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जीवन कथाएँ >> आखिरी अढ़ाई दिन

आखिरी अढ़ाई दिन

मधुप शर्मा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4428
आईएसबीएन :81-89859-12-9

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प्रख्यात अभिनेत्री मीना कुमारी के जीवन पर आधारित कृति....

Aakhiri Adhai Din

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

.....नाम, इज्जत, शोहरत, काबिलियत, रुपया, पैसा सभी कुछ मिला पर, सच्चा प्यार नहीं।.....कई बार महीनों गुजर गये हैं इस भरम में कि मैंने अपनी मंजिल पा ली।.... मिल गया मुझे जिसकी पिछली कई जिंदगियों से तलब थी....जिसे खोजती हुई भटक रही थी मेरी रूह को और मेरी निगाहों को हमेशा, हर पल.....पर वो कहते है न कि बहुत करीब से देखा जाय तो किसी चीज को, तो पूरी तरह देख नहीं पाते उसे....यही तो होता रहा है मेरे साथ भी।....मैं अपनी बेसब्री की आदत का शिकार होती जा रही हूँ।...जरा-सी कशिश महसूस करते ही मैं अपने आप पर काबू खो बैठती हूँ और बेतहाशा खिंचती चली जाती उसकी तरफ...इतनी करीब कि गैरियत और अलहदगी का अहसास ही मिट जाता.... पर जिंदगी में नजदीकियाँ होती हैं तो दूरियाँ भी बहुत दूर नहीं होतीं....मैंने जब भी किसी को अपने से अलहदा करके उसके वजूद में खुद को तलाशने की कोशिश की तो नाउम्मीदी ही हाथ लगी....सारे के सारे भरम खुलते चले गये....मेरी तो कोई जगह थी ही नहीं उसके आसपास....

क़िस्सा एक कठपुतली का

भाई श्री मधुप शर्मा पुरानी पीढ़ी के उन निष्ठावान साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन कला और साहित्य को समर्पित कर दिया था और आज तक वे इस क्षेत्र में निर्बाध संलग्न हैं। वे साहित्य के अतिरिक्त आकाशवाणी, फ़िल्म (सहायक कलाकार, संगीतकार आदि) में भी अपनी ख़ासी दख़ल रखते हैं। उनका अंतरंग संबंध मीना कुमारी, दिलीप कुमार, राज कपूर, नरगिस, देवानंद आदि से रहा। मीना कुमारी की ज़िंदगी के अंदरूनी परिदृश्य में जितना गहरा वे डूबे उतना कदाचित् कोई दूसरा नहीं। इस संबंध के मुझे उन्होंने कई बैठकों में मीना जी के अनछुए और अंतरंग प्रसंग सुनाए। वे उन प्रसंग-संदर्भों में इतने रच-पच चुके हैं कि मुझे वह भी उनकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा लगा और मैंने तुरन्त उनसे आग्रह किया कि उसे वे लिपिबद्ध करें और समाज के सामने उस मीना कुमारी को भी आने दें जो फ़िल्मों में अपनी गहरी छाप के लिए विशेष चर्चित रहीं परंतु जिनका स्वयं का जीवन भी कहीं उन हादसों की गहराइयों से जुड़ा रहा। शायद यह सोच पाना कठिन होगा कि वास्तविक ज़िंदगी में भी मीना कुमारी उसी दौर से गुज़री थीं जिसको उन्होंने ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’, ‘दिल एक मंदिर’, ‘पाकीज़ा’ आदि में जीवंत कर अपने दर्शकों का मन मोह लिया था।
मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई जब मधुप भाई ने मीना कुमारी के अधखुले पृष्ठों की पोथी को मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, ‘यह है वह मीना कुमारी, जिसको लिपिबद्ध करने पर आपने विशेष ज़ोर दिया था। पढ़ देखिए और बताइए कि क्या किया जाए ?’
मैंने मीना कुमारी की पांडुलिपि को पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते अनेक स्थलों पर मैं ठगा-सा रह गया क्योंकि वहाँ एक लाजवाब शायरा थी, उसका ग़मग़ीन दिल था और चुभन थी। सच को छू लेने का ईमान किस हद तक ग़ुस्ताख़ हो उठा था और ग़स्ताख़ी की चाह कहाँ से कहाँ ले जाती है। एक बार लगा कि हम किसी गुमनाम हुई नदी की धड़कनें सुन रहे हैं। पता नहीं कब वे धड़कनें एक अफ़साने की शक्ल लेने के लिए बेताब हो उठीं।

मैं जानता हूँ कि संभावनाओं के पाँव नहीं होते। फिर भी उनके पाँवों की आहट साफ़ सुनाई पड़ रही थी। कुछ मुर्दे ऐसे भी होते हैं जिन्हें क़ब्र क़ुबूल नहीं करती और ज़िंदगी उनकी मौत पर अपने को लुटा बैठती है। उसे यह ख़याल ही नहीं रहता, जिस पर वह फ़िदा हुए जा रही है, उसकी शनाख़्त के शफ़कत एक मज़ार के मिटे हुए हर्फ़ से ज़ियादह कुछ और नहीं है। लेकिन मेरे यार ने यह तै कर लिया था कि उसकी मज़ार पर कोई बन्दगी के लिए जाए या न जाए परंतु जो इस छुए-अनछुए दर्द की ख़ामोशी चीरती बेज़ुबान धड़कनों का एक बार दीदार कर बैठा वह ताज़िंदगी उसकी ख़ुशबू से अपने को जुदा नहीं कर सकता।
मधुप भाई ने मीना कुमारी की अंदरूनी शख़्सियत की वे शबीहें पेश की हैं कि जिनसे एकबारगी वह वक़्त ठहर जाता है और तनहाई का साया शबनम की बाँहों में सिमट जाता है।
मीना कुमारी ख़ूब पीती थीं। चाहती थीं कि वे आईने के सामने खड़े होकर भी अपने वजूद से इनकार हो जाएँ। काश ! ऐसा हो सकता। और जो हुआ वह बेहद ख़ौफ़नाक़, फफोले-भरा, ग़म में डूबा हुआ मटमैला सफ़हा था।
दरअसल मीना कुमारी की जिंदगी का फ़लसफ़ा अपनी तकदीर से बगावत का वह अफसाना था जो हर पल अपने जे़हन में सरफ़रोशी की तमन्ना पर फिदा था। मधुप भाई ने उन लम्हों को बेशक यादगार बना दिया है।

मीना कुमारी की जातीय ज़िंदगी के उजाले-अँधेरे पाख एक ऐसी औरत की तसवीर पेश करते हैं जो शमा बनी जीते-जी जलकर राख हो जाना चाहती थी। वह राख जिसमें दबी चिनगारी सदियों-सदियों तक अपनी ऊष्मा का एहसास कराती रहे और जताती रहे कि मैं मज़ार में पड़ी-पड़ी सुबकना नहीं छोड़ सकी। मैं उन हज़ारों-हज़ार अभागी नारियों में से ही एक हूँ, जिनका रेशा-रेशा ऐसा मज्जापूर्ण है कि जो अपने को मारकर भी आती-जाती साँसों के स्पंदित झूले में हिचकोले खाती रहती हैं परंतु उफ़ तक नहीं करतीं, न ही किसी से शिकवा-शिकायत। करतीं भी तो किससे ? किताब के ख़्वाब देखते हुए मैं रिहल बनकर रह गई। रेहननामा कितनी बार बना, कितनी बार झुठलाया और कितनी बार लीर-लीर होकर आँखें फाड़े अपने को घूरता रह गया। न चकवा-चकवी का अफ़साना उलट-पलट सकी और न इबादत के अंजुमन में शरीक होकर अपने को मुजरिम होने की सौदाई नीयत से बचा सकी। हर रब्त-ज़ब्त रफ़्ता-रफ़्ता रब की सीढ़ियों से लौटा लाया। ज़िंदगी किसी मसोसी हुई रिसाला की बद्दुआ बनकर रह गई। किसी क़दीम इमारत का खिसकता वजूद पायल की झंकार में सुनती रही पर मुँह नहीं खोला। दिल की सीवन उधड़ती रही, बदन टूटकर पायल के घुँघरू-सा बिखरता रहा। कितनी बार ज़िंदगी के घुँघरुओं को फिर से पिरोने की कोशिशभरी कोशिश की और हर बार एन वक़्त पर धोखा खा गई। शायद वफ़ा का ऐसा चलन है कि वफ़ात तक परछाइयों का दामन नहीं छोड़ती। इस ज़िंदगी की पारदर्शिता को भाई श्री मधुप जी ने तटस्थ होकर यायावर की तरह बयान किया है, वह अपने आप में उस ज़िंदगी की रूह का तरजुमा लगने लगता है। अचानक झील की जमी परतों के भीतर से लावा निकलने लगता है। ऐसे वक़्त भाई मधुप जी की बानगी यह रही है कि वे अपने को हज़ारों-हज़ार पाठकों में से एक पाते हैं, मौन, अकेले और बिना किसी हमसाये के ताज्जुब-भरी निगाहों से अपने को घूरते हुए। मैं ऐसी ख़ुसूसियत से लबालब और रूह की पहचान कराने वाली इस इबादतनुमा इख़लास का तहेदिल से स्वागत करता हूँ जिसे उन्होंने उपन्यास की अदाकारी से पेश किया है और अपने इत्मीनान की बुनियाद को हिलने नहीं दिया है। साथ ही इस तज़किरा की लंबी उम्र की ख़्वाहिश करता हूँ। उम्मीद है कि मधुप भाई ऐसी किसी और रूह से अपने चहेते पाठकों को रू-ब-रू करा सकेंगे जिससे अदब की दुनिया उनकी एहसानमंद होने में फ़ख़्र महसूस कर सके।
डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर

एक धज्जी-धज्जी रात की पीड़ा

याद नहीं पड़ता कब देखा था मधुप जी को पहली बार, लेकिन यह ज़रूर याद है कि जब भी देखा था, यह लगा था कि इस व्यक्ति को तो न जाने कब से जानता हूँ। कुछ है उनमें, लेकिन ऐसा क्या है जो आकर्षित करता है ? बरसों के उनके रिश्तों के बाद भी मैं इस ‘क्या’ को परिभाषित करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ। बस, इतना जानता हूँ कि मधुप जी के पास ढेर सारा स्नेह है, जो वे बड़ी सहजता से लुटाते रहते हैं। इसी स्नेह के चलते उनसे रिश्ते गहरे होते गए। उनकी सहजता और निश्छलता को बहुत भीतर तक महसूसा है मैंने। यह तो मैं नहीं कर सकता कि मैंने उनका लिखा सब कुछ पढ़ लिया है, लेकिन जितना कुछ पढ़ा है, वह उनके सोच, उनकी संवेदनशीलता और जीवन में घट रहे के प्रति उनके स्पष्ट और भीतर तक छूने वाले और सोचने के लिए विवश करने वाले भी, विचारों से परिचित कराने के लिए काफ़ी है। उनसे और उनके विचारों से परिचित होने का दावा करने के बावजूद मैं यह बात अवश्य कहना चाहूँगा कि उनकी हर नई रचना से गुज़रने के बाद मुझे लगा है, अरे, यह भी लिख सकते हैं मधुप जी ! और कितना लिखा है उन्होंने ! लिखना उन्होंने बहुत पहले शुरू कर दिया था—उनका पहला गीत-संग्रह 1946 में छपा था। लेकिन ‘विवध भारती’ के लिए या पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखने के बाद जब उन्होंने कुछ ज़्यादा ठोस और ज़्यादा गंभीर लिखना शुरू किया तो आकाशवाणी से सेनानिवृत्त हो चुके थे। यह शायद 1967-68 की बात है। तब से लेकर आज तक उनकी बीस कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। लेकिन प्रकाशन का यह सिलसिला शुरू हुआ था 1993 में। इसका मतलब यह हुआ कि पिछले बारह-तेरह साल में उन्होंने इतना सारा लिख लिया। यह सब उस काल में लिखा गया, जब लोग सेवा निवृत्त होने के बाद जीवन में आराम करने की सोचने लगते हैं। जब भी मधुप जी के बारे में कहीं कुछ कहने का मौका मिला है, मैं स्वयं को यह कहने से रोक नहीं पाया कि मुझे मधुप जी से रश्क होता है !

मधुप जी मुझसे उम्र में बहुत बड़े हैं। रचनाकार के रूप में और भी ज़्यादा बड़े। मैं जब पैदा हुआ था तो मधुप जी स्नातक बन चुके थे। जब उनका पहला गीत-संग्रह छपा था तो मैं तुतला-तुतलाकर बोलना सीख रहा था। उनकी समूची आत्मीयता और स्नेह के बावजूद उम्र और लेखन के इस अंतर से उनमें एक आदर-भाव वाली दूरी हमेशा बनी रही है। यह दूरी भी मुझे अच्छी लगती है। उन्हें आदर देकर, लगता है, जैसे ख़ुद कुछ पा रहा हूँ। ऐसे में जब एक दिन अचानक उन्होंने बताया कि अपना नया उपन्यास मुझे पढ़ाना चाहते हैं, और छपने से पहले, तो मुझे थोड़ा-सा अटपटा लगा था। उन्होंने कहा था, कुछ सलाह लेनी है। मैं स्वीकार करना चाहता हूँ कि यह सुनकर मुझे संकोच भी हुआ था और भीतर कहीं अच्छा भी लगा था। उन्होंने बताया था कि मीनाकुमारी की ज़िंदगी को उन्होंने एक उपन्यास में ढाला है। यह तो मैं जानता था कि अपने समय की अप्रतिम कलाकार मीना कुमारी से उनका अच्छा परिचय रहा है, लेकिन यह अच्छा परिचय कितना गहरा था, यह इस उपन्यास की पांडुलिपि पढ़कर ही मैं जान पाया था। और यह सब पढ़ने के बाद ही मैं यह भी जान पाया था कि किसी एक व्यक्ति के माध्यम से समय और समाज को समझने की एक ईमानदार कोशिश का कितना अच्छा परिणाम निकल सकता है।

मीना कुमारी अपने समय की चर्चित कलाकार रही हैं। अभिनय की जिन ऊँचाइयों को उन्होंने अपनी निभाई भूमिकाओं में छुआ है, वो भारतीय सिनेमा की कला के चमकते शिखर हैं। इस महान् कलाकार की व्यक्तिगत ज़िंदगी की त्रासदी से भी उनसके समय के लोग एक सीमा तक परिचित रहे हैं। पर्दे पर रिश्ते की बुनावट और गरमाहट को साकार कर देने वाली यह कलाकार अपने जीवन में इस गरमाहट के लिए जीवन-भर तरसती रही थी, यह बात भी किसी न किसी रूप में सामने आती रही है। यह त्रासदी अपने आप में बहुत बड़ी है कि सारी दुनिया को एक कुटुंब की तरह देखने की चाहत रखने वाली मीना कुमारी अपने कुटुंब का सुख नहीं भोग पाईं। वे जीवन-भर रिश्तों को अर्थ और रंग देने की कोशिश करती रहीं, पर रिश्तों की नवंबर की धूप वाली गुनगुनाहट से सदा वंचित रहीं वे। लेकिन उनका जीवन सिर्फ़ भावनात्मक अभावों की कहानी मात्र नहीं है। मीना कुमारी का अनुभव-संसार, उनका भोगा हुआ सच तथा मन और मस्तिष्क के स्तर पर जिस त्रासदी को उन्होंने जिया था, वह सब, किसी न किसी स्तर पर हमारे समय और हमारे समाज का सच भी है। मधुप जी ने अपने इस उपन्यास में उस सच को भी उजागर किया है। यह मीना कुमारी की कहानी है, इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन यह अपनी भावनाओं और अपनों के अत्याचार की बंदी एक नारी की कहानी भी है। यह उस समाज का और उन पारिवारिक रिश्तों का चित्रण भी है, जो किसी को शोषण का अधिकार देता है और किसी के हिस्से में शोषण को भोगने की विवशता।

हम स्त्री-विमर्श के युग में जी रहे हैं। नारी के अधिकारों और उपलब्धियों के ढेरों अध्याय लिखे जा चुके हैं। या देवी सर्वभूतेषु....से शुरू होती है एक कहानी और कब वह देवी कुलटा बना दी जाती है, भोग्या मात्र बनकर रह जाती है, पता ही नहीं चलता। रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जब हम पढ़ते हैं कि मीना कुमारी ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ में ही पीड़ित नारी की भूमिका नहीं निभाती थीं, यह उनके जीवन का भी एक त्रासद सच था। उनकी परिवार की चाह, माँ बनने का उनका सपना और पुरुष नाम के जीव द्वारा उनका शोषण, यह सब मीना कुमारी के जीवन का सच है। लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में यह हमारे जीवन का भी सच है। मधुप जी ने अपनी इस कृति में इस टुकड़ा-टुकड़ा सच को एक पूरे सच का आकार दिया है—सच, जो डरावना भी है, पर जिसे समझकर एक अजीब-सी सुरक्षा का भाव भी मन में पैदा होता है। सुरक्षा का यह अहसास एक हक़ीक़त को जानने के बाद उसका मुक़ाबला करने के भाव के पैदा होने जैसा है। इसे मैं लेखक की विशेषता कहता हूँ—और लेखन की ताक़त भी। मधुप जी की अन्य कई कृतियों में भी स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और उसकी अस्मिता का संघर्ष का चित्रण हुआ है, लेकिन आत्मकथात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास में स्त्री के इस संघर्ष को जिस बारीक़ी और शिद्दत के साथ चित्रित किया गया है, वह कहीं बहुत गहरे तक जाकर चोट करता रहा। इस उपन्यास में सच कितना है और कल्पना कितनी, यह बात उतने माने नहीं रखती, जितनी यह बात कि इस उपन्यास में एक विशिष्ट नारी का जीवन एक खुली किताब के रूप में हमारे सामने आता है। वैसे, मुझे याद है, कभी-कभी बात-बात में मधुप जी के मुँह से निकल गया था, इस उपन्यास की नब्बे प्रतिशत बातें सच हैं। यह तथ्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि लेखक ने बाहर से ख़ूबसूरत दिखने वाले एक ऐसे सच के भीतरी खोखलेपन को बड़ी कुशलता से उजागर किया है, जो हमें भावनात्मक और विचारात्मक, दोनों स्तरों पर झकझोरता है।

बरसों पहले मीना कुमारी का एक रिकॉर्ड सुना था। ग़ज़ल भी उन्हीं की थी, आवाज़ भी। इस ग़ज़ल में उन्होंने कहा था, ‘टुकड़े-टुकड़े दिन बीता/धज्जी धज्जी रात मिली/जिसका जितना आँचल था/उतनी ही सौग़ात मिली।’ इस ग़ज़ल में वे उस बरसात की भी बात करती हैं, जिसमें आँखें हँसती हैं और दिल रोता है और यह भी कहती हैं कि जब भी दिल को समझना चाहा, हँसने की आवाज़ आई और ऐसा लगा जैसे कोई कह रहा हो, ‘लो, फिर तुमको मात मिली।’
मधुप जी का यह उपन्यास पढ़कर मुझे यह ग़ज़ल याद आ गई थी। टुकड़ों और धज्जियों में जिए गए एक जीवन को किस तरह उजागर किया जा सकता है, किस तरह एक त्रासदी को पूरे जीवन और समाज के संदर्भों से जोड़ा जा सकता है, किस तरह उस बरसात के अर्थ को समझाया जा सकता है, जिसमें आँखें, और दिल दो अलग-अलग दिशाओं में चलने के लिए विवश होते हैं और हर बाज़ी में मात की विवशता जीवन को किस घाट पहुँचा देती है—मधुप जी की यह रोचक और सारगर्भित कृति इन सारे सवालों के जवाब खोजने की एक सार्थक कोशिश है। मुझे विश्वास है, यह रचना मीना कुमारी और उनके कृतित्व को जानने वालों को उन्हें समझने की एक नई दिशा, एक नई दृष्टि तो देगी ही, उन्हें भी सोचने-समझने के लिए एक बहुत बड़ा आकाश देगी, जिनके लिए मीना कुमारी एक कलाकार का नाम मात्र है। मैं यह दुहराना चाहता हूँ कि यह कहानी भले ही मीना कुमारी की हो, पर यह हमारे समाज की नारी का सच है। मुझे विश्वास है, इसे पढ़ने वाले इस सच को उजागर करने की लेखक की पीड़ा को भी समझेंगे।
मधुप जी, आभारी हूँ, आपने मुझे इस कृति से जुड़ने का मौका दिया। आप शतायु हों, स्वस्थ रहें और लगातार लिखते रहें, यही कामना है।
-विश्वनाथ सचदेव

मधुप शर्मा

फ़िल्मों में गीतकार बनने के इरादे से जब मैं बंबई आया, तब मीना कुमारी बहुत-सी फ़िल्मों में काम कर चुकी थीं। बचपन से कर रही थीं। लेकिन उनकी सबसे पहली फ़िल्म जो मैंने देखी, वो थी ‘बैजू बावरा’। उसी के बाद मैं उन्हें पहचानने लगा था। पर आमने-सामने जो पहचान हुई वो कुछ साल बाद जब एक दिन मोहन स्टूडियो में विमल रॉय यूनिट के श्री पाल महेंद्र ने मुझे उनसे मिलवाया...और वही साधारण-सी जान-पहचान एक दिन अचानक अपनेपन का-सा अहसास छोड़ गई 1959 या ’60 में मैंने विविध भारती के ‘हवा महल’ में एक मोनोलॉग की अदायगी के लिए उन्हें आमंत्रित किया। रिकॉर्डिंग के बाद उनके इसरार पर मैंने अपनी एक ग़ज़ल सुनाई थी। पहला शे’र सुनते ही बेसाख़्ता उनके मुँह से निकला था, ‘आपने तो यह मेरे दिल की बात कह दी।’ चलते-चलते उसी दिन उन्होंने यह वायदा भी ले लिया था कि जब भी किसी कलाकर से मिलने किसी स्टूडियो में आऊँ और वो वहाँ शूटिंग कर रही हों तो मैं उन्हें मिले बिना नहीं आऊँगा।..
...और वो वायदा उनके अंतिम दिनों तक निभता रहा। शायद इसलिए कि हमारे ख़यालात काफ़ी मिलते-जुलते थे। हमारी शायरी में एक-दूसरे का दर्द झाँकता था और हमारी हैसियतों का फ़र्क़ हमारे व्यवहार या बातचीत में कभी आड़े नहीं आया। न उनकी आँखों में कभी अहंकार की झलक देखी, न मेरे मन में कभी कमतरी का अहसास आया।
अनोखी अदाकारा, बहुत अच्छी शायरा और एक बेहतरीन इंसान। हमदर्दी और अपनेपन की मिसाल। लाखों-करोंड़ों दिलों की मलिका।

इस तरह की नामी हस्ती के बारे में कुछ कहना या लिखना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है। बहुत-सी जानकारी होनी चाहिए, जो या तो आपने उस व्यक्ति के साथ निजी संपर्क से प्राप्त की हो या उसके क़रीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के ज़रिए।
आज इस रचना को तो अपना कहते हुए भी मुझे संकोच हो रहा है। शब्द भले ही मैंने इकट्ठे किए हैं, पर भाव और विचार मीना जी के ही हैं और काग़ज़ पर उन्हें लाते वक़्त मैंने पूरी ईमानदारी से काम किया है। कोशिश की है कि शब्द भी लगभग उन्हीं के हों। लिखते वक़्त मैं निरंतर यह महसूस करता रहा हूँ कि मैं नहीं, मीना कुमारी ही अपनी उन बातों को दोहरा रही हैं, जो कभी उन्होंने कही थीं या महसूस की थीं।

शायद इसीलिए यह आलेख आत्मकथा के अंश का-सा रूप बन गया है। अंश इसलिए कि पूरी आत्मकथा होती तो ज़िंदगी के और भी पहलू उसमें आते। इसमें ज़िंदगी का वही हिस्सा उभरकर आया है जो मीना जी के दिल के बहुत क़रीब था।
...निःस्वार्थ प्यार और अपनेपन की प्यास, मातृत्व के लिए छटपटाती रूह, पुरुष के साथ समान अधिकारों की लालसा।...
...पर कहाँ मिल पाया उन्हें यह सब ! नाम, शोहरत, इज़्ज़त, पैसा, सभी कुछ मिला, पर वही नहीं मिला जो उन्होंने सबसे ज़्यादा चाहा। उसी को पाने की कोशिश में वो बटोरती रहीं दर्द...दर्द....दर्द...
...दर्द, जो शदियों से लगभग हर भारतीय नारी का नसीब बन हुआ है। आद के तरक्कीपसन्द आधुनिक ज़माने में भी लगभग वहीं का वहीं।
...बेटे-बेटी का फ़र्क़, बेटी को अनचाही औलाद मानकर एक बोझा-सा समझते हुए, उसके लिए सही परवरिश और प्यार में भी भेदभाव। बड़ी होकर वो कमाने लगे तो पहले पिता और फिर पति का अधिकार। सिर्फ़ उसकी कमाई पर ही नहीं, उसके व्यक्तित्व पर भी...नारी तो अबला है। उसे कोई अधिकार देकर फ़ायदा ही क्या ! कहाँ रक्षा कर पाएगी उन अधिकारों की भी बेचारी ! पति है न उसका परमेश्वर, उसका ख़ुदा।...
अपने बाहुबल पर इतराने वाले पुरुष का यह अहम्, स्वार्थ और सदियों पुरानी वह सामंती सोच, कहाँ बदल पाई है आज भी !
ख़ैर...नारी की यह कहानी तो शायद और सदियों तक यूँ ही चलती रहेगी। आइए, इसी कहानी को मीना जी से सुनें, आँखों से पढ़ें और दिल से महसूस करें।...

मीनाकुमारी

कल मेरी तबीयत और भी ज़्यादा बिगड़ गई तो ख़ुर्शीद आपा ने डॉक्टर को फिर बुला लिया। वो हमेशा की तरह मुस्कराकर बोला, ‘‘कहिए, कैसी हैं मैडम ?’’
मैंने अपने ज़ज़्बात पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘नया कुछ भी नहीं...सब वही...पुराना। दर्द...जैसे नश्तर-से चुभा रहा है कोई...साँस लेना भी दुश्वार होता जा रहा है।’’
डॉक्टर ने मेरी नब्ज़ देखी। सीने पर स्टेथेस्कोप लगाकर मेरे दिल की धड़कन सुनी। हाथों, पैरों और पेट का मुआयना कर चुकने के बाद, आपा से मुख़ातिब हुआ, ‘‘इन्हें फिर से नर्सिंग होम में रखना होगा।’’
मैं कुछ देर आँखें बन्द किए ख़ामोश लेटी हुई थी, पर डॉक्टर की बात सुनकर मुझसे चुप नहीं रहा गया। मेरी आवाज़ में दर्द और उदासी तो घुली हुई थी ही, शायद कुछ तल्ख़ी भी आ गई थी, जब मैंने कहा, ‘‘नहीं-नहीं, अब मुझे कहीं नहीं जाना।’’
कुछ देर सन्नाटा-सा रहा।

फिर डॉक्टर की ही आवाज़ सुनाई दी थी। मुझे समझाने के-से लहजे में बोला, ‘‘देखिए मैडम ! आपके हाथों, पैरों और चेहरे पर भी आज सूजन कुछ ज़्यादा है। पेट में भी पानी बहुत भर गया है, जिसका निकाला जाना बहुत ज़रूरी है। नर्सिंग होम में इलाज बेहतर और आसानी से हो सकेगा।...मैं आपका ख़ैरख़्वाह हूँ, कोई ग़लत राय थोड़े ही दूँगा आपको।...
कुछ देर बाद, किसी बच्चे की मीठी गोलियाँ थमाकर बहलाने के-से अंदाज़ में डॉक्टर ने कहा था, ‘‘मैडम, मैं आपको किसी और अस्पताल में ले जाने की बात थोड़ी ही कर रहा हूँ। वहीं चलेंगे आपके देखे-भाले और पसंदीदा सेंट एलिज़ाबेथ नर्सिंग होम में। वहाँ तो आप कई बार जा भी चुकी हैं, और कुछ ही दिनों में हमेशा हँसती-मुस्कराती लौटी हैं, बिलकुल ठीक होके। वहाँ के तो सारे डॉक्टर और नर्सें भी ज़बरदस्त फ़ैन हैं आपके। बहुत ही चाहते हैं आपको।...आपने तो ख़ुद भी दो-एक बार कहा है कि वहाँ बिलकुल घर के-से माहौल का अहसास होता है आपको।’’

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