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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

5


“क्यों अरुणदा, क्या हुआ? रोज़ देख रही हूँ सुबह की ट्रेन पकड़ने के लिए भाग रहे हो और रात को घिसटते हुए घर लौटते हो। तुम्हारे कलकत्ता रहने का क्या हुआ? महाशय तो पकड़ ही में नहीं आते हैं। आज इतवार है इसीलिए..."

अरुण भूल ही चुका है कि 'इतवार' शब्द इतना मनोहारी है। आज सुबह उठते ही जब याद आया इतवार है तब से उसे आकाश का रंग तक बदला हुआ दिखाई देने लगा।

चाय पीते ही घर से निकल पड़ा था। हालाँकि इस समय धूप काफ़ी तेज़ है। मिंटू भी इसी धूप में निकली है।

अरुण को लगा मिंटू को पहली बार देख रहा है। बोला, “मेरे कलकत्ता जाकर न रहने से तुझे कुछ असुविधा हो रही है क्या?"

“अरे वाह ! होगी क्यों नहीं? दोनों वक़्त खिड़की के सामने खड़े होकर तुम्हारी गतिविधि पर ध्यान रखने में क्या कम समय बरबाद होता है?"

“ये बात है? तो यह हिसाब रखनेवाले की नौकरी तुझे दी किसने, मैं भी तो सुनूँ?”

“अरे बाप रे, मैं राज़ खोल डालूँ और मेरी नौकरी चली जाये ! नहीं बाबा नहीं।"

“अच्छा ! तो देख रहा हूँ मेरे बारे में आपकी बड़ी उच्च धारणा है"खैर तेरी परीक्षा होनेवाली है न? इस तरह से पढ़ाई-लिखाई न करके रास्ते में क्यों मारी-मारी फिर रही है?

"रात-दिन पढ़-पढ़कर किताब रटने से क्या कोई फर्स्ट सेकेण्ड होता है?"

"बार रे बाप ! एकदम से फर्स्ट सेकेण्ड ! अरे, अच्छी तरह से पढ़ेगी तो अच्छे नम्बर तो मिल सकेंगे।"

"क्या फ़ायदा होगा उससे?'

“आश्चर्य की बात है, भई पाने में ही तो फ़ायदा है। और ज़्यादा पढ़ने की इच्छा हुई तो.”

उदास होकर मिंटू ने बात काटी, “हमारे जैसी लड़कियों का फ़ायदा-नुकसान लड़कों के फ़ायदे-नुकसान जैसा नहीं होता है, अरुणदा। हमारे पढ़ने का लक्ष्य और अधिक पढ़ना नहीं है। लक्ष्य है एक ज़बरदस्त वर-प्राप्ति। किसी तरह ग्रेजुएट होते ही पिताजी ऐसे वर की तलाश में जी-जान से जुट जायेंगे।"

अरुण ने इधर-उधर देखा।

यद्यपि धूप खूब तेज़ थी परन्तु यहाँ 'बूढ़े शिव मन्दिर' की छाया पड़ रही थी। मन्दिर का दरवाज़ा अभी तक बन्द था। बूढ़े पुरोहित निताई भट्टाचार्यजी नौ बजे तक भी नहा-धोकर पहुँच नहीं पाते हैं। लोगों का कहना है कि भाँग का नशा उतरते-उतरते दिन बीतने को आता है।

यह बात सभी को पता है। इसीलिए जिन्हें बाबा के आगे पूजा चढ़ानी है वे ज़रा देर से ही आते हैं और जो बाबा के सामने तक पहुँचने की कोशिश नहीं करते हैं वे चौखट पर सिर टेककर छुट्टी पा लेते हैं। इस समय फिलहाल एक भी भक्त उपस्थित नहीं है।

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