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इन्साइक्लोपीडिया ऑफ कालसर्प योग

भोजराज द्विवेदी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5652
आईएसबीएन :81-288-1493-1

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कालसर्पयोग अर्थात् मृत्यु का कारक माना गया है। कालसर्पयोग के प्रकार व प्रत्येक का जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव...

Encylopaedia of Kalsarp Yog

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ. भोजराज द्विवेदी सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य एवं वास्तुशास्त्री है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. द्विवेदी कालजयी समय के अनमोल हस्ताक्षर है। डॉ. द्विवेदी की यशस्वी लेखनी से रचित ज्योतिष, वास्तुशास्त्र, हस्तरेखा अंक विद्या, आकृति विज्ञान, यंत्र-तंत्र विज्ञान, कर्मकाण्ड व पौरोहित्य पर लगभग 258 से अधिक पुस्तकें देश विदेश की अनेक भाषाओं में पढ़ी जाती हैं। इनकी 3000 से अधिक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्व की भविष्यवाणियाँ पूर्व प्रकाशित होकर समय चक्र के साथ-साथ चलकर सत्य प्रमाणित हो चुकी हैं।

इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि फलित ज्योतिष में कालसर्पयोग के बारे में विस्तृत शोध व अनुसंधान का कार्य इसके पहले कभी नहीं हुआ। पुस्तक में वर्णित 62208 प्रकार के कालसर्पयोगों के बारे में पहली बार जानकारी प्रबुद्ध पाठकों को मिलेगी। विविध प्रकार के कालसर्पयोगों का विवरण लग्नों के अनुसार विभाजित करके उनका वर्गीकरण किया गया है। कालसर्पयोग से ग्रसित विश्व की कोई भी कुंडली की साम्यता इस पुस्तक में अवश्य मिलेगी।

फलित ज्योतिष में कालसर्पयोग को गंभीर रूप से मृत्युकारी माना गया है, सामान्यतः जन्म कंडली में जब सारे ग्रह राहु और केतु के बीच कैद हो जाते हैं तो कालसर्पयोग की स्थिति बनती है जो मृत्यु कारक है या दूसरे ग्रहों के सुप्रभाव से मृत्यु न हो तो मृत्यु तुल्य कष्टों का कारण बनती है। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार राहु सर्प का मुख है और केतू सर्प की पूँछ। ग्रहों की स्थितियों के अनुसार 62208 प्रकार के कालसर्पयोग गिने जाते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में पंडित भोजराज द्विवेदी ने इन विविध कालसर्पयोगों के विषय में विस्तार से चर्चा की है और कालसर्प शांति के विषय में भी उपाय बताए हैं। पुस्तक में विशिष्ट स्थितियों को दर्शाती हुई अनेकों महान विभूतियों की कुंडलियाँ भी बना दी गई हैं, जिनकी जीवन परिणति सर्वविदित है।
चार सौ पृष्ठों के विस्तार में लिखी गई यह पुस्तक विषय के साथ गहरा न्याय करती है।

लेखक परिचय


अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य डॉ. भोजराज द्विवेदी कालजयी समय के अनमोल हस्ताक्षर हैं। इंटरनेशनल वास्तु एसोसिएशन के संस्थापक भोजराज द्विवेदी की यशस्वी लेखनी से रचित ज्योतिष, वास्तुशास्त्र, हस्तरेखा अंक-विद्या, आकृति–विज्ञान, यंत्र-तंत्र-मंत्र विज्ञान, कर्मकाण्ड व पौरोहित्य पर लगभग 400 से अधिक पुस्तकें देश-विदेश की अनेक भाषाओं में पढ़ी जाती हैं। फलित ज्योतिष के क्षेत्र में अज्ञात दर्शन (पाक्षिक) एवं श्रीचण्डमार्तण्ड (वार्षिक) के माध्यम से इनकी 3000 से अधिक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की भविष्यवाणियाँ पूर्व प्रकाशित होकर समय चक्र के साथ-साथ चलकर सत्य प्रमाणित हो चुकी हैं।

4 सितम्बर 1949 को ‘‘कर्कलग्न’’ के अंतर्गत जन्मे डॉ. भोजराज द्विवेदी सन 1977 के अज्ञात दर्शन (पाक्षिक) एवं श्रीचण्डमार्तण्ड (वार्षिक) का नियमित प्रकाशन व सम्पादन 26 वर्षों से करते चले आ रहे हैं। डॉ. द्विवेदी को अनेक स्वर्ण पदक व सैंकड़ों मानद उपाधियाँ विभिन्न नागरिक अभिनंदनों एवं राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से प्राप्त हो चुकी हैं। इनकी संस्था के अंतर्गत भारतीय प्राच्य विद्याओं पर अनेक अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय सम्मेलन देश-विदेश में हो चुके हैं तथा इनके द्वारा ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र, तंत्र-मंत्र, पौरोहित्य पर अनेक पाठयक्रम भी पत्राचार द्वारा चलाए जा रहे हैं। जिनकी शाखायें देश-विदेश में फैल चुकी हैं तथा इनके द्वारा दीक्षित व शिक्षित हजारों शिष्य इन दिव्य विद्याओं का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। भारतीय प्राच्य विद्याओं के उत्थान में समर्पित भाव से जो काम डॉ. द्विवेदी कर रहे हैं, वह एक साधारण व्यक्ति द्वारा संभव नहीं है वे इक्कीसवीं शताब्दी के तंत्र-मंत्र, वास्तुशास्त्र व ज्योतिष जगत के तेजस्वी सूर्य हैं तथा कालजयी सर्प अनमोल हस्ताक्षर हैं जो कि ‘युग पुरुष’ जो कि युग पुरुष के रूप में याद किए जाएँगे। इनसे जुड़ना इनकी संस्था का सदस्य बनना आम लोगों के लिए बहुत बड़े गौरव व सम्मान की बात है।


कालसर्पयोग किसे कहते हैं ?


सामान्यतः जन्मकुण्डली के सारे ग्रह जब राहु और केतु के बीच में कैद हो जाते हैं, तो उस ग्रह की स्थिति को ‘कालसर्पयोग’ कहते हैं। राहु सर्प का मुख माना गया हो और केतु इस सर्प की पूँछ। काल का अर्थ ‘मृत्यु’ है। यदि अन्य ग्रह बलवान न हों तो कालसर्पयोग में जन्मे जातक की मृत्यु शीघ्र हो जाती है। यदि जीवित रहता है तो मृत्यु-तुल्य कष्ट भोगता है। ज्योतिष शास्त्र में इस योग के प्रति मान्यता प्रायः अशुभ फल सूचक ही है।


सर्प का इस योग से संबंध—


सर्प का भारतीय संस्कृति से अनन्य संबंध है। एक बार महर्षि सुश्रुत ने भगवान धनवंतरि से पूछा-‘हे भगवान् ! सर्पों की संख्या उसके भेद बतावें ?’
सुश्रुत के इन वचनों को सुनकर वैद्यों में श्रेष्ठ धनवंतरि ने कहा, ‘‘वासुकी जिनमें श्रेष्ठ हैं, ऐसे तक्षकादि सांप असंख्य हैं। ये सर्प अंतरिक्ष एवं पाताललोक के वासी हैं पर पृथ्वी पर पाए जाने वाले नामधारी सर्पों के भेद अस्सी प्रकार के हैं।’’
भारतीय वाङ्मय में विषधर सर्पों की पूजा होती है। हिन्दी मान्यताओं के अनुसार सर्प को मारना उचित नहीं समझा जाता तथा यत्र-तत्र उनके मंदिर बनाए जाते हैं। ज्योतिषशास्त्रानुसार नागपंचमी, भाद्रकृष्ण अष्टमी तथा भाद्रशुक्ल नवमी को सर्पों की विशेष पूजा का प्रावधान है। पुराणों में शेषनाग का वर्णन है जिस पर विष्णु भगवान शयन करते हैं। वह भी एक सर्प है। सर्पों को देव योनि का प्राणी माना जाता है। नये भवन के निर्माण के समय नीव में सर्प की पूजा कर चाँदी का सर्प छोड़ दिया जाता है। वेद के अनेक मंत्र सर्प से संबंधित हैं। आज भी सर्प सम्प्रदाय के जन पाए जाते हैं जिनको ‘सपेरा’ कहते हैं। नाग की जाति व सम्प्रदाय के लोग भी मिलते हैं। शौनक ऋषि के अनुसार जब मनुष्य की धन पर अत्यधिक आसक्ति हो जाती है तो मृत हो जाने पर वह नाग बनकर उस धन पर जा बैठता है। सर्प कुल के ‘नाग’ श्रेष्ठ होते हैं। नाग की हत्या इस जन्म और जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ती। नाग वध का शाप-पुत्र संतति में बाधक होता है। कई प्रदेशों में नाग-वध शाप को दूर करने के लिए पिष्टमय नाग का विधिवतपूजन करके उसे दहन किया जाता है तथा भस्मी के तुल्य सुवर्ण धातु दान में दिया जाता है।

शास्त्रों में सर्प को काल पर्याय भी कहा जाता है। ‘काल’ स्वयं उत्पन्न हुआ है, किसी ने इसको उत्पन्न नहीं किया है। काल आदि, मध्य, अंत, एवं विनाश से रहित है। मनुष्यों का जीवन और मरण काल के अधीन है। काल सर्वथा गतिशील है। यह कभी किसी के लिए रुकता नहीं, यह सर्वदा गतिशील है। काल प्राणियों को मृत्यु के पास ले जाता है और सर्प भी। कालसर्पयोग संभवतः समय की गति से जुड़ा हुआ ऐसा ही योग है जो मनुष्य को परेशान करता है। उसके जीवन को भारी संघर्ष से जोड़ता है।
   
बहुचर्चित कालसर्पयोग मूलतः कहाँ से आया ? फलित ज्योतिष में इसकी शुरूआत कहाँ से हुई ? इसके प्रवर्तक प्राचर्य कौन थे ? कालसर्पयोग का प्रभाव होता भी हो या नहीं ? जातक की कुण्डली देखते समय हमें इस योग पर विचार करना चाहिए या नहीं ? ये सभी प्रश्न एक ज्योतिष प्रेमी जिज्ञासु के सामने उपस्थित होते हैं जिसका समाधान आज के वैज्ञानिक युग में नितांत अनिवार्य है। आइए हम सब लोग मिलकर इस पर विचार करें।

राहु-केतु का सर्पयोग से संबंध—

पौराणिक मत के अनुसार ‘राहु’ नामक राक्षस का मस्तक कट कर गिर जाने पर भी वह जीवित है एवं केतु उसी राक्षस का धड़ है। राहु और केतु एक ही शरीर के दो अंग हैं। चुगली खाने के कारण सूर्य-चंद्र को ग्रहण लगाकर ग्रसित करता हुआ, सृष्टि में भय फैलाता है। ज्योतिष में राहु को ‘सर्प’ कहा गया है और केतु उसी सर्प की पूँछ है। बृहत्संहिता के राहु-चाराध्याय, अध्याय 3, श्लोक तीन में लिखा है कि-

‘‘मुख पुच्छ विभक्ताङ्गं भुजङ्माकारमुपदिशन्त्यन्ये’’

‘‘मुख औप पुच्छ से विभक्त है अंग जिसका ऐसा सर्प का आकार है वही राहु का आकार है।’’


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