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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5202
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास


 

काल का प्रहार

1

वृन्दावन का प्रसाद-पेड़ा के अलावा और क्या हो सकता था, चने और साथ में जेवरात का पिटारा जो दलूमौसी की अपनी निजी सम्पत्ति थी-इन सबको दीवार के पास रख कर प्रसाद को माथे से लगाकर प्रणाम किया और बदन से रेशमी चादर को सोफे पर उछाल कर दलूमौसी की पहला वाक्य यही थी-छि ! छिः ! वही कलकत्ता किस प्रकार से बदल चुका है? तुम लोग अब तक इसे कलकत्ता कह कर बुलाते हो? तुम्हें लाज, घृणा या दुख कुछ भी महसूस नहीं होता?

दलूमौसी के चेहरे को देखकर मुझे भी ठीक इन्हीं उपरोक्त वाक्यों को दोहराने की प्रबल इच्छा हो रही थी। दलूमौसी इस प्रकार बदल चुकी हैं। जिनका चेहरा कभी यूनानी शैली का था और किसी जमाने के कृष्णकुंचित केश अब जैसे हजारों आलपिन की तरह उनके मुंडे सिर पर उग गये थे। मुझे भी यही कहने को मन कर रहा था-इतनी सुन्दर। दलूमौसी का ऐसा हाल? हाय-हाय। पर मुझे अपने आप को रोकना पड़ा। क्योंकि आस-पास नाती पोतियों का मेला था-जो दलूमौसी के किसी जमाने वाले रूप सौष्टव का जिक्र छिड़ने भर से मेरी खिल्ली उड़ाना शुरू कर देंगे।

दलूमौसी का छोटा भतीजा बुद्ध उनके इन तीखें आलोचनाओं का जबाव देता हुआ बोला-बुआ, आजकल लज्जा, घृणा सारे शब्द अभिधान से निकाल बाहर कर डाले हैं।

दलूमौसी ने जवाब में कहा—ऐसा ही तो लग रहा है। प्रसाद थोड़ा-थोड़ा बाँट लो। पेड़ा पुराना है बास आ रही है और थोड़ा चना भी भुस-सा गया है। पर प्रसाद की असम्मान मत करना। कहाँ गृहिणियाँ कहाँ हैं, किस कोने में छिपी बैठी हो? प्रसाद का विसर्जन करो।

इसके बाद मेरी तरफ देख कर बोली, तू कब आई?

कब और आज ही। तुम जो आने वाली थीं। दलूमौसी प्रसन्नचित हो गईं-अच्छी बात है रहेगी तो आज?

दलूमौसी मेरे किसी रिश्ते से मौसी लगती है। मेरे साथ उनका मेल है। किसी दैवी घटना के फलस्वरूप हमारा जन्म एक ही घड़ी में हुआ था। देवी या मानवी का एक आत्मा दो शरीर किसी शास्त्र या इतिहास में नहीं लिखा है। तभी तो हमारे लिए एकात्मा वाला विशेषण नहीं प्रयोग किया गया। मैं तो हरिहार आत्मा वाला पुरुषों का विशेषण प्रयोग कर सकती हूँ।

कोई चारा भी तो नहीं है। हमारे शब्द भण्डार में नारी समाज के लिए शब्दों का नितान्त अभाव है। पता नहीं नारी के प्रति शब्दों की कंजूसी का क्या कारण है? और अधिक क्या कहें। जिन्होंने काफी कवितायें लिख कर नाम कमा लिया है उन्हें भी महिला कवि के अतिरिक्त भिन्न किसी और परिचय से शोभित नहीं किया जाता। उनका अपना कोई अलग परिचय नहीं होता।

पर यह अभियोग मेरा नहीं (होगा क्योंकि मैं तो काव्य नहीं रचती) और आज का भी नहीं। ऐसा प्रतिवाद साठ बरस पहले दलूमौसी ने किया था।

मझले दादा यानि दलूमौसी के मझले ताया की अनुपस्थिति में उनके कमरे से बांगला शब्दकल्पद्रुम' लेकर, उसे पूरा निरख-परख कर दलू मौसी अपने सुन्दर होंठों को उल्टा करके धिक्कार पूर्ण कंठ से ऐसा अभियोग कर बैठीं थीं। क्योंकि दलूमौसी तब भी 'महिला' की श्रेणी में नहीं आ पाई थी और अनेकों पद्य भी रच डाले थे, और वे पद्य भी बड़े ही उत्कृष्ट कोटि के थे।

दलूमौसी अपने लिए किसी उचित विशेषण को ना खोज पाने पर बड़ी ही कुपित थीं।

फिर भी तो उस वक्त इस देश में महिला समाज में-जज मेजिस्ट्रेट, वकील, बैरिस्टर, मंत्री-संत्री का अता-पता ना था। होता तो दलूमौसी से धिक्कृत होना पड़ जाता।

अब जब महिलाओं ने अपने पेशे की गरिमा से इन गौरवमय आसनों पर अपना अधिकार कर लिया है और बड़े ही गौरवमय ऐश्वर्य से विराजमान हैं तब भी बेचारी' की छाप 'महिला के साथ लगा ही रहता है। जाने दें, इस अफसोस की फेरहिस्त बनाने लगे तो वह फेरहिस्त इतनी लम्बी हो जायेगी कि उसका खत्म होना असम्भव हो जायेगा।

दलूमौसी उस ‘शब्दकल्पद्रुम' को फटाक से मझले दादा जी के कमरे में फेंक कर आई और बोली-सारी की सारी चाभियाँ तो इन पुरुषों के हाथ में है तभी तो हमारी इतनी दुर्दशा होती हैं।

हाँ यह कहा था दलू नाम की बाला ने वह भी साठ बरस पहले। साठ बरस पीछे चलें तो पता चलेगा दलू नाम जो सुनने में अटपटा-सा लगता है, यही सोचते होंगे कि शायद उनका नाम 'दलनी बेगम' या 'दलमालदल' रहा होगा। पर उनका नाम तो था 'शतदलबासिनी' यानि मधुर, मनोहर, माधुर्यमन्डित तथा महिम्बाबित। नामकरण के समय म' विशेषण से जुड़ा नाम तो सोचा गया पर एक बीघे के नाम से तो बुलाया नहीं जा सकता। तभी उसे कैंची से काटकर ‘दलू' बना दिया गया।

दलूमौसी अपने नाम की भाँति ही थीं। जैसा नाम वैसा रूप। उनकी ओर देख आँखें फेरना सम्भव नहीं था। गुणों के क्या कहने? हाँ उस जमाने में उनके गुणों की कदर थी।

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