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दो लहरों की टक्कर - भाग 1

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :627
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5375
आईएसबीएन :0000

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सामाजिक-राजनीतिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं का विश्लेषण...

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Do Lahron Ki Takkar-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

ए. ओ. ह्यूम सन् 1882 में जब सरकारी सेवा से मुक्त हुए तो अपने सेवा-काल में प्राप्त अनुभवों पर विचार करने लगे। उनका जीवन चरित्र लिखने वाले सर विलियम वडरबर्न उनके अनुभवों के विषय में इस प्रकार लिखते हैं—
‘सेवा-मुक्त होने से कुछ पहले ह्यूम के पास ऐसे प्रमाण एकत्रित हो गये थे कि जिनसे उसे विश्वास हो गया कि हिन्दुस्तानी में एक गम्भीर, स्थिति उत्पन्न हो चुकी है, जिसका अति भयंकर परिणाम निकल सकता है।’

The evidence that convinced him of the immence of the danger was contained in seven large………..volumes containing a vast number of enteries…………from over thirty thousand different reporters…………
(महान् भय के प्रमाण जो उसे मिले, वह सात वृहत्.....खण्डों में रखे गये थे। उन प्रमाणों में लगभग तीस सहस्र सूचनाएँ सम्मिलित हैं।)

इन सात खण्डों में साधु-सन्त, महात्माओं और उनके चेलों के लिखे पत्र हैं, जो देश के धार्मिक नेता थे। उनका अविश्वास नहीं किया जा सकता था। इन प्रमाणों की उपस्थिति में सर वडरबर्न लिखते हैं—
Hume felt that a safety valve must be provided for the suppressed discontentment of the masses and something must be done to relive their despair, if a disaster was to be averted………
(ह्यूम यह अनुभव करता था कि जनता में दबे हुए असन्तोष को निकलने का स्थान होना चाहिए। उनकी निराशा को दूर करने का कुछ यत्न करना चाहिए, जिससे भयंकर दुर्घटना होने से रोकी जा सके।)

सर ह्यूम सरकारी नौकरी में सन् 1849 में आये थे और सन् 1882 में सेवा-मुक्त हुए थे। वे हिन्दुस्तान के उस ऐतिहासिक काल में भारत सरकार में रहे थे, जिसमें सन् 1857 का अंग्रेज़ी राज्य के विरुद्ध भयंकर विद्रोह हुआ था और उस विद्रोह के उपरान्त अंग्रेज़ सेनाशाही ने जनता से भीषण प्रतिशोध लिया था। उस काल के अनुभव ही ह्यूम के मस्तिष्क पर बोझा बने हुए प्रतीत होते हैं।

परन्तु जो कुछ ह्यूम को अपने सेवा-काल में विदित हुआ था, वही कुछ मैकॉले और उसके समान विचार वाले अंग्रेज़ विद्वानों को पहले ही अनुभव हो चुका था। उन्होंने भी भारत के प्रशान्त सागर की तह के नीचे गहराई में एक प्रबल धारा बहती देखी थी और उन्होंने इस धारा को दबा देने का प्रयत्न अपने ढंग से किया था।
इस प्रतिशोध का स्वरूप दो प्रकार से दृष्टिगोचर हुआ था। एक ओर राजा राममोहन राय की ब्रह्म-समाज के रूप में, तथा दूसरी ओर मैकॉले साहब की सरकारी शिक्षा के रूप में। इसी विरोध का एक अन्य रूप हुआ, सर ह्यूम द्वारा स्थापित इण्डियन नैशनल कांग्रेस।
हिन्दू-समाज के प्रशान्त सागर की गहराई में चल रही धारा को अंग्रेज़ विद्वानों ने देखा था और समझा था। वह धारा थी भारतीय संस्कृति और धर्म की, जिसे लम्बा मुसलमानी राज्य भी मिटा नहीं सका था।
अंग्रेज़ी शासन के बंगाल में स्थापित होते ही, अंग्रेज़ विद्वान अधिकारियों को यह जानने की चिन्ता लग गयी थी कि जो कुछ इस्लामी राज्य मोराकों से अफ़गानिस्तान तक कुछ ही वर्षों में सम्पन्न कर सका था, वह हिन्दुस्तान में अपने सात सौ वर्ष के राज्य-काल में क्यों नहीं कर सका ? उनकी खोज का यह परिणाम निकला कि यह भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म की धारा थी, जो इस्लाम के यहाँ असफल होने में कारण बनी। इसको विनष्ट करने में ही अंग्रेज़ सरकार को अपनी भलाई दिखाई देने लगी थी।

यह ठीक है कि राजा राममोहन राय के विचार पूर्वोक्त अंग्रेज़ों के कहने से नहीं बने थे। वे उनके अपने बाल्यकाल में मुसलमानों से सम्पर्क के कारण बने थे। साथ ही ये विचार बने थे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के सेवा-काल में उनके एक योग्य अंग्रेज़ अधिकारी की संगत से। राजा साहब ने उपनिषदादि ग्रंथों का अपने विशेष दृष्टिकोण से अध्ययन भी किया था, परन्तु जब उनके विचार ब्रह्म-समाज में मूर्त होने लगे तो अंग्रेज़ी सरकार को राजा राममोहन राय अपनी योजना के अनुकूल प्रतीत हुए। उन्हें वे उस तरंग की सहायता करते प्रतीत हुए, जिससे सरकार भारतीय सांस्कृतिक धारा का विरोध करना चाहती थी। अतः सरकार इसमें सहायक होने लगी।
ब्रह्म-समाज की स्थापना सन् 1828 में हुई थी। इस आन्दोलन के विषय में और राजा साहब के विषय में महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाले श्री प्यारेलाल लिखते हैं—
But with all his love of liberty he did not raise the standard of revolt against the british rule.
(उनका स्वतंत्रता के लिए अत्यन्त प्रेम होने पर भी उन्होंने ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा ऊँचा नहीं किया।)
ब्रह्म-समाज के विषय में श्री प्यारेलाल लिखते हैं—

The church (Brahma Samaj) was to be closed to none and was to serve as a universal house of prayer open to all men without distinction of colour, cast, nation or religion…………
In the gift deed the founder laid down that no religion shall be reviled or slighted or contemptuously spoken of or alluded to.

(ब्रह्म-समाज का मन्दिर किसी के लिए भी बन्द नहीं था। यह सार्वजनिक प्रार्थना का स्थान था, जो सब मानवों के लिए था और जहाँ बिना जाति, रंग, समुदाय तथा मज़हब के भेद-भाव के सब आ सकते थे।)
किसी मज़हब की निन्दा नहीं की जायेगी तथा बुरा-भला नहीं कहा जायेगा। किसी के प्रति घृणा नहीं की जायेगी और न ही संकेत में कहीं जायेगी।)
अंग्रेज़ नीतिज्ञों को कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि यह ब्रह्म-समाज भी उस गहराई में चलने वाली धारा का एक प्रकार से विरोध ही कर रही है। अतः ब्रह्म-समाज को उनका समर्थन और सहायता प्रस्तुत हो गई और सन् 1828 से लेकर, हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज्य के अन्त काल तक, यह उनको प्राप्त रही।
इसी अर्थ मैकॉले की सरकारी शिक्षा की योजना थी। मैकॉले ने एक समय अपने पिता को एक पत्र में लिखा था—
The effect of this education on the Hindoos is prodigious. No Hindoo, who has received our English education, ever remains sincerely attached to his religion.

(इस शिक्षा का हिन्दुओं पर प्रभाव आश्चर्यजनक होगा। कोई भी हिन्दू, जिसने यह अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त कर ली है, कभी भी निष्ठापूर्वक अपने धर्म से सम्बद्ध नहीं रह सकता।)
ब्रह्म-समाज 1828 में स्थापित हुई। अंग्रेज़ी सरकारी शिक्षा 1835 में चालू की गई और ह्यूम साहब की इण्डियन नैशनल कांग्रेस सन् 1885 में स्थापित की गई। तीनों तरंगे जान-बूझ कर अथवा अनजाने में हिन्दू-समाज की आभ्यान्तरिक सांस्कृतिक धारा को नाश करने में संलग्न रहीं। जितना-जितना इनका बल बढ़ता गया, सांस्कृतिक धारा का विरोध, ये उतने ही बल से करती रहीं।
परन्तु इस तरंग का विरोध भी हुआ। सन् 1857 में इस तरंग के विरोध-स्वरूप महर्षि स्वामी दयानन्द ने बम्बई में आर्य-समाज की स्थापना की। वैसे स्वामी दयानन्द ने इसका आरम्भ पाखण्ड-खण्डिनी ध्वजा के नीचे सन् 1867 में हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर किया था। परन्तु इसका मूर्त रूप सन् 1871-72 में कलकत्ता में विचार किया गया और सन् 1875 में बम्बई में इसकी स्थापना की गई।
श्री प्यारेलाल (महात्मा गांधी के जीवन-चरित्र में) आर्य-समाज के विषय में लिखते हैं—

Swami Dayanand with his generation had noted with deep inner anguish the onslaught on the one hand of superficial European rationalism and, on the other hand, of Christianity which coming as a hand-maid of western imperialism, had disrupted their national solidarity, bred asepticism and schism when it entered a family and undermined their own religion without providing an adequate substitute for it.

(उस समय की पीढ़ी के साथ स्वामी दयानन्द ने यह अति दुःख के साथ अनुभव किया था कि एक ओर बाहरी यूरोपीय बुद्धिवाद ने, और दूसरी ओर ईसाईयत ने, जो देश में विदेशीय साम्राज्यवाद के साथ आया था और यहाँ की समाज में फूट डलवा रहा था, भारतीय परिवार पर आक्रमण कर, यहाँ के मज़हब को विनष्ट कर दिया था और उसका स्थानापन्न प्रस्तुत नहीं किया गया था।)
स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्य-समाज के विषय में यही महाशय लिखते हैं—
In marked contrast with the reformist Brahma Samaj was the Arya Samaj—the church militant within the Hindoo fold-bearing to Hinduism what Protestanism is to the Roman Catholic church……..it was revivalist movement with return to the pure ancient Vedic faith, culture and institution as its goals.

(सुधार करने वाली ब्रह्म-समाज से सर्वथा विपरीत आर्य-समाज थी। यह संघर्षमयी संस्था थी। हिन्दुओं के भीतर इसका स्थान वही था, जो प्रोटैस्टैण्ट समुदाय को रोमन कैथॉलिक के प्रति था....यह पुनरुद्धार करने वाला आन्दोलन था। यह पुनः प्राचीन वैदिक मत को, इसकी सभ्यता और रीति-रिवाज को चाहता था।)
यही अंग्रेज़ नीतिज्ञ नहीं चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि विचारों के वे तत्त्व जीवित और जाग्रत रहें, जिन्होंने इस्लाम जैसे बलशाली समुदाय का मुख मोड़ दिया था। अतः पूर्ण अंग्रेज़ी सरकार, इसका विरोध करने पर उद्यत हो गई।
भारतवर्ष में विशाल हिन्दू-समाज, जिसके पाँव दृढ़ता से अपनी प्राचीन संस्कृति और धर्म में जमे हैं, काल की विपरीत गतियों का सफलतापूर्वक सामना करती चली आती थी। भारतवर्ष पर गिद्ध-सी दृष्टि रखने वाले विदेशीय, हिन्दू समाज के पाँव उखाड़ने में यत्नशील हो गये। एक दूषित संयोग, इस्लाम, ईसाईयत और अंग्रेज़ी शिक्षा-प्राप्त आस्था-विहीन हिन्दुस्तानी घटकों का बन गया और इस संयोग का विरोध करने के लिए आर्य-समाज हिन्दू-समाज की कायाकल्प करने की चेष्टा करने लगी।

यह है इस पुस्तक का विषय।
इस समय भी भारत देश में दो प्रबल विचार तरंगों की टक्कर हो रही है। इस टक्कर की यह कहानी है।
वैसे यह उपन्यास है। ऐतिहासिक पात्रों के विषय में जो कुछ लिखा गया है, वह उनके प्रकाशित विवरणों से ही लिया गया है। अपनी ओर से पूर्ण प्रयत्न किया गया है कि वस्तु-स्थित का ठीक-ठीक चित्रण किया जाये।

 

-गुरुदत्त

 

प्रथम-परिच्छेद
:1:

 

 

कलकत्ता के एक प्रसिद्ध नैनान भवन में आज आने-जाने वालों की भीड़ नित्य से अधिक थी। एक संन्यासी पश्चिम की ओर से भ्रमण करता हुआ कलकत्ता नगर में आया था और राजा जतीन्द्र मोहन ठाकुर के इस भवन में ठहरा हुआ था। लोगों का आना-जाना तो कई दिन से चल रहा था, परन्तु आज उपस्थिति कुछ अधिक थी और नगर के कुछ प्रसिद्ध लोग भी वहाँ आये हुए थे।

कलकत्ता के एक समाचार ‘इण्डियन मिरर’ में यह समाचार प्रकाशित हुआ था कि गुजरात देश-निवासी एक स्वामी पण्डित दयानन्द सरस्वती, जो महान् मूर्ति-भञ्ञक हैं, कलकत्ता में पधारे हैं और राजा जतीन्द्र मोहन ठाकुर के नैनान निवास-भवन में ठहरे हैं। सब प्रकार के संशय तथा सन्देह निवारण के लिये लोग उनसे मध्याह्नोत्तर तीन बजे के उपरान्त मिल सकते हैं। इसी समाचार को पढ़ उस दिन नित्य से अधिक उपस्थिति हो गयी थी।

मध्याह्नोत्तर एक बहुत बढ़िया विक्टोरिया गाड़ी नैनान भवन के सामने आकर रुकी। गाड़ी में भारी शरीर तथा प्रौढ़ावस्था का एक व्यक्ति गाड़ी की मुख्य ‘सीट’ पर विराजमान था और उसके सामने की सीट पर एक दुबला-पतला परन्तु सुदृढ़ शरीर का युवक बैठा हुआ था। गाड़ी में भरकम शरीर वाले प्रौढ़ावस्था के व्यक्ति थे राजा शौरीन्द्र मोहन और दुबला-पतला शरीर का व्यक्ति था उनका मुन्शी नलिनीकान्त सरकार।
‘‘सरकार ! तनिक भीतर जाकर देखो कि इस स्वामी के पास कितनी भीड़-भाड़ है ?’’ राजा साहब ने सामने बैठे व्यक्ति को कहा।

नलिनीकान्त लपक कर ‘विक्टोरिया’ से उतरा और भवन के भीतर चला गया। उस समय दो-तीन गाड़ियाँ द्वार पर पहले से ही खड़ी थीं। उन गाड़ियों को देख राजा साहब को यह प्रतीत हुआ कि उनका आना निरर्थक नहीं होगा। अवश्य यह स्वामी कोई विख्यात व्यक्ति है।
उन दिनों समाचार-पत्रों में किसी सिड़ी-संन्यासी का समाचार छपना तो अपवाद था। नियम था सरकारी विज्ञप्तियों का छपना अथवा हिन्दू-समाज में सति-निषेध, मद्य-निषेद्य, विधवा-विवाह विरोध, खान-पान में छुआछूत की निन्दा इत्यादि बातों का छपना।
इन दिनों कलकत्ता में मूर्ति-पूजा का विरोध आरम्भ हो गया था। विशेष रूप में काली के सम्मुख दी जाने वाली बली को लेकर पादरियों के लेख छपा करते थे। कुछ हिन्दू-सुधारक इस बात का उत्तर लिखते रहते थे। हिन्दुओं का उत्तर प्रायः इस प्रकार होता था—मूर्ति-पूजा तथा काली के समक्ष पशु-बलि अनपढ़ छोटे दर्जे के लोगों के लिये है। हिन्दुओं में पढ़े-लिखे तथा उच्च श्रेणी के लोग ऐसा नहीं करते।
राजा साहब का मुन्शी दो मिनट में ही लौट आया और बोला, ‘‘हजूर ! भीड़ तो बहुत है। केशव बाबू और वसु बाबू स्वामी जी के पास बैठे कुछ बतला रहे हैं।’’
‘‘तब तो हमें भी चलना चाहिये।’’
‘‘हाँ, महाराज !’’

राजा साहब गाड़ी से उतरे और भवन के भीतर चले गये। सरकार उनके पीछे-पीछे था। कोचवान ने गाड़ी अन्य गाड़ियों के साथ सड़क के किनारे एक ओर खड़ी कर दी।
भीतर एक बड़े-से कमरे में एक भव्य मूर्ति, शिर से पाँव तक नग्न, केवल एक कोपीन धारण किये हुए एक उच्च आसन पर विराजमान थी। यह थे स्वामी दयानन्द। स्वामी जी के मुख और शरीर से ओज टपक रहा था। मुख पर मुस्कुराहट और अलौकिक प्रभा छा रही थी। शिर, दाढ़ी और मूँछ सब मुण्डे हुए थे।

इस ओजस्वी स्वामी के समीप नीचे भूमि पर एक प्रौढ़ावस्था का व्यक्ति गम्भीर मुद्रा में बैठा था। उनके सामने एक अन्य सम्भ्रान्त व्यक्ति बैठा था। ये थे सेन बाबू और वसु बाबू। स्वामी जी सेन बाबू से संस्कृत भाषा में बातचीत कर रहे थे। भाषा अति सरल थी और स्वामी जी का उच्चारण अति स्पष्ट था।
सेन बाबू ने राजा शौरीन्द्र मोहन को कमरे के बाहर खड़े देखा। राजा साहब को भीतर आने को मार्ग नहीं मिल रहा था। सेन बाबू ने उच्च आसन पर विराजमान स्वामी जी से कहा, ‘‘वह हैं राजा साहब, जिनके विषय में मैं अभी बता रहा था। ’’
स्वामी जी ने अपने आसन से पीछे बैठे व्यक्ति से कहा, ‘‘गजानन ! उन राजा साहब को पिछले द्वार से भीतर ले आओ।’’
गजानन स्वामी जी का एक विद्यार्थी था। उन दिनों स्वामी जी से मनु स्मृति का अध्ययन किया करता था। दिन के तीसरे प्रहर वह स्वामी जी से मिलने के लिए आने वालों को बैठाया करता था।
गजानन आसन के पीछे के द्वार से निकल बाहर गया और राजा साहब को उसी द्वार से भीतर ले आया। उसने उनको स्वामी जी के आसन के दाहिनी ओर बैठाया। नलिनी भी राजा साहब के साथ भीतर चला आया था। वह स्वामी जी के आसन के पीछे भूमि पर दीवार का आश्रय ले बैठ गया।
सेन बाबू ने राजा साहब को बंगला भाषा में कहा, ‘‘मैं स्वामी जी को आगामी सप्ताह अपने निवास-स्थान पर बुला रहा हूँ, परन्तु स्वामी जी मान नहीं रहे हैं।’’

‘‘क्यों, क्या कहते हैं स्वामी जी ?’’
‘‘यही कि संन्यासी होने से वह घर-गृहस्थी में जाना नहीं चाहते।’’
इस पर राजा साहब ने स्वामी जी से संस्कृत भाषा में ही कहा, ‘‘भगवन् ! जितनी आपकी प्रजा यहाँ है, इतनी वहाँ नहीं होगी।’’
‘‘परन्तु स्त्री-वर्ग में हम नहीं जाते।’’
‘‘हाँ, वहाँ दोनों वर्ग की प्रजा हो सकती है, परन्तु एक संन्यासी के लिये तो स्त्री-पुरुष में भेद करना उचित नहीं।’’
‘‘यह ठीक है, परन्तु क्या स्त्री-पुरुष स्वयं एक संन्यासी को एक ही दृष्टि से देख सकेंगे ?’’
‘‘महाराज ! हमारे यहाँ स्त्रियाँ पुरुषों से ऐसे ही हेल-मेल रखती हैं, जैसे पुरुष पुरुषों से रखते हैं।’’
‘‘तब तो ठीक है। क्यों, सेन बाबू ! राजा साहब ठीक कहते हैं क्या ?’’
‘‘इनके मिथ्या कहने में कोई कारण प्रतीत नहीं होता।’’
‘‘तब हम चलेंगे।’’
‘‘हाँ, महाराज !’’ सेन बाबू ने कह दिया, ‘‘मेरा आपको वहाँ आमन्त्रित करने का प्रयोजन है इस नगर के कुछ विद्वानों से आपकी भेंट कराना।’’
‘‘अच्छी बात है, हम चलेंगे। पर हमें कोई आकर यहाँ से ले जाये।’’
इस प्रकार यह बात समाप्त हुई। अब राजा शौरीन्द्र मोहन ने पूछ लिया, ‘‘आप मूर्ति-पूजा का खण्डन करते हैं, परन्तु हवन, यज्ञ की महिमा का गान करते हैं। यह भी तो अग्नि की पूजा है।’’
‘‘यह पूजा तो है, परन्तु परमात्मा की नहीं।’’
‘‘तो यह किसकी पूजा है ?’’

‘‘यह अपनी पूजा है। अपनी से मेरा अभिप्राय है मानव-समाज की पूजा। हवन से लोक-कल्याण की इच्छा की जाती है और इससे लोक-कल्याण ही होता है। वह वायु जिसमें हम रहते हैं, शुद्ध, पवित्र, सुगन्धित और रोग-नाशक हो जाती है।’’
‘‘परन्तु इसे यज्ञ भी तो कहते हैं ?’’
‘‘हाँ। परन्तु यज्ञ के यही अर्थ हैं जो मैंने कहे हैं। लोक-कल्याण के कार्य को ही यज्ञ कहते हैं।’’
शौरीन्द्र मोहन चुप कर गये। इस पर स्वामी जी ने उपस्थित सब लोगों को टूटी-फूटी हिन्दी भाषा में कहना आरम्भ कर दिया, ‘‘अभी-अभी मुझे एक पुस्तिका पढ़ कर सुनायी गयी है। उसमें पुराणादि के उद्धरण देकर यह सिद्ध किया गया है कि हिन्दू-धर्म सब धर्मों से श्रेष्ठ है।
‘‘मैं भी यही कहता हूँ। हिन्दू-धर्म अति श्रेष्ठ है, परन्तु इसकी श्रेष्ठता बताने के लिये पुराण की साक्षी उचित नहीं। यह तो इस प्रकार होगा जैसे वरुण देवता की महानता को सिद्ध करने के लिये सरोवर के एक मेंढक की साक्षी दी जाये।
‘‘हिन्दू धर्म जिसे मैं वेद का धर्म भी कहता हूँ, वेद से ही निकला है और वेद के प्रमाण से ही उसकी श्रेष्ठता माननी चाहिये।
‘‘ऋग्वेद में कहा है—


इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णों गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।।1


‘‘इस ऋचा का अभिप्राय है कि इन्द्र, मित्र, वरुण और अग्नि परमात्मा के ही नाम हैं। वह परमात्मा ही गुरुत्मान और सुपर्ण कहलाता है। उसे ही यम, अग्नि और मातरिश्वा कहा जाता है। विद्वान् लोग परमात्मा का बहुत प्रकार से वर्णन करते हैं।
‘‘और परमात्मा कैसा है ? यह भी वेद भगवान् में लिखा है—

 

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।2

 

‘‘यह यजुर्वेद का मन्त्र है। इसका अभिप्राय है कि वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। शक्तिशाली, शरीर-रहित, घाव रहित, बन्धनों से मुक्त, शुद्ध, पाप से अबद्ध, मेधावी, मनो का ईश्वर अर्थात् सबके मनों को प्रेरणा देने वाला, और सबको वश में रखने वाला है। स्वयं ही अपनी सत्ता बनाये रखने वाला तथा सब प्रकार की प्रजाओं को रचने वाला है।
‘‘इसी परमात्मा के सब नाम हैं। अतः मेरा यह कहना है कि जब वेद-शास्त्र में हमारे धर्म मूल की बात ऐसे सुन्दर ढंग से कही है तो फिर मानव-रचित त्रुटिपूर्ण ग्रन्थों का उल्लेख करने से लाभ के स्थान हानि होगी।
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1. ऋ. 1-164-46 ; 2. यजु. 40-8।

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