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हास्य-व्यंग्य >> नोटम नमामि

नोटम नमामि

यशवंत कोठारी

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6061
आईएसबीएन :81-88267-62-7

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प्रस्तुत है पुस्तक नोटम नमामि ........

Notam Namami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नोट वोट है। वोट नोट है। नोट ब्रह्मा है। नोट शिव है। नोट विष्णु है। नोट सर्वत्र है। नोट सर्वज्ञ है। नोट ऊपर है, टेबल के नीचे है, फाइल के अंदर है, बाथरूम में है। नोट-ही-नोट हैं।
नोट सूर्य है, चंद्रमा है, सितारा है और पृथ्वी है। नोट लक्ष्मी है। नोट सरस्वती है। नोट सोना है। नोट चाँदी है। नोट नर है, अतः मादा को प्रिय है। नोट दिवाली है। नोट होली है। नोट रोली-मोली है।
नोट सतत मूल्य है। नोट धर्म है। नोट राजनीति है। नोट थोक है। नोट खुदरा है। नोट अधिकारी है, नोट कर्मचारी है, गोल है, अतः गोलमाल करता है। नोट है तो मुँह खुल जाता है, मुट्ठी दब जाती है, फाइल चल जाती है। नोट फिसलता है, चमकता है, दमकता है, छलकता है, जाम की तरह खनकता है। जो नोट का सम्मान नहीं करता, वह मूर्ख है, अज्ञानी है, कर्म-फूटा है। नोटभक्षी से ज्यादा खतरनाक है।
नोट कहाँ नहीं है ! फाइव स्टार में है, ढाबे और थड़ी में है, चाय की प्याली में है, पान पत्ते में है, मटके और सट्टे में है, बैंक में है, लॉकर में है। यह सगुण साकार है वैसे निराकार है। अतः नोटम् नमामि।


इसी पुस्तक से


यशवंत कोठारी के व्यंग्य आज की भौतिकवादी मानसिकता पर जमकर प्रहार करते है और आत्मचिंतन करने पर मजबूर करते हैं कि आखिर यह प्रवृत्ति हमें कहाँ ले जाएगी !

व्यंग्य, व्यंग्यालोचना एवं सृजन-प्रक्रिया


आखिर व्यंग्य है क्या ? और क्या कारण है कि सर्वत्र व्यंग्य की चर्चा निरंतर सुनाई पड़ रही है। व्यंग्य की सार्वभौमिकता ही व्यंग्य की सार्थकता है। व्यंग्य अपने आप में एक विष-बुझा तीर है। एक विष-कन्या है या कि विष-पुरुष है, जो सामने वाले को चारों खाने चित्त करने की सामर्थ्य रखता है। व्यंग्य कोई बच्चे का खिलौना नहीं है कि हर कोई उसमें खेले और जी बहलाए। वह तो उबलते हुए तेल की कड़ाही है, जिसमें हाथ डालने से पंजा जल-भुन जाता है। व्यंग्य तो एक आग है, एक मशाल है, एक जीवित शब्द ब्रह्म है, जो सर्वत्र व्याप्त हो जाने की सामर्थ्य रखता है। व्यंग्य को किसी शाब्दिक परिभाषा में बाँधना उसके स्वरूप को संकुचित करना है, उसके अस्तित्व को धीमा करना है। व्यंग्य एक संपूर्णता है, एक मसग्रता है, एक सामाजिक सरोकार है, जीवन की समरसता और सामाजिक न्याय का प्रतीक है।
व्यंग्य को हास्य या विनोद जोड़कर रखना एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यंग्य की धार के या उसके प्रभाव को कम करने के लिए प्रयुक्त की जाती है। इस संपूर्ण प्रक्रिया से व्यंग्य की मुखरता बढ़ती ही है।

व्यंग्य कोई समाज-सुधार, साधु-संत या महात्मा नहीं है। वह जीवन की अनिवार्यता है, आवश्यकता है। कोई आवश्यक नहीं कि व्यंग्य लिखकर ही उसका प्रतिपादन किया जाए। राजनीति—विशेषकर पारिवारिक राजनीति—में हर व्यक्ति को व्यंग्य की प्रभावोत्पादकता से दो-चार होना पड़ता है। व्यंग्य वह तिलमिलाहट है, जो आपके अंदर तक छेदकर आर-पार निकलने की क्षमता रखता है। व्यंग्य जीवन की आक्रमकता है, सहिष्णुता नहीं। व्यंग्य तो शल्यक्रिया है जो जीवन को बचाने के लिए आवश्यक है। व्यंग्य समीक्षा नहीं, फकत वह तो सहभागिता करता है। जीवन के हर मोड़ पर व्यंग्य आपको अपने साथ खड़ा मिलेगा— ठीक प्रकृति की तरह, जिजीविषा की तरह।

आचार्यों, समीक्षकों, शोध-प्रबंध लेखकों की कठोर परिभाषाओं के ऊपर हैं व्यंग्य, जो सोचने को मजबूर करता है। थोड़े में कहूँ तो आपके जीवन की आवश्यकता है व्यंग्य। ठीक रोटी, कपड़ा और मकान की तरह। व्यंग्य किसी का मोहताज नहीं होता—न समाज का, न सत्ता का। उसके लिए जनपथ और राजपथ में कोई अंतर नहीं। जहाँ भी कोई कमी है, व्यंग्य वहीं पर उस कमी को पूरा करे के लिए उपस्थित मिलेगा। व्यंग्य की आवश्यकता को नकारना समाज और सत्ता किसी के लिए भी संभव नहीं है।

व्यंग्य सहानुभूति, दया, करुणा या निरीहता का पात्र नहीं, वह तो सबल-धारदार हथियार है। उसका पैनापन सर्वविदित है।
व्यंग्य एक तीखा काँटा है, जो पाँव में ही नहीं, कहीं भी चुभ सकता है, चुभता है और चुभता रहेगा।
जहाँ तक व्यंग्य की आलोचना का प्रश्न है, अभी मीलों दूर जाना है। व्यंग्य कोई कविता, कहानी या उपन्यास नही है कि एक बँधी-बँधाई लीक पर समीक्षा-कर्म किया जा सके। विश्वविद्यालयों में बैठे अध्यापकों को व्यंग्य की आलोचना की भाषा का विकास करना चाहिए। व्यंग्य की पी-एच.डी., डील.लिट्, और शोध प्रबंधों का अकसर एक दोहराव आने लगा है। व्यंग्य में भी दोहराव आ रहा है। इस पुनरावृत्ति दोष को रोका जाना चाहिए। पिछले पचास वर्षों में टेक्नालॉजी के विस्तार तथा पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभों के कारण ढेरों रचनाएँ और पुस्तकें आई हैं। उनका समुचित मूल्यांकन होना चाहिए।

सर्वत्र मूल्यों में ह्रास हो रहा है और ह्रास को व्यंग्य ने वाणी दी है। स्वतंत्रता के बाद पचास वर्षों में व्यंग्य के माध्यम से इस समाज को समझा जा सकता है। समाज में मूल्यों में गिरावट, विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ, ओछापन, नंगापन, गर्हित कररवाइयाँ बहुत ज्यादा बढ़ी हैं और इन सब पर कलमकारों ने व्यंग्य कर समाज को सचेत किया है। आलोचकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। आलोचकों को किसी साँचे में व्यंग्य को बंद नहीं करना चाहिए। व्यंग्य तो निर्बंध है —एक बहती नदी के जल की तरह, मगर शांत नहीं है। व्यंग्य तो बस व्यंग्य है, ऐसा लिख देने या कह देने से काम चलनेवाला नहीं है।
व्यंग्य की आलोचना के क्षेत्र में लेखक भी हैं। वे स्वयं भी कभी मित्रों तो कभी संपादकों के दबाव में आकर पुस्तकीय समीक्षा करते हैं, मगर अपने समकालीनों के प्रति ईमानदारी से लिखना बडा दुष्कर कर्म है। अकसर गलती हो जाती है। व्यंग्य और आलोचना दोनों ही क्षेत्रों मे महिलाओं का अभाव है, यह भी विचारणीय है। व्यंग्य-आलोचना की अभी कोई सुनिश्चित परंपरा नहीं बन पाई है। एक निश्चित परंपरा बन जाने के बाद व्यंग्य-आलोचना में असीम संभावनाएँ हैं। नए लोगों को इस ओर प्रयास करना चाहिए।

एक प्रश्न अकसर पूछा जाता है कि व्यंग्य की सृजन-प्रक्रिया क्या होती है ? ईमानदारी से कहूँ तो हर अन्य रचना की जो सृजन-प्रक्रिया होती है, वही व्यंग्य की भी होती है; लेकिन इतना कह देने से बात बनेगी नहीं और बात को बनाना जरूरी भी है।
किसी भी सृजनधर्मी के मन-मस्तिष्क में जब यथार्थ भाव से कोई पीड़ा जन्म लेती है, तभी व्यंग्य का जन्म होता है और धीरे-धीरे एक रचना का प्रसव होता है, श्रेष्ठ व्यंग्य में त्रासदी और करुणा एक अनिवार्यता है। जो यथार्थ त्रासदी, दुःख और करुणा को भोगता है, वही व्यंग्य लिख और कर सकता है। शेष कार्य आसान हैं रचना को कागज पर उतारना, यदि संदर्भ हो तो उन्हें ठीक से लगाना, दूसरा या तीसरा ड्राफ्ट बनाना, फाइल में लगाना या पत्रिका को भेजना।

एक बात और, रचना के ऊपर हाशिए पर ‘व्यंग्य’ लिख देने मात्र से कोई रचना व्यंग्य नहीं हो जाती। रचना में व्यंग्य रूपी प्राणों का होना भी आवश्यक है।

व्यंग्य रचना का प्रोटोप्लाज्म या ऑक्सीजन है।
अकसर सृजन के दौरान ऐसा होता है कि रचना लिख लेने के बाद भी उसके स्तर या लेखन स्वयं भी असंतुष्ट होता है। ऐसी रचना को नष्ट कर देना चाहिए। दूसरी, तीसरी और चौथी बार लिखने का प्रयास करना चाहिए। कभी-कभी एक मास में कई रचनाएँ हो जाती हैं और कभी-कभी कई महीनों में जाकर एक रचना पूरी होती है। रचना का प्रकाशन या पुनःप्रकाशन अब कोई समस्या नहीं होती। आज भी संपादक रचना लौटा देते हैं और वह अन्यत्र शान से छप जाती है। व्यंग्य रचनाओं की कमी के कारण संपादक पुनः प्रकाशन भी कर लेते हैं। कुछ संपादक इसे अनुचित मान लेते हैं तो कुछ माँगकर पुनः प्रकाशन करते है। मेरी निजी राय में, रचना का पुनः प्रकाशन अनुचित नहीं है, क्योंकि इससे ही साहित्य जिंदा रहता है। यदि बार-बार न छपते तो क्या ‘वेद’ पुराण’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘गीता’, ‘कुरान’ ‘बाइबल’ और टैगारो, प्रेमचंद तथा अन्य सैकड़ों लेखक एवं उनकी कृतियाँ नष्ट नहीं हो जातीं !

सृजन-प्रक्रिया के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लेखक क्यों लिखता है ? नहीं लिखे तो क्या हो जाएगा ?
लिखना लेखक के लिए जीवन-मरण की तरह है। जब तक वह लिख रहा है, तभी तक जिंदा है। न लिखने के कारण चर्चा की आवश्यकता और आकांक्षा है। सृजन- प्रक्रिया में हस्तलिपि का बड़ा महत्त्व है और दुर्भाग्य से मेरी हस्तलिपि बहुत खराब है, टंकण आवश्यक है और टंकण के बाद ही कहीं रचना भेजता हूँ।
एक बात और, व्यंग्य का पाठक—कौन है, जो व्यंग्य नहीं पढ़ता या व्यंग्य नहीं पढ़ना चाहता है। पाठकों का भरपूर प्यार मिलता है। अकसर रचनाओं पर आनेवाले पत्र नया उत्साह-उमंग भर देते हैं और नई रचना की प्रसूति की प्रारंभिक तैयारी में लेखक जुट जाता है। इति शुभम् !


-यशवंत कोठारी


लोकतंत्र की लँगोट



किसी देश के किसी प्रांत की किसी राजधानी में एक विधानसभा थी। विधानसभा वैधानिक कार्यों के लिए थी, मगर प्रजातंत्र का आनंद था। सभी तरह के कार्य आसानी से और बिना रोक-टोक के संपन्न होते रहते थे। ऐसे ही एक दिन विधानसभा की बैठक के दौरान एक माननीय सदस्य ने एक सुरक्षा कर्मचारी की पैंट उतारकर हवा में उछाल दी। पैंट उछली, मानों लोकतंत्र की टोपी उछली; मगर वह केवल उछली; मगर वह केवल उछली ही नहीं उछल कर आसन की टेबल पर जा गिरी, मानो प्रजातंत्र की प्रतिष्ठा गिरी, मगर केवल गिरी ही नहीं, टेबल पर पड़ी रही, मानो आजादी की भैंस पानी में पड़ गई।

मैं इस संपूर्ण घटना क्रम का दूरदर्शी गवाह था। दूरदर्शन के सभी चैनल इस पराक्रमी घटनाक्रम को बार-बार दिखा रहे थे। मैं और मेरे जैसे लाखों-करोड़ों के सिर शर्म से झुके जा रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि लोकतंत्र की लँगोट खोलकर ये जनप्रतिनिधि क्या दिखलाना चाहते हैं ? आखिर लोकतंत्र नंगा करके ये लोग क्या हासिल करना चाहते हैं ? मैं जन्मजात मूर्ख इस घटना पर चर्चा के लिए उतावला था। एक प्रतिनिधि, जो अभी, अभी लाउंज में आए थे, से पूछ बैठा, ‘‘प्रभु, ये क्या हो रहा है ? सभा में लोकतंत्र को नंगा करने के प्रयास क्यों हो रहे हैं ?’’

‘‘तुम नहीं समझोगे ! जो नंगा नहीं होना चाहते, वे लोकतंत्र को नंगा कर देते हैं।’’
‘‘मगर देश की प्रतिष्ठा ? विदेशी समाचार तंत्र द्वारा सर्वत्र हमारी आलोचना की जा रही है।’’

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