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विवेकानन्द साहित्य >> युवकों के प्रति

युवकों के प्रति

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5930
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक युवकों के प्रति....

Yuvakon Ke Prati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

(प्रथम संस्करण)

हमारा यह नया प्रकाशन ‘युवकों के प्रति’ युवकों के हाथ में देते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है।

युवावस्था मानवजीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काल है। इसी अवस्था में मानव की अन्तर्निहित अनेकविध शक्तियाँ विकासोन्मुख होती हैं। संसार के राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक क्षेत्र में आज तक जो भी हितकर क्रान्तियाँ हुईं उनका मूलस्रोत युवाशक्ति ही रही है। वर्तमान युग में मोहनिद्रा में मग्न हमारी मातृभूमि की दुर्दिशा तथा अध्यात्मज्ञान के अभाव से उत्पन्न समग्र मानवजाति के दुःख-क्लेश को देखकर जब परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द व्यथित हृदय से इसके प्रतिकार का उपाय सोचने लगे तो उन्हें स्पष्ट उपलब्धि हुई कि हमारे बलवान्, बुद्धिमान, पवित्र एवं निःस्वार्थ युवकों द्वारा ही भारत एवं समस्त संसार का पुनरुत्थान होगा। उन्होंने गुरुगम्भीर स्वर से हमारे युवकों को ललकारा : ‘‘उठो, जागो—शुभ घड़ी आ गयी है’’, ‘‘उठो, जागो तुम्हारी मातृभमि तुम्हारा बलिदान चाहती है’’, ‘‘उठो, जागो—सारा संसार तुम्हें आह्वान कर रहा है !’’

युवाशक्ति को प्रबोधित करने के लिए स्वामीजी ने आसेतुहिमाचल भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में जो तेजोदीप्त भाषण दिये उन्हें पढ़ते हुए आज भी हृदय में नवीन शक्ति और प्रेरणा का संचार होता है। हमारे युवकों के लिए इन स्फूर्तिदायी भाषणों का एक स्वतन्त्र संग्रह अत्यन्त आवश्यक था। अद्वैत आश्रम, कलकत्ता द्वारा ‘To the Youth of India’ नाम से इस प्रकार का संकलन पहले से ही प्रसिद्ध किया गया था। उसी का अनुसरण करते हुए ‘‘राष्ट्रीय युव वर्ष’ के उपलक्ष्य में हमने ‘भारत में विवेकानन्द’ ग्रन्थ की सहायता से प्रस्तुत पुस्तक का संकलन किया।

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक हमारे देश की युवशक्ति को जागृत करने में सहायक सिद्ध होगी।

प्रकाशक

युवकों के प्रति

भारत का संसार को सन्देश


जो थोड़ा बहुत कार्य मेरे द्वारा हुआ है, वह मेरी किसी अन्तर्निहित शक्ति द्वारा नहीं हुआ, वरन् पाश्चात्य देशों में पर्यटन करते समय, अपनी इस परम पवित्र और प्रिय मातृभूमि से जो उत्साह, जो शुभेच्छा तथा जो आशीर्वाद मुझे मिले हैं, उन्हीं की शक्ति द्वारा सम्भव हो सका है। हाँ, यह ठीक है कि कुछ काम तो अवश्य हुआ है, पर पाश्चात्य देशों में भ्रमण करने से विशेष लाभ मेरा ही हुआ है। इसका कारण यह है कि पहले मैं जिन बातों को शायद हृदय के आवेग से सत्य मान लेता था, अब उन्हीं को मैं प्रमाणसिद्ध विश्वास तथा प्रत्यक्ष और शक्तिसम्पन्न सत्य के रूप में देख रहा हूँ।

पहले मैं भी अन्य हिन्दुओं की तरह विश्वास करता था कि भारत पुण्यभूमि है कर्मभूमि है, जैसा कि माननीय सभापति महोदय ने अभी अभी तुमसे कहा भी है। पर आज मैं इस सभा के सामने खड़े होकर दृढ़ विश्वास के साथ कहता हूँ कि यह सत्य ही है। यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है जिसे हम पुण्यभूमि कह सकते हैं, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है,
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 16 जनवरी 1897 को फ्लोरल हॉल, कोलम्बो में दिया हुआ भाषण। यही स्वामी विवेकानन्द का प्राच्य में दिया प्रथम सार्वजनिक भाषण था।

यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ भगवान् की ओर उन्मुख होने के प्रयत्न में संलग्न रहनेवाले जीवमात्र को अन्ततः आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है जहाँ मानवजाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और यदि ऐसा कोई देश है जहाँ आध्यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्मान्वषेण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है।

अत्यन्त प्राचीन काल से ही यहाँ पर भिन्न भिन्न धर्मों के संस्थापकों ने अवतार लेकर सारे संसार को सत्य की आध्यात्मिक सनातन और पवित्र धारा से बारम्बार प्लावित किया है। यहीं से उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों और दार्शनिक ज्ञान की प्रबल धाराएँ प्रवाहित हुई हैं, और यही से वह धारा बहेगी, जो आज कल की पार्थिव सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन प्रदान करेगी। विदेशों के लाखों स्त्री-पुरुषों के हृदय में जड़वाद की जो अग्नि धधक रही है, उसे बुझाने के लिए जिस जीवनदायी सलिल की आवश्यकता, वह यहीं विद्यमान है। मित्रों, विश्वास रखो, यही होने जा रहा है।

मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। तुम लोगों में जिन्होंने संसार की विभिन्न जातियों के इतिहास का भलीभाँति अध्ययन किया है, इस सत्य से अच्छी तरह परिचित होंगे। संसार हमारे देश का अत्यन्त ऋणी है। यदि भिन्न भिन्न देशों की पारस्परिक तुलना की जाए तो मालूम होगा कि सारा संसार सहिष्णु व निरीह भारत का जितना ऋणी है, उतना और किसी देश का नहीं। ‘निरीह हिन्दू’—ये शब्द कभी कभी तिरस्कार के रूप में प्रयुक्त होते हैं, पर यदि किसी तिरस्कार में अद्भुत सत्य का कुछ अंश निहित रहता है तो वह इन्हीं शब्दों में है। हिन्दू सदा से जगत्पिता की प्रिय सन्तान रहे हैं। यह ठीक है कि संसार के अन्यायन्य स्थानों में सभ्यता का विकास हुआ है, प्राचीन और वर्तमान काल में कितनी ही शक्तिशाली तथा महान् जातियों ने उच्च भावों को जन्म दिया है, पुराने समय और आजकल भी बहुत से अनोखे तत्त्व एक जाति से दूसरी जाति में पहुँचे हैं, और यह भी ठीक है कि किसी किसी राष्ट्र की गतिशील जीवनतरंगों ने महान् शक्तिशाली सत्य के बीजों को चारों ओर बिखेरा है। परन्तु भाइयों ! तुम यह भी देख पाओगे कि ऐसे सत्य का प्रचार हुआ है—रणभेरी के निर्घोष तथा रणसज्जा से सज्जित सेनासमूह की सहायता से। बिना रक्त-प्रवाह में सिक्त हुए बिना लाखों स्त्री-पुरुषों के खून की नदी बहाये, कोई भी नया भाव आगे नहीं बढ़ा। प्रत्येक ओजस्वी भाव के प्रचार के साथ ही साथ असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों और असहायों का करुण क्रन्दन और विधवाओं का अजस्र अश्रुपात होते देखा गया है।

प्रधानतः इसी उपाय द्वारा अन्यान्य देशों ने संसार को शिक्षा दी है, परन्तु इस उपाय का अवलम्बन किये बिना ही भारत हजारों वर्षों से शान्तिपूर्वक जीवित रहा है। जब यूनान का अस्तित्व नहीं था, रोम भविष्य के अन्धकार के गर्भ में छिपा हुआ था, जब आधुनिक यूरोपियों के पुरखे घने जंगलों के अन्दर छिपे रहते थे और अपने शरीर को नीले रंग से रँगा करते थे, तब भी भारत क्रियाशील था। उससे भी पहले, जिस समय का इतिहास में कोई लेखा नहीं है, जिस सुदूर धुँधले अतीत की ओर झाँकने का साहस परम्परा को भी नहीं होता, उसे काल से लेकर अब तक न जाने कितने ही भाव एक के बाद एक भारत से प्रसृत हुए हैं, पर उनका प्रत्येक शब्द आगे शान्ति तथा पीछे आशीर्वाद के साथ कहा गया है। संसार के सभी देशों में केवल एक हमारे ही देश ने लड़ाई-झगड़ा करके किसी अन्य देश को पराजित नहीं किया है—इसका शुभ आशीर्वाद हमारे साथ है और इसी से हम अब तक जीवित हैं।

एक समय था, जब यूनानी सेना के रण-प्रयाण के दर्प से संसार काँप उठता था। पर आज वह कहाँ है ? आज तो उसका चिह्न तक कहीं दिखाई नहीं देता। यूनान देश का गौरव आज अस्त हो गया है। एक समय था, जब प्रत्येक पार्थिव भोग्य वस्तु के ऊपर रोम की श्येनांकित विजय-पताका फहराया करती थी, रोमन लोग सर्वत्र जाते और मानवजाति पर प्रभुत्व प्राप्त करते थे। रोम का नाम सुनते ही पृथ्वी काँप उठती थी, पर आज उसी रोम का कैपिटोलाइन पहाड़ एक भग्नावशेष का ढूह मात्र है। जहाँ सीजर राज्य करता था, वहाँ आज मकड़ी जाल बुनती है। इसी प्रकार कितने ही समान वैभवशाली राष्ट्र उठे और गिरे। विजयोल्लास और भावावेशपूर्ण प्रभुत्व का कुछ काल तक कलुषित राष्ट्रीय जीवन बिताकर, सागर की तरंगों की तरह उठकर फिर मिट गये।

इसी प्रकार ये सब राष्ट्र मनुष्य-समाज पर किसी समय अपना चिह्न अंकित कर अब मिट गये हैं। परन्तु हम लोग आज भी जीवित हैं। आज यदि मनु इस भारतभूमि पर लौट आएँ, तो उन्हें कुछ भी आश्चर्य न होगा, वे ऐसा नहीं समझेंगे कि वे कहाँ आ पहुँचे। वे देखेंगे कि हजारों वर्षों के सुचिन्तित तथा परीक्षित वे ही प्राचीन विधान यहाँ आज भी विद्यमान हैं, सैकड़ों शताब्दियों के अनुभव और युगों की अभिज्ञता के फलस्वरूप वही सनातन सा आचार-विचार यहाँ आज भी मौजूद है। और जितने ही दिन बीतते जा रहे हैं, जितने ही दुःख दुर्विपाक आते हैं और उन पर लगातार आघात करते हैं, उनसे केवल यही उद्देश्य सिद्ध होता है कि वे और भी मजबूत, और भी स्थायी रूप धारण करते जा रहे हैं। और यह खोजने के लिए कि इन सब का केन्द्र कहाँ है, किस हृदय से रक्तसंचार हो रहा है, और हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूल स्रोत कहाँ है तुम विश्वास रखो कि वह यहीं विद्यामान है। सारी दुनिया भ्रमण करने के बाद ही मैं यह कह रहा हूं।


अन्यान्य राष्ट्रों के लिए धर्म, संसार के अनेक कृत्यों में एक धंधा मात्र है। वहाँ राजनीति है, सामाजिक जीवन की सुख-सुविधाएँ हैं, धन तथा प्रभुत्व द्वारा जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है और इन्द्रियों को जिससे सुख मिलता है उन सब के पाने की चेष्टा भी है। इन सब विभिन्न जीवन-व्यापारों के भीतर तथा भोग से निस्तेज हुई इन्द्रियों को पुनः उत्तेजित करने के लिए उपकरणों की समस्त खोज के साथ, वहाँ सम्भवतः थोड़ा बहुत धर्म-कर्म भी है। परन्तु यहाँ, भारतवर्ष में, मनुष्य की सारी चेष्टाएँ धर्म के लिए हैं, धर्म ही जीवन का एकमात्र उपाय है। चीन-जापान युद्ध हो चुका, पर तुम लोगों में कितने ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें इस युद्ध का हाल मालूम है ? अगर जानते हैं तो बहुत कम लोग। पाश्चात् देशों में जो जबरदस्त राजनैतिक तथा सामाजिक आन्दोलन पाश्चात्य समाज को नये रूप में, नये साँचे में ढालने में प्रयत्नशील है।

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