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मन की उड़ान

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6391
आईएसबीएन :0000000000

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लगता है बालू के नीचे भी तरंगें चलती हैं जो जीवन को सदा हिलोरती रहती हैं। इसी का चित्रण है अन्तः तरंग में...

Man Ki Udan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत की समस्त भाषाओं में आज ज्ञानपीठ पुरस्कार द्वारा सम्मानित आशापूर्णा देवी से अधिक लोकप्रिय दूसरा उपन्यासकार नहीं। प्रस्तुत उपन्यास आशापूर्णा जी द्वारा सर्वथा नवीन भावभूमि पर रची अनुपम कृति है।
आशापूर्णा देवी के रचे उपन्यासों की संख्या आज लगभग दो सौ की है—और प्रस्तुत कथा उनकी लेखनी का एक नया व लुभावना रंग है....
एक विधुर वृद्ध-बेटा, बेटी, पतोहू, दामाद, नाती, पीता के रहते भी कितना अकेला है और सब के कारनामों को किस तरह चुपचाप सहता हुआ मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है.....और जब वह मरता है तब....
....लगता है बालू के नीचे भी तरंगें चलती हैं जो जीवन को सदा हिलोरती रहती हैं। इसी का चित्रण है अन्तःतरंग में..... इस उपन्यास की रोचकता, मनोविज्ञान को सिर्फ पढ़ कर ही समझा जा सकता है।

मन की उड़ान


बुढ़ापा जाड़े के मौसम जैसा है। प्रति क्षण स्मरण करा देता है कि अब रोशनी का खजाना खत्म होने को है, अंधकार छाने ही वाला है। जाड़े की शाम को विदा लेते देख यही बात प्रभुचरण सोच रहे थे। सोच रहे थे—या जैसे पानी खत्म होते कलश की तरह, बेहिसाब खर्च करते-करते अचानक ही नजर पड़ गई, कलश ठनठना रहा है, जबकि अब नए सिरे से भरने का वक्त नहीं रहा, इतना भी समय नहीं रह गया कि सोच-समझकर हिसाब रखते हुए कुछ बचा कर रखा जाये। हालांकि मनुष्य के जीवन में प्रहर सम्मान होने जैसी कोई नियमबद्धता नहीं है, या फिर पानी खत्म होने जैसा न्यायपूर्ण नियम। फिर भी बाल्य और यौवन काल तो निश्चित ही है। वहाँ अगर अवसान हो तो उसे कहा जाएगा असावधान पथिक पर, दस्यु ठग अचानक झपट पड़ा है। जैसा कि विभुचरण पर झपटा था। अच्छा-भला, तरो-ताजा लड़का, बिस्तर पर लेटने की नौबत नहीं आई। फुटबॉल खेल कर लौटा और बोला—‘पानी पीऊँगा’। बस, वह पानी तक न पी सका प्रभुचरण के बाद का ही था। सुना है, देखने में भी दोनों जुड़वाँ लगते थे, एक ही –से थे। लोग कहते लव-कुश, राम-लक्ष्मण। प्रभुचरण के मामा कहते, ‘वह सब नहीं, ये हैं जगाई-मधाई, यानी चैतन्य और माधव।’

उसी विभुचरण की आकस्मिक मृत्यु ने प्रभुचरण नामर तरुण लड़के को ऐसा विकल-विमूढ़ कर दिया था कि कुछ दिनों तक घर वाले उसे ही लेकर परेशान रहे। सामने कहते, ‘पता नहीं लड़के को कौन-सा रोग लगा है,’ लेकिन मन ही-मन आतंकित रहते। एकात्मा जैसे दो भाइयों से एक ही प्रेतात्मा कहीं दूसरे पर तो नहीं आ गई ? माँ-बाप इस लड़के की चिन्ता करते-करते उस लड़के का शोक भुला बैठे।

न खाना, न सोना। प्रभुचरण सूख कर काँटा हो गए। पढ़ाई का एक साल भी बरबाद हो गया। अथच, उसी प्रभुचरण ने अगले साल परीक्षा में सबसे अच्छा परीक्षा-फल देकर सबको चौंका दिया। इसका तात्पर्य है ‘जीवन’ नामक चीज मृत्यु से बड़ी है। जीवन के मध्य मृत्यु का लालन-पालन बहुत दिनों तक नहीं किया जा सकता है।...भयंकर निर्मम मृत्यु की छाया भी धीरे-धीरे हट जाती है।
लेकिन बुढ़ापा तो दस्यू ठग का शिकार नहीं, बुढ़ापे के प्रत्येक क्षण का तटस्थ अवहित है। बुढ़ापा जानता है कि ‘अवसान’ अपना अचूक परवाना लिये दरवाजे पर खड़ा है। बीच-बीच में साइकिल की घंटी बजा करके इसे लेते जाओ।’ लेकिन कितने आदमी ऐसे मिलेंगे को हिम्मत करके बाहर निकल आते हैं ? कहते हैं, ‘यह रहा। देखूँ, कहाँ दस्तखत करना है ?’
बल्कि घर की खिड़की-दरवाजे बन्द कर देते हैं। ऐसा दिखाएँगे जैसे यह पुकार उन्होंने सुनी ही नहीं है।
प्रभुचरण ने सोचा, मैं भी वही कर रहा हूँ। बार-बार घंटी सुन कर भी अनसुनी कर रहा हूँ। अभी भी सोच रहा हूँ, आजकल ‘सम्पत्ति’ का कानून इतना जटिल हो गया है। अच्छी तरह से ‘विल’ कतर सकता तो अच्छा रहता। नहीं कर जाऊँगा तो लड़के परेशानी में फँस सकते हैं, लड़की कह सकती है, ‘पिताजी ने मेरी बात सोची ही नहीं।’
लेकिन इतना ही। ‘कर रहा हूँ,’ ‘करूँगा’ सोचकर भी करना नहीं हो रहा है। ‘सम्पत्ति’ के नाम पर अवश्य ही अगाध कुछ नहीं है, फिर भी कलकत्ता शहर के इस तिमंजिले मकान का आजकल दाम कुछ कम नहीं है। मकान दिनोंदिन नष्ट हो रहा है फिर भी काल की गति मूल्य बढ़ा ही रही है। घटा नहीं रही है। इसके अलावा गाँव में पैतृक घर, जमीन, जायदाद भी कुछ कम नहीं है। अभी तक उसे बहुत ही तुच्छ समझ रहे थे। भग्नप्राय पैतृक मकान और उसके आस-पास भूखण्ड जैसे अपना मूल्यहीन अस्तित्व लिये विस्मृति के गहर में समाया पड़ा था। लेकिन आजकल सुनने में आ रहा है, वहाँ भी पड़ी हुई ज़मीन का दाम बढ़ रहा है। अनेक लोग उपेक्षित ‘गाँव के घर’ तथा ‘जमीन’ बेच कर बड़े आदमी बने जा रहे हैं, अतएव पीले पड़ रहे पुराने कागजात निकाल कर एक दिन लड़कों से कहा था प्रभुचरण ने, देखो जरा बेटा, इन सब का क्या कहाँ है ?’
बड़े लड़के ने कहा, ‘वह तुम्हीं समझोगे, पिताजी, तुम देखो। पर हमारे दफ्तर के एक व्यक्ति कह जरूर रहे थे कि उस तरफ की जमीन-जायदाद का आजकल काफी दाम चढ़ रहा है। उसका साला या कोई ऐसा ही, गाँव की कई बीघे जमीन बेच कर कलकत्ता के मकान बनाने बैठ गया है।’
छोटा बेटा बड़े भाई की तरह मूर्ख नहीं। उसने काग़ज़ात समेट कर कहा, ‘लाओ, समय निकाल कर देख लूँगा।’
देखा है या नहीं, कौन जाने, पर तब से वे काग़ज़ उसी के पास हैं.....मन का पाप बड़ा पाप होता है, लगभग नाग की तरह। प्रभुचरण कभी-कभी सोचते—कहाँ शुभ ने तो वे काग़ज़ लौटाये नहीं। उन्हें लेकर क्या कर रहा है ? कोई दूसरा इरादा तो नहीं है ?—यह सोचकर तुरन्त ही स्वयं को धिक्कारते हैं। लेकिन सोचने पर तो कोई रोक नहीं।....ऐसा सोचकर भी अब कहाँ कह पा रहे हैं, क्यों ? ‘अरे, देखा था उन कागजों को ? क्या समझ में आया ?’

कहने पर कहीं यह न सोच बैठे क्या पिताजी मुझ पर शक कर रहे हैं ?
किसी-किसी समय लगता है, ‘जाए भाड़ में, पृथ्वी से बिदा लेने पर कौन किसका होता है ? बाद में दो भाई जो कर सकेंगे, करेंगे।...किन्तु हर समय इन बातों का मन समर्थन नहीं करता। कौन जाने इसी कारण से दोनों के सम्बन्ध कहीं बगड़ न जाएँ या फिर बहन का हिस्सा मारा न जाए।
पहले हालाँकि ‘बहनों’ के भाग्य में कुछ नहीं होता था। विपुल धनवान बाप की लड़की को प्रभुचरण ने स्वयं देखा है, दुर्दिन में जीवन बिताते। अपनी ही बुआ की ससुराल में इसके ससुर अथाह सम्पत्ति छोड़ गए थे। फूफा तीन भाई थे। सबने मिल कर सारी सम्पत्ति बाँट ली। विधवा बहन दो अनाथ लड़के लिये मारी-मारी फिरती रहीं।...प्रभुचरण के पिता के पास ही आकर वह महिला दुःख प्रकट कर गई थीं। लड़कों की पढ़ाई के लिए सहायता ले गई थीं। कहती थीं—रास्ते-रास्ते भीख माँगूँगी, फिर भी ऐसे भाइयों के दरवाजे पर नहीं जाऊँगी।’
तब से प्रभुचरण के पिताजी ने अपनी बहन के साथ सम्बन्ध ही खत्म कर दिए थे। कहते थे, ‘उनका मुँह देखना भी पाप है।’

आजकल कानून लड़कियों के प्रति प्रसन्न है। उन पर वह अन्याय खत्म हो चुका है, वे पैतृक सम्पत्ति की हिस्सेदार हैं। फिर भी भाइयों के साथ वहन भी बराबरी का हिस्सा पाए, कितने पिता इसका अनुमोदन करते हैं ?’ वंश-धारा’ शब्द बड़ा शक्तिशाली है। लड़की तो वंश की अगली कड़ी को बढ़ाने का दायित्व बहन नहीं करती है ? अतएव कानून उसे जितना दे रहा है, उसमें भी काट-छाँट कर, नाप-जोख कर फिर देना चाहिए। और इसलिए तो ‘विल’ की जरूरत है।

प्रभुचरण भी इस ‘जरूरत’ को अनुभव कर रहे हैं, फिर भी शिथिल भंगिमा में बैठे हैं। मानों उन्हें सम्मन की ‘घंटी’ सुनाई नहीं पड़ी है। इसीलिए स्मृति-कक्ष का दरवाजा खोलकर वे अपने मँझले नाना के विल बनाने का दृश्य देख रहे हैं।....
उन दिनों ‘कृष्णकान्त का विल’ नामक पुस्तक बड़ी प्रसिद्ध हो रही थी। अकसर प्रभुचरण के मामा वृजविलास हँस-हँसकर कहते, ‘मँझले चाचा का विल तो बन रहा है। इधर-उधर से कोई रोहिणी आकर न उसे झपट ले जाए।’

सुना है मँझले नाना अंग्रेजों के साथ ‘जहाजी कारखाना’ बना कर काफी रुपया इकट्ठा कर चुके थे। उस पैसे के हकदार भाई नहीं थे, कानून होने की बात भी नहीं थी। पर उन दिनों कानून सख़्त था। उसके अनुसार संयुक्त परिवार में कोई कुछ भी कमाए, असल में सारी सम्पत्ति एक मानी जाती थी। एतएव मँझले नाना को दानपत्र लिखने के लिए ‘विल’ करना पड़ा था। लेकिन एक बार बना कर क्या वे शान्त हुए थे ? इतने दिनों बाद वह बात याद करके प्रभुचरण मुस्कुरा दिए। उनके अपने तीन बेटे और दो बेटियाँ थीं। पहला विल हर लड़की को पाँच-पाँच हजार देने का निश्चय करके अतिरिक्त लिखवाया। और मूल सम्पत्ति, तीनों बेटों में समान भाग में बाँट दी। इसके अतिरिक्त कुछ गृह देवता के नाम पर, बुजुर्ग पुरोहित जी के नाम पर और जो भतीजा सबसे अधिक मुँहलगा था, उसके नाम पर भी लिख-पढ़ दिया। उस वसीयत को गुप्त रखा उन्होंने फिर भी न जाने कैसे, इसका सारार्थ सारे घर की आब-हवा में तैरता फिरने लगा।

प्रभुचरण के पिता की बदली वाली नौकरी थी। अक्सर ही प्रभुचरण को अपने भाई, बहनों और माँ के साथ, मामा के यहाँ जाकर रहना पड़ता था। पिता नई जगह जाकर सब ठीक-ठीक कर लेते तभी स्त्री-पुत्र को अपने पास ले जाते। पत्नी और पुत्री साथ रहतीं पर लड़कों को पढ़ाई की सुविधा की दृष्टि से मामा के यहाँ छोड़ जाते। उन दिनों पाठ्य-पुस्तक स्कूलों में अलग-अलग तो थी नहीं। क्लास के अमनुसार सभी जगह एक ही थीं। भइया की पुरानी किताब से छोटा भाई, चाचा की किताब से भतीजा या मामा की किताब से भाँजा, यहाँ तक कि पड़ोस के बड़े-बूढ़ों की किताब पढ़कर मोहल्ले के लड़कों का पल जाना, एक स्वाभाविक बात थी। शायद ही कोई किताब न मिलती तभी खरीदने का प्रश्न उठता।

प्रभुचरण को याद आया, उस दिन सुन रहे थे घर की बर्तन माँजने वाली महरी अपनी लड़की की किताबों की नई लिस्ट लेकर घरों का चक्कर लगा रही है। लड़की फेल हुई है तो उससे क्या ? नई किताबें चाहिए। पिछले साल की किताबें नहीं चलेंगी।
प्रभुचरण के ज़माने में चलती थीं।
साल दर साल चलती थीं। उससे क्या विद्या-बुद्धि कम हो जाती थी ? कौन जाने ! आज के इस समाज में प्रतिष्ठित विद्वान व्यक्ति, चिन्तनशी शिक्षाविद्गण, दिमाग लड़ा कर खाने वाले राजपुरुष, सभी तो उसी पुरानी पद्धति में पढ़-सुन कर आदमी बने हैं।....क्या प्रभुचरण को विश्वास करना होगा कि आजकल के ये लोग उनसे ज्यादा ज्ञानी-गुणी हैं ?

सर्वत्र पाठय-पुस्तक एक ही होने से प्रभु-विभु की पढ़ाई में, पिता की बदली के कारण कोई विशेष बाधा नहीं पड़ती थी। दोनों भाई अपनी किताब-कॉपी लेकर मामा के यहाँ चले आते और महान् उत्साह के साथ अपने ममेरे भाइयों के साथ उनके स्कूल में पढ़ने जाने लगते।
बहनें दो थीं। वे माँ-पिताजी के साथ ही घूमा करतीं। उनका लड़कों की तरह पढ़ना कोई जरूरी नहीं था। एक स्लेट, एक ‘कथामाला’ या ‘बोधोदय’ नाम के वास्ते रहना काफी था।....असली शिक्षा तो थी माँ के पीछे-पीछे घूम कर रसोईघर एवं भण्डार-घर को पहचानना।
प्रभुचरण को याद है, वे दोनों भाई जब पढ़ने के लिए मामा के घर आते, बड़ी दीदी, छोटी दीदी कैसी दुखी और ईर्ष्याभरी दृष्टि से उन्हें देखतीं और दीर्घश्वास छोड़कर कहा करतीं—तुम लोग ही मज़े में हो। मर कर अगले जन्म में लड़का बनकर पैदा होऊँगी।’

दोनों ही बहुत दिन पहले मर चुकी हैं।....उसके बाद क्या उन्हें अपना ऐच्छिक जीवन प्राप्त हुआ है ? जानने का कोई उपाय भी नहीं है। यह एक आश्चर्यजनक बात है न ! कोई जानता तक नहीं है कि मर कर कहाँ जाया जाता है। मरने के बात कोई भी आकर ‘आखों देखा विवरण’ नहीं बता गया है। फिर भी उस अनजाने, अनदेखे, अनिश्चित जगत का लालन-पालन मनुष्य कितनी व्याकुल ममता से करता चलता है।...हो सकता है, तीव्र इच्छा और उसी इच्छापूर्ति के होने की हताशा से ही इस जगत् की सृष्टि हुई है। जो इच्छा वास्तव में पूरी होने की नहीं, जो स्वप्न, जो आशा सिर्फ शून्य में विलीन हो जाने के लिए है, उसी को यह सोचकर बाँध रखना—फिर कहीं, दूसरी जगह, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में। ‘जो कुछ इस जन्म में न मिल सका वही अगले जन्म में पा जाऊँगा, यह धारणा ही उसकी व्यर्थता के जले पर स्नेह का प्रलेप लगाती है।


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