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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4691
आईएसबीएन :81-288-1441-9

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रोमांटिक और सामाजिक उपन्यास

Ghat Ka Pathar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दीपक चंद्रपुर के जमींदार रामदास का भांजा है। वह शहर जाना चाहता है। शहर में वह सेठ श्यामसुंदर के यहाँ ठहरता है और उनकी ही कम्पनी में नौकरी करने लगता है। दीपक को सेठ श्यामसुंदर के बेटी लिली से प्यार हो जाता है और वह उससे शादी करना चाहता है। लेकिन लिली दीपक से केवल मन बहलाने के लिए मेल-जोल करती है। लिली अपने कॉलेज ही में पढ़ने वाले सागर नाम के लड़के से प्यार करती है और सागर ही से शादी करना चाहती है। लेकिन दीपक को यह सब पसन्द नहीं होता। दीपक कंपनी के कागजों में घोटाला कर बदले में लिली से शादी कर लेता है। दीपक लिली को लेकर अपने गांव चंद्रपुर चला जाता है। लेकिन वह अभी भी लिली पर शक करता है जबकि लिली की एक बेटी और बेटा भी है। इसी शक के चलते लिली घर छोड़कर चली जाती है। क्या दीपक का अपनी पत्नी लिली पर संदेह करना उचित था ? क्या लिली लौटकर अपने घर आयी ? यह एक अत्यंत ही रोचक उपन्यास है जिसे लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशंन नंदा ने लिखा है।



चंद्रपुर संसार के कोलाहल से दूर छोटी-छोटी, हरी-हरी घाटियों में एक छोटा-सा गाँव है। दूर-दूर तक छोटे-छोटे टीलों पर लंबी-लंबी घास के खेत लहलहाते दिखाई देते हैं।
एक सुहावनी संध्या थी। लोग थके-मांदे घरों को लौट रहे थे। गांव के बाहर वाले मैदान में बालक कबड्डी खेल रहे थे। एक अजनबी, देखने में शहरी, अंग्रेजी वेश-भूषा धारण किए गांव की कच्ची सड़क पर आ रहा था। समीप पहुंचते ही बालकों ने कबड्डी बंद कर दी और उसे घेर, घूर-घूरकर देखने लगे।
‘ऐ छोकरे !’ अजनबी ने बालक को संबोधित करके कहा।
‘क्यों क्या बात है ?’
‘देखो, तुम्हारे गांव में कोई डाक-बंगला है ?’
‘आपका मतलब डाक बाबू....।’
‘नहीं, डाक-बंगला, मेहमानों के ठहरने की जगह।’
‘तो सराय बोलो न साहब।’
‘सराय नहीं, साहब लोगों के ठहरने की जगह।’

‘साहब लोग तो रामदास की हवेली में ठहरते हैं। सामने दीपक बाबू आ रहे हैं, उनसे बात कर लें।’
‘क्यों क्या बात है रामू, श्यामू ?’ दीपक ने समीप आते ही पूछा।
‘यह बाबू रहने की जगह मांगे हैं।’
‘जाओ तुम सब लोग अपने-अपने घरों को। संध्या हो गई है।’
‘देखिए साहब, हम लोग बंबई जा रहे थे कि हमारी गाड़ी कुछ खराब हो गई। रात होने को है। इन पहाड़ियों में रात के समय यात्रा करना खतरे से खाली नहीं। रात बिताने की जगह चाहिए। पैसों की आप चिंता न करें, मुंह-मांगा दिला दूंगा।’ अजनबी कहने लगा।
‘तुम्हारे साथ और कौन है ?’
‘मेरे मालिक सेठ श्यामसुंदर...बंबई के रईस, उनका सैक्रेटरी और मैं उनका ड्राइवर शामू।’
‘गाड़ी कहां है ?’
‘सामने सड़क पर।’
दीपक और शामू, दोनों सड़क की ओर चल दिए।
दीपक सेठ श्यामसुंदर और उनके साथियों को सीधा अपनी हवेली में ले गया। बाहर वाली बैठक में उनके ठहरने का प्रबंध कर दिया। आदर-सत्कार के लिए नौकर-चाकर तो मौजूद थे ही।

चंद्रपुर जमींदार रामदास की धाक थी। अतिथि-सत्कार के लिए तो दूर-दूर तक उनकी चर्चा थी। धन था, जायदाद थी, दो सौ तो जंगली घास के खेत थे...लंबी-लंबी और मोटी घास। दूर-दूर के व्यापारी घास के गट्ठे के गट्ठे खरीद ले जाते और शहरों में व्यापार करते थे।
दीपक दूर के रिश्ते से उनका भांजा था। अपनी तो कोई संतान थी नहीं, बहन के विधवा होते ही वह उसे अपने पास ले आए थे, जब वह कोई पाँच वर्ष का था। बाद में इसकी मां भी चल बसी और दीपक जमींदार साहब के घर का दीपक बन गया। समीप के ही शहर से उसे बी.ए. तक की शिक्षा दिलाई, उसे सभ्य बनाने में कोई कसर न रखी गई।
अब दीपक पढ़-लिखकर जवान हो चुका था और रामदास के टिमटिमाते हुए जीवन का अंतिम सहारा था। जीवन की यह यात्रा वह अकेले कर नहीं सकते थे। अब वह चाहते थे कि उनकी दुर्बल हड्डियों को तनिक आराम मिले, परंतु वह यह आराम अपने जीवन की पूंजी खोकर लेने के इच्छुक न थे। जमींदार साहब चाहते थे कि उनका काम दीपक संभाल ले। व्यापारियों से बातचीत, सौदा ठहराना, बाहर माल भिजवाना, यदि वह इस आयु में नहीं संभालेगा तो कब संभालेगा। अब वह बालक तो है नहीं !

इधर दीपक के हृदय पर इन हरी-भरी घाटियों के स्थान पर किसी और ही संसार का चित्रण खिंचा हुआ था। वह अपना जीवन इन सुनसान घाटियों में गलाने के लिए तैयार न था। वह इस नई भागती हुई दुनिया के साथ-साथ चलना चाहता था। परंतु यह विचार उसके हृदय के पर्दे से टकराकर ही रह जाते। उसने कई बार प्रयत्न किया कि वह जमींदार साहब से साफ-साफ कह दे परंतु कर्तव्य उसे ऐसी अशिष्टता की आज्ञा न देता।
उस रात भी सदा की भांति जमींदार रामदास अपनी अतिथिशाला में बैठे अपने अतिथि सेठ श्यामसुंदर के साथ बातचीत में व्यस्त थे। पास ही दीपक एक कुर्सी पर बैठा उनकी बातचीत का आनंद ले रहा था।

‘जमींदार साहब, आप जैसे सम्पन्न और प्रसन्नचित्त मनुष्य हमारे शहर में तो ढूंढे से भी न मिलेंगे। भगवान ने भी आपको अपनी प्रकृति में दूर छिपा रखा है।’ श्यामसुंदर कह रहे थे।
‘वाह साहब, आपने भी खूब कही। भला हम किस योग्य हैं ! यह तो एक कर्तव्य मात्र है जिसे निभाने का मुझे अवसर दिया गया, नहीं तो कौन देवता और कौन पुजारी ! यह सब उसकी बिखरी हुई माया है।’ जमींदार साहब ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
‘परंतु देखा साहब आपका संसार, उसकी रंगीनिया और न जाने क्या कुछ, परंतु अब देखने को जी नहीं चाहता। भगवान का दिया सब कुछ है, किस दिन काम आएगा ! सब कुछ पास होने पर भी जो मनुष्य ऐसी बातों से परे रहे, उसके जीवन को धिक्कार है।’

‘हैलो दीपक, चुप क्यों हो ?’ श्यामसुंदर ने बात बदलते हुए कहा।
‘यों ही। आप और पिताजी की बातचीत सुन रहा था।’
‘कितने भाग्यवान हो तुम कि तुम्हें इतने अच्छे पिता मिले हैं।’
‘भाग्यवान तो मैं भी कम नहीं जिसे इतना होनहार और आज्ञाकारी पुत्र मिला है।’ जमींदार साहब बोले।
इस पर सब हंसने लगे।
इस प्रकार बहुत देर तक बातचीत होती रही, व्यापार संबंधी, घरेलू संसार संबंधी। सेठ श्यासुंदर बंबई के प्रसिद्ध व्यापारी थे। बंबई में इनका ऐनक बनाने का कारखाना था। लाखों की आमदनी थी। सारे शहर में अपने ढंग का एक ही कारखाना था।

सवेरा होते ही शामू गाड़ी के गिर्द हो लिया और कोई नौ बजे तक सब ठीक कर डाला। सेठ साहब का सामान भी बंध चुका था और चलने की तैयारी थी। जमींदार साहब सेठ साहब को हवेली की डयोढ़ी तक छोड़ने आए।
‘देखिए साहब, यदि आप कभी बंबई आएं तो सीधे हमारे यहां आइएगा।’
‘क्यों नहीं, यह भी हो सकता है कि कुएं के पास जाकर प्यासे लौट आवें !’
‘अच्छा तो अब आराम कीजिए। यदि जीते रहे तो फिर भेंट होगी। मैं आपका यह उपकार जीवन भर नहीं भूल सकूंगा।’
सेठ साहब, आप क्यों व्यर्थ लज्जित करते हैं। मैं आपको नीचे सड़क तक छोड़ आता परंतु स्वास्थ्य आज्ञा नहीं देता। उतर तो लूं पर चढ़ना जरा...
‘कोई बात नहीं। आप नहीं तो आपका प्रतिरूप तो साथ है।’
‘अवश्य यह भी तो आपका बच्चा है।’

अभिवादन करके सब सड़क की ओर चल दिए। उतरती हुई पगडंडी कितनी सुंदर जान पड़ती थी। चारों ओर एक हरा समुद्र-सा फैला हुआ था।
‘क्यों दीपक, तुम्हारा मन तो ऐसी सुहावनी जगह बहुत लगता होगा। खुली हवा, प्रकृति की गोद और फिर सोने पे सुहागा कि रामदास जैसे पिता ?’
‘जी आप ठीक कहते हैं, परंतु....’
‘क्यों दीपक, इस वातावरण में भी तुम्हारे मुख में परंतु का शब्द !’
‘सेठ साहब, आप इस घाटी और यहां के वातावरण को किसी और दृष्टि से देखते हैं और मैं किसी और !’
‘आखिर तुम्हारी दृष्टि क्या देखती है ! कुछ हम भी तो सुनें।’

‘आप जीवन की यात्रा को पूरा करके निर्दिष्ट के समीप पहुंच रहे हैं और मैं अभी यात्रा की तैयारी में हूं। आप उस कोलाहल भरे संसार से उकताकर इस सूनसान घाटियों में चैन और संतोष ढूंढ़ सकते हैं परंतु मेरे मूक हृदय में से घाटियां, जंगली घास के ढेर और ये सूनी पगडंडियां हलचल पैदा नहीं कर सकेंगी। सेठ साहब, आप ही सोचिए, मैंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की। इस संघर्षमय संसार में मनुष्य को जीवन की सड़क पर भागते देखा। अब यह किस प्रकार हो सकता है कि मैं यह सब देखकर एक कोने में चुपचाप बैठा रहूं। आप ही कहिए, क्या आपके हृदय में इच्छाओं का समुद्र ठांठे नहीं मार रहा ? क्या आप अपने बढ़ते हुए कारोबार को देखकर प्रसन्न नहीं होते और इससे अधिक देखने की आपकी अभिलाषा नहीं ? इसी प्रकार मैं भी मनुष्य हूं। मेरी भी इच्छाएं हैं। यदि बहुत बड़ी नहीं तो छोटी ही सही।’

‘मैं तुम्हारी प्रत्येक बात से सहमत हूं। तुम पढ़े-लिखे हो, सयाने हो, जो चाहो कर सकते हो, परंतु तुम्हें रोकता कौन है ?’
‘पिताजी। वह चाहते हैं कि मैं अब उनकी तरह दुशाला ओढ़े घास कटवाता रहूं और शाम को घास के स्थान पर चांदी के सिक्के थैलियों में भरकर घर लौटूं। आप ही सोचिए, ऐसे जीवन में क्या धरा है ! कई बार कहा कि शहर में एक कोठी ले लें, आराम से रहें। स्वास्थ्य ठीक नहीं, इलाज भी हो जाएगा। यहां का काम तो नौकर भी कर सकता है, परंतु वह मानते ही नहीं।’
‘मानें भी क्यों कर ? तुम्हें अनुभव नहीं है। यह काम नौकरों पर नहीं छोड़े जाते। फिर भी यदि तुम चाहो तो अपने ही काम में बहुत उन्नति कर सकते हो। टोकरियां, चटाइयां और ऐसी ही अनेक वस्तुएं जो इस घास से बन सकती हैं, तुम अपने-आप बनवा सकते हो और एक अच्छा-खासा व्यापार खड़ा कर सकते हो।’

‘परंतु यह सब कुछ यहां बैठकर तो होने का नहीं। रुपया चाहिए और पिताजी की आज्ञा। दोनों ही बातें कठिन जान पड़ती हैं।’
‘प्रयत्न करो। मनुष्य क्या नहीं कर सकता। वह चाहे तो पत्थर से पानी निकाल ले और फिर यह तो तुम्हारे पिता हैं।’
सामान गाड़ी पर बंध चुका था।
‘अच्छा दीपक।’ कंधे पर हाथ रखते हुए सेठ साहब ने कहा, ‘बिछड़ने का समय आ गया। तुम्हें छोड़ने को जी तो नहीं चाहता परंतु लाचारी है। बंबई अवश्य आना। यह लो मेरा पता, जो कुछ बन पड़ा तुम्हारी सहायता करूंगा।’ श्यामसुंदर अगली सीट पर बैठ गए। शामू ने कार स्टा्र्ट कर दी।
‘आशा है शीघ्र ही भेंट होगी।’ दीपक ने सेठ साहब से कहा।
दीपक देर तक खड़ा कार की उड़ती हुई धूल को देखता रहा और जब वह आंखों से ओझल हो गई तो धीरे-धीरे घर की ओर लौट पड़ा।

सेठ साहब को गए दो माह से अधिक हो चुके थे। दीपक नित्य खेतों में जाता और शाम को रुपयों से भरी थैली लाकर जमींदार साहब के चरणों में रख देता और पुरस्कार स्वरूप शाबाशी और मस्तक पर प्यार भरा चुंबन पा लेता।
परंतु वह इस जीवन से ऊब चुका था। वह आवश्यकता से अधिक चिंतित था कि कहीं भाग निकले। उसके मन में भविष्य और कर्तव्य के बीच एक संघर्ष-सा हो रहा था, परंतु अब वह कर्तव्य की बेड़ियों को भी सदा के लिए तोड़ डालना चाहता था।
एक दिन सवेरे जब वह अपने कमरे में बैठा दूर सड़क पर टकटकी लगाए देख रहा था, जमींदार साहब पूजा के कमरे से निकलकर बैठक की ओर जा रहे थे—उसे इस प्रकार बैठा देखकर कहने लगे—
‘क्यों बेटा, अभी तक कुल्ला नहीं किया, नहाए नहीं। इतना दिन निकल आया, काम में देर हो रही है, कटी हुई घास बैलगाड़ियों पर लदवानी है...।’
‘आज में न जा सकूंगा।’ दीपक ने कुछ फीकेपन से उत्तर दिया।
‘क्यों ? तबीयत तो ठीक है, कहीं बुखार तो नहीं ?’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। जी नहीं चाहता।’
‘इसका मतलब ?’ जमींदार साहब ने तनिक कठोरता से कहा।
दीपक चुपचाप बैठा रहा।

‘तो यह बात है ! कल मुनीमजी ठीक कह रहे थे कि अब यहां से कहीं और जाना चाहते हो।’
‘बंबई।’
‘खुशी से जाओ। तुम्हे रोका किसने है ? दिल बहल जाएगा। कुछ दिन जलवायु की तबदीली ही सही।’
‘परंतु पिताजी, मैं जलवायु की तबदीली या अपना दिल बहलाने के लिए नहीं जा रहा हूं। एक लंबी अवधि के लिए जाना चाहता हूं।’
‘ऐसी कौन-सी आवश्यकता आ पड़ी ?’
‘अपना भविष्य बनाने की।’
‘भविष्य ! तो यहां तुम्हें कौन-सा भिखारियों का जीवन बिताना पड़ता है, जो अपने भविष्य की चिंता हो रही है ?’
‘भविष्य से मेरा मतलब....।’

‘मैं सब समझता हूं, तुम्हारा मतलब...।’ क्रोध में जमींदार साहब बोले। नहीं पिताजी, ऐसी कोई बात नहीं। आप दूसरा विचार मन में न लाइए। मैं तो किसी जगह जाकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं ताकि इस संसार की वास्तविकता को जान सकूं।’
जवानी में एक नशा होता है। युवक चाहते हैं कि अपनी भावनाओं के भेद जान लें और ऐसे वातावरण में जाकर रहें जहां सब लोग उनकी इच्छाओं को समझ सकें और प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करें, परंतु दूर से चमकने वाली प्रत्येक वस्तु सोना नहीं होती।’
परंतु यह भी तो हो सकता है कि वह सोना ही हो। आप ही सोचिए, यदि में अपना काम शहर में जाकर बढ़ा लूं तो एक अच्छा-खासा व्यापार खुल सकता है,

सौ-दो सौ मनुष्य काम पर लग सकते हैं, हजारों भूखों का पेट भर सकता है। उसमें नाम है, पैसा है, आदर है।’
‘मुझे झूठे नाम और आदर की कोई इच्छा नहीं।’
‘परंतु आपका यह कर्तव्य तो है कि आप अपने बच्चे के जीवन को सुखी बनाने के लिए उसका सहायता करें।
‘कर्तव्य ! मां-बाप का कर्तव्य ! संतान का भी तो कुछ कर्तव्य है ?’
‘मैं अपने कर्तव्य का पालन करने से कब इंकार करता हूँ ? मैंने तो केवल अपनी इच्छा प्रकट की है।’
‘तुम्हारे जीवन का तो अभी प्रभात है और इच्छाएं पूरी होने को बहुत समय है, परंतु जिसके जीवन की संध्या निकट आ गई है उसके दिल के अरमान उसके साथ ही समाप्त हो जाएं, क्या यही है तुम्हारा कर्तव्य ?’
‘परंतु यहां तो मेरी विशेष आवश्यकता नहीं। काम तो चल ही रहा है। यदि इस दौरान मैं कुछ....’
जमींदार साहब बात काटते हुए क्रोध से बोले—
‘तुम जहां चाहो जा सकते हो, मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं। मैं समझूंगा कि मेरा बेटा नहीं था। पराई वस्तु को कितना भी अपना बनाकर रखो फिर भी पराई है। कहते हुए जमींदार साहब कमरे से बाहर निकल गए।
दीपक की आंखों में आंसू उमड़ आए। वह कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि जमींदार साहब उसको गलत समझेंगे। जमींदार साहब के शब्द रह-रहकर उसके हृदय में हलचल-सी पैदा कर देते। भांति-भांति के विचार उसके हृदय में उदय-अस्त होने लगे।

इसी प्रकार चार दिन बीत गए। न तो जमींदार साहब ने दीपक को बुलाया और ही उसने उनके सामने आने का साहस किया। दीपक अपने मिथ्या विश्वासों का शिकार बना बैठा था और जमींदार साहब अपनी हठ के, परंतु एक ही घर में यह खिंचाव कितने दिन और चल सकता था!
एक दिन जब दीपक काम से लौटकर अपने कमरे में आया तो क्या देखता है कि उसका सब सामान, बिस्तर, ट्रंक आदि बंधा पड़ा है। पहले तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही न हुआ, परंतु दूसरे ही क्षण वह क्रोधित हो उठा। इतने में जमींदार साहब कमरे में आ गए। दीपक कुछ घबरा-सा गया और उसने सिमटकर मुंह नीचे कर लिया।
‘क्यों दीपक तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों पीला पड़ गया ?’
जमींदार साहब की आवाज में काफी नरमी देखकर दीपक ने चेहरा ऊपर उठाया और इतना ही बोल पाया—
‘नहीं तो, परंतु यह सब...।’
‘तुम्हारा ही असबाब है। तुम आज रात की गाड़ी से बंबई जा रहे हो, अपनी इच्छा से नहीं बल्कि मेरी आज्ञा से।’
‘परंतु इतनी जल्दी....।’

‘किंतु-परंतु’ मैं कुछ सुनना नहीं चाहता। जल्दी से मुंह-हाथ धो लो, जो आवश्यक वस्तुएं ले जानी हैं बांध लो। खाना तैयार करने के लिए कह दिया है। समय कम है और काम अधिक। मुनीमजी और हरिया गाड़ी पर बिठा आवेंगे।’
दीपक प्रसन्नता से फूला न समाया। वह न समझ सका कि यह सब स्वप्न था या सत्य। उसकी आंखों में प्रसन्नता के आंसू थे।
शीघ्र ही वह तैयारी करने में लग गया। मुनीमजी और हरिया उसका हाथ बंटाने लगे। जैसे-जैसे दीपक के जाने का समय निकट आता था जमींदार साहब का दिल बैठता जाता। परंतु उन्होंने कोई ऐसा भाव अपने मुख पर न आने दिया।
अंत में समय आ पहुंचा। स्टेशन गांव से कोई चार कोस की दूरी पर था। जाना भी जल्दी था। हरिया सारा सामान लेकर नीचे सड़क पर जा चुका था। जमींदार साहब ने सौ-सौ के पाँच नोट दीपक को देते हुए कहा—
‘इन्हें सावधानी से बक्स में रख लेना और मुनीमजी, यह लीजिए, आप टिकट लेकर बाकी पैसे दीपक को दे देना।’
‘पिताजी यदि जीवन भर लगा रहूं तो भी आपका एहसान नहीं चुका सकता, फिर भी यदि यह नाचीज किसी काम आ सके तो अवश्य आदेश दीजिएगा।’

यह कहते हुए दीपक ने जमींदार साहब के पांव छुए। जमींदार साहब ने उठकर उसे गले लगाया। उनकी आंखों में आंसू थे। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कोई अमूल्य वस्तु उनसे सदा के लिए दूर जा रही हो।
‘अब तुम एक नए जीवन में प्रवेश कर रहे हो। देखना, इस बूढ़े बाप को भूल न जाना।’
‘यह भी संभव है क्या कि मैं आपको भूल जाऊं ? मैं कोई सदा के लिए तो जा नहीं रहा हूं, अवसर मिलने पर आपको मिलता ही रहूंगा।’
देखो, सेठ श्यामसुंदर का पता ले लिया है न ?’
‘जी। वह मेरे पास है।’
‘मेरी ओर से उन्हें बहुत-बहुत पूछना और कहना कि कभी समय मिले तो कुशल-मंगल का पत्र ही लिखते रहा करें।’
‘अच्छा अब आप विश्राम कीजिए, मैं चलता हूं।’
दीपक ने पिता के पांव अंतिम बार छुए और सड़क की ओर चल पड़ा।
‘मुनीमजी, टिकट दूसरे दर्जे का लेना और किसी में जगह न मिलेगी।’
जमींदार साहब की आंखों से आंसू टपक पड़े। वह देर तक डयोढ़ी में खड़े दीपक को देखते रहे। जब वह आंखों से दूर हो गया तो हवेली में प्रवेश किया, चारों ओर सन्नाटा-सा छा रहा था। एक थके यात्री की भांति, जिसका कोई निर्दिष्ट न हो, वह बरामदे में बिछे एक तख्त पर जा बैठे।



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