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विवेकानन्द साहित्य >> हमारा भारत

हमारा भारत

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :25
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5952
आईएसबीएन :00000

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प्रसतुत है पुस्तक हमारा भारत....

Hamara Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

प्रस्तुत पुस्तक का नवम संस्करण प्रकाशित करने में हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है। ‘हमारा भारत’ स्वामी विवेकानन्द के तीन लेखों का संग्रह है। स्वामी जी शिकागों-सर्व-धर्मपरिषद में जगदव्यापी ख्याति प्राप्त कर लेने के बाद जब यूरोपीय देशों में भ्रमण कर रहे थे उन्हें प्राध्यापक मैक्समूलर तथा डॉक्टर पॉल डायसन से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। उन दोनों का भारत पर आन्तरिक प्रेम संस्करण भाषा में उनका महान् पण्डित्य तथा भारतीय दर्शन के महान सार्वभौमिक सत्यों को सर्वप्रथम पाश्चात्यों के समक्ष घोषित करने का उनका सफल उद्यम देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए थे।

प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम दो अध्याय ‘ब्रह्मवादिन् पत्र के सम्पादक को प्रकाशनार्थ भेजे गये वही दो लेख हैं जो स्वामीजी द्वारा मैक्समूलर तथा पॉल डायलसन पर लिखे गये थे; तथा खेतड़ी के महाराज द्वारा समर्पित किये गये अभिनन्दन-पत्र के उत्तर में स्वामीजी ने उनको जो पत्र लिखा था वही इस पुस्तक का तीसरा अध्याय है। स्वामीजी ने अभिनन्दन-पत्र के उत्तर में यह स्पष्ट रूप से दर्शा दिया है कि भारत का प्राण धर्म में अवस्थित है, और जब तक यह अक्षुण्ण बना रहेगा तब तक विश्व की कोई भी शक्ति उसका विनाश नहीं कर सकती। उन्होंने बड़ी ही मर्मस्पर्शी भाषा में भारत की अवनति का कारण चित्रित किया है तथा यह बता दिया है कि केवल भारत को ही नहीं वरन सारे संसार को विनाश के गर्त में पतित होने से यदि कोई बचा सकता है तो वह है वेदान्त का शाश्वत सन्देश।
हमें विश्वास है कि इस पुस्तक से पाठकों का विशेष हित होगा।

प्रकाशक

हमारा भारत

प्रथम अध्याय

भारतबन्धु प्राध्यापक मैक्समूलर


यद्यपि हमारे ‘ब्रह्मवादिन्’ के लिए कर्म का आदर्श सदैव ही रहेगा कि ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’’ अर्थात् ‘‘कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं,’’ किन्तु फिर भी किसी निष्कपट कर्मी के कर्मक्षेत्र से बिदा लेने के पहले लोग उसका कुछ न कुछ परिचय प्राप्त कर ही लेते हैं।

हमारे कार्य का प्रारम्भ बहुत ही अच्छा हुआ है, और हमारे मित्रों ने इस विषय में जो दृढ़ आन्तरिक प्रदर्शित की है, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय, दोनों अस्त्रों से सुसज्जित होने पर अल्पसंख्यक लोग भी समस्त विघ्नबाधाओं को पराजित करने में समर्थ होंगे।
अलौकिक ज्ञान का मिथ्यादावा करने वालों से सर्वदा ही दूर रहना; बात यह नहीं है कि अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, पर मेरे मित्रों, हमारे संसार में ऐसे व्यक्तियों में से नब्बे प्रतिशत के अन्दर काम, कांचन और यश-स्पृहारूप गुप्त कामना विद्यमान है, और शेष दस प्रतिशत में से नौ प्रतिशत व्यक्तियों की दशा तो पागलों जैसी है-वे डाक्टरों तथा वैद्यों के लिए आलोचना के विषय हैं। दार्शनिकों के लिए नहीं।
‘ब्रह्मवादिन्’ पत्र के सम्पादक को भेजा हुआ लेख।

हमारी प्रथम और प्रधान आवश्यकता है-चरित्र-गठन, जिसे हम ‘प्रतिष्ठित प्रज्ञा’ के नाम से अभिहित करते हैं। यह जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है उसी प्रकार व्यक्तिसमष्टि समाज में भी इसकी आवश्यकता है। संसार हर एक नये प्रयत्न को यहाँ तक कि धर्म-प्रचार के नये उद्यम को भी सन्देह की दृष्टि से देखता है, अतः इससे तुम्हें विरक्त न हो जाना चाहिए। यह बेचारा अज्ञानान्धकार में डूबा संसार ! यह तो कितनी ही बार छला गया है ! किसी नये सम्प्रदाय की ओर संसार जितना ही सन्देह की दृष्टि से देखेगा अथवा उसके प्रति वैमनस्य दिखलायेगा, वह उतना ही उस सम्प्रदाय के लिये कल्याणकारी है। यदि उस सम्प्रदाय में प्रचार के योग्य कोई सत्य हो, यदि अभाव को हटाने के लिए उसका जन्म हुआ हो, तो शीघ्र ही निन्दा प्रशंसा में परिवर्तित हो जाती है एवं घृणा प्रेम का स्वरूप धारणा कर लेती है। आजकल लोग प्रायः धर्म को किसी प्रकार की सामाजिक अथवा राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के साधन के रूप में लेते हैं। इस विषय में सावधान रहना। धर्म का उद्देश्य धर्म ही है। जो धर्म केवल सांसारिक सुख पाने का साधन मात्र है, वह अन्य चाहे जो कुछ भी हो, पर धर्म नहीं है। और यह कहना कि बेरोक-टोक इन्द्रिय सुख-भोग के अतिरिक्त मनुष्य-जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है, नितान्त धर्म-विरुद्ध है-ईश्वर एवं मनुष्यप्रकृति के विरुद्ध भयंकर अपराध है।

जिन लोगों में सत्य, पवित्रता और निःस्वार्थपरता विद्यमान हैं; उन्हें स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल की कोई भी शक्ति कोई क्षति नहीं पहुँचा सकती। इन गुणों के रहने पर, चाहे समस्त विश्व ही किसी व्यक्ति के विरुद्ध क्यों न हो जाय, वह अकेला ही उसका सामना कर सकता है।

किसी व्यक्ति या सम्प्रदाय के साथ सस्ता समझौता न कर बैठना, सबसे पहले इसी विषय में सावधान रहना होगा। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि किसी के साथ विरोध करना होगा। किन्तु सुख में हो या दुख में, अपना भाव सदैव स्थिर रखो, अपना संघ बढ़ाने के उद्देश्य से दूसरों के खयाल के अनुसार मत चलो। तुम्हारी आत्मा ही तो समस्त ब्रह्माण्ड का आश्रय स्वरूप है, तुम्हारे लिए दूसरे के आश्रम का क्या प्रयोजन ? सहिष्णुता, प्रेम एवं दृढ़ता के साथ प्रतीक्षा करो, यदि इस समय कोई सहायक न मिला, तो उचित समय पर अवश्य मिलेगा। शीघ्रता करने की क्या आवश्यकता है ? सभी महान् कार्यों के आरम्भ के समय उनकी कार्यशक्ति का अस्तित्व मानों मालूम ही नहीं पड़ता-पर उसी दशा में वास्तव में उनमें यथार्थ कार्यशक्ति संचित रहती है।

किसने सोचा था कि बंगाल के एक सुदूर गाँव में रहनेवाले एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न बालक के जीवन और उपदेशों को इन कुछ वर्षों में ऐसे दूर देश के लोग जान सकेंगे, जिनके बारे में हमारे पूर्वजों ने कभी स्वप्न में भी न सोचा होगा ? मैं भगवान श्रीरामकृष्ण के विषय में कह रहा हूँ। तुमने क्या यह सुना है कि प्राध्यापक मैक्समूलर ने ‘नाइन्टीन’ सेन्चुरी’ नामक अंग्रेजी पत्रिका में श्री रामकृष्ण के सम्बन्ध में एक लेख लिखा है। एवं यदि उपयुक्त सामग्री उन्हें मिले तो बड़े हर्ष से उनकी जीवनी तथा उपदेशों का एक और भी विस्तृत विवरणयुक्त ग्रन्थ लिखने के लिए वे प्रस्तुत हैं ? प्रा, मैक्समूलर एक असाधारण व्यक्ति हैं। मैं कुछ दिन पहले उनसे मिलने गया था। वास्तव में तो यह कहना उचित होगा कि मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं प्रेम करते हैं, वे स्त्री हों या पुरुष, वे चाहे जिस किसी भी सम्प्रदाय, मत अथवा जाति के हों उनका दर्शन करने जाना मैं तीर्थयात्रा के समान समझता हूँ। ‘‘मदभक्तानाश्च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मताः’’ ‘‘मेरे भक्तों के भक्त हैं, वे मेरे सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं।’’ क्या यह सत्य नहीं है ?

प्राध्यापक महोदय पहले इस बात का अनुसन्धान करने में प्रवृत्त हुए कि किस शक्ति के द्वारा ब्रह्मसमाज के बड़े नेता स्वर्गीय केशवचन्द्र सेन के जीवन में सहसा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो गया; तभी से वे श्रीरामकृष्णदेव के जीवन एवं उपदेशों की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हो गये हैं तथा उनकी चर्चा किया करते है मैंने कहा, ‘‘प्राध्यापकजी, आजकल सहस्त्रों लोग श्रीरामकृष्ण की पूजा कर रहे है।’’ प्राध्यापकजी ने प्रत्युत्तर में कहा, ‘‘यदि लोग ऐसे व्यक्ति की पूजा नहीं करेंगे तो और किसकी करेंगे ?’’ प्राध्यापकजी स्वयं सह्रदयता की मूर्ति थे। उन्होंने स्टडी साहब को तथा मुझे अपने साथ जलपान करने के लिए निमन्त्रण दिया, और फिर उन्होंने हमें बोडलियन पुस्तकालय (Bodleian Library ) तथा आक्सफोर्ड के कई कालेज दिखलाये। वे हम लोगों को रेलवे स्टेशन तक पहुँचाने के लिए भी आये, और जब हमने पूछा कि वे हमारे आराम और सुख के लिए इतना सब क्यों कर रहे हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘श्रीरामकृष्ण देव के एक शिष्य के साथ हमारी प्रतिदिन भेंट होती !’’

वास्तव में यह भेंट मेरे लिए एक अद्धुत अनुभव थी। सुन्दर पुष्पों से लदे हुए पौधों तथा लताओं से युक्त उद्यान के बीच उसका वह मनोरम छोटासा गृह, सत्तर वर्ष आयु होते हुए भी स्थिर प्रसन्न मुख, बालकों का-सा कोमल ललाट रजतशुभ्र केश, ऋषि-हृदय के अन्तराल में स्थित गम्भीर आध्यात्मिक निधि की अस्तित्वसूचक उनके मुख की प्रत्येक रेखा, उनकी जीवनी-संगिनी वे उदारता सहधर्मिणी, उनके निवास स्थान का वह निस्तब्ध शान्त वातावरण एवं विस्तृत निर्मल अन्नत आकाश-ये समस्त सम्मिलित हो मेरी कल्पना को भारत के उस प्राचीन गौरवशाली युग में खींच ले गये जब भारत ब्रह्मर्षि और राजर्षियों का, उच्चाशय वानप्रस्थियों का तथा अरुन्धती और वशिष्ठादिकों का निवास स्थल था। प्राध्यापक महोदय का जीवन प्राचीन भारत के ऋषियों की चिन्ताराशि के प्रति सहानुभूति जागृत करने तथा उसके प्रति लोगों के विरोध एवं घृणा को नष्ट करके श्रद्धा उत्पन्न करने के दीर्घकाल में सम्पन्न होनेवाले कार्य में ही संलग्न था।

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