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गुरु नानक जीवन और शिक्षाएँ

रूपिन्दर सिंह

प्रकाशक : रूपा एण्ड कम्पनी प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :83
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7088
आईएसबीएन :81-291-1145-4

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गुरु नानक के जीवन और उनके उपदेशों का आकर्षक चित्रण...

Guru Nanak Jivan Aur Shikshayein - A Hindi Book - by Rupindar Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु नानक का जन्म 1469 में हुआ। आपने कहा कि ईश्वर एक है। ईश्वर के संदेश का प्रचार-प्रसार करने के लिए आपने दूरदराज के क्षेत्रों की यात्राएँ कीं। धर्म-प्रचार के लिए उनका अनोखा तरीका था जिसमें उन्होंने सूक्ष्म कटाक्ष, हास्य-व्यंग्य और चेतावनी का भी प्रयोग किया ताकि उनका संदेश उनके सम्पर्क में आने वाले सभी अमीर-गरीब, पुरुषों और महिलाओं में समान रूप से पहुँचे।
कर्मकाण्ड के विरोध में आपने अथक संघर्ष किया। आपने मानव द्वारा निर्मित जाति-धर्म की सीमाओं को ध्वस्त करते हुए एक ऐसे धर्म की स्थापना की जिसके दुनिया में 2.3 करोड़ अनुयायी हैं। इस पुस्तक में गुरु नानक के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन है इस पुस्तक में मुख्यतः तीन बातों का महत्व दर्शाया गया है। पहली प्रातः कालीन प्रार्थना जपुजी साहब, दूसरी संगत एवं लंगर संस्थान और तीसरे महिलाओं की दशा में सुधार लाने का गुरु साहेब का संदेश है। पुस्तक में गुरु नानक के जीवन चरित्र को 18वीं शताब्दी के दुर्लभ लघु चित्रों, रेखाचित्रों एवं 19वीं शताब्दी की जन्मसाखी की श्रृंखलाओं के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। नक्शों के द्वारा गुरु नानक की यात्राओं के वर्णन में मदद मिली है।

आमुख

गुरु नानकदेव के बारे में इस पुस्तक के हिंदी संस्करण का आमुख लिखते समय ये शब्द मेरी भावनाओं को, आधे अधूरे ढंग से ही सही, प्रकट करते हैं। मैं उन पाठकों और विद्वानों का आभारी हूं जिन्होंने दो वर्ष पूर्व अंग्रेजी में इस पुस्तक के प्रकाशन को हाथों हाथ लिया।
गुरु नानक के बारे में हिन्दी में यह पहली पुस्तक नहीं है। कुछ लोग पाठकों का ज्ञान बढ़ाने के लिए लिखते हैं, परंतु मैं ऐसा दावा नहीं कर सकता। यह पुस्तक गुरु नानक देवजी के व्यक्तित्व और उनकी शिक्षाओं का एक छोटा सा झरोखा है।
गुरु नानक देव को जानने और समझने के लिए बहुत से कारण हैं। गुरु नानक ने दुनिया के सबसे नए पंथ की स्थापना की। हिन्दू, बौद्ध, जैन, इसाई तथा इस्लाम धर्म सिख पंथ से पुराने हैं। गुरुजी द्वारा स्थापित सिख पंथ का भारत तथा विदेशों के कई विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में अध्ययन किया जाता है। उनके अनुयायियों ने पूरी दुनिया में अपना घर बनाया है। कनाडा की आबाकी में सिखों की संख्या पूरे दो प्रतिशत है।
गुरु का संदेश मौलिक भी है और स्पष्ट भी। उन्होंने अलग-अलग मान्यताओं वाले संतों से विचारों का आदान-प्रदान किया और उस दौर में, जब कट्टरपंथी सोच लोगों की संकीर्णता के रास्ते पर ले जा रही थी, उल्लेखनीय उदारता का प्रदर्शन किया। उनकी कथनी-करनी में फर्क नहीं था। वह विद्वानों से विचारविर्मश करके लगातार अपना ज्ञान बढ़ाते और आसपास के वातावरण को सुधारते रहे। दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों के दरवाजे उस युग में एक दूसरे के लिए खुले रहे थे। गुरु नानक ने अपना संदेश हजारों लोगों के दिल-दिमाग तक पहुँचाया। वह भारत में तथा भारत से बाहर हिन्दुओं तथा मुस्लिम समुदाय के अनेक पवित्र तीर्थ स्थानों में गये। वह उस युग में इस्लाम के दो महत्त्वपूर्ण केन्द्रों- मक्का तथा बगदाद- तक गए और हिन्दू धर्म के तीर्थस्थलों कुरुक्षेत्र, हरिद्वार और जगन्नाथपुरी भी गये। वह सुमेरु पर्वत, जिसे अब कैलाश पर्वत कहा जाता है, पर भी गए जहां उन्होंने पहुंचे हुए त्यागी सिद्ध योगियों से विचार विमर्श किया।
नए लोगों से मिलने और विचार विमर्श करने के गुरु नानक के उत्साह पर हैरानी होती है। उनका अमीरों-गरीबों, संतों-सूफियों तथा ठगों-डाकुओं से सम्पर्क हुआ। उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों से सम्पर्क किया और अपना नया संदेश भी सुनाते रहे। गुरु नानक आध्यात्मिक शब्दों की बारीकियां समझाने तक सीमित नहीं रहे, उनके ज्यादातर उपदेशों में सामायिक घटनाओं की चर्चा थी। ईश्वर एक है और सभी मनुष्य भाई-भाई हैं के अपने संदेश उन्होंने अलग-अलग संस्कृतियों के अनुभवों से जोड़ कर बताए। उनके संदेश और दृष्टिकोण में अपूर्व गहरायी थी।
जिन लोगों ने गुरु नानक के जीवन और दर्शन का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि उसके उपदेशों को बहुत अच्छी तरह संजोया-संभाला गया है, पर उनके जीवन वृत्तांत के बारे में, विशेषतः जन्म सखियों में अंकित विवरणों के बारे में, यह बात नहीं कही जा सकती। इनमें कालक्रम का पूरा ध्यान नहीं रखा गया है जिसका इतिहासकारों के लिए विशेष महत्त्व होता है। जन्म सखियां, जिनका लेखन इतिहासकारों के अनुसार 17वीं सदी के शुरू में हुआ, स्पष्ट रूप से यशोगान की शैली में लिखी गयी हैं। इनमें दर्ज ब्यौरे पर भाई गुरुदास (1544-1637) के आधिकारिक लेकिन संक्षिप्त लेखन (वारों) का असर भी स्पष्ट देखा जा सकता है।
इस पुस्तक में गुरु जी के जीवन और संदेश का संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत किया जा रहा है। यह विवरण विद्वानों की पुस्तकों, जिनकी सूची अंत में दी गयी है, और सिख परिवारों में प्रचलित मौखिक परम्पराओं पर आधारित है।
चित्र इस पुस्तक का एक प्रमुख हिस्सा हैं क्योंकि वे कई तरह से इस विषय को बेहतर ढंग से समझने में हमारी मदद करते हैं। गुरु जी के जीवनकाल में बनाया गया उनका कोई चित्र उपलब्ध नहीं है। जो भी चित्र सुलभ हैं वे कल्पना और अनुमान पर आधारित हैं। सभी पुराने चित्र गुरुनानक के जीवनकाल के लगभग 150 वर्ष बाद उस युग में प्रचलित भारतीय मिनिएचर शैली में हैं। गुरु नानक और अन्य गुरुओं के अधिकांश चित्र 18वीं के सदी  शुरू के वर्षों के हैं तथा इन पर कई शैलियों, जैसे पहाड़ी शैली, का बहुत असर देखा जा सकता है। इस पुस्तक में शामिल अधिकांश चित्र गुलेर के कलाकर नैनसुख के परिवार की चित्रशाला में बने हैं। भारतीय चित्रकला के विशेषज्ञ प्रोफेसर बी एन गोस्वामी ने नैनसुख की चर्चा एक छोटे पहाड़ी राज्य के महान भारतीय चित्रकार के रूप में की है। पहाड़ी चित्रकला के क्षेत्र में प्रोफेसर गोस्वामी के अध्ययन ने आधुनिक भारतीय विद्वानों के काम को गहरायी तक प्रभावित किया है। ऐसे कर्मठ प्रोफेसर का मार्गदर्शन मेरे लिए सौभाग्य का विषय रहा है। पुस्तक में शामिल चित्र उनके अनुसार एक गुलेर श्रृंखला का हिस्सा है और इन्हें संभवतः प्रतिलिपियां बनाने के लिए मूल आधार के रूप में इस्तेमाल किया गया होगा।
रंग रहित कागज पर ब्रुश व कलम से बने चित्रों की यह श्रृंखला का हिस्सा है और इन्हें संभवतः प्रतिलिपियां बनाने के लिए मूल आधार के रूप में इस्तेमाल किया गया होगा।
रंग रहित कागज पर ब्रुश व कलम से बने चित्रों की यह श्रृंखला और इन पर आधारित अपारदर्शी रंगों से बने कुछ चित्र चंडीगढ़ के राजकीय संग्रहालय एवं कलादीर्घा के संग्रह में हैं। मैं संग्रहालय के निदेशक विद्यानंद सिंह के सहयोग एवं सहायता के लिए उनका विशेषकर आभारी हूं।
इस पुस्तक में जन्म साखी चित्रों की एक अन्य श्रृंखला का भी इस्तेमाल किया गया है जो संवत 1781 (1724 ईस्वी) की है। अब तक अप्रकाशित ये चित्र मुगलकाल के उत्तरार्ध की प्रादेशिक शैली में हैं। ये चित्र छठे हुरु हरगोविंद साहिब जी की यशोकृपा से जुड़े बागड़ियां परिवार के पास सुरक्षित जन्म साखी में शामिल हैं। इनका प्रकाशन सिकन्दर सिंह भाई की अनुकम्पा से हो सका है।
मेरे माता पिता सरदारनी इंदरजीत कौर तथा ज्ञानी गुरदित सिंह विद्वान भी हैं और श्रद्धालू सिख भी। इस पुस्तक के लेखन के दौरान मैंने उनकी उदारता तथा सहायता का तरह-तरह से लाभ उठाया है। अंग्रेजी पांडुलिपि की तैयारी के दौरान कई मित्रों के धैर्य की परीक्षा ली थी। मैं उनकी मदद और सलाह के लिए शुक्रगुजार हूं।
पुस्तक के हिन्दी अनुवाद की प्रेरणा मुझे श्रीमती सरोज शर्मा ने दी। इस परियोजना में बहुमूल्य सहयोग के लिए मैं सदा उनका आभारी रहूंगा। हमेशा की तरह मैंने अपने मित्रों और सहयोगियों की भी मदद ली है—अशोक मलिक, सुरेंद्र सिंह तेज तथा संदीप जोशी ने मेरी बहुत सहायता की है। मैं डॉ. त्रिलोचन सिंह तरसी के सहयोग के लिए भी आभारी हूं— उनका सहयोग अंग्रेजी पांडुलिपि के लेख के दौरान शुरू हुआ और हिंदी संस्करण की तैयारी में भी जारी रहा।
पुस्तक की जिल्द पर छपा चित्र मेरे व्यक्तिगत संग्रह से है। जपुजी संबंधी अध्याय में शामिल अनेक चित्र ज्ञानी गुरदित सिंह के संग्रह से हैं जो 60 वर्ष से गुरु ग्रंथ साहब की पांडुलपियों पर शोध कार्य कर रहे हैं।
इस पुस्तक में शामिल नक्शे प्रोफेसर फौजा सिंह एवं डॉ. कृपालसिंह द्वारा रचित अपनी तरह की पहली पुस्तक एटलस : ट्रेवल्स ऑफ गुरु नानक के लिए गए हैं। इसका प्रकाशन 1976 में पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला से हुआ तथा इसका आमुख मेरी माता ने लिखा है जो उस विश्वविद्यालय की तत्कालीन कुलपति थीं। नए नक्शे बनाने में के बी के अन्फोग्राफिक्स, नई दिल्ली के विजय कुमार एवं रमनीक सिंह की सहायता के लिए मैं उनका बहुत आभारी हूं।
इतिहास के बारे में हमारा दृष्टिकोण बनाने में सिक्कों के अध्ययन का भी विशेष महत्त्व है। वर्ष 1710 से 1856 तक प्रचलन में रहे सभी सिख सिक्कों पर गुरुओं और परमात्मा का नाम होता था। इन सिक्कों पर गुरुओं के चित्र नहीं थे जबकि शगुन के रूप में रखे जाने वाली मुद्राओं पर ऐसे चित्र पाए गए हैं। पुस्तक में ऐसा मुद्राओं पर आधारित कुछ चित्र हैं— इनमें से कुछ मुद्राएं मेरे व्यक्तिगत संग्रह में हैं तथा अन्य सिक्का संग्रहकर्ता डॉ. सुरेंद्र सिंह के संग्रह में हैं।
इस पुस्तक का लेखन मेरे लिए एक शिक्षाप्रद अनुभव रहा है। आशा है, यह प्रयास कुछ हद तक ही सही, सिख पंथ के संस्थापक के जीवन और शिक्षाओं को पाठकों के और निकट लाने में सफल होगा। मुझे आशा है कि इसे पढ़ कर पाठकों में इस बारे में और जानने की इच्छा व रुचि बढ़ेगी।

रूपिन्दर सिंह

गुरु नानक का संदेश

‘‘कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है सभी भगवान की सृष्टि में उसके द्वारा सृजित प्राणी हैं।’’
हरिद्वार में गुरु नानक ने उन तीर्थयात्रियों को पूर्व की ओर मुँह करके जल तर्पण करते देखा जिनका विश्वास था कि यह जल स्वर्ग में रह रहे उनके पूर्वजों को तृप्त करेगा। हिंदुओं की इस प्राचीन प्रथा को देखकर गुरु नानक जी ने पश्चिम की ओर मुँह करके जल चढ़ाना शुरू कर दिया। जब उनसे ऐसा करने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे उसे कुछ सौ मील दूर, अपने खेतों तक पहुँचा रहे हैं। उनका तर्क था, जब हिंदुओं द्वारा तर्पण किया गया जल स्वर्ग तक पहुंच सकता है तो मेरा चढ़ाया जल मेरे खेतों तक क्यों नहीं पहुंच सकता।
*
मक्का में गुरु नानक देव आराम कर रहे थे। सोते-सोते उनके पैर काबा की दिशा में मुड़ गए। एक काजी ने गुस्से से कहा, यह कौन अधर्मी खुदा की तरफ पैर करके सो रहा है ? गुरु नानक देव ने तुरंत पलटकर जवाब दिया, ‘‘मेरे पैर उस दिशा में कर दें जहाँ खुदा न हों’।


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