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देश निकाला

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7216
आईएसबीएन :978-81-263-1764

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पुरुष वर्चस्व का व्यामोह गौतम को मलिका से विलग करता है...

Desh Nikala - A Hindi Book - by Dheerendra Asthana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

धीरेन्द्र अस्थाना का उपन्यास ‘देश निकाला’ एक ऐसे जीवन-संघर्ष का आख्यान है जिसमें सफलता और सार्थकता के बीच मारक प्रतियोगिता चल रही है। मुम्बई की फ़िल्मी दुनिया का यथार्थ शायद ही किसी अन्य रचना में ऐसी बहुव्यंजकता के साथ अभिव्यक्त हुआ होगा। गौतम सिन्हा और मल्लिका इस सपनीली दुनिया में सांस लेने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने-अपने व्यक्तित्व को परिभाषित करना चाहते हैं। पुरुष वर्चस्व का व्यामोह गौतम को मल्लिका से विलग करता है। मल्लिका प्रेम, आत्मीयता और अन्तरंग के लिए भौतिक उपलब्धियों को धूल की तरह झटक देती है। गौतम के साथ व्यतीत समर्पित अतीत बेटी चीनू के रूप में मल्लिका के साथ है–‘यह दो स्त्रियों का ऐसा अरण्य था जिसमें परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था।’ अन्तिम निष्पति में धीरेन्द्र अस्थाना ‘देश निकाला’ को स्त्री के अस्मिता-विमर्श का रूपक बना देते हैं। सिने जगत की अनेक वास्तविकताओं से यह विमर्श पुष्ट होता है, श्रेया की उपकथा ऐसी ही एक त्रासद वास्तविकता है।

धीरेन्द्र अस्थाना सम्बन्धों की सूक्ष्म पड़ताल के लिए जाने जाते हैं। यह उपन्यास पढ़कर लगता है जैसे वैभव, बाज़ार और लालसा ने रिश्तों को आत्मनिर्वासन के मोड़ पर ला खड़ा किया है। सफलता के उन्मत्त एकान्त में ठहरे गौतम के साथ से मल्लिका और चीनू अपदस्थ हैं। यह एक नयी तरह का विस्थापन है जिसे कथाकार ने अचूक भाषा और शिल्प में व्यक्त किया है। मुम्बई शहर भी इस रचना में एक चरित्र की तरह है। इस महानगर के चमकते सुख सब देखते हैं, इसके टिमटिमाते दुखों को धीरेन्द्र अस्थाना ने अपनी तरह से पहचाना है।
‘देश निकाला’ निश्चित रूप से पाठकों की संवेदना और वैचारिकी को एक नया प्रस्थान प्रदान करेगा।

सुशील सिद्धार्थ


सीढ़ियों पर सन्नाटा बैठा हुआ था। इस सन्नाटे के बीच में निःशब्द गुज़रते हुए गौतम सिन्हा अपने फ़्लैट के सामने आ गये। ताला खोलने से पहले उन्हें ध्यान आया कि घर में दूध नहीं है। वह पलट गये। अपार्टमेंट की बाउंड्री से बाहर आते ही रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए कई दुकानें थीं। जनरल स्टोर, मेडिकल स्टोर, वाइन शॉप, रेस्तराँ, नर्सिंग होम, हेयर कटिंग सैलून, मटन एंड चिकन शॉ़प, लांड्री, डेयरी, स्टेशनरी, फ़र्नीचर, इलेक्ट्रिकल्स और पेपर एंड बुक शॉप। इन दुकानों के बगल से जो गली जैसी गयी थी उस पर सब्जीवाले, मछलीवाले, पानी पूरीवाले और वड़ा पाव तथा समोसेवाले अपना ठेला लगाते थे। कहीं भी पहुँचने के लिए ऑटोवालों की कतार भी लगी रहती थी। इलाक़े का सबसे अच्छा मल्टीप्लेक्स थियेटर घर से दस मिनट पैदल की दूरी पर था, जिसमें छह स्क्रीन थे। कॉलोनी से स्टेशन के बीच दौड़ती रहने वाली बेस्ट की इक्कीस नम्बर की बस भी थी।

आज से चार साल पहले जब इन्वेस्टमेंट के लिहाज से गौतम सिन्हा ने यहाँ फ्लैट बुक कराया था तो मल्लिका ने कहा था–‘तुम पागल हो गये हो। एक तो मीरा रोड, ऊपर से यह जंगल। यहाँ अगले दस साल में भी बसाहट हो पाएगी, मुझे शक है। पाँच लाख रुपये तुम पानी में फेंक रहे हो। मेहनत का पैसा है। माना कि यह पैसा तुम्हारी पर्फामेंस से आया है लेकिन इसे बरबाद तो मत करो।’
गौतम सिन्हा अपने विशिष्ट अन्दाज में मन्द-मन्द मुस्कराये थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले थे–‘तुम आने वाले समय और मीरा रोड दोनों को अंडर एस्टीमेट कर रही हो मल्लिका। तुम इस जंगल को अपनी आँखों से गुलज़ार होते हुए देखोगी। दूसरी बात, यह फ्लैट मैं भले ही इन्वेस्टमेंट के लिए ले रहा हूँ लेकिन मेरी छठी इन्द्रिय कहती है कि एक दिन यही फ़्लैट मुझे शरण देगा।’

‘पता नहीं क्यों मैं तुम्हें सलाह देने से बाज़ नहीं आती। जानते हुए भी कि करोगे तुम अपनी मर्ज़ी की ही।’ मल्लिका बिफर गयी थी और किचन में चली गयी थी।
यह आती हुई रात का समय था। मल्लिका के साथ गौतम कांदिवली (पश्चिम) के चारकोप इलाके में टू बेड रूम हॉल के एक फ्लैंट में रहते थे। एस फ़्लैट में मल्लिका की कमाई का पैसा लगा था। फ़्लैट भी मल्लिका के ही नाम पर था। दोनों कुछ ही देर पहले मीरा रोड में फ़्लैट बुक करवाकर लौटे थे। फ़्लैट गौतम सिन्हा के नाम से बुका किया गया था। हालाँकि लौटते हुए उन्हें बहुत दिक़्क़त हुई थी। पहले ऑटो पकड़कर मेंन रोड पर आना पड़ा था। वहाँ से दहिसर चेक नाका का ऑटो लेना पड़ा था। फिर उतर कर कुछ देर पैदल चलना पड़ा था और मुम्बई की सीमा में पहुँच कर चारकोप के लिए दूसरा ऑटो लेना पड़ा था। गौतम भविष्य में खडे थे जहाँ से अपना वर्तमान उन्हें अतीत में जाता दिख रहा था।

केवल चार वर्ष में क्या-क्या बदल गया। मल्लिका चारकोप में छूट गयी ।गौतम मीरा रोड के इस फ़्लैट में आ गिरे। मल्लिका एक्टिंग छोड़कर क़ॉलेज लेक्चरर में बदल गयी। गौतम निर्देशन और अभिनय छोड़ कर स्क्रीन प्ले राइटर बन गये। मंच पर मिले थे। मंच पर जिये थे। नेपथ्य में फिसल गये।
गौतम सिन्हा ने नागोरी डेयरी से एक पैकेट दूध, दो सौ ग्राम पनीर लिया। जनरल स्टोर से एक बॉटल सोडा लिया। सब्जी वाले से कुछ टमाटर, थोड़े प्याज और एक मूली खरीदी। फिर वह वाइन शॉप पहुँचे और उन्होंने एक बॉटल बैंगपाइपर खरीदी। सब कुछ एक बड़े प्लास्टिक बैग में रखकर वह फ़्लैट की तरफ लौटे।

रात आ रही थी। इस आती हुई रात में वह एकदम अकेले थे। एक समय था जब हर रात वह मंच पर होते थे। किसी नाटक के केन्द्रीय पात्र बने हुए। कोई प्रभावशाली डायलॉग बोलते हुए। शो ख़त्म होने के बाद ग्रीन रूम में दर्शकों की प्रशंसा बटोरते हुए। अगली किसी रात में खेले जाने वाले नये नाटक के डायलॉग याद करते हुए।
सलाद, ड्रिंक, पनीर के टुकड़े सोड़ा-पानी की बॉटल लेकर गौतम सिन्हा किचन से निकल कर हॉल में आ गये। सारा सामान मेज़ पर रखकर उन्होंने पंखा चलाया और सोफ़े पर बैठे गये। सोफ़े के ठीक सामने वाली दीवार पर उनकी और मल्लिका की संयुक्त फोटो लगी थी। इस फोटो को वह यहाँ शिफ्ट करते समय जबरन अपने साथ ले आये थे। इसलिए नहीं कि इकतालीस साल की उम्र में वह मल्लिका को लेकर बहुत भावुक हो रहे थे। बल्कि इसलिए कि अतीत की तरफ़ जाने के लिए कोई ठोस स्मृति तो हो। यहाँ शिफ्ट हुए उन्हें अभी सिर्फ़ एक महीना ही हुआ था। महीने भर में उन्होंने फ़्लैट को रहने लायक बना डाला था। इस फ़्लैट का एकान्त उन्हें बहुत भाता था। यहाँ लोग उन्हें जानते नहीं थे। यहाँ अपना काम करने में उन्हें बहुत आनन्द मिलता था।

इन दिनों वह एक बड़े बजट की फ़िल्म के डायलॉग लिख रहे थे। कम्प्यूटर और लैपटॉप के इस जमाने में भी वह मेज पर बैठकर काग़ज़ पर बॉलपेन से लिखते थे। तीन ड्रिंक ख़त्म करने के बाद उन्होंने किचन में आकर सारा सामान रखा और फ्रिज से निकाल कर सुबह का पुलाव गर्म करने लगे। खाना खाकर वह देर रात तक फ़िल्म पर बैठने वाले थे। लेकिन बेडरूम में रखी अपनी मेज पर पहुँच कर जब उन्होंने सिगरेट जलायी तो सहसा एक तेज रुलाई को अपने भीतर कहीं दूर मचलता पाया। क्या वह कमजोर पड़ रहे हैं, उन्होंने सोचा। मल्लिका से अलग रहने का चुनाव तो उनका अपना था। आज तक हर मामले में चुनाव ख़ुद ही किया है। तो फिर ?

अपनी अटैची लेकर जब वह चारकोप वाले फ़्लैट से निकल रहे थे तो मल्लिका ने कहा था–‘मैं जानती हूँ तुम्हें ख़ुद को शहीद कहलाना अच्छा लगता है। यह भी जानती हूँ कि मेरे साथ रहकर तुम अपनी शर्तो पर नहीं जी पा रहे हो। मंच पर नये लोग आ गये हैं, यह कसक भी तुम्हारे दिल में है। लेकिन इसमें परेशान होने की क्या बात है। मैं तो पूरी मंच को छोड़ चुकी हूँ। तुम चाहो तो इसी माध्यम में बने रहकर अपना रास्ता बदल सकते हो। ज़िन्दगी भर डायलॉग बोलते रहे हो। पटकथाएँ जीते रहे हो। अब पटकथाएँ और डायलॉग लिखना शुरू कर दो। लेकिन इस घर में अब रिहर्सलें नहीं होंगी, दारू पार्टियाँ नहीं चलेंगी। मुझे ट्यूशन पढ़ाने के लिए सुबह छह बजे उठना पड़ता है रात आठ बजे तक तीन शिफ्टों में चौबीस बच्चे पढ़ाती हूँ मैं। उसी से यह घर चलता है।’

‘तो ?’ पूछा था गौतम सिन्हा ने।
‘इतने मासूम भी नहीं हो कि मेरे आशय न पकड़ सको।’ मल्लिका ने कहा था। ‘मतलब, तुम ट्यूशन पढ़ाती रहो और मैं एक सद्गृहस्थ की तरह बाजार से सब्जियाँ वगैरह लाता रहूँ, बर्तन-भाँडे सजाता रहूँ और चिकन-मटन पकाता रहूँ।’ गौतम सिन्हा चिढ़ गये।

‘अब तुम हालात को बिगाड़ रहे हो और मामले को सरलीकृत कर रहे हो।’ मल्लिका बोली थी, ‘चिकन-मटन पकाना तुम्हारा शौक रहा है। लेकिन तुम इस बात को लगातार नज़रअन्दाजज कर रहे हो कि सिर्फ़ मेरे टयूशनों से तुम्हारी देर रात वाली पार्टियाँ नहीं चल सकतीं। तुम चाहो तो हम साथ रह सकते हैं मुझे तुमसे कोई परेशानी नहीं हैं लेकिन यह सच तुम्हें बर्दाश्त करना ही पड़ेगा कि अब तुम मंच पर नहीं हो लेकिन ज़िन्दगी में हो।’

एक पल को ठिठक गए थे गौतम सिन्हा फिर धीरे से ‘बाय’ बोल कर ऑटो में बैठ गये थे। सच्चाई के कितने सारे आईने दिखा दिये थे मल्लिका ने। इसका अन्दाज़ उन्हें तब हुआ जब वह मीरा रोड के अपने फ़्लैट में आकर रहने लगे। देर रात तक चलने वाली पार्टियाँ ख़ुद ब ख़ुद बन्द हो गयीं। शहर में रातों रात ख़बर फैल गयी थी की मल्लिका ने गौतम सिन्हा को अपने घर से निकाल दिया है।

गौतम सिन्हा लाइट बन्द करके बिस्तर पर पसर गये। आज रात संवाद नहीं लिखे जा सकेंगे। रात के अँधेरे में उनके दुख आदमक़द होने लगे थे। मल्लिका के आरोप उन्हें अपनी ज़द में ले रहे थे। बहुत व्यथित होने पर मल्लिका कहने लगती थी–‘लॉर्जर दैन लाइफ सिनेमा का सच हो सकता है, जीवन का नहीं। जीवन में छोटे-छोटे दुख भी होते हैं जिन्हें कोई पत्नी अपने पति के साथ शेयर करना चाहती है। तुम कैसे निर्देशक हो जो अपनी पत्नी के दुखों को शेयर करना तो दूर उनसे परिचित तक होना नहीं चाहते ?’
नहीं, गौतम सिन्हा को आज रात नींद नहीं आएगी। नींद में बेआवाज़ चले आने वाले दुःस्वप्नों के साथ वह अपने अतीत का सामंजस्य नहीं बिठा पाते। ये दुःस्वप्न उनके वर्तमान को निरीह और उजाड़ घोषित करते हैं।

गोवा में अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में कोरिया की एक प्रसिद्ध फ़िल्म देखने के बाद गौतम सिन्हा थियेटर से बाहर निकलकर मल्लिका के साथ बीयर के एक स्टॉल पर आकर बैठ ही थे कि उन्होंने मीडियाकर्मियों के हुजूम को अपने-अपने कैमरों के साथ नये ज़माने के एक युवा फ़िल्म अभिनेता को घेरते देखा। कोई दुःख उनकी चेतना पर उतरा। कोई सन्नाटा उनके कान में गुनगुनाया। कोई भविष्य उनकी आँख में कौंधा। वह बुदबुदाये–‘हम थियेटर के बजाय सिनेमा में होते तो ?’
‘तब भी हम नियति को परास्त नहीं कर सकते थे।’ मल्लिका ने जवाब दिया था। वह तमाम तरह के विचलनों के पार चली गयी थी। हक़ीक़त यह थी कि थियेटर की एकरस और सीमित दुनिया में कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटते-काटते वह निढाल हो गयी थी, बेजार हो गयी थी। उँगलियों से लगातार फिसलती उम्र को लेकर भी उसके दिल में अन्धड़ उठा करते थे। थियेटर पैसा भी नहीं दे पा रहा था। थियेटर को लेकर गौतम का आरम्भिक जुनून जो उसे गौतम के प्रति आसक्त करता था, अब त्रास देने लगा था। वह चाहती थी कि गौतम सिनेमा की दुनिया में उतर जाएँ लेकिन इस मुद्दे पर गौतम हमेशा रुक्ष और क्रुद्ध हो जाते थे आखि़र मल्लिका ने इस विषय पर गौतम से उलझना छो़ड़ दिया और स्वयं धीरे-धीरे थियेटर से किनारा करने के प्रयत्नों में जुट गयी। गौतम को इसका भान तब जाकर हुआ जब मल्लिका ने एक के बाद एक उनके द्वारा निर्देशित दो नाटकों में रोल करने से मना कर दिया। मल्लिका के इस इनकार से गौतम स्तब्ध थे लेकिन तब भी वह यह नहीं भाँप पाये कि अपने इनकार से मल्लिका अपने भीतर की कोई वेदना मुखर करना चाहती है। मल्लिका की वेदना को अनसुना कर उन्होंने दोनों नाटकों का मंचन एक नयी हीरोइन के साथ कर दिया था। क्योंकि गौतम रुकना नहीं जानते थे। उनके शब्दकोश में निरन्तर चलना ही अन्तिम सत्य था। वह किसी के लिए भी रुक नहीं सकते थे। और यही मल्लिका का सबसे बड़ा दुख था कि उसका अपना होना भी गौतम की दुनिया में ‘किसी’ से अधिक या विशेष नहीं है। तो फिर वही क्यों रुकी रहे ? वह सोचा करती थी।

गौतम सिन्हा के मीरा रोड वाले फ़्लैट के हॉल में जड़ी दीवार घड़ी ग्यारह घंटे बजाकर चुप हो गयी। इन घंटों को उन्होंने अनसुना कर दिया। सब कुछ को अनसुना करने की आदत ही तो आज उन्हें इस मोड़ पर लेकर आ गयी है। उन्हें लगता था कि उन्हें किसी को नहीं सुनना है क्योंकि वह तो केवल सुनाने के लिए ही पैदा हुए हैं। बहुत मोहासक्त थे वह स्वयं को लेकर।

वह थियेटर के सुपर स्टार थे। पृथ्वी थियेटर में जब उनका नाटक खेला जाता था तो शाम छह और रात नौ वाले दोनों शो लगभग हाउसफुल रहते थे। लेकिन गोवा के फ़िल्म समारोह में उन्हें अपरिचय के जिस विन्ध्याचल से टकराना पडा, वह उनके तईं दुखद था। दुसरी फ़िल्म शुरू होने में एक घंटे का समय था और यह समय वह बीयर पीते हुए बिता रहे थे। दर्शक उनके सामने थे, पीछे थे, आगे थे बगल में थे लेकिन कोई भी उन्हें पहचान नहीं रहा था। गोवा प्रवास ने उन्हें व्यर्थताबोध पकड़ा दिया था। मल्लिका पूरा फ़ेस्टिवल देखना चाहती थी लेकिन वह चौथे दिन ही वहाँ से लौट आये थे। मजबूरी में मल्लिका को भी साथ आना पड़ा था। बाद में इस मुद्दे को लेकर दोनों के बीच शीतयुद्ध जैसी स्थिति तनी रही थी। मल्लिका उन्हें समझा नहीं पा रही थी कि थियेटर और सिनेमा दो अलग-माध्यम हैं जबकि वह इस ज़िद पर अड़े थे कि थियेटर का अभिनेता सिनेमा के अभिनेता से ज़्यादा प्रभावशाली और असरकारी होता है, होना भी चाहिए।

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