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पीले गुलाबों के साथ एक रात

पुष्पा सक्सेना

प्रकाशक : पुस्तकायन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7187
आईएसबीएन :0

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डॉ० पुष्पा सक्सेना की प्रेम पर आधारित कहानियों का संग्रह...

Peeley Gulabon Ke Sath Ek Raat - A Hindi Book - by Pushpa Saxena

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत की लगभग सभी पत्रिकाओं में प्रकाशित डॉ० पुष्पा सक्सेना की इन कहानियों का मूल विषय प्रेम है, जिसमें अनुभूतिजन्य भावुकता और अन्तस् में गहरे पैठ जाने वाली मार्मिकता है। धर्मयुग में प्रकाशित ‘‘पीले गुलाबों के साथ एक रात’’ तथा ‘‘वर्जिन मीरा’’ का सुप्रसिद्ध साहित्यकारों द्वारा गुजराती एवं मराठी में अनुवाद किया गया है।
पाठकों की सम्मति में उनकी कहानियों को जितना भी पढ़ो दिल ही नहीं भरता; कहानियाँ मन को भिगो जाती हैं और आँखें अनायास ही नम हो जाती हैं। पुष्पा सक्सेना की कहानियों पर आधारित राँची दूरदर्शन द्वारा चलचित्र का निर्माण एवं कई नाट्य-शिविरों के दौरान मंचन किए गए हैं। कहानियों का सहज प्रभाव पाठकों को बांधे रखता है।

अनुक्रम


१. वर्जिन मीरा
२. उसके नाम का पत्र
३. दूरियों का साथ
४. बाहों में सिमटा आकाश
५. औरत एक पैबन्द लगा दिल
६. बर्फ के आँसू
७. आग
८. अनछुआ पल
९. पीले गुलाबों के साथ एक रात
१॰. एक चिंगारी छोटी-सी
११. विकल्प नहीं कोई
१२. सपनों के इन्द्रधनुष

वर्जिन मीरा


डिनर के बाद प्लेजर ड्राइव पर जाते प्रतीक ने पूछा था, ‘‘यहाँ कोई बार देखा है, आंटी ?’’
‘‘बार ? भला बार से मेरा क्या नाता ? क्या करूँगी मैं वहाँ जाकर ?’’
‘‘वाह ! यू०एस०ए० घूम रही हैं और बार में नहीं गईं। चलिए आज वहाँ ‘कोक’ पीकर आते हैं।’’ मुड़कर पीछे बैठे सुनील से प्रतीक ने पूछा था, ‘‘एनी ऑब्जेक्शन ?’’
‘‘मुझे क्यों होने लगा ? पर पर्स नहीं लायी हूँ।’’

‘‘ओके ! आज आंटी के लिए मेरी ही पर्स सही। ’’ प्रतीक ने कार दूसरी दिशा में मोड़ दी थी।
‘‘पर मेरे कपड़े... मैं तो घरवाली साड़ी पहने हूँ। वहाँ इतने लोग होंगे, उनके बीच कैसी लगूँगी ?’’ उन साधारण कपड़ों में मेरा संकोच स्वाभाविक ही था।
‘‘यही तो यहाँ अच्छाई है आंटी ! कोई किसी का नोटिस ही नहीं लेता। सब अपने में मस्त रहते हैं।’’ सुनील ने ठीक ही कहा था।

चौराहे के एक कोने पर जगमगाता रेस्तराँ कार में दूर से ही दीख गया था। सामने खुले बरामदे में ढेर सारे युवक-युवतियाँ बैठे थे। तीव्र विद्युत-प्रकाश में लड़कियों के रंगीन परिधान, आभूषण झिलमिला रहे थे। गर्मियों में दिन के समय उन्हें बस शार्ट्स और बनियान में ही देखती थी। इस समय वे पूर्ण रूप में सजी हुई थीं। बार में प्रवेश करते प्रतीक ने परिहास किया था, ‘‘आंटी आप अठारह वर्ष के ऊपर हैं न–वर्ना यह सामने खड़ा बाउंसर बाहर कर देगा। यहाँ के बार में अठारह वर्ष से कम आयु वाले नहीं आ सकते, इसीलिए हम अपना आइडेंटिटी-कार्ड अपने साथ रखते हैं। देवाशीष, तू अपना कार्ड लाया है न ?’’
‘‘मेरी फिक्रमत कर ! इतना स्मार्टली निकल जाऊँगा कि तू देखता रह जाएगा। टेक केयर ऑफ आंटी।’’ देवाशीष अपने भुलक्कड़ स्वभाव के लिए मित्रों के मध्य प्रसिद्ध था।

बालों को सँवारता देवाशीष सबसे आगे निकल गया था। मेरी ‘बार’ की कल्पना को झुठलाता वह बार भारत के किसी रेस्तराँ जैसा लगा था–वही उत्फुल्ल वातावरण, वहीं रंगीन जलता-बुझता प्रकाश अपनी आभा बिखेर रहा था। क़ॉलेज होस्टल निकट होने के कारण अधिकांश भीड़ युवा विद्यार्थियों की थी। अन्दर किसी उत्सव का-सा दृश्य था। साथ बैठे युवक-युवतियाँ नितांत स्वाभाविक थे। बीच-बीच में एक-दूसरे के प्रति स्नेह-प्रदर्शन हेतु चुम्बन लेना, कन्धे या कमर गुदगुदाना अब बहुत सामान्य-सा लगने लगा था।

हॉल के मध्य हमने जो जगह अपने बैठने को चुनी, वहाँ से पूरे हॉल का दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। प्रतीक और सुनील पेप्सी लेने काउंटर पर चले गए थे। यह शीतल पेय यहाँ कोक की प्रतिस्पर्द्धा में तेजी से उभर आया है। दाहिनी ओर दृष्टि जाते ही निगाह उस अकेली लड़की पर ठहर गई थी। खिड़की के पासवाली टेबुल पर गिलास और बोतल के साथ सबसे उदासीन वह शांत बाहर ताक रही थी। प्रतीक के आते ही मेरे मुँह से निकल गया था, ‘‘इतनी भीड़ में यहाँ उसे यों अकेली देख बड़ा ताज्जुब हो रहा है।’’

दृष्टि मुड़ते ही प्रतीक ने कहा था, ‘‘ओह, वह तो वर्जीनिया है। कभी न लौटनेवाले का इन्तजार कर रही है बेचारी।’’
‘‘क्यों, क्या उसकी मृत्यु हो गई और इसे पता नहीं ?’’
‘‘अरे नहीं आंटी, आप उस ऋषि-पत्नी शापग्रस्त अहल्या की कहानी जानती हैं ? हमारे एक भारतीय भाई ने इसे अहल्या बना छोड़ दिया है। मिलना चाहेंगी ?’’
‘‘उसके बारे में कुछ बताओगे तभी तो...’’
‘‘अपने में बन्द प्रस्तर-प्रतिमा समझ लीजिए। लाख कोशिशों के बावजूद कोई उसे पिघला नहीं सका है। आइए न !’
प्रतीक के साथ जबरन खिंची-सी चली गई थी। टेबुल के पास पहुँच प्रतीक ने कहा था, ‘‘हाय वर्जीनिया ! मीट माय आंटी फ्रॉम इंडिया।’’

‘इंडिया’ शब्द ने मानों उसे सचेत कर दिया था। बड़ी-बड़ी उदास पलकें मुझ पर निबद्ध कर झुका ली थीं। बैठने का निमन्त्रण मिले बिना ही सामने की कुर्सी बाहर खींच प्रतीक ने मुझे बैठने का संकेत किया था। वर्जीनिया के मौन को प्रतीक की बातें मुखरित कर रही थीं। ‘‘जानती हो, लिखना आंटी की हॉबी है। अभी थोड़ी देर पहले दस स्टूडेंट्स का इंटरव्यू खत्म किया है। आंटी, आप वर्जीनिया का इंटरव्यू ले लीजिए। तुम अपना इंटरव्यू कब दोगी, वर्जीनिया ?’’
‘‘नाइस मीटिंग यू, मुझे जाना है।’’ अपना आधे से अधिक पेय और हमें छोड़ पर्स उठा वर्जीनिया चली गई थी।
प्रतीक मेरे समक्ष बहुत लज्जित हो उठा था, ‘‘आंटी, यही तो उसकी ट्रेजिडी है। बहुत सेंटीमेंटल है वर्जीनिया। जब से रवि गया है, अपने को एकदम अकेली कर लिया है। कभी हर डांस-पार्टी की जान हुआ करती थी वर्जीनिया। शायद कोई भारतीय लड़की भी अपना अफेयर इतनी सीरियसली नहीं लेगी !’’

घर लौटते समय भी प्रतीक वर्जीनिया की ओर से सफाई दिये जा रहा था। देवाशीष झुँझला उठा था, ‘‘अरे, बस भी कर यार ! तूने तो हद ही कर दी। बिना बात आंटी को बोर कर रहा है। हाँ, आंटी, आपने डिफरेंस देखा–यहाँ बार में लोग एंजॉय करने आते हैं, ड्रंक होने नहीं। कितना संयत वातावरण था न ! हमारे यहाँ की मधुशालाओं-सा हो-हल्ला कहीं नहीं मिलता।’’
‘‘हूँ।’’ कहकर मैं मौन रह गई थी। कल्पना में वर्जीनिया का उदास मुख उभर रहा था।
अपार्टमेंट में पहुँच प्रतीक से प्रश्न किया था, ‘‘कौन था रवि ? कहाँ चला गया है ?’’
‘‘आप अब भी उसी बारे में सोच रही हैं न, आंटी ?’’
‘‘हाँ, कुछ उत्सुकता तो हो ही गई, तूने उसे ‘अहल्या’ जो कहा था !’’

‘‘दुःख तो यही है उसे ‘अहल्या’ का रूप देनेवाला रवि कोई मर्हिष या महात्मा नहीं, एक बुजदिल, कायर बल्कि मेरी दृष्टि में निहायत गिरा हुआ इन्सान था। एक मामूली देसी ब्रांड दन्त-मंजन के साथ रामायण और गीता की प्रतियों के साथ यहाँ आया था। पिता भारत में किसी मन्दिर के पुरोहित थे। उन्हीं के एक यजमान की कृपा से यहाँ आने का खर्चा तो जुट गया था, पर यहाँ की पढ़ाई की भारी फीस और अन्य खर्चों के लिए उसके साधन अपर्याप्त थे। होस्टेल के कुछ लड़कों के साथ रवि ने कारें धोने का काम शुरू कर दिया था। कॉलेज से लौटने के बाद सड़क के किनारे ट्रैफिक के पास खड़े होकर लड़के बारी-बारी से ‘कार-वॉश’ की आवाजें लगाते थे। सिर्फ तीन डॉलर में वे लड़के कार धोकर चमका देते थे।
उस दिन ट्रैफिक लाइट के पास वर्जीनिया की गाड़ी जैसे ही रूकी, रवि ने पास जाकर निहायत सादगी से कहा था, ‘‘कार वॉश करायेंगी, मिस ? बस तीन डॉलर में हमारा भला हो जाएगा।’’ उसके कुरते-पाजामे के परिधान ने वर्जीनिया को प्रभावित किया था। धूप की गर्मी से रवि का गौरवर्ण ताम्रवर्णी हो गया था।

‘‘कहाँ ले जानी होगी गाड़ी ?’’ कुछ कौतुक से पूछा था वर्जीनिया ने।
‘‘बस, उस सामनेवाली बिल्डिंग के पीछे !’’ अपनी उपलब्धि पर रवि खिल उठा था।
‘‘जंप इन !’’ ट्रैफिक लाइट हरी होते ही रवि कार में बैठ चुका था। वर्जीनिया को मेपल की शीतल छाया में बिठा लड़के उसकी कार धोने में जुट गए थे। होस्टेल के पीछे वॉलीबाल ग्राउंड के निकट उन्होंने कारवॉश के लिए स्थान बना लिया था। वर्जीनिया उन परिश्रमी लड़कों को साश्चर्य देख रही थी। रवि उन सबसे अलग उसे मुग्ध कर रहा था। वर्जीनिया ने तीन की जगह पाँच डॉलर्स देने चाहे तो उन्होंने दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया था, ‘‘हमारा पारिश्रमिक बस तीन डॉलर्स है। थैंक्स मिस।’’

चलते-चलते वर्जीनिया ने रवि से पूछा था, ‘‘क्या करते हो यहाँ ?’’
‘‘फिलॉसफी में पी-एच० डी० के लिए आया हूँ।’’
‘‘ओह, तो तुम फिलॉसफर हो ! भारतीय धर्म और दर्शन को नजदीक से जानना चाहती हूँ। मदद कर सकोगे ?’’
‘आप... क्या सचमुच भारतीय धर्म-दर्शन जानना चाहती हैं ?’’ रवि विश्वास नहीं कर पा रहा था।
‘‘क्यों, इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? इंग्लिश लिटरेचर में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हूँ। टैगोर और अरविन्द मेरे फेवरिट हैं।’’
‘‘पर आपके लिए मेरे पास समय कब होगा ? देख रही हैं न, क्लासेज के बाद यहाँ कार-वॉश करके अपना खर्चा चलाता हूँ।’’ रवि मानो लज्जित-सा हो उठा था।

‘‘अगर मैं तुमसे पढ़ूँगी तो तुम्हारा पारिश्रमिक भी तो मुझे देना होगा न ! कार-वॉश के समय में मुझे पढ़ाना होगा। तुम्हारे खर्चे पूरे करना मेरी जिम्मेदारी, ठीक है न ?’’ वर्जीनिया कुछ शैतानी से मुस्कराई थी।
‘‘अपने धर्म-दर्शन का ज्ञान देने के लिए आपसे पारिश्रमिक लूँ ?’’
रवि का असमंजस देख वर्जीनिया हँस पड़ी थी, ‘‘देखो रवि, हम अमेरिकन डीलिंग्स में बहुत फ्रेंक होते हैं। तुम मेरे लिए अपना समय दोगे, उसका मूल्य चुकाना मेरा फर्ज है। प्लीज, से यस रवि !’’ वर्जीनिया का अनुरोध ऐसा था कि रवि को ‘हाँ’ करनी ही पड़ी थी।

नगर के प्रसिद्ध उद्योगपति की दुलारी बेटी थी वर्जीनिया। सौन्दर्य और बुद्धि का अद्भुत संगम था उसमें। अपने हँसमुख स्वभाव के कारण वह हर महफिल की जान हुआ करती थी। न जाने कितने भ्रमर सदृश युवा उसके आसपास घूमते थे, पर उसे तो शायद रवि की ही प्रतीक्षा थी। रवि ने मानों अपना पैतृक व्यवसाय आधुनिक परिवेश में ढाल लिया था। मन्दिर ले जाकर वर्जीनिया से कहा था, ‘‘जानता हूँ ये पत्थर की मूर्तियाँ तुम्हें निर्जीव लगेंगी, पर अगर सच्चे मन, पूरे विश्वास से इनकी ओर देखो तो ये तुमसे बोलेंगी। देखो, वहाँ भगवान राम हम दोनों को देख मुस्करा रहे हैं। सीता माँ तुम्हें आशीष दे रही हैं।’’ रवि ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर नयन बन्द कर लिये थे।

‘‘सच रवि ?’’ वर्जीनिया रवि की विश्वासपूर्ण वाणी से मानों बँधकर रह गई थी।
रवि रामायण की चौपाइयों को अपने मधुर स्वर में गाकर उनका अर्थ बताता था और मन्त्रमुग्ध वर्जीनिया की कल्पना में चित्र साकार हो उठते थे। वह चकित-सी रवि का मुख ताकती रह जाती थी।

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