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आचार्य श्रीराम शर्मा >> उज्जवल भविष्य के ज्योति-कण

उज्जवल भविष्य के ज्योति-कण

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4098
आईएसबीएन :00000

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परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी....

Ujjaval Bhavishya Ke Jyoti Kan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आत्म-निर्माण की दिशाधारा

परिवर्तन की सच्चाई

परिवर्तन की प्रक्रिया अनायास ही सामने आकर खड़ी नहीं हो जाएगी, जादू की छड़ी घुमाकर कोई संत, देवदूत या अवतार यह सब करके नहीं रखा जाएगा। इसके लिए कोटि-कोटि जनता को घोर प्रयत्न करना पड़ेगा और हर सजग आत्मा को प्रस्तुत विपन्नताओं से जूझने के लिए रीछ, वानरों की तरह दुस्साहसी बनना पड़ेगा। इस महा अभियान का नेतृत्व करने के लिए महाभागो की आज अत्यधिक आवश्यकता है, जो ईश्वरीय इच्छा, युग की आवश्यकता और विश्वव्यापी सुख-शान्ति के लिए अपने क्षुद्र स्वार्थों का बलिदान करके नवनिर्माण को ऐतिहासिक भूमिका संपन्न करते हुए अपने को धन्य बना सके।


परिवर्तन अंतरंग में हो


इन दिनों विलास, संग्रह और अहंता की ललक-लिप्सा हर किसी पर उन्मादी आवेश की तरह छाई हुई है। वासना, तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ किसी को सूझता नहीं। संकीर्ण स्वार्थपरता और अहमन्यता के लिए कोई कुछ भी करने को तैयार है। लगता है मानो औचित्य और विवेक को तिलांजलि दे दी गई हो। यह ढर्रा जब तक चिंतन और व्यवहार में इसी प्रकार घुसा रहेगा तब तक सर्वत्र हुई विपन्नता से छुटकारा पाना कठिन है। परिवर्तन अंतरंग में हो सका तो बहिरंग परिस्थितियों के बदलने में संदेह की गुंजायश ही न रहेगी।


भीतर के शैतान को निकालो



स्मृति की तरह विस्मृति भी मनुष्य के स्वभाव में सम्म्लिति है, पर उस दुर्गुण के इस सीमा तक पहुँच जाने का क्या कहा जाए जिसमें अपने आप में आत्म-गौरव को, ओजस्, तेजस् और वर्चस को ही भुला दिया जाय ? आज कुछ ऐसा ही सम्मोहन-व्यामोह किसी शैतान द्वारा बिखेरा गया दीखता है, जिससे हतप्रभ होकर व्यक्ति अपने को दीन, दुर्बल, अशक्त, असहाय, अभागा आदि समझने लगता है। यदि उसे अपनी जीवट पर विश्वास हुआ होता, तो कठिन से कठिन विघ्र बाधाओं को चुनौती देते हुए अब तक न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता।


आंतरिक महाभारत जीतिए



जिनके जीवन में लोभ, व्यामोह, अहंकार, अपव्यय, आलस्य, कटुभाषण, अनुशासन का उल्लंघन जैसी अनेकों बुराइयाँ, दृष्टिकोण एवं आचरण में घुसी बैठी होती हैं, उन्हीं के कारण प्रगति का मार्ग रुका पड़ा रहता है। अस्तु, आत्म परिष्कार के लिए अपने पूर्वाग्रहों से भी संघर्ष करने की आवश्यकता है। सारी सामर्थ्य स्वार्थ-साधन में ही खपा देना, लोक मंगल के लिए समयदान और अंशदान प्रस्तुत करने के कर्त्तव्य पालन में बहानेबाजी करना भी ऐसी अदूरदर्शिता है जिसे हर कीमत पर हटाया जाना चाहिए। अपने आप में पूर्ण सामर्थ्य से लड़ते हुए अर्जुन की तरह आंतरिक महाभारत जीतने के लिए कमर कसनी चाहिए।


आत्म-निरीक्षण करें


हम आत्म-निरीक्षण की ओर बढ़ें। अपने स्वयं के भूत, वर्तमान और भविष्य से भी ज्ञान उपलब्ध करना चाहिए। देखना अधोगामियों को ही नहीं चाहिए, वरन् वायु और अग्रि की तरह ऊपर की दिशा में ही बढ़ने वालों पर भी ध्यान देना चाहिए। नजर उठाकर उस ओर भी निहारना चाहिए जिस दिशा धारा को महामानवों ने अपनाया और उत्कृष्ट आदर्शवादिता पर चलते हुए पीछे वालों के लिए ऐसा मार्ग छोड़ा है जिसका अनुकरण करने पर अपने को और साथी सहचरों को भी धन्य बनाया जा सके। समझदारी यदि साथ दे सके तो पहुँचा इस निष्कर्ष पर जाना चाहिए कि पतन से विमुख होकर उत्थान का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है।

हम बदल सकते हैं....


लोगों के दृष्टिकोण, जीवनक्रम एवं प्रयास का शवच्छेद किया जाय तो उनमें से अधिकांश रावण, कुम्भकर्ण, मारीच, कंस, दुर्योधन, जरासंध, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, भस्मासुर के भाई-भतीजे दिखाई पड़ेंगे। अंतर इतना ही है कि योग्यता एवं समर्थता के अभाव में मनचीती कर नहीं पाते। रीति-नीति उनकी उसी स्तर की है। सूर्पणखा, ताड़का, त्रिजटा, सुरसा, पूतना, मन्थरा घर-घर में विराजमान हैं। अन्तर साधन और अवसर न मिल पाने जितना है। इन लोगों के बीच रहते हुए भी कमल पत्र की नीति बनानी चाहिए। सुदामा, केवट, हनुमान, भागीरथ जैसों का अनुकरण करने में घाटा नहीं सोचना चाहिए। कौशिल्या, सुमित्रा, उर्मिला, कुन्ती, मदालसा, मीरा, संघमित्रा का रास्ता अपनाने में कोई घाटा नहीं है। पिछला जीवन उथला-पुथला रहा हो, तो भी भविष्य का उज्ज्वल निर्धारण करने में कोई अड़चन नहीं। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, विल्वमंगल, अजामिल जैसे बदल सकते हैं। आम्रपाली, वासवदत्ता की कथाएँ बताती हैं कि सामान्य स्तर से गई गुजरी नारी भी आंतरिक परिवर्तन होने पर विश्व विभूति बन सकती है। आदर्शवादिता परिवर्तन के लिए जीवन का हर क्षेत्र, संसार का हर कोना खुला पड़ा है।


हम बदलें



परिजनों ! युग परिवर्तन का शुभारंभ मनोभूमि के परिवर्तन के साथ आरम्भ करना होगा। हम लोग नवनिर्माण के संदेश वाहक एवं अग्रदूत हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया हमें अपनी चिंतन दिशा से अविवेक से विलग कर विवेक के आधार पर विनिर्मित करनी चाहिए। जो असत्य, अवांछनीय, अनुपयोगी है उसे छोड़ने का साहस दिखाएँ। अब बहादुर वे नहीं गिने जायेंगे तो तलवार चलाने में प्रवीण हैं और एक ही झटके में दूसरों का सिर काट सकते हैं। अब बहादुरी का मुकुट उनके सिर बाँधा जाएगा जो अपनी दुर्बलताओं से लड़ सके और अवांछनीयता को स्वीकार करने से इनकार कर सकें।

परिवर्तन का श्रीगणेश करें


युग परिवर्तन का शुभारंभ हमारे दृष्टिकोण निर्धारण एवं क्रिया में आलोक भरने के रूप में होना चाहिए। इंजीनियर हो तो भवन बनें, डॉक्टर हों तो अस्पताल चलें, अध्यापक हो तो बच्चे पढ़ें, सेनापति हों को सिपाही जैसे लड़ें। अग्रगामी रास्ता दिखाते ही नहीं, बनाते भी हैं। यदि वह सही दिशा में जाता होगा और सीधा होगा तो उस पर चलने वाली भीड़ की कमी न रहेगी। कठिन तो आरम्भ ही होती है। ढर्रे चल पड़े तो बड़े बड़े उद्योग को मुनीम, गुमास्ते भी चलाते रहते हैं। युग सृजन में प्रमुख भूमिका उनकी होगी जो आगे चलेंगे अर्थात् अपने व्यक्तित्व और प्रयास में ऐसी आदर्शवादिता भर देंगे जिसे देखकर उस अनुकरण का साहस जन-जन में उभरे। युग परिवर्तन का श्री गणेश अपने निजी क्षेत्र में हमें स्वयं करना है। उन्हें इस प्रकार का साँचा हनाना है, जिससे सटने वाले ठीक उसी तरह के बनते चले जायें।

 

हम बदलेंगे-युग बदलेगा


‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’ के उद्घोष में निदान और उपचार के दोनों की पक्षों का समावेश है। परिस्थितियों को बदलने के लिए मन:स्थिति को, समाज को सुधारने के लिए व्यक्ति परिष्कार का अनिवार्य माना जाना चाहिए। हर-व्यक्ति को इस तथ्य से अवगत-सहमत करना चाहिए कि इन दिनों लोकमानस की दिशाधारा में समग्र परिवर्तन की आवश्यकता है। लोग आज जिस तरह सोचते, चाहते, मानते और करते हैं उसके उद्गम केन्द्र में ऐसे हेरफेर की आवश्यकता है जिससे सडे-गले ढर्रे का परित्याग और शालीनता का अवलम्बन संभव हो सके। इसके लिए तीन सिद्धान्त सूत्रों को समझने-अपनाने भर से काम चल जायेगा-1- निर्वाह में संयम-सादगी का इतना समावेश किया जाए जिसे औसत नागरिक स्तर का और शरीर यात्रा के लिए अनिवार्य कहा जा सके। 2- सादगी अपनाने के उपरान्त जो क्षमता सम्पदा बचती है उसे सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, नवनिर्माण के लिए, समयदान, अंशदान के रूप में अधिकाधिक उदार उत्साह के साथ समर्पित किया जाए। 3- अंतरंग और बहिरंग दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए साहसिक शौर्य पराक्रम के साथ संघर्ष किया जाए।
‘पर उपदेश कुशल’ न बनें
आज आदर्शवादिता की बढ़-चढ़कर बातें करने वाले ‘पर उपदेश कुशल’ बहुत हैं, पर जो अपना उदाहरण प्रस्तुत कर सकें, ऐसे निष्ठावान् देखने को नहीं मिलते। यही कारण है कि उपदेशों पर किया हुआ श्रम व्यर्थ सिद्ध होता चला जा रहा है और सुधार की अभीष्ट आवश्यकता पूरा हो सकने का सुयोग नहीं बन पा रहा है। इस अभाव की पूर्ति का हम लोग साहस कर सकें तो सुधार क्षेत्र में एक नये उपचार की परम्परा आरंभ हो सकती है।


आखिर चुनौती कौन स्वीकार करें



एक कहानी प्रसिद्धि है कि बिल्ली से बचने के लिए चूहों ने उसके गले घण्टी बाँधने का फैसला किया था, पर जब यह कार्य करने की जिम्मेदारी उठाने का प्रश्न आया तो कोई चूहा उसके लिए तैयार नहीं हुआ। हमारी भी यही दशा है। मूढ़ता से ग्रसित लोगों की हाँ में हाँ मिलाकर हम सस्ती वाहवाही लूटते रहना चाहते हैं। फिर नवनिर्माण का सुधारात्मक अभियान गतिशील बनाने में मिलने वाले विरोध तिरस्कार को सहन करने के लिए आगे कौन आए ? इसके लिए प्रखर मनोबल और प्रचण्ड साहस की जरूरत पड़ती है। सुधारक का मुख्य काम जनमानस का परिष्कार करना है। प्रचलित विकृतियों, रुढ़ियों एवं दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिरोध करना है। जो यह काम हाथ में लेगा उसे स्वभावत: परम्परावादियों का विरोध सहना पड़ेगा। ऐसा करने का साहस वह नहीं कर सकता जिसने सार्वजनिक जीवन में यश और मान पाने के लिए ही प्रवेश किया है।


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