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आँखों देखा पाकिस्तान

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 645
आईएसबीएन :9788170286417

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साहित्य और पत्रकारिता के मिले-जुले सरोकारों की किताब...

Aankhon Dekha Pakistan a hindi book by Kamleshwar - आँखों देखा पाकिस्तान - कमलेश्वर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पिछले दिनों कमलेशवर को पाकिस्तान जाने का अवसर मिला लेखकों के सम्मेलन में। वहाँ रहकर, छोटे-बड़े, सभी व्यक्तियों से मिलकर, पाकिस्तानी लेखकों और लेखिकाओं से खुले दिल से बातें करके, वहाँ की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को देख-भाल कर जो अनुभव उन्होंने प्राप्त किए, उन्हें अपने खास अन्दाज में लिखा है।

पाकिस्तान आज एक कठिन दौर से गुजर रहा है। अनेक विरोधाभासों, विषमताओं और विसंगतियों में लोग जी रहें हैं। जहाँ एक ओर गरीबों की पराकाष्ठा है तो दूसरी ओर अमीरी और जागीरदारी की। एक ओर सरकारी तौर पर शराबबन्दी है तो दूसरी ओर अमीरों के घर-घर में मयखाने खुले हैं। इन्हें पढ़कर आज के पाकिस्तान का सजीव चित्र आपके सामने आएगा।

इस पुस्तक का एक विशेष प्रसंग है उन कैदियों के पत्र जो उन्होंने कमलेशवर को लिखे। जो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के जेलों में कई वर्षों से बन्द हैं।

‘मेरी यह किताब साहित्य और पत्रकारिता के मिले-जुले सरोकारों की किताब है। सोचता हूँ तो बराबर यही लगता है कि लेखक के पास उसकी सोच का भी एक दिल होता है... एक बहुत मज़बूत और सरोकारों से भरा हुआ बेहद नाज़ुक दिल, जो हर ग़ैर-इंसानी बात पर तिलमिलाता, घबराता और परेशान होता रहता है। साथ ही उसके पास अपनी सभ्यता, संस्कृति और स्मृति की विरासत भी होती है...
इन्हीं तमाम बातों और सरोकारों का नतीजा है-यह किताब, जो अब पाठकों को समर्पित है !’’

 

वाघा बार्डर के उस पार

यह हम लेखकों के लिए भवनाओं और रोमांच से भरा सफर था, दिल्ली से लाहौर तक का। मौका था सार्क देशों के लेखकों का लाहौर में तीन दिवसीय आयोजन। सार्क के सात देशों के लेखकों-कवियों का दसवाँ सम्मेलन, जो पाकिस्तान की सांस्कृतिक राजधानी लाहौर से पहली बार हो रहा था। वैसे पिछले नौ सम्मेलनों में पाकिस्तानी प्रतिनिधी लगातार शामिल हुए थे लेकिन भारत-पाक के बीच फैली राजनीतिक खटास और जहरीले माहौल के कारण पाकिस्तानी लेखकों-शायर भारत की सरजमीं से होकर नहीं गुज़र पाते थे, क्योंकि हवाई, रेल और बस सेवाएँ राजनीतिक विद्वेष और दुश्मनी के कारण बन्द थीं। पिछला जो लेखक सम्मेलन मालदीव में हुआ था, उसमें शामिल होने के लिए पाकिस्तानी राजनीतिक रूप से एक-दूसरे के घनघोर शत्रु थे, भारत की दस लाख सेना युद्ध के लिए तैयार और तत्पर सरहद पर तैनात थी, तब भी भारत और पाकिस्तानी लेखकों के पास भावनाओं और भाई-चारे का भंडार था। लगता ही नहीं था कि हम दो दुश्मन देशों के लेखक आमने-सामने मौजूद हैं यह भावनाएँ राष्ट्र और देशों की सरहदें स्वीकार नहीं करतीं।

लाहौर में आयोजित इस दसवें लेखक सम्मेलन का आयोजन अकादमी ऑफ फाइन आर्टस एण्ड लिटरेचर की ही आधिकारिक संस्था फाउण्डेशन आफ सार्क राइटर ने किया था, जिसके पीछे पंजाबी-हिन्दी की जुनूनी लेखिका अजीत कौर की लगन, भावनाएँ और दिमाग लगातार काम कर रहा है। यह लेखिका दक्षिण एशिया में भाई-चारे, शान्ति और सद्भावना के लिए पिछले सत्ताइस वर्षों से सूफ़ी दरवेश की तरह सिर्फ अपने चरम लक्ष्य के लिए पागल हो चुकी है। और घरफूँक तमाशा देख रही है। इसे कहीं से पैसा नहीं मिलता तो यह अपनी बेटी विश्व प्रसिद्ध पेण्टर अपर्णा कौर की कलाकृतियों से आया पैसा इस साहित्यिक-सांस्कृतिक अभियान में झोंकती रहती है, लेकिन साहित्यिक सेतु बनाने से बाज़ नहीं आती। तो छह देशों-नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीप और भारत के लेखन दिल्ली में जमा हुए और सातवें सदस्य देश पाकिस्तान के सफर पर चले पड़े।

और यह इत्तफाक ही था कि लगभग पन्द्रह वर्षों बाद 10 मार्च को भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान दौरे पर गई थी और हम लेखकों का जत्था 11 मार्च को पाकिस्तान के लिए रवाना हुआ। वे हवाई रास्ते से गए थे, हम पैदली रास्ते से जा रहे थे। क्रिकेट टीम के लिए हार जीत का खतरा तो था पर जान-जोखिम का कोई मसला नहीं था। यह था तो सिर्फ राजनीतिक करतूतों और झूठे अहंकार के कारण, मानव-विरोधी रुख अपनाने वाले क्षुद्र नेताओं की वजह से हम लेखकों को कोई खतरा नहीं था। क्योंकि हमारे पास नानक, बुल्ले शाह और वारिस शाह के वह शब्द थे, जिनके हम वारिस हैं !
तो वाघा बार्डर से गुजराती हमारा पैदली सफर शुरू हुआ। नई दिल्ली से अमृतसर के लिए हम सब लेखक शताब्दी से रवाना हुए। पानीपत, कुऱुक्षेत्र, अम्बाला और लुधियाना क्रास किया। अम्बाला पहुँचने के पहले ट्रेन-परिचारिका ने बताया कि यह शहर भारतीय सेना और वायु सेना की बहुत बड़ी छावनी है। दिल को धक्का-सा लगा कि क्या अम्बाला की और कोई पहचान नहीं ? खैर.... इस झटके के बाद लुधियाना और फगवाड़ा क्रॉस करते ही सतलज नदी की धार दिखी और मन इतिहास और भूगोल की ओर मुड़ गया। साथ बैठे थे हिन्दी और पंजाबी के प्रखर युवा लेखक बलबीर माधोपुरी। वे पंजाब में रचे-बसे हैं। तरह-तरह की गहरी सांस्कृतिक स्मृतियों में वे डूबे हुए थे। जालंधर से गुजर कर ट्रेन अमृतसर की ओर बढ़ी और हमने व्यास दरिया पार किया तो बलरवीर ने कहा- शायद लाहौर जाते रावी दरिया भी दिखाई दे जाए... रावी का नाम आते ही तमाम ऐतिहासिक स्मृतियाँ कौंधने लगीं। भगतसिंह, भगवतीचरण, चन्द्रशेखर, यशपाल जैसे क्रान्तिकारियों की यादें और रावी किनारे ली गयी पं. नेहरू की सम्पूर्ण स्वराज की शपथ.. और सैकड़ों यादें।

पंजाब के खेतों में कोई पंजाबी या सरदार किसान काम करता नहीं दिखाई दिया। पूछा तो बलवीर माधोपुरी ने तफसील से बताया कि इस उपजाऊ इलाके को व्यास नदी ही सींचती रही है, लेकिन अब धरती का जलस्तर बहुत गिरा हुआ है। पहले 10-12 फुट पर पानी मिल जाता था। अब 40-50 फुट पर। यह तो हमारी हरित क्रान्ति का अग्रदूत और अन्न का गोदाम था। यहाँ आई खुशहाली ने पंजाबी किसान को बहुत एय्यार और आराम तलब बना दिया है... अब वे लस्सी नहीं, रम पीते हैं और ट्रेक्टर लेकर मौज मस्ती के लिए शहरों में जाते हैं। और मक्की दी रोटी और सरसों द साग नहीं मुर्गें-शुर्गे खाते हैं। उनके खेतों में बिहार और यू. पी. का मजदूर काम करता है। वह सरदार हो गया है, वह वाहे गुरु को मानता और गुरुवानी सुनता है, उसके बच्चे पढ़ते हैं, पंजाबी-सरदारों के बच्चे अंग्रेजी पढ़ते हैं... वे जमीन के मालिक जरूर हैं पर किसानी नहीं करते, इसलिए अब पंजाब की उपज लगातार गिर रही है !

आखिर हम अमृतसर में दोपहर का खाना खाकर, सीमा पर बसा आखिरी गाँव अटारी पार करके वाघा बार्डर पर पहुँचते हैं। मजदूरों की फौज मौजूद थी। वह सरों पर सारा सामना उठा लेते हैं और हम भारतीय कस्टम पार करके पाकिस्तान की सीमा वाले हिस्से में दाखिल होते हैं। उसी तरह पाकिस्तान मजदूरों की फौज। सामान की अदला-बदली होती है... मजदूरों की वही गरीब जमात। दोनों समान की अदला-बदली करते हैं। तो भारत को जवान मजदूर पाकिस्तान के बूढे़ मजदूर को हलका सामान थमाता है। तब दिल पूछता है, कहाँ है बँटवारे की रैडक्लिक लाइन जो हम दोनों को अलग करती है ? मजदूरों के दिलों पर तो कोई लाइन नहीं है। वे चाहे इधर हो या उधर, वे अपनी गरीबी और बड़े-बूढ़ों को पहचानते हैं....हम पाकिस्तानी कस्टम से गुजरते हैं। करैंसी बदलते हैं। सौ रुपये के एक सौ पच्चीस पाकिस्तानी रुपये। वही पानी, वही पसीना, वही हवा और आसमान, वही घास और पेड़। सीमा के दोनों ओर से बिना पासपोर्ट और बीसा के आती जाती चिड़ियां और भावनाओं का खामोश सैलाब। कहाँ थी सरहदें !

और उस पार खड़े पाकिस्तानी दोस्त-लेखकों का उमड़ता हुआ जज्बाती सैलाब। हमारा इन्तजार करती किश्वर नाहीद, इन्तजार हुसैन, मुन्नू भाई, कुछ नौजवान लेखक और पत्रकार। गुलाब के फूलों की मालाएँ और गेंदों के फूलों की बारिश। ढोल-ताशों का वही स्वर...शान्ति के लिए सरहद पर छोड़े गए कपोत ! कौन किस तरफ उड़ गया, पता ही नहीं चला। पर वे अपने पंखों के साथ शब्द की तरह आजाद थे।

लेखक सम्मेलन में बहुत जरूरी बातें हुईं। उन्हें विस्तार से बाद में लिखूँगा। सिर्फ यहाँ दो उद्धरण देना काफ़ी होगा। मैं 86 वर्षीय अहमद कासिमी साहब से उनकी पत्रिका ‘फनून’ के कार्यालय में मिला। वे पिछले दिन ही अस्पताल से आए थे। उनके कार्यालय में ग़ालिब, जिन्ना साहब और इकबाल की तस्वीरें लगी थीं। वे बोले- मजहब जो कर सकता था, उसके उसने कर दिखाया, अब मजहबी पहचान से ज्यादा इंसानी पहचान की जरूरत है, जो अदब हमेशा से पैदा करता रहा है। और मुन्नू भाई ने आखिरी शाम मज़ाक में कहा-हमारे यहाँ तो बस छावनी कल्चर बची है और फौजी ब्यूरोक्रेसी। यह अंग्रेजों की देन है। पाकिस्तानी फौज चार बार पाकिस्तान को जीत चुकी है... पर वे बुल्लेशाह, वारिसशाह और नानक के खानदानों को नहीं जीत पाई है... अपने सियासी हिन्दू हुक्मरानों से कहिएगा कि वे यह गलती न करें। वे तुलसीदास, मीराबाई, रसखान और अमीर खुसरो के खानदान को नहीं जीत पाएँगे !... और यह अकस्मिक नहीं था कि लाहौर क्रिकेट मैच में राष्ट्रपति मुशर्रफ के साथ जिन्ना साहब के भारतीय वंशज नुसली वाड़िया बैठे हुए थे और हमारे लेखक सम्मेलन में इक़बाल के बेटे जावेद इक़बाल शामिल थे।

 

जिये पाकिस्तान

 

तो हम 11 मार्च, 2004 की शाम को लाहौर पहुँच गए।
वाघा बॉर्डर के रास्ते सारे भारतीय व अन्य लेखक नहीं आए थे। अधिकांश हवाई रास्ते से आनेवाले थे। हम कुछ लोगों ने यही रास्ता चुना था। हमारा जत्था पंद्रह-बीस लेखकों का था जिसमें हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अग्रेंजी के मिले-जुले लेखक थे। हमारे जत्थे में नामवर सिंह, कुँवर नारायण, अशोक वाजपेयी, शमीम हनफी, बलबीर माधोपुरी आदि थे। वाघा बॉर्डर से आधे घण्टे में हम लाहौर पहुँच गए। होटल सनफोर्ट, गुलबर्ग में हमें ठहराया गया। वहाँ भी ढोल-ताशे से स्वागत किया गया। कमरा नम्बर 127 में, मैं और कुँवर नारायण एक साथ ठहरे। होटल साफ-सुथरा आरामदेह था।

पाकिस्तान को कई बार कई तरह से याद करना पड़ता है, क्योंकि एक बार के अनुभव आपको इस मुल्क की आत्मा तक नहीं पहुँचा सकते। मैं पिछली यात्राएँ याद करूँ तो पाकिस्तान एक रुका हुआ पर बहुत तेजी से भागता हुआ देश है। सन् साठ-सत्तर अस्सी के पाकिस्तान को याद करता हूँ तो सन् साठ के पाकिस्तान में बहुत कठमुल्ले किस्म के मुसलमान नहीं थे, पर वह अपनी इस्लामी पहचान को स्थापित करना चाहता था। भारत विभाजन के बाद जो मुसलमान पाकिस्तान पहुँचे थे, वे यहाँ के स्थानीय मुसलमानों से खुद को बेहतर मुसलमान मानते थे। इसका एक कारण शायद यह भी था कि इस्लामी सोच और उसके उसूलों को तय करने वाले दो आध्यात्मिक केन्द्र- देवबन्द और बरेली भारत में छूट गए थे। ऐसा कोई केन्द्र पाकिस्तान में नहीं था। मुलतान यदि था तो वह सूफी सोच का केन्द्र था, जिसे कट्टर मुसलमान मंजूर नहीं करता। अपनी खास इस्लामी पहचान के लिए जरूरी था कि पाकिस्तान पश्चिम एशिया की तरफ देखना शुरू करे यानि अरब और इस्लामी देशों की ओर। वैसे भी उस दौर का पाकिस्तान खुद को इस्लाम का ज्यादा विशुद्ध और अन्य देशों से बड़ा मजहबी पैरोकार मानता था।

भारत से पाकिस्तान गए मुसलमान उन भारतीय मुसलमानों को भी कमतर मुसलमान मानते थे, जो यहीं रह गए थे। वैसे तो पाकिस्तानी सामंत रुका हुआ समाज था जो बदलने से इनकार करता था, पर अपनी पहचान के लिए वह बुरी तरह तरस रहा था और उसे स्थापित करने में वह बेहद जल्दबाजी में था। इसलिए पहचान की स्थापना की। उसने पाकिस्तान को कुछ ऐसी ग़लत और आसान पहचान दी कि ‘पाकिस्तानी’ वह है जो हिन्दुस्तानी नहीं है।’ इस कारनामे को पाकिस्तान के लेखकों-कवियों ने नहीं, वहाँ उभरे नए राजनीतिक बुद्धिजीवी वर्ग ने अंजाम दिया। तो खैर......पाकिस्तान के लेखकों ने हमेशा मूल्य-केंद्रित सवालों को उठाया है, वे अपनी पहचान को लेकर भी परेशान या चिन्तित नहीं हैं। वहाँ के आम आदमी को अगर देखें और उससे भीतर के बारे में कुछ जानना चाहें तो वहाँ का साधारण जन दो बातें जानता है। एक तो कश्मीर और दूसरा हिन्दू। वह मानकर चलता है कि पार्टीशन हिन्दुओं की वजह से हुआ और कश्मीर को भारत के हिन्दुओं ने जबरजस्ती दबा रखा है। उन्हें नहीं मालूम कि भारत में मुसलमान भी रहते हैं और उनकी संख्या उनके देश की जनसंख्या से ज्यादा है। उनके लिए हिन्दू एक रहस्य है। मुझे देखकर लाब लहौर के एक खच्चरवाले ने तीन बार पूछा-आप हिन्दू हो ? क्या बाकी हिन्दू भी ऐसे होते हैं ?

जो लोग भारत से वहाँ गए हैं, वे हिन्दू को जानते-पहचानते हैं पर ब्राह्मण फोबिया से बुरी तरह ग्रस्त हैं उनके लिए हिन्दू का मतलब है ब्राह्मण या बनिया। उनकी नजर में दोनों ही बड़े कमीने लोग हैं चालाक भी और बदमाश भी। असल में काफी हद तक यह पाकिस्तानी पाठ्यक्रम का दोष है। वहाँ भारत और हिन्दू-सिक्खों के बारे में जो पढ़ाया जाता है वह बहुत ही विषैली जानकारियाँ पैदा करता है और उससे भी ज्यादा गंदा दिमागी माहौल बनाता है। जो अधकचरे विद्यार्थी निकलते या छोटे दर्जे पास करके आते हैं। उनके दिमाग पाठ्यक्रम की गलत जानकारियों से भरे रहते हैं। यह दोष उस आम नौजवान पाकिस्तानी आदमी का नहीं, यह दोष उस सिस्टम का है जो भारत विरोधी प्रचार पर पाला गया है। इसमें मुख्य भूमिका पाकिस्तानी फौज की है जिसने बार-बार नागरिक सत्ता हड़प कर, उसके तानाशाह जनरलों ने खुदा को और अपने फौजी एस्टेबलिशमेंट को सत्ता में टिके रहने और आराम-ऐय्याशी की जिन्दगी के गुजरने के औचित्य को वैध बनाने और खुद को जरूरी साबित करने के लिए भारत विरोधी और नफरत की भट्टियाँ गरम रखी हैं।

पाकिस्तान के लेखकों और कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रकारों ने इस फौजी जहनियत और पढ़ाए जानेवाले पाठ्यक्रम का हमेशा खुला और पुरजोर विरोध किया है, पर उनकी आवाज कब कारगर नहीं हो सकी। एक प्रसंग यहाँ याद आता है। अपने मशहूर शायर शहरयार साहब के छोटे भाई और उनका परिवार पाकिस्तान चला गया है। वह परिवार कराची में रहता है। अपने शहरयार साहब काफी बरसों के बाद छोटे भाई और बाल-बच्चों से मिलने कराची गए, तो करीब दस साल के भतीजे ने पूछा था कि आप हिन्दुस्तान में पाजामा-कुर्ता और शेरवानी पहन सकते हैं ? क्या आप वहाँ नवाज पढ़ सकते हैं ? भारत के बारे में जानकारियों का यह स्तर था, एक अपर-मिडिल क्लास में परिवेश पा रहे बच्चे का ! शहरयार साहब उसके ऐसे सवालों से बहुत दुःखी हुए थे कि इन्हें बताओ भी तो कोई कितना बताएगा, कितना और कब तक समझाएगा ? तो यह और ऐसा भारत विरोधी सिस्टम पाकिस्तान में तीन-चार पीढ़ियों हावी रहा है।

वैसे पढ़ा-लिखा पाकिस्तान इस हिन्दू-विरोधी और भारत विरोधी प्रचार से ग्रस्त नहीं है, वह बहुत खुले दिलो-दिमाग का मालिक है, पर सन् 1992 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाने के साथ-साथ भारत में जो हिन्दुत्ववाद की लहर चली और बोलबाला हुआ है, उससे पाकिस्तान का पढ़ा-लिखा वर्ग चिन्तित रहा है। गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के बाद तो पाकिस्तानी का मूड बहुत उखड़ा हुआ है। हालाँकि वे जानते और मानते हैं कि यह घोर अमानवीय कृत्य गुजरात के हिन्दुत्ववादी मुख्यमन्त्री नरेंद्र मोदी ने करवाया है, और वे इसे लेकर असहज हैं। हालांकि पाकिस्तानी पढ़े-लिखे तबके का भरोसा भारत के सेकुलर हिन्दुओं पर है, और वे जानते हैं कि भारत का सेकुलर हिन्दू इन तास्सुबी हिन्दुत्वादियों से लगातार लोहा ले रहा है, पर गुजरात के मुसलमानों के नरसंहार को लेकर उसका मन बेहद शंकित और उदास हो जाता है। वह निश्चय ही उसे ब्राह्मण हिन्दु का कारनामा मानता है, जो उसकी निगाह में विभाजन का असली जिम्मेदार है क्योंकि उनके ख्याल से उन्हीं ब्राह्मण ने भारत के मुसलमानों को नीचा और हेय मानकर बँटवारे के हालात पैदा किए थे।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भारत के सेकुलर चरित्र को मात्र दिखावा या मुखौटा मानते हैं हालाँकि वे खुद को लगातार ‘बेहतर पाकिस्तानी मुसलमान’ साबित करना चाहते हैं पर भारत से यह तवक्कों रखते हैं कि वह सेकुलर बना रहे और उसे सेकुलर ही होना चाहिए। उन्हें लगता है कि उन्हें सेकुलर होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान में रहते हुए उन्हें इस समाज-सांस्कृतिक मूल्य की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। पाकिस्तान असेम्बली (संसद) के एक सदस्य हैं-जनाब मन्नू भंडार। वे पारसी हैं पर सारे व्यवहारिक कारणों से उन्हें हिन्दू ही माना जाता है। उनकी ब्रुएरीज हैं यानी शराब और खासतौर से बीयर बनाने के करखाने ! इस्लामिक देश की वजह से पकिस्तान में सख्त शराब-बन्दी है पर सच्चाई यह है कि पाकिस्तान शराब में नहाता है। हालाँकि हमसे कहा गया कि मैं पाकिस्तान में शराब का परमिट बनवा लूँ क्योंकि हिन्दुस्तानी के लिए शराब पर पाबन्दी नहीं है, पर सच पूछिए तो लाहौर में परमिट की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। होटल में ही हम मेहमानों के लिए कमरे में शराब की पूरी सप्लाई रखी हुई थी। यह किश्वर नाहीम साहिबा का इन्तज़ाम था कि भारत का कोई लेखक प्यासा न रह जाए। फिर भी परमिट का सिस्टम जानने के लिए मैंने होटल सनफोर्ट में एक कारिन्दे से निवेदन किया।

उसने एक फार्म लाकर दिया जिसमें मुझे अपने पासपोर्ट के मुताबिक विदेशी होने का प्रमाण देना था। मुल्क वाले कॉलम में मैंने इण्डियन लिख दिया, तो होटलवाले ने ‘गुजारिश’ की मैं इण्डियन-हिन्दू लिख दूँ, क्योंकि भारतीय मुसलमान होने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। मैंने होटलवाले से कहा कि ‘हिन्दू’ न लिखूँ तो क्या परमिट नहीं मिलेगा ? उसने कहा जी हाँ हिन्दू या क्रिश्चियन लिखना ज़रूरी है। तो शराब लेकर यह पाखण्ड है पाकिस्तान में।
तो मन्नू भण्डारा साहब के यहाँ, वहीं लाहौर में सारे भारतीय पाकिस्तानी लेखकों की शराब की दावत थी। उसमें हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं था। तरह-तरह की शराबें मौजूद थीं, उन ब्राण्ड्स के अलावा जो मन्नू भण्डारा के कारखानों में ‘सिर्फ’ एक्सपोर्ट मार्केट के लिए बनती थीं। और तो और एक शाम तो होटल सनफोर्ट में ही एक साहब ने हमें सभी भारतीयों को दारू की दावत पर आमन्त्रित किया था।

बीच-बीच में भाई अहमद फराज के फोन आते थे- यहीं आ जाइए मेरे होटल में.....वहाँ तो कच्ची ही होगी, यहाँ स्कॉच है।
मन्नू भण्डार के यहाँ ही बातचीत के दौरान पता चला कि कराची-सिन्ध में काफी हिन्दू हैं और बेखटके रहते हैं। हिन्दू हैं और बेखटके रहते हैं। वह पार्टीशन के दिनोंवला गैर-इंसानी-मजहबी जुनून अब नहीं है। वे अपने घरों में हिन्दू हैं, पूजा पाठ करते हैं, अगर पार्टीशन के वक्त ढहाए जाने से बच गए हैं तो वे उन मन्दिरों में भी जाते हैं और जैसा कि जिन्ना साहब ने पाकिस्तान बनने के वक्त कहा था। अपने मजहब को कोई भी मानता रहे, पर सिविक लाइफ में पाकिस्तानी है, तो घर में सिन्धी हिन्दू भी हिन्दू है पर बाहर वह पाकिस्तानी है ! नामों में ज़रूर फर्क आया है। यहाँ हिन्दुओं के नाम न्यूट्रल से हो गए हैं, जैसे क्रिकेट प्लेयर कनेरिया हिन्दू है, उसका नाम दानिश वहाँ की कल्चर से मेल खाता है। नहीं तो उसका नाम दिनेश कनेरिया भी हो सकता था।

इस मसले पर वहीं की पाकिस्तानी दोस्त ने टिप्पणी की कि जैसा कि आजकल आपके मुल्क में हिन्दुत्वादी चाह रहे हैं, वे हिन्दू कल्चर के रंग में सबको रंग देना चाहते हैं कुछ वैसा ही जुनूनी दौर पार्टीशन के वक्त यहाँ चला था.... मुश्किल यह थी कि कल्चर के दबाव में आदमी और उसके कुनबे के नाम तो बदले जा सकते थे, वह तो हुआ, पर नीम, पीपल, आम वगैरह पर कल्चर का असर नहीं पड़ा, वे नाम वैसे ही हैं। यहाँ तक कि ईसाइयों को, जिनके रिश्ते मुसलमानों से बहुत नजदीकी थे, ताजा इस्लाम के झोंकों में उन्हें भी जोसेफ से यूसुफ बनना पड़ा।

कश्मीर को लेकर तो अच्छे-से-अच्छा पढ़ा-लिखा पाकिस्तानी भी भारत और भारत के नेताओं और चालाक ब्राह्मणों से बहुत नाराज है। वे यह भी मानते हैं कि इसकी वजह से पाकिस्तान के फंडामेण्टलिस्टों-जेहादियों को शह मिल गई है। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात में मुस्लिम नर-संहार के बाद वहाँ के समझदार तबकों को खामोश होना पड़ा है। वैसे एक महीन बात मैं यहाँ ज़रूर दर्ज कर देना चाहूँगा कि सरकार में बैठा छोटा और बड़ा बाबू तब मन ही मन खुश होता है जब भारत से हिन्दू-मुसलमान दंगों की खबरें वहाँ पहुँचती हैं। सही बात यह है कि आम आदमी तो नहीं, लेकिन वह फौजी, जो फौजी फौज की वर्दी उतारकर सिविल पोशाक में आ चुका है और सरकारी महकमें चलाता है, वह हर उस बात को महत्त्वपूर्ण समझता, बताता और मानता है जो पाकिस्तान के निर्माण को तार्किक मजबूती देता है। जो मुसलमान वहाँ सदियों से मौजूद है और जिसने विभाजन और विस्थापन का अनुभव किया नहीं किया है, वह समझ ही नहीं पाता कि पाकिस्तान आखिर क्यों बना है ? सच पूछिए तो उसे कश्मीर से भी कुछ खास लेना-देना नहीं है। भीतरी इलाकों का पाकिस्तानी-सिन्धी तो कश्मीर विवाद से परिचित भी नहीं है।

भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को लेकर एक असलियत को समझना बहुत जरूरी है। अपने इन दोनों देशों के बीच जो मसले और कड़वाहट है या रही है वह खासतौर से सरकारी, फौजी, भारत से गए मुसलमानों, सरकारी अमलों, राजनेताओं और धार्मिक जमातों के कठमुल्लों के कारण ज्यादा है अन्यथा औसत पाकिस्तानी के दिलो-दिमाग में हिन्दुओं और हिन्दुस्तानियों के लिए नफरत नहीं है। अगर औसत और आम पाकिस्तानी के दिल पर हाथ रखकर पूछिए तो वह ईस्ट पाकिस्तान के बंगला देश बन जाने से नाराज नहीं है। बांग्लादेश बनने और वहाँ शर्मनाक शिकस्त खाने से पाकिस्तान का पुराना फौजी बहुत नाराज है। उस पुराने फौजी ने ईस्ट पाकिस्तान में हुई हार के जख्मों के लिए आज भी भारतीय फौज को माफ नहीं किया है जिसके सामने उसे ढाका में हथियार डालने पड़े थे और उन बंगालियों की वजह से भारतीय फौज के सामने शर्मशार होना पड़ा था, जो उनकी नजर में दोयम के पाकिस्तानी थे।

असल में पाकिस्तानी का तीन पीढ़ी पहले का मुलसमान आज भी खुद को भारत या बंगाल के मुसलमानों से ज्यादा बेहतर मुसलमान समझता है, पर पाकिस्तान में अब ऐसे मुसलमानों की वह पीढ़ी तो खत्म हो चुकी या हो रही है जो सिर्फ इस्लाम के नाम पर अपने को दूसरों से ज्यादा शुद्ध या बेहतर मुसलमान मानती थी। बंगाल के मुसलमान को लेकर उनके या नयी पीढ़ी के मुसलमान के दिल में अब कोई मलाल नहीं है। असल में देखा जाए तो उनके लिए पार्टीशन के बाद, अब पंजाब का हिन्दू उस बंगाली मुसलमान से कहीं ज्यादा नजदीक और अपना है, क्योंकि बंगला भाषा और संस्कृति से उनका सामना नहीं पड़ा था। मुस्लिम अक्सरियत का सिद्धान्त नाकाम हो गया था। पाकिस्तान की कोई स्मृति आम पाकिस्तानी को नहीं है। पराजय और देश टूटने की वह स्मृति फौजी तन्त्र और खुर्राट सरकारी अफसरों को है, इसे लेकर वे भारत का विरोध करते हैं।



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