन दो नकचढ़े घमण्डियों को लिखकर बता दिया जायेगा कि तुम्हारी कन्या के विरह ने इस लड़के का जीवन बरवाद कर दिया है।

“नेवर ! ऐसा होने नहीं देना है अरुणदा। ऐसा हुआ तो मैं कभी भी पिता के घर जा नहीं सकूँगी। जाने की इच्छा ही नहीं होगी। शर्म से सिर झुका रहेगा। चाचीजी को अपना मुँह न दिखा सकूँगी।

“और अगर पता चलेगा कि चाची का लड़का विवाह करके बहू के साथ सुख से रह रहा है तो कभी-कभार जन्मभूमि में पैर रखने की इच्छा तो होगी। और उस सुखी घर पर जब-तब जा-जाकर हमला भी कर सकूँगी। आख़िर मेरी ननद का घर होगा। ननद के घर निःसंकोच जाया जा सकता है और ननदोई के साथ निर्भय होकर बोला-बतियाया जा सकता है।

"मान गये न?

“मिंटू की बुद्धि कितनी तीखी है।

“असल में जानते हो अरुणदा, भगवान ने मुझे ऐसा एक सुन्दर इन्सान दे दिया है जिसका प्यार, जिसके साहचर्य ने मुझे एक नये जीवन का स्वाद चखा दिया है। मैं जान गयी हूँ इन्सान अपना जीवन खुद गढ़ता-बिगाड़ता है।

"सीरियस' होकर उसे पहाड़-सा भारी बनाया जा सकता है और चाहो तो उसी जीवन को पक्षी के पर जैसा हल्का-फुलका बना लो। इसके लिए ज्यादा कुछ करना नहीं पड़ता है, अरुणदा। केवल दूसरे के प्रति जरा-सी सहानुभूति, ज़रा-सा प्रेम चाहिए।"

“अवश्य ही इसी के साथ उदारता भी जरूरी है। अगर हर समय 'मुझे क्या मिला' सोचते रहे तो हल्का होना सम्भव नहीं।

“मैंने एक लम्बा-चौड़ा भाषण दे डाला न? अब क्या किया जाये। स्वभाव मरते दम तक साथ नहीं छोड़ता है। माँ कहती थी न, 'मिंटू एक की जगह सौ बात करती है'।

“खैर, नयी चाची को मेरा चरणस्पर्श कहना और मेरे प्रपोजल पर जरा विचार करना।

“पति सहित मैं तुमको अपना आदर स्नेह भेज रही हूँ। ये सज्जन तुमको देखे बिना ही तुम पर जान न्यौछावर कर बैठे हैं।"

 

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