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विविध उपन्यास >> नूपुर

नूपुर

नीहार रंजन गुप्त

प्रकाशक : अपोलो प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5582
आईएसबीएन :81-89462-13-X

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प्रस्तुत है उपन्यास नूपुर

Noopur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

नीहार रंजन गुप्त के कई उपन्यास हिन्दी में अनूदित हो चुके हैं, लेकिन उनकी स्वभाव सिद्ध शैली से हिन्दूभाषी पाठक अब तक परिचित नहीं हुए थे। ‘नूपूर’ इस कमी को पूरा करेगा। यह लघु उपन्यास उनकी अपनी शैली में लिखा गया है जिसमें रहस्य-रोमांस, अलौकिकता और अपराध-मनोविज्ञान का हलका पुट है। इस पर बने बंगाली चलचित्र को दर्शक जिस तरह साँस रोके अंत तक देखते रहे, इस उपन्यास को भी पाठक उसी तरह पूरा पढ़े बिना छोड़ नहीं सकते।

बर्मा की प्रसिद्ध नर्तकी मा खिन को स्याम के राजकुमार से नूपुरों का यह जोड़ा भेंट में मिला था। अंत में मा खिन जब भिक्षुणी बनी, तब वह ये ही नूपुर पहनकर भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने आधी रात को नाचा करती थी। यह भेद तब खुला जब एक दिन सुबह विहार में उसकी मृत देह मिली। बरसों बाद मा खिन के परिवारवालों से कलकत्ते (आधुनिक नाम कोलकाता) की नृत्य-संस्था सुरश्री के मालिक बटुकनाथ ने नूपुरों का यह जोड़ा खरीदा। सुर श्री की प्रधान नर्तकी अंजना ये नूपुर पहनकर नाचती थी, लेकिन एक दिन नाचते समय ऐसी दुर्घटना घटी कि वह हमेशा के लिए अपंग बन गयी। सुरश्री की अन्य नर्तकियाँ, श्रीमती और जीनत महल, के साथ भी ऐसा हुआ। दुर्घटना की शिकार बन दोनों दुनिया से चल बसीं। अंजना कहती थी, नूपुरों का यह जोड़ा अनिष्टकारी है, जो इसे पहनकर नाचेगी, बच नहीं सकती। लेकिन बटुकनाथ अंजना की बातों को अंधविश्वास कहकर टालता रहा। फिर सुरश्री की नवागत नर्तकी मीरा के साथ क्या हुआ ? क्या वह नूपुरों के अभिशाप से बच सकी ? संयोगवश नूपुरों का यह जोड़ा जमींदार सौम्येन चौधुरी के पास पहुंच गया, लेकिन वह भी बच न सका। बरसों बाद कलकत्ते के एक मामूली क्लर्क ने एक पुरानी आलमारी खरीदी, जिसके चोरखाने में नूपुरों का यह जोड़ा बंद पड़ा था। क्या वह भी अनिष्टकारी नूपुरों के प्रभाव से बच सका ?
नीहार बाबू की जादुई लेखनी नूपुरों का रहस्य तब खोलती है, जब पाठक इस लघु उपन्यास का अंतिम पृष्ठ भी पूरा पढ़ लेता है। कथानक की इसी जादुई शैली के कारण नीहार बाबू बंगाली पाठकों के इतने प्रिय हैं जिसका आस्वादन हिन्दी के पाठक ‘नूपुर’ में ही पहली बार कर सकेंगे।


नूपुर



मनुष्य की इच्छाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं और होती भी हैं।
विशेषकर स्त्रियों की। अगर वह विशेष स्त्री किसी की प्रियतमा हुई तो मामला जरूर तूल पकड़ लेता है।
अपने राम के साथ भी यही हुआ था। मेरी गृहिणी मेरी सचिव, सखी और प्रियतमा तो थी ही, उसके मन में भी बहुत दिनों से एक इच्छा थी कि कोई मनपसंद आलमारी मिल जाये तो उसे खरीदकर घर के फर्नीचरों की शोभा में चार चाँद लगा देगी।

उसकी यह इच्छा मैं सुनता तो बराबर आया, लेकिन कभी एक शब्द बोला नहीं। कारण यह था कि इस महँगाई के जमाने में, मामूली से मामूली आलमारी भी खरीदने जाऊँ तो कम से कम डेढ़ सौ रुपये लग ही जाते। लेकिन मेरी आमदनी के बारे में कहना हुआ तो कहना पड़ेगा कि एक मर्चेंट ऑफिस की क्लर्की करके महीने के अन्त में वेतन, डीयरनेस और कुछ इधर-उधर के एलाउंस मिलाकर कुल दो सौ पचास रुपये मिल जाते थे। मकान पैतृक था, इसलिए गनीमत थी। नहीं तो इज्जत-आबरू बचाकर, खा पीकर जिंदा रहकर मात्र इतने रुपये में दिन गुजारना शायद बहुत मुश्किल हो जाता। लेकिन अपनी इस गरीबी का रोना मैं किसके सामने रोऊँ और रोने पर उसे सुनता भी कौन ? इसलिए लाचार हो, एक अधम जीव के समान गृहिणी की मन की इच्छा पूरी न होने की खेदोक्ति बराबर सुनता ही रहा।

फिर भी मैं एकदम चुपचाप बैठा था, यह बात भी नहीं। कभी-कभी इधर-इधर जहाँ कहीं नीलाम होता, मैं वहाँ पहुँच जाता और पूछताछ करता कि मौके पर कम कीमत में शायद कोई सेकेंडहैंड आलमारी मिल जाये।
मेरी गृहिणी को यह बात मालूम थी। शायद इसलिए वह किसी प्रकार का क्षोभ या क्रोध प्रकट नहीं करती थी। स्वयं इधर-उधर खोज खबर लेता ही था, परिचितों और यार दोस्तों से भी कह रखा था कि भाई, अगर इस तरह की किसी आलमारी का पता तुम्हें चल जाये तो मुझसे जरूर कहना।

एक-दो बार दो-चार लोगों से सुनकर मैं गया भी और नीलाम घर में जाकर एक दो आलमारियाँ देख आया, लेकिन आलमारी पसंद होने पर दाम मुनासिब नहीं लगा और दाम मुनासिब लगने पर आलमारी पसंद नहीं आयी।
अब अपने परिवार के बारे में जरा बता दूँ। मेरे परिवार में किसी प्रकार का रगड़ा-झगड़ा नहीं था। मैं, मेरी गृहिणी, एक नौकर और एक नौकरानी-ये ही मेरे परिवार के सदस्य थे। फिर भी, कभी कोई संकट झंझट पैदा होता ही न था, ऐसी बात नहीं थी।
निर्बाध जीवन-यापन संभव हो भी तो कैसे ?
कई दिनों से दफ्तर में दुर्गा पूजा पर मिलने वाले बोनस के लिए झंझट चल रहा था, जिस कारण मिजाज ठीक नहीं था। ऐसे ही समय एक दिन ऑफिस जाने से घंटा भर पहले मेरी पत्नी से मेरा वाद-विवाद हो गया। मेरी पत्नी की दूर के रिश्ते की बहन, याने मेरी साली की शादी में कोई बेश-कीमती प्रेजेंटेशन देने की बात को लेकर हम दोनों में कहासुनी हो गयी। फिर क्या कहना था।

सालों पुराना अचार मानो तेज बदबू छोड़ते हुए सड़ने लगा।
हाँ जी, हाँ, मैं खूब समझती हूँ। जब मैं कुछ कहती हूँ, तब तुम्हारी जेब एकदम खाली हो जाती है।
क्यों न हो ? महीने भर अगर जेब से माल बराबर निकलता रहे तो क्या वह भरी की भरी रहेगी ? मैंने जवाब दिया।
जेब से माल मैं ही निकालती रहती हूँ न ! ओफ, न जाने कितना माल निकालकर घर भर लिया है ?
क्यों, घर में किस बात की कमी है ?
नहीं, कमी किस बात की है ? बस, बनारसी और सिफन की साड़ियाँ ही नहीं मिलतीं, नहीं तो....
ऐसा तो कहोगी ही। जब जो कुछ कहती हो...
तभी ला देते हो न...खाट, पलंग आलमारी...

लाऊँगा, लाऊँगा, तुम्हारे लिए आलमारी जरूर लाऊँगा।
हाँ, यह तो पिछले एक साल से आ रही है।
इतना कहकर मेरी पत्नी रूकी नहीं और कमरे के बाहर चली गयी।
मैं भी बात न बढ़ाकर नहाने चला गया।
उसी दिन ऑफिस में टिफिन के समय वारीन्द्र थोड़ा मौका निकालकर मेरे पास आया। वह मेरे साथ काम करता था और रोजाना राना-घाट से ट्रेन से आता था। उसने मुझसे कहा, एक बात है व्रजेन, तुमने कहा था न कि एक बढ़िया सेकेंडहैंड आलमारी मिल जाये तो खरीद लूँ।
मैंने कहा, हाँ, कहा तो था लेकिन कोई आलमारी तुम्हारी तलाश में है क्या ?
हाँ है।
कहाँ ?

रानाघाट में ।
मतलब ?
वहाँ एक बिगड़े जमींदार के घर एक आलमारी बिकाऊ है। उसकी जमीन-जायदाद पहले ही बिक चुकी है। अब उसके घर के माल-असबाब उसका भानजा बेच रहा है। उन्हीं में एक बढ़िया आलमारी भी है। मैंने उसे देखा है। अगर खरीदना चाहो तो वह कम दाम में मिल सकती है।
ठीक तो है। कैसा दाम पड़ेगा, तुम्हें कुछ मालूम है ?
पहले आलमारी तो देख लो। पसंद आ जाये फिर भाव-ताव कर लिया जायेगा।
न जाने कैसी उत्सुकता हुई। दूसरे ही दिन, जो कि शनिवार था, दफ्तर की छुट्टी के बाद ढाई बजे की ट्रेन से मैं अपने मित्र के साथ रानाघाट गया।
छोटा-सा शहर। शहर के बाहर, एक किनारे पुराने जमींदार पाल-चौधुरी की आलीशान इमारत थी। अब उतना बड़ा मकान बहुत दिनों से मरम्मत और देख-भाल के बिना खंडहर बन चुका था। देखने-भालने वाला या हिफाजत करने वाला कोई नहीं था, इसलिए चारों तरफ तरह-तरह के झाड़ झंखाड़ उग आये थे और वे बराबर बढ़ते ही जा रहे थे। घर के सामने बाँस की झाड़ियाँ थीं। तेज हवा के कारण सायँ-सायँ आवाज हो रही थी। ऐसा लगा, मानो बीते वैभव के खंडहर के कोने-अँतरे किसी का दबा रुदन उमड़-घुमड़ रहा है।

आते समय रास्ते में वारीन्द्र ने बताया था कि किसी जमाने में पाल-चौधुरी घराने का सचमुच में बड़ा रौब-दाब था। ऐश्वर्य की कमी नहीं थी। लेकिन गत दो पीढ़ियों के भोग-विलास के कारण, सुरा और सुन्दरियों के पीछे सब कुछ स्वाह हो चुका था। पालचौधुरी घराने के अंतिम उत्तराधिकारी सौम्येन्द्र पालचौधुरी तो सुरा और सुन्दरियों की उपासना और विलास-व्यसन में अपने पूर्वपुरुषों से भी आगे बढ़ गया था। उस पाप का प्रायश्चित करने में भी देर न लगीं। मात्र छत्तीस वर्ष की आयु में ही एक दिन सवेरे देखा गया कि बाहर वाले कमरे में सौम्येन्द्र चौधुरी का प्राणहीन शरीर पड़ा है। सिर फट गया था और नाक-मुँह से खून बहने लगा था, जो फर्श पर दूर तक फैलकर, जमकर काला पड़ गया था। मृतदेह के पास पड़े थे, सितार, शराब की खाली बोतल और गिलास।

सौम्येन्द्र ने गरीब घर की पढ़ी-लिखी लड़की संध्यारानी से शादी की थी। संध्यारानी पति की रहस्यमय मृत्यु से साल भर पहले ही सोने के कमरे में भारी पलंग के ऊपर वाले डंडे से अपनी पहनने की साड़ी बाँधकर उसी का फंदा गले में डालकर मुक्ति पा चुकी थी। सौम्येन्द्र के कोई लड़का या लड़की नहीं थी। उसकी मृत्यु के बाद देखा गया कि कर्ज के कारण बहुत पहले से बिगड़ती जमींदारी का कुछ भी बचा नहीं है। जो कुछ था, बस वही पुराना जर्जर प्रासाद-तुल्य मकान और उसके दो-चार कमरों में पुराने जमाने के चाँदी और काँसे के कुछ बर्तन और थोड़े से इधर-उधर के सामान।
पालचौधुरियों के यहाँ एक बूढ़े नायब थे। कुछ दिनों तक वे अकेले ही पालचौधुरियों के अभिशप्त ध्वंसावशेष की रखवाली करते रहे। उसके बाद सहसा एक दिन बूढ़े सरकार बाबू के नाम रायपुर से एक चिट्ठी आयी। किसी समीर राय ने चिट्ठी लिखी थी।

रानाघाट के पालचौधुरी परिवार का वही एकमात्र वारिस था। सौम्येन्द्र पालचौधुरी उसका दूर रिश्ते का मामा लगता था। सौम्येन्द्र की एक फुफेरी बहन थी, यह सरकार बाबू जानते थे। वे यह भी जानते थे कि सौम्येन्द्र के पिता ने अपने जीवनकाल में ही उस लड़की की शादी कर दी थी।
पत्र पाकर सरकार बाबू ने आराम की साँस ली। सचमुच अब उनसे उस भुतहे खंडहर जैसे मकान में रहा नहीं जा रहा था। उन्होंने समीर को फौरन आने के लिए पत्र लिख दिया। समीर पन्द्रह दिन के अन्दर ही रानाघाट चला आया। उसने आकर रहस्यमय ढंग से कच्ची उम्र में मरे सौम्येन्द्र की परलोकगत आत्मा की शान्ति के लिए जैसे-तैसे अंतिम क्रिया की ।
समीर के आ जाने के बाद सरकार बाबू ने उसे सब कुछ समझा-बुझा दिया। फिर पालचौधुरी बाबुओं के उस अभिशप्त मकान से, आँसू पोंछते हुए, वे निकल पड़े और अपने पुश्तैनी गाँव काँकुड़गाछी लौट गये।

पालचौधुरी बाबुओं के यहाँ सरकार बाबू ने चालीस साल की लम्बी अवधि बितायी थी।
वारीन्द्र ने कहा, समीर रायपुर में नौकरी करता है, इसलिए यहाँ आकर उसके रहने की कोई संभावना नहीं है। फिर इतने बड़े पुराने मकान की मरम्मत कराना भी उसके बस की बात नहीं है। इसलिए सब कुछ बेच-बाचकर नकद जो कुछ मिल जाये वही लेकर लौट जाने की उसकी इच्छा है। बहुत-से सामान बिक चुके हैं और दो-चार चीजें बची हैं। इन्हीं दो चार चीजों में एक आलमारी भी है। इसलिए दाम कुछ भी मिल जाये, वह दे देगा।
उस दिन तीन बजे मैं रानाघाट स्टेशन में गाड़ी से उतरा था और वारीन्द्र के साथ पैदल चलते हुए शाम के चार बजे पालचौधुरी बाबू के खंडहर जैसे विशाल मकान के सामने पहुँचा दो-चार बार आवाज लगाते ही एक सुन्दर युवक निकल आया। उसने पूछा, आप लोग किससे मिलना चाहते हैं ?
शायद आप ही समीर बाबू हैं ? वारीन्द्र ने पूछा।

जी हाँ।
सुना है, आपके यहाँ कोई आलमारी बिकाऊ है। उसी को देखने...आप लोग...
मेरे ये मित्र कलकत्ते से आ रहे हैं। लेकिन मैं तो यही रहता हूँ।
आइए, आप लोग अन्दर आइए। समीर बाबू ने आवभगत की।
समीर बाबू के आग्रह करने पर हम उनके पीछे हो लिये और उस विशाल मकान के एक बहुत बड़े कमरे में पहुँच गये। वहीं दीवार से सटाकर एक आलमारी रखी थी। कहना पड़ेगा कि अलमारी देखकर मझे बहुत पसंद आयी। सच में आलमारी बहुत सुन्दर थी। बढ़िया बेशकीमती बर्मा की मशहूर लकड़ी की बनी आलमारी पर आबनूसी पालिश चढ़ी थी। आलमारी के ऊपर के हिस्से में बहुत बढ़िया कारीगरी की गयी थी। उसके दोनों पल्ले पर पुराने समय के कीमती बेलजियन शीशे जड़े थे। फिर सब से खुशी की बात यह रही कि मात्र अस्सी रुपये में ही अंत तक समीर बाबू आलमारी बेचने को तैयार हो गये।
मैंने उसी समय पेशगी दे दी।

रात को घर लौटकर मैंने पत्नी से सारी बात कही।
मणिमाला मेरी बात सुनकर मुस्कुरायी।
मैंने कहा, मुस्कुरा रही हो। क्या मेरी बातों पर विश्वास नहीं हुआ ?
पहले आलमारी तो ले आओ।
लाऊँगा तो जरूर ! और कल ही लाऊँगा।

दूसरे ही दिन गया और पूरा दाम देकर दफ्तर के एक ट्रक में लादकर वह आलमारी घर ले आया। आलमारी देखकर मेरी पत्नी को उतनी ही पसंद आयी, जितनी मुझे आयी थी। उसे इतनी खुशी हुई कि मानो वह खिल उठी।
जिस मकान में हम रहते थे, वह दुमंजिला था और बहुत बड़ा न था। पहले ही मैंने कह दिया है कि हमारा परिवार बस दो प्राणियों का है। अभी तक किसी तीसरे प्राणी का आविर्भाव नहीं हुआ था।
दूसरी मंजिल में हमारा सोने का कमरा था। उसी के बगल वाले कमरे में मेरी पत्नी की इच्छा से आलमारी लाकर रखी गयी थी।

उठाते-धरते आलमारी में दो-चार जगह मामूली रगड़ लग गयी थी। कहीं-कहीं पालिश भी खराब हो चुकी थी। मेरी पत्नी तो उसी दम आलमारी को अपने उपयोग में लाना चाहती थी, लेकिन मैंने उसे रोककर कहा, इतनी जल्दी क्या है ? दफ्तर के अब्दुल मिस्त्री से कह दूँगा, वह आकर दो-चार जगह जो थोड़ा-बहुत टूटा-फूटा है, उसे ठीक कर देगा। लगे हाथ पालिश भी हो जायेगी तो आलमारी एकदम चमाचम नयी दिखने लगेगी।
मणिमाला ने फिर वैसा ही करने की राय दी।
आलमारी में एक तरफ याने आधे हिस्से में तीन खाने और दो दराज बने थे। दूसरे आधे हिस्से में कोई खाना बना नहीं था।


2


उस रात खाना खाकर हम लेटे ही थे और पता नहीं कब सो भी गये। अचानक आधी रात को धीमी पर साफ और बड़ी ही मधुर नुपूरों की रुनझन से मेरी नींद खुल गयी। अँधेरे कमरे में नींद में डूबी आँखों से इधर-उधर देखा। मस्तिष्क के स्नायु कोषों में नींद का जो आवेश छाया था, वह शीघ्र ही दूर हो गया। मुझे लगा, अब तो साफ सुन रहा हूँ, नूपुरों की रुनझुन। सुनाई पड़ रही थी। बड़ा ही आश्चर्य हुआ। इतनी रात गये कहाँ से नूपुरों की यह मधुर ध्वनि आ रही है ? उस समय तक मैं यह नहीं जान पाया था कि नूपुरों की उस मधुर रुनझुन से मेरी बगल में सोयी मेरी पत्नी भी इस बीच जाग गयी थी और वह भी मेरी तरह एकाग्रता से नूपुरों की उस मधुर रुनझुन को सुन रही थी। विस्मय के क्षण एक-एक कर बीतते गये, फिर बहुत देर बाद वह समय आया जब धीरे-धीरे वह रुनझुन भी रुक गयी।
उसके बाद हम फिर कब सो गये, ख्याल न रहा। दूसरे दिन, रोज की तरह खाना खाकर ऑफिस चला गया। इसलिए स्वाभाविक था कि पिछली रात वाली नूपुरों की रुनझुन के बारे में दिन भर कुछ भी ख्याल न रहा। उस दिन दफ्तर में बहुत ज्यादा काम था। शाम को घर लौटने में काफी देर हो गयी। बहुत ज्यादा थका हुआ भी था। इसलिए जल्दी-जल्दी खाना खाकर बिस्तर की शरण ली। मणिमाला कब जो बगल में आकर सो गयी थी, मुझे पता भी न चला।
लेकिन फिर वही अद्भुत बात हुई।
आज भी आधी रात के बाद ठीक उसी समय नूपुरों की वही रुनझुन सुनाई पड़ी और नींद खुल गयी। लगा, ठीक उसी तरह, जैसे पिछली रात कोई नुपूर पाँवों में बाँधकर नाच रही थी, आज भी ताल-लय के साथ नाच रही है। संगीत में मेरी रुचि थी, इसलिए ताल लय का मुझे जरा भी ज्ञान न हो ऐसी बात न थी। विलक्षण ताल-लय के साथ मानो कोई नूपुर पाँवों में बाँधे नाच रही है। आज ऐसा लगा, कहीं दूर नहीं, बल्कि बगल वाले कमरे में ही कोई पाँवों में नूपुर बाँधे नाच रही है।
रुनझुन, रुनझुन।
फिर पिछली रात की तरह थोड़ी देर बाद नूपुरों की वह रुनझुन रुक गयी। मैं भी न जाने कब सो गया। फिर तीसरी रात भी इसी तरह नींद टूटी और नूपुरों की रुनझुन सुनाई पड़ी। चौथी रात भी ठीक उसी तरह नूपुरों की रुनझुन होने लगी। बड़े आश्चर्य में पड़ गया। यह सब क्या सुन रहा हूँ ? दो पीढ़ियों से हम इस मकान में रह रहे हैं, लेकिन कभी भी ऐसी बात नहीं हुई। फिर इधर कई रातों से यह सब क्या हो रहा है ?
सुनते हो ! बगल में लेटी मेरी पत्नी ने मुझे धीरे से बुलाया।
क्या कह रही हो ?
तुम जाग रहे हो ?
हाँ।
तब तो तुम भी सुन रहे हो ?
हाँ।
ठीक ऐसा लग रहा है मानो बगल के कमरे से यह आवाज आ रही है।
हाँ।
हम दोनों में बस इतनी ही बातें हुईं।
इसके बाद उस रात हमारे बीच इस बारे में और कोई बातचीत नहीं हुई और हम दोनों थोड़ी देर बाद फिर सो गये।
फिर अगली रात पहली रात की तरह आधी रात के बाद नूपुरों की उस मधुर रुनझुन से नींद गयी। अब तो मेरे लिए किसी तरह चुपचाप लेटे रहना संभव न था।
क्षण भर में मन ही मन अनुमान किया कि बात क्या है और यह भी निश्चचय किया कि इस बारे में पता लगाना ही होगा। बिस्तर पर उठकर बैठ गया। पत्नी भी रोज की तरह जाग गयी थी। मुझे बिस्तर पर उठते बैठते देख उसने घबड़ाकर पूछा, उठे क्यों ?
एक बार उस कमरे में जाकर देखूँगा।
नहीं, नहीं। मैं तुम्हें जाने न दूँगी। पत्नी ने घबड़ाकर मेरा हाथ पकड़ लिया।
ओफ् मणि, छोड़ो भी ! मुझे देखना ही पड़ेगा।
नहीं, नहीं। तुम पागल हो गये क्या ?
पागल क्या कह रही हो तुम !
हाँ, पता नहीं किस तरह की आवाज है। डर और घबड़ाहट के मारे मेरी पत्नी का गला रुँध आया।
लेकिन मुझे देखना ही था।
फिर यों कहना चाहिए कि पत्नी के बार-बार मना करने पर भी मैं किसी तरह जबर्दस्ती उसका हाथ छुड़ाकर खड़ा हो गया और आगे बढ़कर दीवार पर लगा बिजली बत्ती का स्विच दबाया, लेकिन बत्ती जली नहीं। मुझे अच्छी तरह याद था कि सोने से पहले मैंने बत्ती बुझायी थी। इस बीच कब लाइन फ्यूज हो गया, समझ में नहीं आया। अचानक कभी लाइन फ्यूज हो जाये और बत्ती न जले तो कोई असुविधा न हो, इसलिए सिरहाने के पास दीवार में बने ताखे में हर समय एक माचिस और मोमबत्ती रखी रहती थी। नूपुरों की रुनझुन उस समय भी सुनाई पड़ रही थी। मोमबत्ती जलाकर हाथ में ली और दरवाजा खोलकर मैं बाहर निकला। बगल वाले कमरे का दरवाजा बंद था। मैंने धीरे से उसे खोला और कमरे में घुसा। कमरे में मेरे पहुँचते ही मानो एकाएक जादू की तरह नूपुरों की वह रुनझुन अंतिम गूँज के साथ हवा में बिला गयी।
हाथ की मोमबत्ती की रोशनी में मैं चारों तरफ देखने लगा। सच कहता हूँ, उस समय उस सूने कमरे में मोमबत्ती की मद्धिम रोशनी में न जाने क्या था कि मेरा सारा शरीर सिहर उठा। नूपुरों की वह मधुर ध्वनि उस समय सुनाई नहीं पड़ रही थी, फिर भी मुझे ऐसा लगा कि बहुत ही मृदु झनकार अब भी बाकी है, जो इस सूने कमरे के दमघोंटू वातावरण में दबी रुलाई की तरह अब भी सिसक रही है।
फिर एक बार मोमबत्ती की रोशनी में कमरे को अच्छी तरह देख लिया।
कमरा खाली था। कमरे में कोई भी नहीं था। एक तरफ दो चार बक्से पिटारे रखे थे और दूसरी तरफ अलगनी में कुछ कपड़े। एक तरफ दीवार के पास आलमारी रखी थी। लेकिन, लेकिन उसके दोनों पल्ले एकदम खुले थे, जैसे कोई मुँह बाये खड़ा हो। लेकिन कोई तो नजर नहीं आया। कमरे में कहीं कोई नहीं था। फिर क्या कई दिनों से जो कुछ हमने सुना, वह एक वहम के सिवाय कुछ नहीं था ? कई क्षण मैं गूँगा बनकर जड़वत् खड़ा रहा, फिर धीरे-धीरे सोने के कमरे में वापस आ गया।
सोने के कमरे में प्रवेश करके देखा, बिजली बत्ती जल रही है और पलंग पर मेरी पत्नी चुपचाप बैठी है। उसके चेहरे पर और आँखों में असहायता और भय का आभास साफ नजर आया।
क्या ? क्या हुआ मणि ?
बत्ती...
बत्ती ! क्या कह रही हो ?
हाँ, हाँ। नूपुर की आवाज बन्द होते ही बत्ती अपने आप जल उठी।
क्या ऊटपटांग बक रही हो मणि, पागल की तरह ?
मैंने कहने को तो ऐसा कहा, लेकिन मन में तनिक भी बल न ला सका। इसलिए बात वहीं खत्म करने के लिए कहा, अब सो जाओ।
बत्ती बुझाकर हम दोनों फिर लेट गये।
लेकिन मैं महसूस कर रहा था कि किसी की भी आँखों में नींद नहीं है और हम दोनों जाग रहे हैं।
मणि !
ऊँ !
अच्छा, उस आलमारी के पल्ले क्या खुले छोड़ दिये थे ?
नहीं तो। लेकिन यह क्यों पूछ रहे हो ?
कुछ नहीं, यों ही-
लेकिन मणि ने जो उस रात बत्ती के बारे में तनिक भी झूठ नहीं कहा था, यह मैं अगली रात अच्छी तरह समझ गया।






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