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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

16


भवेश भौमिक की बीमारी सहसा इस तरह बढ़ जायेगी यह बात शायद स्वयं उसने भी नहीं सोची थी। उसके भक्तों ने तो सोचा ही नहीं था।

शुरू-शुरू में जब डॉक्टर ने कहा था, "वायप्सी करवा लेने में तो हर्ज नहीं है" भवेश ने तभी कहा था, “मुझसे अब छिपाना बेकार है समझ गया हूँ मेरे फाँसी के हुक्म आ गये हैं। हाँ, हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट में मुकदमा लड़-लड़ कर जितने दिनों तक खींचा जा सके घबराने की जरूरत नहीं है। मैं काम करता रहूँगा।"

कल अस्पताल ले जाया जायेगा। भवेश ने आज सभी को बुलाया था।

बोले. "मेरी नयी स्कीम है"सब कोई एक ही जगह से काम न करके अलग-अलग सेण्टर खोल कर थोड़े से कर्मी जुटाकर काम करो। हालाँकि लड़कियों पर ज़रा भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। घर के दबाव में पड़कर शादी करनी पड़ेगी इन्हें। लेकिन सौम्य, गौतम, अरविन्द, श्यामल, मिंटू, सचिन तुम सब तो हो-रहोगे भी। इस कमरे को अपना हेड ऑफिस बना लेना लेकिन भवेशदा की एक एन्लार्ज फोटो दीवाल पर टाँग कर नीचे ये मत लिखकर छोड़ देना 'भवेशदा ! तुम्हें हम कभी नहीं भूलेंगे।"

“आह भवेश दा ! यह सब क्या कह रहे हो?" गौतम ने लगभग डाँटते हुए कहा, “दो-चार बार 'रे' दिया गया नहीं कि आप सँभल जायेंगे। उसके बाद कुछ दिनों तक 'ठाकुर तालाब' में..."

“ओ बाबा ! इस राजसूय यज्ञ का खर्च कहाँ से पूरा होगा सुनूँ तो ज़रा?”

"खर्च होगा ही नहीं।"

“चुप रह-फ़ालतू बातें मत कर। भवेश को खींच-तान कर ज़िन्दा रखने के लिए इतना खर्च करने की कोई जरूरत नहीं है। बल्कि यह रुपया उन पर खर्च कर देना।" थोड़ा ठहरकर फिर बोले, “काम करनेवाले उसी बस्ती से लेना। इधर-उधर बेकार घूमते लड़कों को एक महान कार्य करने दोगे तो देख लेना कितना उत्साहित होते हैं। उन्हीं में से मज़बूत हाथ बना कर."

“आह भवेश दा?" ब्रतती बोली, “अब हम सब नाराज़ हो जायेंगे। आप इतना बोलिए नहीं।"

भवेश ने क्लान्त होकर आँखें बन्द कर लीं। उसके बाद ही बोल उठे, “तुम सब चाय पीओगे?'

“आज रहने दीजिए।”

"रहने क्या दीजिए। बुला, बुला। आज मैं भी पीऊँगा। तुम लोगों के साथ।"

दूसरे दिन चित्तरंजन कैंसर हास्पिटल में ले जाकर भर्ती कर आये भवेश को। केवल एक ही विजिटर्स कार्ड मिल सका। सिर्फ एक ही जा सकेगा।

गौतम बोला, “इसे मेरे पास ही रहने दो। कल मैं ही जाऊँगा।”

गौतम की आवाज़ में 'अधिकार जताने' जैसा स्वर था।

औरों को यह बात अच्छी नहीं लगी। ब्रतती को तो बहुत ही बुरी लगी।

गौतम अपने डॉक्टर बहनोई की मदद से यह इन्तज़ाम करवा सका है, क्या इसीलिए?

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