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नल नील अभियान श्रीरामसेतु निर्माण

तेजपाल सिंह धामा

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5655
आईएसबीएन :000000

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रामसेतु जिस पथ को राम के नल नील और अन्य सहायकों ने लंका पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से बनाया....

Nal Neel Abhiyan Shriramsetu Nirman

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नम्र निवेदन

भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला, नत्वा नत्वा याचते रामचंद्रः।
सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नराणां, काले काले पालनीयो भवद्धि।।

-स्कन्द पुराण ब्रह्म, धर्मा 34/40


अर्थात् हे भविष्य में होने वाले राजाओं ! यह रामचंद्र आप लोगों से अत्यंत विनम्रतापूर्वक बारम्बार प्रणाम कर याचना करता है कि आप लोग मेरे द्वारा बांधे हुए धर्म सेतु की सुरक्षा सदा करते रहें।

प्रकाशकीय


एक बार सागर का मेंढक किसी कुएं में गिर गया। कुएं के मेढ़कों ने उससे पूछा कि तुम कहाँ से आए हो ?
उसने बताया कि सागर से।
सागर क्या होता है ?-अगला प्रश्न था ?
उत्तर मिला —‘‘जब नदियों से बहकर बहुत-सा पानी एक स्थान पर इकट्ठा हो जाता है, तो सागर बन जाता है।
नया प्रश्न था—‘‘ बहुत सा पानी कितना ? हमारे कुएँ जितना’’
सागर के मेंढक ने कहा—‘‘नहीं इस कुएँ से कई गुना अधिक पानी नदी में होता है और हजारों नदियाँ से मिलकर एक सागर बनता है।’’
कुएं का मेंढक चिल्लाया—‘‘अबे झूठे कुएं से अधिक बड़ा कोई हो ही नहीं सकता, मारो इसे।’’

फिर क्या था ? कुएं के सभी मेंढकों ने मिलकर उस सागर के मेंढक को मार डाला। यही होता है पश्चिमी रंग में पढ़े-लिखे ‘तथाकथित’ बुद्धिजीवियों का, जो अब अपनी बुद्धि गिरवी रखकर जी रहे हैं। वह मान ही नहीं सकते। कि उनके गॉड फादर अंग्रेजों से अधिक विद्वान, कार्यकुशल या प्राचीन कोई हो सकता है ? अपनी प्राचीनता, कार्यकुशलता या विद्वता हिन्दू यदि सिद्ध करना चाहेंगे या कर देंगे तो भी यह काले-गोरे अंग्रेज मिलकर हिन्दुओं के पीछे साम-दाम, दण्ड-भेद लेकर पड़ जाएंगे। हिन्दू यदि ईर्ष्या करता है, तो वह अधर्मी है, क्योंकि हिन्दू के धर्म में ईर्ष्या मना है।

कोई दूसरा धर्मावलम्बी ईर्ष्या करता है, तो आत्माभिमानी माना जाता है रामसेतु के पक्ष में श्री वी. सुन्दरम के अपनी वेबसाइट पर दिये गये तर्क अकाट्य हैं, लेकिन बकरे की तीन टांग, क्योंकि राम का होना तभी माना जा सकता है, यदि पश्चिमी विद्वान इसे मानेंगे। ये लोग आज भगवान श्रीराम का अस्तित्व नकार रहे हैं, लेकिन साम्यवादी चश्मा पहनकर देखने वाले इन लोगों को रामभक्त हनुमान दुनिया के प्रथम आतंकवादी नजर आते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि राक्षसों ने सम्पूर्ण भारत में आतंक फैला रखा था। राम उन आतंकवादियों के विरोध में थे। सीता माता को ढूँढ़ने गये हनुमान ने केवल अशोक वाटिका में अपनी भूख मिटाई थी। रावण ने ही उनकी नकली पूंछ में आग लगाई थी। यही आग बढ़कर लंका में फैली आज जो व्यक्ति अपने आपको गर्व से रावण वंशी मानता है, वह राम के अस्तित्व पर शंका करता है। वह भूल जाता है कि रावण को महत्त्व राम ने ही दिया था। राम ने ही रावण को विद्वान माना था। महर्षि वाल्मीकि सहित अन्य सभी ऋषियों ने रावण को ही राक्षस कहा है। ये तथाकथित प्रगतिशील ‘बुद्धि बेचकर जीने वाले’’ हिन्दुओं को मनुवादी व छोटी जातियों का विरोधी बताते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि हिन्दुओं के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि कौन थे ? रामायण के रचयिता को उतना ही महत्व दिया गया है, जितना राम को। यह महत्त्व उन्हें किसने दिया ? इन्हीं मनुवादियों ने ! प्रो. वी. सुन्दरम की वेबसाइट पर दिये गये तर्क पढ़कर लेखक श्री धामा के मन में यह उपन्यास लिखने का विचार आया। लेखक ने उपन्यास में कहीं यदि अतिशयोक्ति की है, तो वह कवि मन की उड़ान कही जा सकती है, क्योंकि लेखक कवि है।

-पद्मेश दत्त

प्रबंधक निदेशक
हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली

भूमिका


नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्

जिस देश की सभ्यता और संस्कृति को मिटाना चाहते हो, उस देश का इतिहास मिटा दो। पुरातात्विक अवशेष, स्मारक, साहित्य और चरित्र मिटा दो और फिर देखो वह देश विश्व के नक्शे से स्वतः ही किस प्रकार मिट जाता है ! जिस देश को गुलाम बनाना चाहते हो, उस देश के लोगों को अपने धर्म में परिवर्तित कर लो, फिर देखो वह देश किस प्रकार देखते-ही-देखते गुलाम बन जायेगा !

आज से हजारों वर्ष पहले भारत न केवल सोने की चिड़िया कहलाता था, बल्कि इसे विश्वगुरु भी माना जाता था। विश्व का कोई ऐसा देश न होगा, जिनके छात्रों ने सदियों पहले भारत में शिक्षा न पायी हो। लेकिन आज भारत न केवल अपना धर्म और संस्कृति भूलता जा रहा है, बल्कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ही संघर्ष कर रहा है। किसी भी समाज के लिए इससे दुःखद और क्या हो सकता है जब उस समाज की वर्तमान पीढ़ियां अपने पूर्वजों, अपने इतिहास एवं अपनी आँखों से दिख रहे प्रत्यक्ष को ही झुठलाने लगे। हमारे देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि हमारे समाज के तथाकथित प्रबुद्ध लोगों ने अपने पूर्वजों, अपने इतिहास यहाँ तक कि अपनी आँखों से अधिक उन लोगों पर विश्वास किया है, जिन लोगों ने इस देश को मानसिक, बौद्धिक एवं भौतिक प्रत्येक प्रकार से पराधीन बनाये रखने के लिए अनेकों मनमाने व अपने स्वार्थ को सिद्ध करने वाले झूठे सिद्धांतों को गढ़ा। हमारे तथाकथित बौद्धिक वर्ग के कुछ लोग भी तुच्छ स्वार्थ के वशीभूत इन झूठे प्रलापों को आधुनिक शिक्षा के माध्यम से पढ़े-लिखे लोगों में फैलाने का कार्य कर रहे हैं, जिससे एक आस्थाविहीन, श्रद्धाविहीन एवं स्वाभिमान शून्य वर्ग का निर्माण हो गया जिसे अपनी परंपराएं, अपने महापुरुष, ऐतिहासिक धरोहर सभी कुछ काल्पनिक एवं झूठे नजर आते हैं।

 इसका ज्वलंत उदाहरण भारत सरकार के सत्ता के केन्द्र में बैठे हुए लोगों के द्वारा रामसेतु को तोड़े जाने का षड्यंत्र हमारे सामने है। आज विश्व की करोड़ों जनता की आस्था एवं श्रद्धा के केन्द्र श्रीरामसेतु की प्रामाणिकता पर अंगुली उठायी जा रही है, जबकि हमारे प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ रामायण, महाभारत एवं स्कन्द पुराण, कूर्मपुराण आदि अनेकों ग्रंथों में इसका स्पष्ट उल्लेख है। आज यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि क्या हमारे धर्मग्रंथ मिथ्या हैं ? क्या भारत के सर्वाधिक मेघा संपन्न वाल्मीकि एवं वेदव्यास जैसे ऋषि कपोल-कल्पित ग्रंथों की रचना कर सकते थे ? यह भी प्रश्न उठता है कि यदि इनके द्वारा वर्णित भौगोलिक स्थान पर्वत, नदी, नाले, तीर्थ आदि आज भी यथास्थान हैं तो उनसे वर्णित व्यक्ति एवं उनसे जुड़ी मान्यताएं किस प्रकार झूठी हो सकती हैं ? श्रीरामसेतु के बारे में नासा ने कई चित्र जारी कर कहा था कि भारत और श्रीलंका के बीच 47 किलोमीटर लंबा और 2 किलोमीटर चौड़ा मानवनिर्मित सेतु बना है, जिसके ऊपर 3 से लेकर 30 फिट तक का जल है। लेकिन बाद में नासा अपने ही बयान से पलट गयी और उसने अपने राष्ट्रपति बुश के दबाव में कहा कि उपग्रह के चित्रों से केवल सेतु का होना प्रमाणित होता है, लेकिन यह मानव ने बनाया या प्रकृति निर्मित है इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता ! सेतुसमुद्रम कारपोरेशन लिमिटेड के सीएमडी तथा तूतिकोरिन पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष एन. के. रघुपति ने नासा के एक ई-मेल का हवाला देकर कहा कि सेतुसमुद्रम मानव निर्मित नहीं है, लेकिन रघुपति जी यह भूल गए कि नासा ने दूसरे बयान में भी यह कहा है कि केवल उपग्रह के चित्रों से यह सिद्ध नहीं हो सकता कि सेतु मानव निर्मित है या फिर प्रकृति प्रदत्त।

दरअसल रघुपति जी को तो सेतुसमुद्रम शिपिंग चैलनप्रोजेक्ट पर काम करना है, इसलिए वे तो सेतु की विद्यमानता को नकारेंगे ही। जिस तूतिकोरिन पोर्ट ट्रस्ट के वे अध्यक्ष हैं, उसी संस्था के सबसे पहले अध्यक्ष वी. सुन्दरम ने वहाँ पर श्रीरामसेतु होने के एक हजार एक प्रमाण जुटाए हैं, जिनमें से कुछ परिशिष्ट के रूप में इस पुस्तक में दे दिये गये हैं। सवाल पैदा होता है कि नासा ने बयान क्यों पलटा ? इसका कारण है कि अमेरिका की नजरें सेतु समुद्र के निकट केरल के तट पर पाये जाने वाले थोरियम भण्डार पर है। यह थोरियम इतनी अधिक मात्रा में है कि अगले 100 वर्ष तक भारत की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं। लेकिन अमेरिका इस क्षेत्र को अंतर्राष्ट्रीय घोषित कर उसे कब्जाना चाहता है। यदि कोई यहाँ हमारी बात पर शक करे तो उन्हें जान लेना चाहिए 1970-80 के दौरान भारत और श्रीलंका दोनों ने ही जलराशि के ‘ऐतिहासिक’ के रूप में पंजीकृत करने की कोशिश की थी, लेकिन अमेरिका ने इस दावे को कभी मान्य नहीं किया और वह इन दावों के खिलाफ मत प्रकट करके इसे अंतर्राष्ट्रीय विरासत बताता रहा। लेकिन अब भारत का दुर्भाग्य है कि वह अपनी ओर से इस जल में इस सेतु को तोड़ने जा रहा है, यानी हमारा देश अपने ही दावे से पलट रहा है।

इस ऐतिहासिक महत्व की जलराशि में अमेरिका की लगातार बढ़ती हुई दखलंदाजी को देखते हुए साफ स्पष्ट  है कि वह भारत को अमेरिकी हितों के अधीन रखते हुए उससे होरमुज स्ट्रेज के सागरीय यातायात की चौकसी तो कराना चाहता ही है, साथ ही हमारे ऊर्जा भण्डारों पर भी उसकी काकदृष्टि गड़ी हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और वामपंथी रूझान ने चिन्तक न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने भी 13 अप्रैल 2007 को प्रधानमंत्री डॉ., मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर अमेरिकी खतरे के प्रति सचेत किया है।

विशेषज्ञों से सलाह किये बिना, गंभीर पर्यावरणीय और सुरक्षा प्रभावों का अंदाजा लगाए बिना, विस्तृत वैज्ञानिक आकलन और सुनामी से रक्षा की चिंता किए बिना ही इस मार्ग का निर्धारण कर श्रीरामसेतु को तोड़ने का षड्यन्त्र रचा गया है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यदि श्रीरामसेतु तोड़ा गया तो, जो तबाही 16 दिसंबर, 2004 को सुनामी ने की थी, जिसमें लाखों लोग मारे गये थे रामसेतु तोड़ना ऐसी ही तबाही को निमंत्रण देगा। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. टी. थामस ने भी इस पर चिंता जताते हुए कहा है कि रामसेतु या सेतु समुद्रम में सुनामी जैसे तूफानों के समय भारतीय तटों, विशेषकर केरल तट की रक्षा की है, ऐसे में समुद्र को तोड़ने के पीछे क्या सार्थकता हो सकती है ?

सेतु समुद्रम जलमार्ग योजना के बारे में फ्रंटलाइन पत्रिका के 1-14 जनवरी, 2005 के अंक में टी. एस. सुब्रह्मण्यम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस योजना से स्थानीय जनता, अल्पसंख्यक विशेषकर मछुआरे बहुत नाराज हैं। उन्हें डर है कि इससे उनकी रोजी-रोटी छिन जायेगी। उनकी चिंता जायज है, क्योंकि मण्डपम स्थित केन्द्रीय सागर मत्स्य संस्थान में 14 साल तक अनुसंधान कर चुके सागर वैज्ञानिक डॉ. आर.एस. मोहनलाल का कहना है कि सागर के तल पर किसी भी प्रकार की हलचल से मत्स्य संपदा में वनस्पति का भयंकर सर्वनाश हो जायेगा। मदुरै स्थित सामुदायिक संगठन न्यास सोका ट्रस्ट के श्री ए. महबूब बाचा और एल.लजपतिराव का कहना है कि सेतुसमुद्रम के वर्तमान स्वरूप से मन्नार की खाड़ी और पाक बे में तीव्र जल प्रवाह होगा, जिससे मण्डपम क्षेत्र में जल का तापमान बढ़ जाएगा और जल के भीतर के सारे जंगल नष्ट हो जाएंगे। इसलिए इस योजना का विरोध राष्ट्रीय व स्थानीय दोनों ही स्तर पर हो रहा है। स्वदेशी नौका मछुआरा पंचायत, रामेश्वरमपुरम के अध्यक्ष आर.राज का कहना है कि केवल हमारे गांव में ही 1300 नौकाएं मछली पकड़ती हैं, हर नौका कम से कम 8 लोगों के परिवार का पेट पालती है।

 यह योजना पूरी हुई तो हम सब बर्बाद हो जायेंगे। बरकोड मछुआरा संघ के सांतियागो फर्नांडीज का कहना है कि जब लगातार सागर के तट से रेत हमारे तटों पर रेत बनाती रहेगी, तो हमारा गांव, नौका पालन और जिंदगी सबकुछ तबाह हो जाएगा। अंजय्या नामक एक मछुआरे का कहना है कि श्रीरामसेतु के कारण न केवल हमारी रोजी-रोटी चलती है, बल्कि यह हमारे लिए श्रद्धा का स्थल भी है। उन्होंने बताया कि हम रामसेतु को सेतु मंदिर कहते हैं। अगर इससे कोई टकरा भी जाए तो हम क्षमा मांगते हैं और घर आकर परिहार-प्रायश्चित पूजा करते हैं। यह मान्यता हिन्दू, मुसलमान और ईसाई सबकी है। रामसेतु की पवित्रता के बारे में जब स्थानीय लोगों के मन में इतना गहरा विश्वास है तो करोड़ों हिन्दुओं के दिलों में कितना होगा ? सेतुबंध रामेश्वरम् भारतीय सनातन आस्था का प्रतीक है, श्रद्धास्पद तीर्थ है। हमारे शास्त्रों में इसकी मान्यता एक धाम के रूप में है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :


 जे रामेश्वर दरसन करिहहिं, ते तनु तजि मम लोक सिधरहिं।।


इसी प्रकार भगवान श्रीराम द्वारा सेतु की महिमा का वर्णन वेदव्यास जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है :

अस्ति रोमश्वरं नाम, रामसेतौ पवित्रितम्।
क्षेत्राणामपि सर्वेषां, तीर्थानामपि चोत्तमम्।।
दृष्टमात्रे रामसेतौ, मुक्तिः संसारसागरात्।।
-स्कन्द पुराण, ब्राह्म. स्तुमहात्म्य

अर्थात् भगवान श्रीराम द्वारा बाँधे गए सेतु से जो परम पवित्र हो गया है, वह रामेश्वरम तीर्थ सभी तीर्थों तथा क्षेत्रों में उत्तम हैं। उस सेतु के दर्शन मात्र से मुक्ति हो जाती है।
सुग्रीव के शासन काल से लेकर रामेश्वरम क्षेत्र में 13वीं से 17वीं शताब्दी तक रामसेतु या सेतु नाम से मुद्रा का प्रचलन बराबर रहा है। सेतु नाम से एक-डेढ़ हजार वर्ष पुराने तो बहुत से सिक्के अनेकों संग्रहालयों में मौजूद हैं। 1806 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वेयर जनरल रैनल ने इस सेतु को एडम्स ब्रिज के नाम से पुकारा था यह स्वाभाविक था, क्योंकि जिन्हें इस देश की परम्परा एवं संस्कृति का ज्ञान नहीं, वे इसे रामसेतु कैसे कहते ? ठीक वर्तमान में यही स्थिति हमारे राजनेताओं की है, जो देश की संस्कृति को थोड़ा बहुत जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं। विदेशी मूल की महिला सोनिया गांधी मौलवियों को पत्र लिखती हैं कि उनके सपनों का भारत बनाएँगे ? क्यों ? क्या गांधी जी के सपनों का भारत नहीं बनाया जा सकता ? क्या सुभाष जी के सपनों का भारत नहीं बनाया जा सकता ? रामसेतु हमारी विरासत ही नहीं पहचान भी है। इसे भारतीय शास्त्रों में विष्णुपाद के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार के सर्वेक्षण विभाग के प्रतीक चिह्न में आसेतु हिमाचल लिखा हुआ है। यानी दक्षिण छोर से सेतु से उत्तर के हिमालय तक यह है। अब यह सेतु कौन सा है ? सरकार ही बताए ? रामेश्वरम से उत्खनन में मिले एक शिलालेख में नेपाल के महाराजा द्वारा श्रीरामसेतु का पूजन वर्णन है।

ब्रिटिश विद्वान सी.डी मैकमिलन द्वारा लिखित पुस्तक ‘दमैनुअल आफ द एडमिनिस्ट्रेशन आफ द मद्रास प्रेसीडेंसी’ मद्रास की सरकारी प्रेस के सुपरिटेंडेंट ने 1903 में प्रकाशित की थी, इसमें बताया है कि सन 1480 तक भारत और श्रीलंका के लोग रामसेतु से पैदल आते-जाते थे। बाद में तूफानों एवं हिमाच्छादन से समुद्र में जल बढ़ जाने के कारण उक्त सेतु जल में डूब गया जो अब भी तीन से तीस फुट नीचे पानी में स्पष्ट देखा जा सकता है।

ग्लोसरी आफ मद्रास प्रेसीडेंसी भी रामसेतु को पत्थरों व रेत की संकीर्ण मेड़ के रूप में स्वीकारता है। 1803 में ब्रिटिश राज के अंतर्गत मद्रास प्रेसीडेंसी ने एक गजट प्रकाशित किया था, जिसमें कुछ शब्द दिए गये थे। पहला शब्द था एडम्स ब्रिज। सरस्वती महल पुस्तकालय में इसकी प्रति आज भी सुरक्षित है। गजट में लिखा है, ‘‘मुगलों ने इस सेतु को आदम पुल का नाम दिया। आदम जन्नत से निकाले जाने के बाद धरती पर उतरा था और इस सेतु से होकर सीलोन पहुंचा था। दूसरी ओर हिन्दुओं की मान्यता है कि यह सेतु भगवान श्रीराम द्वारा बनवाया गया ऐतिहासिक सेतु है, जिसे उन्होंने लंका जाने के लिए प्रयोग किया था।’’

हे राम ! विश्व का दुर्भाग्य है कि भारत सरकार आपकी महान विश्व धरोहर को तोड़ने के लिए 2427 करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि खर्च कर रही है। सरकार इसको तोड़कर भारत और श्रीलंका के बीच जलयानों के आवागमन का सीधा मार्ग बनाना चाहती है। इससे समुद्री रास्ता बहुत शॉर्टकट हो जायेगा। निश्चित ही समुद्री रास्ते का शॉर्टकट बनाना बहुत अच्छी बात है ? लेकिन क्या करोड़ों हिंदुओं के हृदयसेतु अर्थात् रामसेतु को तोड़ना अच्छी बात है ? इसको तोड़ने वाले ये बात भूल गए कि श्रीरामसेतु का हिन्दुओं के हृदय में इतना ऊंचा स्थान है, जितना मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना या ईसाइयों के लिए यरूशलम। यदि सरकार समुद्री नहर बनाना चाहती है तो रामेश्वरम् व धनुषकोटि के बीच मंडपम् गांव के निकट रेत के टीलों को हटाकर शॉर्टकट समुद्री रास्ता बनाया जा सकता है। ऐसा करने से रास्ता भी संक्षिप्त हो जायेगा और समुद्र में मशक्कत करने के स्थान पर कम समय में और अल्प धन में यह कार्य भी सिद्ध हो जायेगा।

गांधीजी ने कहा था कि वे भारत में रामराज्य देखना चाहते हैं। लेकिन आज गांधीजी को अपना मसीहा मानने वाले कांग्रेसी ही उनके आराध्यदेव की अंतिम स्मृति का लोप करने पर तुले हुए हैं। भगवान राम ने स्पष्ट कहा है कि मेरे द्वारा जिस धर्म की, जिस मर्यादा की स्थापना की गयी है, उसका पूर्णता परिपालन समय-समय पर आने वाले इस धर्मप्राण भारत के शासकों को अवश्य ही करना चाहिए इसी में सबका कल्याण निहित है। प्रभु श्रीराम के मूलवचन इस प्रकार है :

भूयो भूयो भामिनो भूमिपाला, नत्वा नत्वा याचते रामचंद्रः।
सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नराणां, काले काले पालनीयो भवद्धि।।

                                                                           -स्कन्द पुराण, ब्रह्म, धर्मा. 34/40

अर्थात् हे भविष्य में होने वाले राजाओं ! यह रामचन्द्र आप लोगों से विनम्रता पूर्वक बारम्बार प्रणाम कर याचना करता है कि आप लोग मेरे द्वारा बांधे हुए रामसेतु की सुरक्षा सदा करते रहें।



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